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६ जगति विषयमें-प्रासादकी सीमा मर्यादा-शिल्पियों उसका सामान्य अर्थ दुर्ग भी मानते हैं। लेकिन प्रासादकी चारों और देवकुलिकाओं सहस्त्रलिंगकी या जिनायतनकी या ६४ देव्यायतनकी या पंचायतन जहाँ हो वहाँ विशाल जगती विस्तारसे करनी होती है । जगतीका प्रासादकी भूमिमर्यादा मानकर सामान्य ओटा-जगती ऊँची कर उस पर भीट पीठका प्रारंभ होता है। परन्तु स्थान मान और शहरमें भूमि संकोचके कारण वैसे प्रकारकी जगती न हो तो वह दोष नहीं है । या तो विशाल भूमि पर मध्यमें प्रासादका निर्माण किया जाता है । वहाँ उसकी विशालताको ही जगती माननेका कारण है।
७. मीट-पर पीठके विषयमें प्रासादके प्रमाणसे महापीठ या कामदपीठ शास्त्रमान प्रमाणित बनाना कहा है । परंतु स्थानमान और की बार द्रव्यानुसारके हेतुका आश्रय जानकर पीठ प्रमाणसे कम करने का कहा है । तब कभी शिल्पिओं गहरे अभ्यासके अभावसे विरोध करते हैं । परन्तु कहे हुओ मानसे पीठ कम करनेके प्रमाण दीपार्णव-क्षीरार्णव और ज्ञान रत्न कोषादि ' ग्रंथों में स्पष्ट दिया है ।
अर्ध भागे त्रिभागेवा पीठं चैव नियोजयेत् ।
स्थानमानाश्रयं ज्ञात्वा तत्र दोषो न विद्यते ।। कहे हुअ मानसे आधा या तीसरे भाग उदय प्रमाण पीठ करने में दोष नहीं जानना । मुख्य मंदिरका महापीठ या कामदपीठ और फिरती देवकुलिकाओंको २०८ शिवायतन, ६४ शकत्याय २४ विष्णायतन् या २४-५२-७२--८४ या १०८ जिनायत नोंको कर्णपीठ कम करनेमें दोप नहीं है।
८ प्रासाद-उदयमानके विषयमें शिल्पीवर्गमें सोलहवीं सदी के बादके मंदिरों में कुछ छूट लेकर उदयमान अधिक करने लगे । क्योंकि पंद्रहवीं सदीके बाद स्तंभके अंतरके बीच कमानों बनानेकी प्रथा शुरु हुई । अिससे द्वारकी शाखाके समसूत्र में स्तंभको रखते थे। ऐसे रखकर पद (दो स्तंभोके बीचका अंतर) के अर्ध भागके बराबर उदय-उभणी कमानके कारण ठेकीको चढ़ाकर रखते हैं। अिससे उदयमान बढ़ जाता है। परंतु अिस विषयमें शिल्पियोंमें वादविवाद नहीं है। असे समयमें स्तंभको कितना ऊँचा गिना जाये यह प्रश्न उपस्थित होता है । वस्तुतः भरणेके तल पर्यंतका स्तंभ गिना जाय, कभ उदय-उभणीमें कमान करने जाते तब द्वार वाढसे स्तंभको छोटा कर उस पर काठासरां चडाके कमान करते हैं। तब उसे 'पाय चागलका दोष अज्ञानतासे कहते हैं। कमान शिल्पमें कहाँ कही गई है ? तब वह 'पायचा' शब्द शिल्पग्रंथों में कहाँसे निकाला ? असे