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गोल या अष्टान शिखर (गुंबज) हो तो कोने पर वृषभ, सिंह या गरूडके बड़े स्वरूप रखते हैं। अगर कर्णकूट रखते हैं।
४. श्रीवा-वरंडिका कपोत पर सादी जंघाके जैसे भागको ग्रीवा कहते हैं । (उसके कोने में वृषादि और मध्यमें दो स्तंभों को ग्रीवाकोष्ट-गोखमें देवस्वरूप करते हैं। उसके उपर महानासी (चैत्य-झूल), महानासी की मंचपर ढेरके रूपमें सिंहवक्त (ग्रास मुखके समान) किया जाता है। गर्भके दो महानासी के मध्यमें कोने पर पार्श्वनासिक भी कई लोग करते हैं। महानासीका अपर नाम भद्रनासी भी है। कई स्थलों पर ग्रीवाके थरमें स्तंभो करने के अलावा वहाँ दो देव रूप या ऋषिमुनिके बैठे रूप भी करते हैं। परन्तु उनका पट महानासी से अलंकृत करते हैं। कोई उस रूपके स्थानपर शाला (सादा भद्र) भी करते हैं । उपर महानासी तो कोई भी प्रकार में होता ही है । ग्रीवाके उपर निकलता हुआ हंसवाजनका फिरता थर करके उसके पर दूसरा छाटवाला उससे निकलता हुआ थर किया जाता है। उसके पर शिखर होता है।
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प्रीवाके पर हंसवाजन या दूसरे थरके स्थानपर दंडछाद्य जैसा छज्जा निकालकर उसके पर भी शिखर (गुंबज जैसा) होता है। प्रीवा स्तूपिका के मध्यके गुंबज जैसे शिखरका षड्वर्गमें स्थान नहीं है।
५. चूलिका-शिखर अर्द्ध भागमें (नागर छन्दके चंद्रसरूप) पद्मपत्रिकाअथवा कर्परी पत्र रूप विस्तृत होता है।
.: ६. स्तूपिका-चूलिकाके पर द्रविड शिखरका सर्वोपरि स्तूपिका नागर छन्दके कलंशरूप होता है।
... अपराजितकारने द्रविड प्रासादके पाँच भेद कहे हैं। १ स्वस्तिक, २ सर्वतोभद्र
३ वर्धमान, ४ सूत्रपद्मा, ५ महापद्मा इन पाँचोंके क्रमसे एक एकके सौ दोसौ, तीनसौ, चारसौ और पाँचसौ इस तरह कुल पन्द्रहसौ भेद किये हैं। परन्तु उसका स्पष्टीकरण दिया नहीं है। अपराजितकार द्रविड छंदके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पीठके उपर कर्णरेखा की भूमिका क्रमसे करना । उसकी विभक्ति दल-लताश्रृंगों के क्रमसे उत्पन्न होती है। मेष, मकर कूटादि कंटकोंसे आवृत्त वेदी घंटा नासिकादि से शोभता हुआ द्रविड छंदका प्रासाद समझना ।