Book Title: Bruhatkalp Sutram Pithika Part 01
Author(s): Sheelchandrasuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Prakrit Granth Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् // श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुस्वामिविरचितं स्वोपज्ञनिथुक्तिसमेतं श्रीगडदासगणिक्षमाश्रमणविरचितलघुभाव्यसहित / __ अज्ञातकर्तृकचूर्णिसमन्वितं बृहत्कल्पसूत्रम् // [ पीठिकाः भाग-१] . सम्पादक. विजयशीलचन्द्रसूरिः रूपेन्द्रकमार पगारिया * प्रकाशिका. प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद ई० 2008, वि० सं० 2064 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् // श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुस्वामिविरचितं स्वोपज्ञनियुक्तिसमेतं श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणविरचितलघुभाष्यसहितं अज्ञातकर्तृकचूर्णिसमन्वितं बृहत्कल्पसूत्रम् // [पीठिकाः भाग-१] * सम्पादक विजयशीलचन्द्रसूरिः रूपेन्द्रकुमार पगारिया * प्रकाशिका. प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद ई० 2008, वि० सं० 2064 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् (पीठिकात्मकः प्रथमो विभागः)। (नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि समेतम्) // सम्पादक:- विजयशीलचन्द्रसूरिः, रूपेन्द्रकुमार पगारिया प्रकाशकः- प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद Prakrit Text Society. वीर नि० सं० 2534 ई० स० 2008, वि. सं. 2064 (c) सर्वाधिकार सुरक्षित प्रतयः 500 प्राप्तिस्थानः - 1. आ० श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी जैन स्वाध्यायमन्दिर 12, भगतबाग, जैननगर, नया शारदामन्दिर रोड, पालडी, अहमदाबाद - 380007 फोन : 26622465 सरस्वती पुस्तक भण्डार 112, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ फोन : 25356692 2. मूल्य : रु. 225-00 अक्षरांकन : विरति ग्राफिक्स, अहमदाबाद फोन : 079-22684032 मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टिंग प्रेस, अहमदाबाद मो. 9825598855 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -समर्पणम् . सुयसीलवारिही जो जिणागमाणं पहाकरो चावि / सुग्गहियनामधेओ आसी मुणिपुण्णविजयबुहो // 1 // जेणऽज्जत्ताए खलु जिणागमप्पमुहसत्थनिवहस्स / संसोहणप्पवित्ती पवत्तिया समणसंघम्मि // 2 // कप्पसुयं वित्तिजुयं जेणेव विसोहिऊण संघस्स / ठवियं करकमलेसुं पुत्थयसंपुडसरूवेण // 3 // तस्सेव पुण्णचरणे चुण्णिजुयस्सऽज्ज कप्पसुत्तस्स / पढम पेढियभागं सहबहुमाणं समप्पेमो // 4 // - विजयशीलचन्द्रसूरिः - रूपेन्द्रकुमार पगारिया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The Prakrit Text Society has great pleasure in offering to the world of Prakrit scholars the hitherto unpublished curni-type commentary on BphatKalpasutra which is an important chedasutra work dealing with rules and regulations governing the conduct of Jaina monks and nuns, restrictions pertaining to their food, apparatuses, halting places etc., atonements prescribed for their transgressions, austerities, exceptions to the general rules, and the like. Curni is a type of commentary written in Prakrit prose. The present curni seems to follow the Laghubhasya on Bshat-Kalpasutra. In it at places we find philosophical discussions also. It is rich in cultural data. Its main subiect is Jain monasticism. It mentions the works like Tattvarthadhigamasutra, Visesavasyakabhasya, Karmapraksti, Mahakalpa and Govindaniryukti. It does not give even the name of its author anywhere, neither in the beginning nor at the end. The Difficult text of the present curni is edited by Rev. Acarya Vijaya Shilachandrasuri in collaboration with Pt. Rupendrakumar Pagariya. They have accomplished a commendable and challenging task. They have spared no pains to make the text as flawless as possible. The Prakrit Text Society is grateful to them for editing this invaluable text. This work of theirs is indeed their notworthy contribution to the Prakrit learning and research. It is hoped that the publication of this important work will be of great value and interest to the students and scholars of Prakrit and Jainism. Prakrit Text Society Shree Vijay-Nemisurishvarji Jain Swadhyaya Mandir 12, Bhagatbaug Society, Sharada Mandir Road, Paldi, Ahmedabad-380007 15 August 2008 Nagin J. Shah President Prakrit Text Society Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक छेट-सूत्र-आगम एवं बृहत्कल्पसूत्र भारतीय संस्कृति की दो मुख्य धाराएँ हैं-एक श्रमण संस्कृति और दूसरी ब्राह्मण संस्कृति / ब्राह्मण संस्कृति गृहस्थाश्रम को विशेष महत्त्व देती है। उसीको ज्येष्ठ श्रेष्ठ मानकर उसकी गुण गाथा के गीत गाती हैं / जबकी श्रमण संस्कृति ने श्रमण जीवन को ही अधिकतम महत्त्व दिया है / उसे ही सर्वश्रेष्ठ माना है / यद्यपि जैन धर्म में दो मार्गों का सूचन भी हुआ है / एक अगार धर्म-गृहस्थधर्म और दूसरा अणगार धर्म यानी श्रमणधर्म / अगारधर्म का सन्निष्ठ भाव से पालन करनेवाला गृहस्थ अधिक से अधिक देव की उच्च गति को ही प्राप्त कर सकता है, किन्तु सर्व कर्म विमुक्त होकर मोक्ष को नहीं / जबकि श्रमण अपनी उच्चतम साधना द्वारा सर्व कर्मविमुक्ति रूप मुक्ति को = मोक्ष को प्राप्त कर सकता है / यद्यपि मुक्ति तक पहुँचानेवाला श्रमणाचार अत्यधिक कठोर है दुष्कर है। इस दुष्कर पथ के पथिक श्रमणों का आध्यात्मिक विकासक्रम में छठा स्थान है। इस छठे स्थान से यदि वह ऊर्ध्वमुखी विकास करता रहे तो अन्तमें चौदहवें गुणस्थान की भव्य भूमिका में पहुँच कर विमुक्त हो जाता है / जैन धर्म आचार प्रधान धर्म है। आचार प्रधान जिन प्रवचन के प्रवक्ता आप्त-वीतराग पुरुष माने गये हैं / उनके द्वारा निरूपित आगम वर्तमान काल में 45 विभागों में विभक्त हैं। आचारांगादि ग्यारह अंग, औपपातिक आदि बारह उपांग, आतुरप्रत्याख्यानादि दस प्रकीर्णक, आवश्यकादि छह मूल सूत्र, एवं निशीथ आदि छह छेद सूत्र / कुल 45 आगम है / इन आगमों में संख्याविषयक मतभेद अवश्य है किन्तु ये सभी आगम ज्ञान के अक्षय कोष है / महासागर के समान गहन है। इनमें केवल अध्यात्म और वैराग्य का ही उपदेश नहीं है किन्तु धर्म, दर्शन, नीति, संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, खगोल, गणित, आत्मा, कर्म, लेश्या, इतिहास, संगीत, आयुर्वेद, नाटक आदि आदि जीवन के हर पहलू को छूने वाले विचार यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। इन आगमों में छेद सूत्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये जैन श्रमणाचार का विश्लेषण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेवाले प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं / इन छेद सूत्रों में श्रमण जीवन की विविध चर्याएँ, आचार संहिताएँ तथा समय समय पर उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का विधान है। भाष्यकार ने छेद सूत्र को उत्तम श्रुत कहा है। क्योंकि इसमें दोषी श्रमण के लिए प्रायश्चित्त की विधि बताई है। प्रायश्चित्त ग्रहण करने से ही चारित्र की विशुद्धि होती है अतः यह सूत्र उत्तम श्रुत है। साथ ही छेद सूत्र रहस्य सूत्र भी है / बृहत्कल्प-चूर्णिकार कहते हैं छेद सूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्यों को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं / अपरिणामक (अयोग्य-अपक्व) आदि शिष्यों को छेद सूत्र की वाचना देने से वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में पानी या आम्लरसयुक्त घड़ें में दूध नष्ट हो जाता है। अगीतार्थबहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त अभिशय्या या नैषेधिकी में ही दी जाती है। क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाए / छेद सूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं / उनको ही आलोचना देने का अधिकार है / जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को जानता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। इससे स्पष्ट है कि मुनि जीवन में छेद सूत्र का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि ये छेदसूत्र पूर्वो से निर्दृढ हुए हैं। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन चार छेद सूत्रों का निर्वृहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार वस्तु से हुआ है ऐसा उल्लेख नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णि में मिलता है / दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्वृहण श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ने किया ऐसा कई स्थानों पर निर्दिष्ट है / इस दृष्टि से बृहत्कल्प सूत्र का छेद सूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान रहा है / बृहत्कल्पसूत्र : अन्य छेद सूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचार विषयक विधि-निषेधउत्सर्ग, अपवाद, तप, प्रायश्चित्त आदि विषयक विस्तृत विवेचना है। इसमें छ उद्देशक हैं, 81 अधिकार है और 206 सूत्र संख्या है / प्रथम उद्देशक में 50 सूत्र है / पहले के पाँच सूत्र तालप्रलम्ब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल-प्रलम्ब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व ताल-फल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित पक्व ताल प्रलम्ब लेना कल्प्य है, ऐसा कथन किया गया है / ग्राम, नगर, खेट, कर्बटक, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन और संकर आदि स्थानों का व्याख्या सहित वर्णन मिलता है / बड़े और एक दरवाजे वाले ग्राम नगर आदि में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है / जिस स्थान के आसपास में दुकानें हो या बड़े भीडवाले मार्ग हो वहाँ श्रमणियों को रहना योग्य नहीं / द्वार रहित स्थान में चिलिमिलिका-चिलमन-पर्दा लगाकर रहने का विधान है। नदी के किनारे या चित्रयुक्त उपाश्रय में साधु साध्वी को रहने का निषेध है इत्यादि / दूसरे उद्देश में कहा गया है कि जिस स्थान में शालि ब्रीहि मूंग आदि धान्य बिखरे पड़े हो अथवा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरा आदि के घड़े हो, अग्नि या जल युक्त स्थान हो दीपक का प्रकाश हो, पिण्ड खीर दही आदि बिखरे पड़े हो वहाँ श्रमण श्रमणियों को नहीं रहना चाहिए / सार्वजनिक स्थान आगमनगृह, खुले घर वंशीमूल-घर के बाहर चौतरा, वृक्ष के नीचे साध्वी को रहना अकल्प्य है। पाँच प्रकार के वस्त्र तथा रजोहरण रखने का विधान है। तीसरे उद्देशक मे श्रमण श्रमणियों को एक दूसरे के उपाश्रय में रहने का निषेध है / रोग आदि विकट अवस्था में चर्मग्रहण करने का विधान है। कृत्स्न और अकृत्स्न वस्त्र ग्रहण करने की विधि बताई गई है इत्यादि / चौथे उद्देशक में प्रायश्चित्त और आचार विधि का उल्लेख है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के विशिष्ट नियम बताए गये हैं / रात्रिभोजन सेवन करनेवाले को अनुद्घातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। पारंचिक और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य स्थान बताये गये हैं। एक गण से दूसरे गण में जाने की विधि और निषेध के प्रायश्चित्त बताये गये हैं / झगड़े को आपस में सुलझाने तथा कालगत साधु के विसर्जन की विधि तथा वर्षाकाल में किस प्रकार का उपाश्रय होना चाहिए आदि का वर्णन है। पाँचवें उद्देश में सूर्योदय के पूर्व और सूर्योदय के पश्चात् भोजन पान सम्बन्धी नियम, निर्ग्रन्थिनी को अकेले जाने का निषेध, रात्रि या विकाल में पशु पक्षियों के स्पर्श का निषेध, निर्ग्रन्थिनी को वस्त्र और पात्र रहित रहने का निषेध इत्यादि / छठे उद्देश में साधु साध्वियों को दुर्वचन बोलने का निषेध, संकट ग्रस्त निर्ग्रन्थिनी को किस प्रकार की सहायता की जा सकती है उसकी विधि, तथा छह प्रकार के कल्प का विचार किया गया है। इन्हीं छह उद्देशों की स्पष्टता के लिए श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ने कुछ नियुक्ति गाथाओं की भी रचना की है। भाष्यकारों ने छहों उद्देशों में आनेवाले आचार विषयक उत्सर्ग और अपवाद विषयक विस्तृत चर्चा भी की है। इस प्रकार मूल सूत्र में संयमी जीवन का व उनके द्वारा पालन करने के नियमों का विस्तृत आलेखन किया / मूल सूत्र में उल्लखित नियमों की भाष्यकार ने विस्तृत चर्चा की है। बृहत्कल्प लघुभाष्य : बृहत्कल्प लघुभाष्य के कर्ता आचार्य श्रीसंघदासगणी क्षमाश्रमण थे / आचार्य संघदास गणी कौन थे ? कब हुए ? इस विषयक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किन्तु यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि संघदास गणी क्षमाश्रमण जैन आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे / छेद सूत्रों के अध्येता और अनुसंधाता थे / बृहत्कल्प-लघुभाष्य तथा पंचकल्पभाष्य संघदासगणी की बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया है / लघुभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है / Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुभाष्य में कई नियुक्ति गाथाएँ मिल गई है, अतः लघुभाष्य में कितनी गाथाएँ नियुक्ति की है इसका पृथक्करण असम्भव है / वृत्तिकार, चूर्णिकार तथा विशेषचूर्णिकार ने कहीं कहीं 'एसा चिरंतनगाहा,' 'एसा पोराणिका गाहा,' सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिगाथा' कहकर नियुक्ति गाथा का उल्लेख किया है। बृहत्कल्पचूर्णि : जैन संस्कृति में साधना का स्थान सर्वोच्च है। श्रमण साधना के प्रतिपादक छेदसूत्र एवं उन पर के व्याख्यासाहित्य का प्रत्येक पृष्ठ साधना के उज्ज्वल-समुज्वल आलोक से आलोकित है। साधक अपने जीवन को त्याग, तप, स्वाध्याय और ध्यान रूप सरिता के निर्मल जल से आत्मा को विशुद्ध कर भव सागर को पार करता है। जैन साधना के दो पथ है। एक उत्सर्ग और दूसरा अपवाद / उत्सर्ग शब्द का अर्थ है मुख्य और अपवाद शब्द का अर्थ है गौण। उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, शुद्धि और अभिवृद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान और अपवाद का अर्थ है आन्तरिक जीवन की रक्षा के लिए उसकी शुद्धि-वृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान / उत्सर्ग और अपवाद दोनों का एक ही लक्ष्य है संयम की विशुद्धि / एकान्त उत्सर्ग मार्ग का विधान या अपवाद मार्ग का विधान कभी कभी संयमी के लिए घातक भी हो सकते हैं अतः ये सापेक्ष हैं / मानव की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता को ध्यान में रखकर ही गीतार्थ आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण किया है / बृहत्कल्पचूर्णिकार कहते हैं-'समर्थ साधक-सहिष्णु के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया है, असमर्थ-असहिष्णु साधक लिए अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण वश वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है।' जो बातें उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध की गई है वे सभी बातें कारण के उपस्थित होने पर कल्पनीय व ग्राह्य भी हो जाती है / क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक ही रहा है। वे एक दूसरे के पूरक हैं / जो साधक बिना कारण ही उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर अपवाद मार्ग को अपनाता है वह आराधक नहीं अपितु विराधक माना जाता है। बृहत्कल्प चूर्णि मूलसूत्र और उस पर लिखे हुए लघु भाष्य पर लिखी गई संक्षिप्त व्याख्या है / इस चूणि का प्रारम्भिक अंश दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णी से बहुत कुछ मिलता है / सम्भवतः दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी बृहत्कल्प चूर्णी के पूर्व लिखी गई है और दोनों एक ही आचार्य की रचना है ऐसा लगता है। इस चूर्णि के रचनाकार कौन थे इस विषयक जानकारी हमें प्राप्त नहीं / क्योंकि बृहत्कल्प चूर्णि में कही भी कर्ता ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है / रचना समय भी नहीं मिलता / 1. उस्सग्गेण णिसिद्धाइं जाइँ दव्वाइँ संथरे मुणिणो / कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति // बृ०क०भा० 3327 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पवृत्ति के कर्ता आचार्य मलयगिरि का समय १३वीं सदी माना गया है / उन्होंने बृहत्कल्प वृत्ति में अनेक स्थलों पर चूर्णि के पाठों का उपयोग किया है और कई जगह चूर्णि के अनुसार शब्द की व्याख्या भी की है। इसके अतिरिक्त पाटण नरेश कुमारपाल के समय संवत् 1218 में लिखी हुई बृहत्कल्पचूणि की प्रत भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट में है / अतः यह स्पष्ट है कि बारहवीं सदी से पूर्व किसी समय इसकी रचना हुई है। विशेषचूर्णि : इसके रचयिता भी अज्ञात है। विशेषचूर्णिकार शब्दश: चूर्णि का ही अनुसरण करते हैं। कहीं कहीं चूर्णि में जो अस्पष्ट है उसे उन्होंने स्पष्ट किया है। इससे स्पष्ट है कि चूर्णि के पश्चात् ही विशेष चूणि का निर्माण हुआ है / यह विशेषचूर्णि भी अपूर्ण है। विशेष चूर्णिकार बृहत्कल्पसूत्र के. मासकल्प से एवं भाष्यगाथा 1086 से-से गामंसि वा नगरंसि वा...(१-६) सूत्र से प्रारम्भ कर शेष मूल सूत्र के छहों उद्देश तक में अपनी विशेष व्याख्या पूर्ण करते है। इसके पूर्व का भाग अप्राप्य है। चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत भाष्यगाथाओं के अतिरिक्त कुछ नई गाथाएँ भी विशेष चूर्णिकार ने दी है। चूर्णिकार तथा विशेषचूर्णिकार ने तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, पंचकल्पभाष्य, निशीथचूर्णि, गोविन्दनियुक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। __ भाषा की दृष्टि से चूर्णिकार प्रायः प्राकृत तथा संस्कृत मिश्रित भाषा का प्रयोग करते हैं / अनेक ग्रामीण तथा देशी शब्दों का प्रयोग करते हैं / आगमों के गम्भीर रहस्यों को लौकिक कथाओं के माध्यम से बड़े ही सरल ढंग से समझाते हैं / इस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए बृहत्कल्पचूणि अत्यन्त उपयोगी है / जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस चूर्णि की विशेषता है / बृहत्कल्पचूर्णिपीठिका : बृहत्कल्पसूत्र के सम्पूर्ण सार तत्त्व का इस पीठिका में सुन्दर रूप से निरूपण हुआ है। मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग का वर्णन करते हुए सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम और औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों का सुन्दर निरूपण किया है / कल्प-व्यवहार की विविध दृष्टि से विवक्षा करते हुए यत्र तत्र विषयों को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग किया है / उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक स्थितियों सुन्दर दर्शन इस चूर्णि पीठिका में हुआ है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 बृहत्कल्प चूर्णिकार ने अनेक ग्रन्थों के अवतरण भी दिये हैं जिससे यह निश्चित होता है कि बृहत्कल्प चूर्णिकार बहुश्रुत थे। वे केवल जैनशास्त्रों के ही नहीं किन्तु अन्य शास्त्रों के भी ज्ञाता थे / वे अवतरण, ग्रन्थों के नाम के साथ और बिना नामके भी दिए गये हैं / इस प्रकार बहुश्रुत आचार्य की यह अनमोल रचना, प्राकृत साहित्य में उनका अनुपम योगदान है यह निर्विवाद है। ऋण स्वीकार व आभार दर्शन विद्वद्वर्य आचार्यश्री मुनिचन्द्रसूरि म.सा. जिन्होंने बृहत्कल्प चूर्णि की ताडपत्रीय प्रतियाँ, तीन विशेषचूर्णि की दो प्रतों की झेरोक्ष कापियाँ प्रदान कर अपनी महानता और उदारता का परिचय दिया / विद्वद्वर्य आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरि जो साहित्य निर्माण में सदैव दत्तचित्त रहते हुए भी आपने अपना बहुमूल्य समय इस ग्रन्थ के संशोधन में दिया और इस ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ अर्थ की व्यवस्था की / सूत्रार्थ सहयोग और प्रकाशन अर्थ सहयोग यदि आपसे नहीं मिलता तो यह कार्य अधूरा ही रह जाता / लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति के निर्देशक डॉ. जितेन्द्रभाई का जिनकी सत्प्रेरणा एवं सहयोग से इस ग्रन्थ का ला०द०भा०सं० विद्यामन्दिर में रह कर सम्पादन संशोधन कर सका / प्राकृत ग्रन्थ परिषद् (P.T.S.)ने यह ग्रन्थ को अपनी श्रेणि में प्रकाशित करने की सम्मति दी, एतदर्थ उसके कार्यवाहकों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अत्यन्त उदारता के साथ जिन महानुभावों ने अर्थ सहयोग प्रदान किया है उन्हें हम कभी भी विस्मृत नहीं कर सकते / उनके प्रति हार्दिक साधुवाद के साथ भविष्य में इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा करते हैं / तथा इस ग्रन्थ के सम्पादन संशोधन में आगम प्रभाकर पू० मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी म० द्वारा सम्पादित बृहत्कल्पवृत्ति का पूर्णरूप से उपयोग किया है / तथा विरति ग्राफिक्स वाले अखिलेश मिश्राजी भी जिन्होंने सावधानी पूर्वक इस ग्रन्थ का अक्षरांकन किया है। हम इन सहयोगियों के प्रति जितना आभार अभिव्यक्त करें वह कम है। इन सब का पूर्ण सहयोग मिलने पर भी प्रेस दोष या प्रमादवश असावधानी के कारण भूलें रहना स्वाभाविक हैं कृपया वाचकगण क्षमा करेंगे और भूलों के लिए हमारा ध्यान आकर्षित करेंगे ऐसी अपेक्षा के साथ - रूपेन्द्रकुमार पगारिया Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन वि० सं० 2062 का चातुर्मास हम अहमदाबाद के ओपेरा-उपाश्रय में थे। पर्युषणापर्व के प्रवचन में श्रुतपूजा-अधिकार आया तो श्रुतयात्रा की प्रेरणा दी / संघ ने उसे स्वीकार की। और बाद में एक रविवार को कोई 500 लगभग लोगों को लेकर ला० द० विद्यामन्दिर को चल दिये / वहाँ श्रुततीर्थ की यात्रा की / उसी वक्त रूपेन्द्रकुमार पगारिया मिले, और बातबात में बात मिली कि कल्पचूर्णि का सम्पादन कार्य चल रहा है / उस कार्य में मुझे दिलचश्पी हुई। वहाँ ही संघ को प्रेरणा की, तो कोई दो लाख जितनी रकम के सहयोग का वचन मिल गया / प्रा० टे० सो० के नाम प्रकाशन हो तो अच्छा ऐसा भी सोचा गया / L.D. के डॉ० जे० बी० शाह से भी परामर्श किया गया, उन्होंने भी हाँ कही। बाद में, सं० 2063 का चातुर्मास हुआ देवकीनन्दन-उपाश्रय में / उस चातुर्मास के दौरान मैं और पगारियाजीने साथ में बैठकर यह पीठिका-विभाग का पठन व संशोधन किया। फिर उन्होंने इस सम्पादन में मेरा नाम भी जोड़ दिया / मैंने कहा कि आपका ही नाम भले रहे, मेरा नाम मत लिखो / पर वे नहि माने / तब मुझे लगा कि अगर आगम-सम्पादन के साथ मेरा नाम जुड़ता है, तो मेरी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है। मैंने कहा कि ऐसा ही करना हैं, तो मुझे एकबार यह पूरा विभाग, ताडपत्रों के साथ पुनः पढ़ना होगा / और मैंने ऐसा किया। तीन मुख्य ताडपत्र-प्रतियाँ-पू० 1, पू० 2 व पा० - लेकर मुद्रित प्रूफ साद्यन्त पढ़ा, मिलाया / दूसरी बार भी एक प्रति के साथ मिलाया / जब काम पूर्ण हुआ तब लगा कि अगर इस प्रकार पढ़ा न होता तो बहुत ही मुश्किलें होती। पढ़ने से काफी कुछ सम्मार्जन-संशोधन . हो सका / और यही कारण है कि पुस्तक प्रकाशित होने में काफी विलम्ब हुआ / मेरा यह प्रथम अनुभव है। बोध भी आगम-परिपाटी का व आगमों के सम्पादन की पद्धति का ज्यादा नहीं है / अतः इस सम्पादन में अगर क्षतियाँ व गलतियाँ रह गई हो तो बिल्कुल शक्य है। वे नजर में आएँ, तो उनके लिए मैं क्षमाप्रार्थी तो हूँ ही, उनके प्रति मेरा ध्यान आकर्षित करने की विज्ञप्ति भी सुज्ञजनों को मैं करता हूँ, ता कि आगे के विभागों के कार्य में मुझे मार्गदर्शन मिले / जब मैं, आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित बृहत्कल्पसूत्र-वृत्ति के Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 पुस्तक में दृष्टिक्षेप करता हूँ, तब उन्होंने जो विषयानुक्रम एवं अन्यान्य महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ अपने उस सम्पादन में दी है, उन्हें देखकर इस सम्पादन की अपूर्णताओं का मुझे बोध होता है / चूँकि मैं आकस्मिक ही इस प्रकल्प के साथ जुड़ गया हूँ, और मेरे मनमें 'वाचना का शोधन ही मुख्य है' ऐसी धारणा बन गई थी, अतः इन अपूर्णताओं के प्रति मेरा ध्यान ही नहि गया / आगे के विभागों में इन बातों के प्रति भी ध्यान देने का प्रयत्न किया जाएगा / इस ग्रन्थ के बारे में मेरी स्थिति, "किसी की आधी रसोई किसी को पूरी करनी है' ऐसी है। परिशिष्ट में गाथाओं का अकारादिक्रम दिया गया है। विषयानुक्रम विस्तार से न देकर, बृहत्कल्प-वृत्ति के विषयक्रम के आधार पर, संक्षेप में ही दिया जाता है / मैंने जो वाचन किया, उसमें मेरे साथी साधु मुनि विमलकीर्तिविजयजी, मुनि कल्याणकीर्तिविजयजी एवं मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजयजी ने मुझे पूरी सहायता दी है। उन तीनों को साधुवाद / यहाँ इस प्रथम विभाग में पीठिका-अंश ही समाविष्ट किया गया है / आगे दूसरे विभाग में उद्देशक, चूर्णि, विशेषचूर्णि - इन सबका संकलन होगा / यथावकाश वे विभाग जैसे जैसे तैयार होते जाएँगे, वैसे वैसे उनका प्रकाशन भी होता जाएगा / एक बात स्पष्ट होनी चाहिए :- चूर्णि एवं विशेष चूणि की पूरी की पूरी प्रेसकॉपी पं० पगारियाजी ने स्वयं लिखी है। इसका प्रथम प्रूफ भी उन्होंने देखा है। यह पूरा प्रकल्प उन्हीं की भावना व मेहनत का फल है। 84 साल की आयु में भी आगमों के प्रति इतनी भक्ति, सम्पादन कार्य की ऐसी लगन, सब दुर्लभ व विरल है। ताडपत्र-प्रतियों की झेरोक्ष कॉपी प्राप्त करने के लिये भी उन्होंने काफी परिश्रम किया है / हम तो उनके बने-बनाये कार्यक्रम में अकस्मात् ही सामिल हो गये हैं। फिर भी अब पूरे चूर्णिग्रन्थ को पुनः संशोधित करने की जिम्मेवारी हमने उठा ली है, और उम्र के कारण वे अब हमें यह सौंप कर निश्चिन्त बने हैं / उनका परिश्रम निःशंक साधुवादार्ह है। ___ इस ग्रन्थश्रेणि के प्रकाशनार्थ आर्थिक सहयोग देनेवाले जैन संघ एवं सद्गृहस्थों को धन्यवाद / पुनः- इस सम्पादन में ग्रन्थकार एवं श्रुतधर भगवन्तों के आशय से विरुद्ध या विपरीत कुछ भी, अनजान में ही, आ गया हो, तो एतदर्थ त्रिकरण योग से क्षमाप्रार्थना करता हूँ / छद्मस्थता एवं मन्दमति के वजह से ऐसा होना असम्भव नहीं / अगर किसी को ऐसी कोई त्रुटि दिखाई पड़े, तो कृपया हमें सूचित करें यही अभ्यर्थना / सं० 2064, श्रावणी पूर्णिमा - शीलचन्द्रविजय __ अहमदाबाद हठीसिंह केसरीसिंहनी वाडी-उपाश्रय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति परिचय बृहत्कल्पचूर्णि की एकाधिक प्रतियाँ जैनज्ञान भण्डारों में उपलब्ध हैं / उनमें से कुल पाँच प्रतों की झरोक्ष उपलब्ध हुई हैं / भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना से दो, एक प्रत पाटण स्थित संघभण्डार, (वर्तमान में श्री हेमचन्द्राचार्यज्ञानभण्डार) की, एक प्रत शान्तिनाथ जैन ज्ञानभण्डार खंभात की तथा पाँचवी कागज की श्रीकैलाससागरसूरिज्ञानमन्दिर की / इस प्रकार कुल पाँच प्रतों के आधार से बृहत्कल्पचूर्णि का लेखन संशोधन सम्पादन किया गया है। इन प्रतियों को क्रमशः पूना की प्रतों के लिए पू० 1, पू० 2, पाटण प्रत के लिए पा०, एवं खंभात प्रत के लिए खं० ऐसे. संकेत दिये गये हैं। प्रति नं० 1 यह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट से उपलब्ध ताडपत्रीय प्रत सर्वाधिक प्राचीन है / ग्रन्थसूची में इसका नं० 580 है / इसमें मूलसूत्र, लघुभाष्य एवं चूर्णि का सम्पूर्ण आलेखन हुआ है / इसके कुल झेरोक्ष पत्र 241 हैं। अन्त में इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण 16000 दिया है / इस प्रति का प्रारम्भ "भलेमींडी, न नमो वीतरागाय // "मंगलादीणि सत्थाणि" से होता है / अन्त में 'मोक्खं पावतीति' कल्पचूर्णी समाप्ता छ / ग्रन्थ 16000 अंकतोऽपि // छ / संवत् 1218 में अणहिल पाटण में कुमारपाल राजा के शासन काल में चाहरपल्लि ग्राम के निवासी साउकउद्यव० शोभनदेवने श्रीमज्जिनभद्राचार्य के लिए लेखक सोहड से लिखवाई / ग्रन्थ के अन्त में इसकी प्रशस्ति इस प्रकार है ___Ends.-leaf 241 अप्पमादीणं गुणदीवेति / जो य एयाए कप्पाणुपालणाए दीवणाए य वट्टइ तस्स आराहणा भवति / णाणदंसणचरित्तमयी जहण्णिया / मज्झिमा उक्कोसिया वा तओ य आराहणाओ च्छि(छि)ण्णसंसारी भवति / संसारसंतई छेत्तुं / मोक्खं पावतीति कल्पचूर्णी समाप्ता [:] // छ ग्रन्थ 16000 अंकतो(s)पि // छ / संवत् 1218 वर्षे द्वि० आषाढशुदि 5 गुरावधेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजितसमलंकृतमहाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारकउमापतिवरलब्धप्रसादमहाहवसंग्रामनियूंढप्रतिज्ञाप्रौढनिजभुजरणांगणविनिर्जित'शाकंभरी' भूपाल श्रीमत्कुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीवि[त]महामात्यश्रीयशोधवले श्रीश्रीकरणादौ समस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयति Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 "मोक्खं सतीत्येवं काले प्रवर्ध(त)माने // गंभूता चतुश्चत्वारिंशच्छतपथके देवश्रीभोपलेश्वरशासनारूढभुज्यमानराजश्रीवैजलदेवेन पट्टित 'चाहरपल्लि' ग्रामे तद्वास्तव्ये० साउकउद्यव० शोभनदेवेन कल्पचूर्णिपुस्तकं पुस्तकसवलकद्रव्यं वृद्धि नीत्वा तेनैव श्रीमज्जिनभद्राचार्याणामर्थे लेखकसोहडपााल्लिखापितेति // छ / यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं... शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते // सुरसरि सुरगिरि सुरतरु सुरनाहो जाव सुरालया संति / विउसेहि पढिज्जंतं ताव इमं पुत्थयं होउ / छ / मंगलं महाश्रीः // शुभं भवतु // लेखकपा.... Reference. There is a Ms. of Behatkalpacurni in the Limdbi Bhandara. See its Catalogue No. 1852 पू० नं २-पूना, भाण्डारकर ग्रन्थसूचि में इसका नं० 582 है / इसके कुल पेज 465 है। इस ग्रन्थ का लेखक "नमः प्रवचनाय" मंगलादीणि सत्थाणि....से प्रारम्भ कर "म वा पावतीति" कल्पचूर्णी समाप्ता, से इसका लेखन पूर्ण करता है। इस प्रत का लेखन संवत् 1334 मार्गशीर्षसुदि 13 गुरुवार का है / लेखक ने इसका ग्रन्थान 14000 का दिया है। इसकी प्रशस्ति इस प्रकार है पू० नं 2-Age.-Samvat 1334. Begins.-fol. 159b नमः प्रवचनाय // मंगलादीणि सत्थाणि / मंगलमज्झाणि मंगलावसणाणि // मंगलपरिग्गहिया य सिस्सा / सुत्तत्थाणं अवग्गहेहावायधारणासमत्था भवंति / तानि चादिमध्यावसानमंगलात्मकानि सर्वाणि लोके विराजंति // विस्तारं च गच्छंति // etc. Ends.-fol. 465 अप्पमादिणं गुणो etc., up to सो(मो)क्खं practically as in No. 582 followed by वा पावतीति कल्पचूर्णी समाप्ता // छ / संवत् 1334 वर्षे मार्गशुदि 13 गुरौ // कल्पचूर्णी समाप्ता [:] // शुभं भवतु सर्वजगतः अंकतो(5)पि ग्रंथ (सहस्राणि)......१४००० प्रत्यक्षरगणनया निनीत // छ / Reference.-In Jaina Granthavali (p. 12), it is remarked that on p. 49 of Deccan College (?) Pralamba Suri is mentioned as the author of Brhatkalpacurni. प्रत नं० 3, संघवी पाडा पाटण ज्ञान भण्डार (वर्तमान में श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार पाटण) की है / ग्रन्थ सूचि में इसका नं० पा० ता० हेम० सं० 9, पेटांक 2 / इसके Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल पत्र 1-393 है / लेखन संवत् 1291 वर्षे पोस सुदी 4 सोमे / ऐसा अन्त में लिखा है प्रत की स्थिति अच्छी है / प्रत अशुद्धप्राय है / "प्रति नं०४ __यह प्रति श्रीशान्तिनाथ खंभात ताडपत्रीय जैन ज्ञान भण्डार की है। खंभात ग्रन्थ सूचि में इसका नं० 8465 है। इसमें लेकन संवत् नहीं है / लेखन शैली से यह ज्ञात होता है कि यह १३वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई हो / इस प्रत के तीन पृष्ठ नहीं है / प्रत नं०५ यह कागज पर लिखी गई है। इसमें भी लेखन संवत् नहीं है। १५वीं सदी में इसका लेखन हुआ हो ऐसा अनुमान किया जा सकता है / लेखक ने पाटण की ताडपत्रीय प्रति के आधार से इस प्रति का लेखन किया हो ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि इसके प्रायः पाठ पाटण की ताडपत्रीय प्रति से मिलते हैं / पाटण की ताडपत्रीय प्रति के कई पाठ विशेषचूर्णि का अनुसरण करते हैं। ___उदाहरणार्थ विशेष चूर्णि पृ० के 10-12 पन्नों के पाठ अक्षरशः पाटण की चूर्णि में लिए है / ये पाठ विशेषचूर्णि पाटणस्थ प्रति, कै०ज्ञा० प्रति में ही है किन्तु पूणे की दो प्रतों में, लाद० भण्डारगत बीसवीं सदी की कागज की प्रत में, एवं खंभात भण्डारस्थ ताडपत्रीय प्रत में नहीं है, किन्तु पाटण की प्रत में तथा श्री कैलाश सागरसूरि ज्ञान भण्डार की प्रत में ही मिलते हैं / यह पाठ विशेषचूर्णि से लिए गए हो ऐसा पठन से प्रतीत होता है। साथ ही में व्यंजन परिवर्तन भी समान रूप से इन दो ही प्रतियों में मिलते हैं। प्रतों की विशेषता . इन पाँचों प्रतों के लेखक ने बड़े सुन्दर अक्षरों में इन प्रतियों को लिखा है। प्रायः प्रतियाँ शुद्धाशुद्ध हैं, कहीं कहीं लेखनदोष दृष्टिगोचर होते हैं / इन प्रतियों में व्यंजनपरिवर्तन अधिक मात्रा में होने से इनकी एकरूपता सुरक्षित नहीं रह सकी / पूना की ताडपत्रीय प्रति एवं पाटण की ताडपत्रीयों में व्यंजनपरिवर्तन इस प्रकार के मिलते हैं जैसे ह के स्थान में भ, भ के स्थान में ह का प्रयोग सर्वत्र मिलता है-जैसे होति, हवति, होइ, भवति / ब के स्थान में प- बाल = पाल, बहु-पभु / इसके अतिरिक्त व-ब, च-व, त्थ च्छ त्थ, प ए, ए प, ट्ट 6, 6, ट्ट, ट्ठ द्ध, द्ध टु, उ, ओ, ओ उ, य इ, इ य, अक्षरों के बीच के भेद को न समझने कारण लिपिक ने एक अक्षर के स्थान पर दूसरा अक्षर लिख दिया है / क्ख, पण, म्म टु, च्छ, त्थ जैसे संयुक्त अक्षरों के स्थान पर ख, ग, म, ठ, छ, थ भी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 कई स्थान पर लिखे हुए उपलब्ध होते हैं / निरर्थक अनुस्वार भी कई जगह मिलते हैं और कई जगह अनुस्वार लिखना ही भूल गये है / धम्म कम्म तम्मि आदि की जगह धंम कंम तंमि आदि कई जगह लिखा हुआ मिलता है। य श्रुति के स्थान में प्राय त का प्रयोग अधिक मिलता है जैसे समय-समत, आयरिय आतरित, राया राता / ह के स्थान पर ध, जैसे कहा कधा, गाहा=गाधा / कहीं कहीं य के स्थानमें इ और इ के स्थान में य, जैसे राइणा= रायणा, कइवय कयवय इत्यादि / कहीं कहीं एक ही अक्षर या शब्द, दुबारा भी लिपिकार ने लिख दिया है, और कहीं कहीं सरीखे अक्षर दो बार आते हैं तो लिपिकार उन्हें लिखना ही भूल गया है। कहीं लम्बे पाठ भी लिपिकार ने छोड़ दिये है। कहीं दुबारा भी पाठ लिख हुए मिलते हैं। पूना नं० 2 की प्रति अधूरी है कई पन्ने नहीं है। इसकी पूर्ति हमने पूना नं० 1 प्रति से की है। सभी प्रतियों की झेरोक्ष कोपी ही मिली है। कई जगह तो झेरोक्ष के पन्ने इतने अस्पष्ट और काले धब्बेवाले हैं कि उन्हें पढ़ना भी बड़ा कठिन था, अतः ऐसे अस्पष्ट अक्षर वाले पाठों को अन्यान्य प्रति की सहायता से जहाँ तक हो सके पाठ को शुद्ध करने का प्रयास किया है। - रूपेन्द्रकुमार पगारिया Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी की प्रेरणा से बृहत्कल्पचूर्णि-ग्रन्थ-प्रकाशन में सहयोग दाताओं की नामावली श्रीमहावीर जैन श्वे०मू०पू० संघ, ओपेरा, अहमदाबाद श्री ज्योत्स्नाबहेन नरोत्तमभाई झवेरी अहमदाबाद श्री अशोकभाई शंकरलाल शाह अहमदाबाद श्री. दीपकभाई रसिकलाल शाह अहमदाबाद श्री ज्योतिषभाई अमृतलाल शाह अहमदाबाद श्री नरेशभाई कल्याणभाई शाह अहमदाबाद श्री सुधीरभाई जयंतिलाल शाह अहमदाबाद श्री अतुलभाई चन्द्रकान्त शाह अहमदाबाद __ आ पुस्तक माटे विशेष सहयोग शाह धरणेन्द्रभाई शिवलाल चाणस्मावाला, सूरत पुत्री साध्वीओ - दीप्तिप्रज्ञाश्री तथा तरंगलेखाश्रीनी प्रेरणाथी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः // Preface Nagin J. Shah प्रास्ताविक रूपेन्द्रकुमार पगारिया निवेदन विजयशीलचन्द्रसूरि प्रतिपरिचय रूपेन्द्रकुमार पगारिया बृहत्कल्पचूर्णिः मङ्गलविचार नन्दी : ज्ञानपञ्चक सम्यक्त्व-निरूपण अनुयोगद्वार-प्ररूपणा 1. निक्षेपद्वार द्रव्यादिके अनुयोग-अननुयोग विषयक उदाहरण 2. एकार्थिकद्वार सिद्धान्त के निक्षेप एवं 'सर्वतन्त्र' आदि प्रकार निरुक्तद्वार विधिद्वार 5. प्रवृत्तिद्वार 6. 'केण वा' द्वार 7. 'कस्स' द्वार 8. अनुयोगद्वार-द्वार ॐ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 69 0 0 0 3 101 104 108 113 125 136 9. . भेदद्वार उपक्रम निक्षेप 10. लक्षणद्वार ___ 'सूत्र' पद का निरुक्त, उसके प्रकार 11. 'तदर्ह' द्वार 12. पर्षद् द्वार मुद्गशैल आदि दृष्टान्त . प्रकारान्तरसे त्रिविध पर्षद् प्रकारान्तरसे दो प्रकार की पर्षद् छत्रान्तिक पर्षद् के गुण स्थण्डिलभूमि का निरूपण लेपकल्पिकद्वार पिण्डकल्पिकद्वार शय्याकल्पिकद्वार : वस्त्रकल्पिकद्वार पात्रकल्पिकद्वार अवग्रहकल्पिकद्वार विहारकल्पिकद्वार उत्सारकल्पिकद्वार अचञ्चलद्वार अवस्थितद्वार मेधावी-द्वार अपरिस्रावीद्वार 'जे विदु' द्वार अनुज्ञातद्वार परिणामकद्वार 12. बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका 139 155 166 170 175 182 190 192 192 192 193 200 201 205 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य / अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओमुहं / अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वन्नुभासियं // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सर्वज्ञाय बृहत्कल्पचूर्णिः॥ मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि / मंगलपरिग्गहिया य सिस्सा सुत्तऽत्थाणं अवग्गहेहावायधारणासमत्था भवंति / तानि चादि-मध्या-ऽवसानमंगलात्मकानि सर्वाणि लोके विराजन्ति, विस्तारं च गच्छन्ति / अनेन कारणेनादौ मंगलं २मध्ये मंगलं अवसाने३ मंगलमिति / आदिमंगलग्गहणेणं तस्स सत्थस्स अविग्घेणं लहुं पारं गच्छति / मज्झमंगलगहणेणं तं सत्थं थिरपरिजितं भवति / अवसाणमंगलग्गहणेणं तं सत्थं सिस्स-पसिस्सेसु अव्वोच्छित्तिकरं भवति / तत्रादौ मंगलं पापप्रतिषेधकत्वादिदं सूत्रम् "णो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहेत्तए'' [उ० 1 सू० 1] / मध्येऽपि "कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंग-मंगधाओ इत्तए" [उ० 1 सू० 51] इत्येवमादि / अवसाणे वि "छव्विधा कप्पठिती पण्णत्ता" [उ० 6 सू० 14] इति / तं च मंगलं चउव्विधं-नाम-मंगलं, ठवणामंगलं, दव्व-मंगलं, भाव-मंगलमिति / एताणि आवस्सए पुव्वभणिताणि / नवरं भावमंगले इमो विसेसो-जं तं नोआगमतो भावमंगलं तं दुविधं-सुत्तभणितं च, सुत्तफासियनिज्जुत्तिभणितं च / भाष्यभणितमित्यर्थः / तत्थ सुत्तभणितं "नो कप्पति निग्गंथाण वा (निग्गंथीण) वा आमे ताल-पलंबे अभिन्ने पडिगाहेत्तए" [उद्दे० 1. सू० 1] इत्येवमादि प्रागभिहितं, सुत्तफासितनिज्जुत्तीभणियं पुण इमाणं५ दोण्हं अज्झयणाणं६ अप्पग्गंथमहत्थाणं सुहुमनिउणत्तणेण य दुग्गहण-दुद्धराणं- 'दुस्समाणुभावेण य अप्पसत्तिणो पुरिस'त्ति 1. ०स्सा सत्थाणं अ० पा० पू० 2 / 2. मध्य पू० 1 / 3. अवसान० पू० 1, पाता० / 4. व्वं वण्णिता० पा० पू० 2, पू० 1 / 5. माणि पा० 2 / ६.०णाणि पा० 2, पू० 2 / 7. ०त्थाणि पा० 2, पू० 2 / 8. ०राणि पा० 2, पू० 2 / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका काउं सुहगहण-धारण-संति-मंगल-निमित्तं आयरियो भस्सं२ काउकामो आदावेवरे गाधासूत्रमाह काऊण णमोक्कारं, तित्थयराणं तिलोगमहियाणं / कप्प-व्ववहाराणं, वक्खाणविहिं पवक्खामि // 1 // "काऊण णमोकारं०" गाधा / 'डुकृञ् करणे' अस्य धातोः क्त्वाप्रत्ययान्तस्य कृत्वेति रूपं भवति / किं कृत्वेति तदुच्यते-नमस्कारं / नम:' प्रह्वत्वे शब्दे / नमस्करणं नमस्कारः / प्रणामोऽर्चनं वन्दनं पूजनमित्यनर्थान्तरं / इन्द्राणामिति चेत् ? नेत्युच्यते / तित्थगराणं 'तृ प्लवनतरणयोः' तीर्थं तच्चतुर्विधं वर्णयित्वा भावतीर्थं कृतं यैस्ते तीर्थकराः, अतस्तेषां तीर्थकराणां / त्रय इति संख्या / 'लोक दर्शने' त्रीण्युत्पादादीनि दर्शनादीनि वा लोकयन्तीति त्रिलोकाः / मह पूजायाम् / महिताः पूजिताः, त्रिलोकाश्च ते महिताश्च त्रिलोकमहिताः / अथवा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्संज्ञकस्त्रिलोकः, स्वपर्यायैर्लोक्यते इति लोको ज्ञायते दृश्यते चेत्यर्थः / त्रिलोकेन महिता: वन्दिताः पूजिता इत्यनर्थान्तरमतस्तेषां 'तिलोगमहिताणं णमोकारं काउं' / किं करोषि त्वं? अत उच्यते-'कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविधि पवक्खामि' / कल्पश्च व्यवहारश्च कल्प-व्यवहारौ / अतः कल्प-व्यवहाराणाम्। आहकल्पव्यवहारयोरिति वक्तव्ये कथं द्विवचने बहुवचनं क्रियते कल्प-व्यवहाराणामिति ? / एवं चोदकेनाक्षिप्ते आचार्यो ब्रवीति सक्कतपागतवयणाण विभासा जत्थ जुज्जते जं तु / अज्झयणनिरुत्ताणि य, वक्खाणविधी य अणुयोगो // 2 // "सक्कतपायत०" पुव्वद्धं / इह द्विविधं वचनं भवति / संस्कृतं प्राकृतं च। एतेसिं सक्कत-पायत-वयणाण विभासा करणीया / भाष्ये न कृता इत्यर्थः / चूर्त्यां तु क्रियते / ए-ओकारपराई, अंकारपरं च पायए नत्थि। व-सगारमज्झिमाणि य, क-चवग्ग-तवग्ग निहणाइं // [ नाट्यशास्त्र अ० 17] निर्णय इत्यर्थः / एतेहिं अक्खरेहिं जं वयणं तं पायत-वयणं / एभिः ऐ औ अः ङ ब न श षैश्च यत् तत् सक्कत-वयणं / एसा सक्कत-पायत-वयणाण विभासा कया / एतेसिं सक्कत-पायत-वयणाणं वत्स ! "जत्थ जुज्जए जं तु / " जत्थत्ति सक्कते पायते वा जुज्जते घटते जं जुत्तिवयणं, तत्र संस्कृते एकवचन-द्विवचन बहुवचनानि युज्यन्ते / यथा-वृक्षः वृक्षौ वृक्षाः। प्राकृते त्वेकवचनं बहुवचनं च युज्यते / यत् तत् द्विवचनं तद् बहुवचनेनाभिलप्यते 1. ०रणा सं० पा० / 2. हस्सं पा० 2, पू० 2 / भासं पा० / 3. ०वेदं पा० 2, पू०२ / 4. णम् पाता० / 5. वचना यु० पू० 2 / 6. यत्र द्वि० पू० 1 / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१-२] इति कृत्वा कप्पव्ववहाराणमित्यदोषः / स्यान्मतिः, कल्प-व्यवहारावित्यनयोः कोऽर्थः ? को वा विशेषो द्वयोरप्यध्ययनयोः ? अत उच्यते / अज्झयण-णिरुत्ताणि य, तयोर्द्वयोरप्यध्ययनयोरर्थनिरुक्तान्यभिहितान्यन्यार्थान्यतो विशेषोऽनयोः / च शब्दादुद्देशकसूत्रेनिरुक्तानि च / तत्र निश्चितमुक्तं३ निरुक्तं / अध्ययननामाक्षरार्थः इत्यर्थः / तत्र 'कल्प' शब्दो ह्यनेकार्थाभिधायी / तद्यथा-क्वचित् सामर्थ्य, क्वचित् वर्णनायां, क्वचित् च्छेदने, क्वचित् करणे, क्वचित् औपम्ये, क्वचिदधिवासे / एतेष्वर्थेषु कल्पशब्दो गीतः / उक्तञ्च सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा / औपम्ये चाऽधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः // [ ] तत्र सामर्थ्य तावत् 'कल्प'शब्दः, कल्पाध्ययनमधीत्यातिचारमलिनस्य साधोः समर्थः प्रायश्चित्तेन विशोधि कर्तुम् / वर्णनेऽपि-यावन्तः प्रायश्चित्तप्रकारास्तान् वर्णयति विभाषतीत्यर्थः / अथवा मूलोत्तरगुणान् कल्पयति वर्णयतीत्यर्थः / उक्तञ्च ‘कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य / ववहारे ववृहरिया, पायच्छित्ता-ऽऽभवंते य // [ व्य० भा० पी० गा० 154] छेदनेऽपि-तपः शोधिमतिक्रान्तं पञ्चादिच्छेदेन पर्यायं छिनत्ति / करणेऽपि यद् दत्तं प्रायश्चित्तं तत्र तथा प्रयत्नं करोति कल्पाध्ययनवेत्ता, यथा तत् पारं नयति; अथवा करोत्याचार्यत्वं कल्पाध्ययनवेत्ता / औपम्येऽपि-पूर्वधराचार्यवद्भवति कल्पाध्ययनवेत्ता / अधिवासेऽपि-मासकल्पं कदाचित् प्रतिपूर्ण वसति, कारणे ऊनातिरिक्तमपि, एवं वर्षावासकल्पमपि / अथवा अस्मिन्नेव गच्छाधिवासः / विधिवद् अवहरणाद् व्यवहारः / अथवा वपनात् हरणाच्च व्यपहारः / अत्थी-पच्चत्थीणं, हाउं एकस्स श्ववति बीयस्स / एतेण उ ववहारो, अहिगारो एत्थ उ विहीए // [व्य० भा० पी० गा० 5] जस्स णाऽऽभवति तस्स हाउं, जस्स आभवति तस्स ददातीत्येषोऽर्थः८ / वक्ष्यमाणमपि च 'व्य(व)वहारे ववहरणं पायच्छित्ताभवंते य' / "वक्खाणविहिं पवक्खामि" त्ति। अस्य व्याख्या-वक्खाणविही उ अणुओगो त्ति / वक्खाणविहि त्ति वा, अणुओगो त्ति वा, एगटुं / तं प्रकर्षण भृशं वा वक्ष्यामि / 1. न्यन्वर्था० पू० 1 / 2. सूत्रे पू० 1 / 3. निश्चय पू० 1 / 4. अध्ययनाना० पाता० / 5. विभाषयती० पू० 1 / विभाषत इत्यर्थः पा० / 6. व्यव० पा०, पू० 1 / 7. वच्चइ पू० 1 / 8. ०स्स देतीत्यर्थः पू० 2 / Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "पुव्वभणितं तु पुणरवि जं भण्णति तत्थ कारणं अत्थि / पडिसेहो य, अणुण्णा-कारणविसतोवलंभो वा // " इति वचनात् / संक्षेपोक्तमंगलस्य विस्तरेण ज्ञापनार्थं विशेषज्ञापनार्थमिदमुच्यतेणंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिग दुगे य चोद्दसए / अंगगयमणंगगए, कायव्व परूवणा पगतं // 3 // "णंदी य मंगलवा०" गाधा / अधवा नोआगमतो भावमंगलं नंदी / यस्मादुक्तम्'णंदी य मंगलट्ठा' / च शब्दात् जावतिया थया थुतीओ य / आह णंदी मंगलहेडं, न यावि सा मंगलाहि वइरित्ता। कज्जाभिलप्पणेया, अपुढो य पुढो य जह सिद्धा // 4 // . .. "णंदी मंगलहेउं०" गाधा / णंदी मंगलहेडं / भणिता तुब्भेहीति वाक्यशेषः / तो किं सा मंगलातो अण्णा ? अत उच्यते-न यावि सा मंगलाहिं वतिरित्ता, न य सा मंगलातो अन्ना / अपिग्रहणादन्याऽपि भवेत् / किमुक्तं भवति ? स्याव्यतिरिक्ता, स्यादव्यतिरिक्ता / कथमिति चेदुच्यते-कज्जाभिलप्पणेया अपुढो य पुढो य जह सिद्धा' / यथेह कार्यं पट: कारणं तन्त्वादि / अनयोरेकत्वान्यत्वं दृष्टं / यस्मान्न तंतुभिर्वेम-तुरि-शलाका-नलकादिपुरुषप्रयत्नानन्तरेण पटनिष्पत्तिर्भवत्यत एकत्वमनयोः / यस्माच्च तन्त्वादिकारणैः पटकार्यं न क्रियते अतोऽन्यत्वं / उक्तञ्च "नत्थि पुढवीविसिट्ठी" गाहा / एवमभिलाप्याभिलापयोः / तत्राभिलाप्योऽर्थः / अभिलापो वचनं / यस्मात् क्षुरिकाग्नि-मोदकोच्चारणे तेष्वेव संप्रत्ययो भवति, नासन्नेष्वपि घटादिष्वतः एकत्वमनयोः / यस्माच्च तदुच्चारणे वदन-श्रवणयोः छेद-दाह-पूरणानि न भवन्त्यतोऽन्यत्वम् / उक्तञ्च "जम्हा उ मोदगे." गाधा५ / ज्ञेयज्ञानयोरपि / तत्र ज्ञेयं द्रव्याद्यनेकविधम् / 1. कारणं विसेसोवलंभो पू० 1 / ०कारणविसेसत्थोवलंभो पू० 2 / ०करणविसेसो० पा० / 2. रेकत्वमन्यत्वं पू० 2 / 3. यस्मात्तन्त्वांच्छतिवेम० पू० 1, पाता० / 4. नत्थि पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति जं तेण जुज्जइ अणन्नो / ___जं पुण घडो त्ति पुव्वं, न आसि पुढवी तओ अन्नो // [वि० आ० भा० 2104] 5. जम्हा उ मोदके अभिगयम्मि तत्थेव पच्चओ होइ / ___ण य होइ सो अणत्ते, तेण अभिण्णं तदत्थातो // 59 // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३-९] ज्ञानमाभिनिबोधिकाद्यं पंचप्रकारम् / यदा ज्ञानेनात्मानं जानाति तदैकत्वम् / यदा घटादिद्रव्यं जानाति तदाऽन्यत्वम् / यथैषां कार्यादीनामेकत्वमन्यत्वं च सिद्धं तथा नंदी कारणं मंगलं कार्यम्। अनयोश्च नन्दी-मंगलयोरभिधानं प्रति नानात्वं न त्वर्थतः, शक्रेन्द्रवत् / मंगलस्यैव नन्दिरिति पर्यायनाम / अत्र तिष्ठतु तावत्कारणं नन्दी, कार्य मंगलम्, तद् वक्ष्यामोऽल्पस्वरतरत्वात् (? अल्पतरस्वरत्वात् ?) / णामं ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा / एमेव होति णंदी, तेसिं तु परूवणा इणमो // 5 // दारगाधा // णामं ठवणा० पुव्वद्धं / तत्थ नाममंगलंएगम्मि अणेगेसु व, जीवद्दव्वे व तव्विवक्खे वा। मंगलसण्णा णियता, तं सण्णामंगलं होति // 6 // "एगम्मि अणेगे०" गाहा / सण्णा णामं णियत त्ति नियमिता विसेसिता वा। सेसं कंठं। ठवणामंगलं- . जा मंगल त्ति ठवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा। तत्थ पुण असब्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो // 7 // जे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे / तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु // 8 // "जा मंगले" त्ति गाहाद्वयम् / विहित त्ति कता / भित्ती-कुहूं / घटादि, आदिग्रहणात् स्थालादिणो / सब्भावठवणा दुविहा-इत्तिरिया, आवकहिया य / तत्थाऽऽवकहिता देवलोगेसु / अर्थादापन्नं जे मणुयलोगे ते इत्तरिया / आवकहिता नाम शाश्वता, इत्तरिया अशाश्वता / दव्वमंगलंउत्तरगुणणिप्फण्णा, सलक्खणा जे उ होंति कुंभाई। तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा // 9 // "उत्तरगुणणि०" गाहा / मूलोत्ति पुढविजीवो, तद्गुणात् तत्प्रयोगात्, पुद्गलानां च मृद्दव्यत्वेनोपादानं मूलगुणनिष्पत्तिः / उत्तर इति परः / परप्रयोगाच्चक्र-दण्ड-सूत्रोदकपुरुषप्रयत्नेनेत्यर्थः / एतस्मान्मृद्रव्याद् निष्पन्नाः / 'सलक्खण'त्ति लक्षणसम्पन्नाः / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका अच्छिद्राः अखण्डा; वारिपडिपुण्णा, पद्मोत्पलप्रतिच्छन्नाः, आदिग्रहणात् स्थाल्यादि / तच्च दव्वमंगलं / णेगंतियं अणच्चंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ / "णेगंतियं०" गाधा / जहा पुण्णकलसो न एगंतेण मंगलं सव्वेसिं / जेण चोरस्स करिसगस्स य रित्तं कुडयं पसंसंति / गिहपवेसे पुण पुण्णो पसत्थो // एवमणेगंतियं / अणच्चंतियं पि / जहा कोइ सोभणेहिं दव्वमंगलेहिं निग्गओ, अण्णं किंचि असोभणं दिटुं, जेण ते सव्वे पडिहता / एवमणच्चंतियं ॥छ।। अहुणा भावमंगलं तव्विवरीयं भावे, तं पि य णंदी भगवती उ॥१०॥ "तव्विवरीयं०" पच्छद्धं / तं च भावमंगलं एगंतियं अचंतियं च / न अण्णेण पडिहम्मति / किं च तं ? णंदी भगवतीति / आह-जहा दव्वादीणि चत्तारि मंगले समोयारिताणि, तहा अण्णेसु वि होज्जा ? / ओमित्युच्यते / कथं ? भण्णति जह इंदो त्ति य एत्थं, तु मग्गणा होति नाममादीणं / सव्वाणुवाति सण्णा, ठवणादिपया उ पत्तेयं // 11 // "जह इंदो०" गाधा / सर्वस्यैवाभिधानस्यावसरप्राप्तस्य चतुःप्रकारो निक्षेपः / यथा 'इंद्र' इत्याकारिते नामेन्द्रः चिन्त्यते / सव्वाणुवाति सण्णा णामं सव्वेसु वि ठवण-दव्वभावेसु १अणुवत्तति भण्णतीत्यर्थः / तेसु तेसु अत्थविसेसेसु बुद्धि नामयतीति नाम संज्ञेत्यनान्तरं, सा चेन्द्र प्रति / अत्ताभिप्पायकया, सण्णा चेयणमचेयणे वा वि। ठवणादीनिरविक्खा, केवलसण्णा उणार्मिदो // 12 // "अत्ताभिप्पाय.' गाहा / सेच्छाए त्ति भणियं होइ / कता णिदेसितारे / चेतणे पुरिसे, अचेतणे तम्मि चेव मृते / सा पुण इन्द्रसण्णा ठवण-दव्व-भाविंदे णावेक्खति / यदुक्तं भवति-ठवण-दव्व-भाविंदाणं तत्थेक्को वि णत्थि, केवलमेवेन्द्र इति नाम / अधुना ठवणिदो सब्भावमसब्भावे, ठवणा पुण इंदकेउमाईया / "सब्भाव०" पुव्वद्धं / असब्भाव-ठवणिंदो अक्खणिक्खेवादिसु / सब्भावठवणिंदो इन्द्रकेतुः केतुरुच्छ्रये इन्द्रोच्छ्रय इत्यर्थः / आदिग्रहणादिन्द्रप्रतिमा / आह, नाम 1. अणुपतती० पू० 2 / 2. निवेसिया पू० 2, पा० / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१०-१८] स्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते इत्तरमणित्तरा वा, ठवणा णामं तु आवकहं // 13 // "इत्तिरिय०" पच्छद्धं / कंठं / दव्विदो अधुनादव्वे पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि / जो वा वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणे परिकहेइ // 14 // "दव्वे पुण०" गाहा / कण्ठ्या / जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धणयाणं तु एस भाविंदो / इंदस्स व अहिगारं, वियाणमाणो तदुवउत्तो // 15 // "जो पुण ज०" गाहा / "जहत्थजुत्तो''त्ति / "इदि परमैश्वर्ये" / परमैश्वर्यप्राप्तः / इन्द्रनाम-गोत्रे 'कर्मणी वेदयमानः / सुद्धणया तिण्णि सद्दणया यथार्थग्राहकाः वर्तमानविषयिणः / पच्छद्धं कंठं / आह- .. ण हिजो घडं वियाणइ, सो उघडीभवइ णेय वा अग्गी / णाणं ति य भावो त्ति य, एगट्ठमतो अदोसो त्ति // 16 // "ण हि जो घडं०" गाधा / न हि घटज्ञाता अग्निज्ञाता वा घटीभवत्यग्निर्वा / तेण जं भणहरे- 'इन्द्राहिगारोवउत्तो भाविंदो भवति,' तं मिच्छा / उच्यते-"नाणं" ति वा, चशब्दात् उवओगो त्ति वा, भावो त्ति वा, चशब्दात् अज्झवसाओ त्ति वा एगटुं / जओ एए णाणादिणो पदा एगट्ठा अतो.. जमिदं पगयं३ इंदो, ण व्वतिरिच्चति ततो उ तण्णाणी / तम्हा खलु तब्भावं, वयंति जो जत्थ उवउत्तो // 17 // "जमितं पगयं०" गाहा / कंठा / अतो अदोसो त्ति / जइ य णाणादिणो पदा जीवातो अण्णे होज्जा ततो चेयण्णस्स उ जीवा, जीवस्स उचेयणाओं अण्णत्ते / दवियं अलक्खणं खलु, हविज्ज ण य बंधमोक्खा उ॥१८॥ "चेतण्णस्स उ०" गाधा / चेतणाभावस्स जीवातो' अण्णत्ते जीवस्स वा चेयणाभावातो अण्णत्ते, “दवियं"ति जीवदवियं तमलक्खणं / कथं ? जेण चेयणालक्खणो जीवो निश्चेतनः संपद्यते / ततश्च को दोषः ? लक्षणाभावात् लक्ष्याभावः खरशृङ्गवत् / यश्चासन् न स 1. गोत्राणि कम्माणि पू० 2 / 2. भन्नति पू० 2 विना / 3. जमिदं नाणं इंदो मु० / 4. चेयणभावस्स वा चेयणभावाओ अन्नत्ते पू० 1 / 5. ०नः संवृत्तः तत० पा० / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका बध्यते अभावत्वात् / अबद्धस्य च न मोक्ष इति / अथाऽचेतनोऽपि बध्यते, अनवस्था / काऽनवस्था ? अचेतनानां धर्मास्तिकायादीनामपि बंधः स्याद्, न च भवति / तस्मात् साधूक्तं "इंदस्स व अधिकारं वियाणमाणो तदुवउत्तो भाविंदो" भवति / चोदक आह-नामस्थापनेन्द्रयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते जह ठवणिदो थुव्वइ, अणुग्गहत्थीहिं तह न णामिंदो / एमेव दव्वभावे, पूया-थुति-लद्धिणाणत्तं // 19 // "जह ठवणिंदो०' पुव्वद्धं / अनुग्रहेणार्थो येषां ते अनुग्रहार्थिनः / अतस्तैरनुग्रहार्थिभिर्यथा स्थापनेन्द्रः वाग्भिः पुष्पादिभिश्च स्तूयते अर्च्यते च, न तथा नामेन्द्रो माणवकः / द्रव्य-भावेन्द्रयोविशेषोऽपदिश्यते अधुना / "एमेव०" पच्छद्धं / एवमवधारणे / किं अवधारयितव्वं? जहा नार्मिदो अणुग्गहत्थीहिं न पूइज्जइ न थुव्वति, तहा दव्विदो वि। जहा ठवणिंदो पूइज्जइ थुव्वइ य, तहा भाविदो वि / किं च दव्व-भाविंदाणं लद्धीतो नाणत्तं विशेष इत्यर्थः / यथा भावेन्द्रः शचीपतिः सामानिक-त्रायस्त्रिंशकादिभिः परिवृतः ऋद्धिप्राप्तः, उपयोगश्च ज्ञानिक(ज्ञानत्रिक?)स्य / अनया परमैश्वर्यलब्ध्या उपयोगलब्ध्या च परित्यक्तो द्रव्येन्द्रः / एतेन पगारेण जत्थ जत्थावतारणं काउमिच्छति तत्थ तत्थ चउव्विहो निक्लेवो कायव्वो / उक्तञ्च-जत्थ य जं जाणेज्जा० गाधा' / . आह-किमर्थं मंगलग्रहणं क्रियते ? / उच्यते- . . विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवजोग णिज्जराऽधिगमो। . भत्ती पभावणा वि य, णिवणिहिविज्जाति आहरणा // 20 // "विग्घोवसमो०" गाहा / रोगादिविग्घोवसमो भवति / अहो ! मेहता यत्नेन आचार्यो व्याख्यारंभं करोतीति श्रद्धा भवति शिष्यस्य शास्त्रग्रहणे / सद्धाओ य आयरो भवति / गेण्हियव्वे उत्साह इत्यर्थः / आदरेण य तदुवउत्तो भवति / तदुवउत्तस्स य महती निज्जरा भवति / अधिगमश्च भवति / शास्त्रस्योपयोगेन उपलब्धिरित्यर्थः / अधिगतशास्त्रस्य च तस्मिन् भक्तिर्भवति / सेवा इत्यर्थः / पभावणा-अण्णे वि एवं चेव सद्धादीणि काहिति / जत्ति पुण न कीरति मंगलं तो एएसिं विग्घोवसमादीणं पसिद्धी न भवति / णिव-णिधि-विज्जादि आहरणा, आहरणा दिटुंता इत्यर्थः / आदिग्गहणेणं जोग-मंता / जहा कोइ कज्जत्थी रायं अधिगंतुकामो सव्वमंगलाणि पुष्पाणि य घेत्तुं अल्लियति / उक्तञ्च 1. जत्थ य जं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं / जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्थ // (आचार Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१९-२२] गंधपुडिया पयंपइ गोरसघडओ करेड़ कज्जाई। - मणिबंधम्मि पयलिए गहाओ३ साणुग्गहा हुंति // - ढुक्को य अंजलिं करेति / पाएसु य पडइ / जइ एयं उवयारं करेति तो राया तूसति / से तुढे य णिवे जो तयधीणो अत्थो सो सिज्झइ / अह एवं न करेति तो ण तूसति / तोसाऽभावे य तयधीणस्स अत्थस्स असिद्धी भवति / एवं णिहिं पि उक्खणिउकामो विज्जं मंतं वा साहिउकामो जइ दव्व-खेत्त-काल-भावजुत्तं उवयारं करेति तो णिहिं विज्जं मंतं वा साहेति / तत्थ दव्वतो पुष्पादि, खेत्तओ सुस्साणादिसु, कालओ किण्हपक्खचउद्दसादिसु, भावओ अणुलोम-पडिलोमोवसग्गसहणं / दव्वादिसु पुण उवयारेसु अकतेसु णिहि-विज्ज-मंता ण सिझंति / जहा एतेसु तहा सत्थस्स वि / जो जत्थ उवयारो सो कायव्वो / किं च–दिट्ठमेतं लोगे जो जेंण विणा अत्थो, ण सिज्झइ तस्स तव्विहं करणं / विवरीय अभावेण य, ण सिज्झई सिज्झई इहरा // 21 // "जो जेण विणा०" गाहा / जहा घडं साहेउकामो न चक्र-दण्ड-मृत्पिण्डादिभिविना साधयति / अह घडं साहेउकामो विपरीतानि पटोपकरणानि गृण्हाति, अभावेण य चक्र-दण्डसूत्रोदकादीनां न सिध्यति / "सिज्झते इहरा" इहरा णाम अविवरीएहिं भावेण य चक्कादीणं पुरिसकारेण य सिज्झति / तम्हा कायव्वं मंगलं / पुनरप्याह-यद्यादि-मध्यावसानेषु मंगलं, अर्थादापन्नं यदंतरालद्वयं तदमंगलम् ? उच्यते जइ वि य तिट्ठाण कयं, तह वि हु दोसो न बाहए इयरो / तिसमुब्भवदिटुंता, सेसं पि हु मंगलं होइ // 22 // "जइ वि य०" गाहा / इयरो णाम अंतरालद्वयामंगलदोषः / कथमिति चेत् ? तदात्मकत्वात् / को दृष्टान्तः ? त्रिसमुद्भवः / कश्चासौ ? मोदकः / त्रिभिर्गुड-घृतसमितैरुद्भूतः, आदिमध्यावसानेषु सर्व एव मधुरः / तद्वदेतदपि / शेषमित्यन्तरालद्वयम् / आहयदेतद् भवद्भिः शास्त्रमारब्धं एतदादिमध्याऽवसानेषु मंगलम् / यदपि विग्घोवसमादि-णिमित्तं तस्स मंगलस्स अन्नं मंगलं कृतं नंदी सा वि मंगलं / एवं च मंगलस्यापि मंगले क्रियमाणे अनवस्था भवति / कथं ? तस्यान्यत्, तस्याप्यन्यद्, एवं मंगलस्यानवस्थानमनंतता प्रसज्यते इत्यर्थः / अथाभिप्रेतं-नंदी मंगलम्, शास्त्रममंगलम्, तन्नन्द्या मंगलीक्रियते / एवं किं प्राप्तं ? यदा नंदीव्याख्यानमकृत्वा शास्त्रव्याख्यानारंभः तदा तर्हि शास्त्रममंगलं, अमंगलत्वाच्च ज्ञानं न . 1. पुष्फपु० पू० 1 / ०पुडिया य जंपति पा० / पुडिया व जंपइ पू० 2 / 2. पयलिप्या, पू० 2 / 3. साणुग्गह होंति सव्वगहा, भा०वृ० / सव्वे गहा साणु० पा०, पू० 1 / 3. तत् तया मं० पू० 1 / Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका भवति / ज्ञानाऽभावाच्च कुतो व्याख्यानं ? / अत उच्यते ण वि य हु होयऽणवत्था, ण वि य हु मंगलममंगलं होइ / "ण वि य हु०" पुव्वद्धं / कंठं / अणवत्था न भवति / जेण सा णंदी सत्थाओ अणत्थंतरभूता, सत्थं च मंगलं / तस्स य मंगलस्स अण्णं मंगलं ण कयं, अंतो अणवत्था न भवति / जया वि णंदीए वक्खाणं अकाउं सत्थमारब्भइ तदा वि हु मंगलं शास्त्रम् / तदमंगलं न भवति, त्रिमंगलात्मकत्वात् शास्त्रस्येति / एवं ताव णंदीए अणत्थंतराए अणवत्थामंगलाणि ण भवंति / इदाणिं जति वि णंदी सत्थाओ अत्यंतरा भवति, तया वि अणवत्थामंगलाणि ण भवंति / अमंगलं ताव कहं ण भवति ? उच्यते अप्पपराभिव्वत्ति(त्ती )य, लोणुण्हपदीवमादि व्व // 23 // 'अप्पपरा०' पच्छद्धं / णंदी अप्पणा वि मंगलं, सत्थं पि मंगलीकरेइ / सत्थं पि अप्पणा वि मंगलं गंदी पि मंगलीकरोति / एवं अप्पपराभिव्वत्तीतो दोण्हं मंगलाणं एक्कीभूयाणं सुट्टयरं मंगलभावो भवति / कथमिति चेदुच्यते-"लोणुण्हपदीवमादि व्व" / जहा दोण्हं लवणाणं एगीभूताणं सुट्ठयरं लवणभावो भवति, दोण्हं वा उण्हाणं उपहभावो। दोण्हं वा पदीवाणं एगीभूताणं पगासभावो / आदिग्रहणान्मधुर-शीतल-स्नेहादिद्रव्याणां / एवमिहापि / स्यान्मतिः, अनवस्था-तृतीयादिमंगलोत्पत्तेः सुतरां मंगलभावः' ! उच्यते-न / प्रयोजनाभावात्. लोकसंव्यवहारवत् / यथा-लोके कस्यचिदातुरस्य शर्करापलद्वयमौषधम् / यद्यपि तृतीयादिशर्करापलोपपत्तेः सुतरां मधुरभावो भवति, तथापि प्रयोजनाभावात् नोपार्दीयते / एवमिहापि / णामादीएहिं अणुओगदारेहिं मंगलं भणितं / ३इदाणी कारणं णंदी अपदिश्यते / “एमेव होइ नंदी" [गा० 5] पच्छद्धं / "तेसिं च''त्ति मंगलनंदीणं / एवमवधारणे / किमवधारयितव्वं ? जधा मंगलस्स चउव्विहो निक्खेवो भणिओ तधा णंदीए वि / तत्थ गाधा णंदी चतुक्क दव्वे, संखब्बारसगतूरसंघातो। "णंदी चउक्क०" गाहा / चउक्कं दव्वादि / नाम-स्थापने पूर्ववत् / दव्वणंदी-संखबारसग-तूरसंघातो। इदाणी जं तं मूलदारगाधाए (गा० 3) भणितं पंचक त्ति, अस्य व्याख्या भावम्मि णाणपणगं, पच्चक्खियरं च तं दुविहं // 24 // "भावम्मि णाणपणगं" भावणंदी पंचविधं णाणं / "दुग' त्ति / अस्य व्याख्या१. मंगलभावात् पा० / 2. ०हारात् पू० 2 / 3. इयाणि पा० / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२३-२८] पच्चक्खितरं च तं दुविहं / "इतरं" ति परोक्खं / आह-प्रत्यक्ष-परोक्षयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते जीवो अक्खो तं पड़, जं वदति तं तु होति पच्चक्खं / परतो पुण अक्खस्सा, वटुंतं होति पारुक्खं // 25 // "जीवो अक्खो०" गाधा / “अक्ख" इति जीवस्याख्या, तं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं / ज्ञानेन जीवो तत्त्वान्युपलभत' इत्यर्थः / परतो निमित्तादित्यर्थः, अक्षस्य जीवस्य वर्तमानमर्थग्राहकत्वं परोक्षमुच्यते / एवं किं सव्वेसि ? भण्णइ केसिंचि इंदियाइं, अक्खाइं तदुवलद्धिपच्चक्खं / तं तु ण जुज्जइ जम्हा, अग्गाहगर्मिदियं विसए // 26 // "केसिंच इंदियाइं०" गाधा / केषाञ्चित् वैशेषिकादीनां चक्षुरादीनि इन्द्रियाणि अक्षाणि, यत्तैरुपलभ्यते तत् प्रत्यक्षं / तच्च न युज्यते / कस्माद् ? यस्मादग्राहकमिन्द्रियं विषये। अस्य व्याख्या ण वि इंदियाइँ उवलद्धिमंति विगतेसु विसयसंभरणा। जह गेहगवक्खाई, जो अणुसरिया स उवलद्धा // 27 // "ण वि इंदियाइं०" गाधा / न त्विद्रियाण्युपलब्धिमंति, कस्माद् ? विगतेष्वपि इन्द्रियेषु तदुपलब्धानुस्मरणात् / यथा-गेह-गवाक्षाणि / योऽनुसरिता, आरोढा इत्यर्थः / स उपलब्धाऽर्थानां, न गेह-गवाक्षाणि / गवाक्षकविगमेऽपि च तदुपलब्धानर्थाननुस्मरत्येवासौ। एवं गृहवत् शरीरं, अनुसरितृवदात्मा, गवाक्षकानि चेन्द्रियाणि / किञ्च 'लैङ्गिकं च तद् ज्ञानं यदिन्द्रियैरुपलभ्यते' / कथमित्यत्रोच्यते धूमनिमित्तं णाणं, अग्गिम्मि लिंगियं जहा होति / तह इंदियाइलिंगं, तं णाणं लिंगियं न कहं ? // 28 // "धूमनिमित्तं०" गाधा / इह हि यथा धूमं दृष्ट्वाऽग्निरुन्मीयते 2, तथा लिंगभूतैरिंद्रियैः शब्दाद्यर्थज्ञानं जायते / यदीन्द्रियाणि न स्युः, ततो न विजानीयादर्थम् / यस्मादेवं तस्मात् तत् ज्ञानं कथं लैङ्गिकं न भवति ? / अन्यश्चायं विशेषः / परोक्षदृष्टोऽर्थः तथा वा स्यादन्यथा वा ? यत्तु त्रिप्रकारेणापि प्रत्यक्षेणाऽवधिज्ञानादिना दृश्यते तत् तथैव भवति, नान्यथा। किञ्च 1. ०वो नान्येनोप० पा० 2, पू० 2 / 2. ०रनुमीयते पू० 2 / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका अपरायत्तं णाणं, पच्चक्खं तिविहमोधिमातीयं / जं परतो आयत्तं, तं पारोक्खं हवइ सव्वं // 29 // "अपरायत्तं०" गाहा / यत् प्रत्यक्षं तदपरायत्तं नाम / यत एव प्रत्यक्षं अत एवाऽपरायत्तं / "जं परतो'' त्ति / पराणीन्द्रियाण्यात्मव्यतिरिक्तानीत्यर्थः / तैरायत्तं तदधीनमित्यर्थः, तत् परोक्षं / आह-कतिप्रकारं पुनः तत् प्रत्यक्षं ? अत उच्यते-"तिगं''ति / अस्य व्याख्या-"पच्चक्खं तिविहमोधिमादीयं" आदिग्गहणात् मणपज्जव-केवलाणि / एषां १त्रयाणामपि संग्रहार्थम् / / ओहि मणपज्जवे या, केवलणाणं तु होति पच्चक्खं / आभिणिबोहियणाणं, सुयणाणं चेव पारोक्खं // 30 // "ओहिमण." पुव्वद्धं / तत्थ पढमं ओधिणाणं / तं दुविहं-भवपच्चइयं देवणारयाणं / खओवसमियं तिरिय-मणुयाणं / तं छव्विहमणुगामियादि वण्णेउं सव्वं पेयं समासतो चउव्विहं पण्णत्तं / तं जहा–दव्वतो खेत्ततो कालतो भावतो / अच्चंतमणुवलद्धा, वि ओहिणाणस्स होंति पच्चक्खा। ओहिण्णाणपरिगया दव्वा असमत्तपज्जाया // 31 // "अच्चंतं०" गाहा / अच्चंतं सव्वकालं, अनुपलंभनीयान्यनुपलभ्यानि, प्रत्यक्षत इत्यर्थः / अवधिज्ञानपरिगतानीतिरे ज्ञातानि द्रव्याण्यसमस्तपैर्यायाणि, प्रत्यक्षाणि / जति सव्वपज्जवेहि जाणेज्जा तो केवली होज्जा / किञ्च- . विवरीयवेसधारी, विज्जंजणसिद्ध देवताए वा / छाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा // 32 // , पुढवीइ तरुगिरिया, सरीरादिगया य जे भवे दव्वा / परमाणू सुहदुक्खादयो य, ओहिस्स पच्चक्खा // 33 // "विवरीयवेसधारी०" गाहाद्वयम् / कण्ठ्यम् / एस दव्वओ विसओ / खेत्तओ पुणखित्तम्मि उ जावतिए, पासइ दव्वाइँ तं ण पासइ या / काले णाणं भइयं, को सो दव्वं विणा जम्हा // 34 // 'खेत्तम्मि य' पुव्वद्धं / "जावतिए''त्ति जहण्णेणं तिसमयाहारगसुहुमपणगजीवावगाहणामेत्ते, उक्कोसेणं सव्वबहुअगणिजीवपरिच्छिण्णे पासति दव्वादि / आदिग्गहणेणं 1. त्रयाणां सं० पू० 1-2 / 2. परिमिताणि पा० / 3. ०ण्यसमाप्तपर्या० पू० 1-2, पा० / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२९-३८] 13 वण्णादि / तमिति खेत्तं ण पेच्छति / यस्मादुक्तम्-"रूपिष्ववधेः" (तत्त्वार्थ० 1-28) तच्चारूवि खेत्तं अतो ण पेच्छति / "काले णाणं भइयं''ति / कालमरूवि त्ति काउं ण पेच्छति / जम्हा पुण को सो कालो दव्वं विणा ? जं भणियं-दव्वस्स चेव सो पज्जाओ। ओहिण्णाणीयो दव्वस्स पज्जवे असमत्ते जाणति / अओ कालं दव्वस्स पज्जवभूयं जाणति / अतश्च सफला कालज्ञाने भजना / भावओ अणते भावे जाणइ पासइ सव्वभावाणं अणंतभागं। एवं ओधी खेत्तपरिमाणे आदि काउं सव्वगाहाओ वक्खाणेयव्वाओ / भणियं ओहिनाणं // छ॥ मणपज्जवणाणं केरिसं ? भण्णइतं मणपज्जवणाणं, जेण वियाणाइ सण्णिजीवाणं। दुटुं मणिज्जमाणे, मणदब्वे माणसं भावं // 35 // "तं मणपज्जव०" गाहा / ते दव्वे मणिज्जमाणे दटुं तेहिं जे भावा मणिज्जंति ते जाणति / कहं.? भण्णति जाणति य पिहुजणो वि हु, फुडमागारेहिँ माणसं भावं / एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे // 36 // "जाणति य पिहु०" गाधा / पृथु विस्तारे बहुजण इत्यर्थः / एस एगदेसेण उवमा कता / तं पि दव्व-खेत्त-काल-भावेहिं विभासियव्वं / ॥छ। इयाणि केवलणाणं / केवलं प्रतिपूर्णमित्यर्थः / तं कहमुप्पज्जइ ? भण्णइपंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह इमो जीवो। आवरणे झिज्जंते, विसुज्झए केवलं जाव // 37 // "पंकसलिले०" गाहा / "कमेण" नाम अपूर्वकरणादनिवृत्तिकरणमारभ्य जाव चरिमसमए पंचविहं णाणावरणं, चउव्विहं दंसणावरणं, पंचविहं अंतरायं, चोद्दसेताओ कम्मपगडीओ खवेऊण केवलमुप्पाडेति / तं पि दव्वादीहिं विभासियव्वं / तस्स य इमाणि एगट्ठियाणि / दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलण्णाणं / अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं णियतं // 38 // "दव्वादिकसिणविसयं०" ति गाधा / 'दव्वादिकसिणविसयं' ति वा, 'केवलं' ति वा, ‘एगं' ति वा, 'केवलणाणं' ति वा, 'अणिवारियवावारं' ति वा, अविरहिओवओगमित्यर्थः / 'अणंतं' ति वा ज्ञेयं प्रति, 'अविकल्पितं' ति वा निर्भेदं हीनोत्कर्षत्वं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका प्रति। कियंतं कालमविकल्पितमिति चेत् ? उच्यते-'णियतं' नित्यमित्यर्थः / भणियं पच्चक्खं ॥छ।। 'पारोक्खमिदाणिं दुगे यत्ति / अस्य व्याख्या "आभिणिबोहियणाणं०" [भा० 30] पच्छद्धं / तत्थ आभिणिबोहियणाणं केरिसं ? भण्णइ पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ। तं होइ अभिणिबोहं, अभिमुहमत्थं ण विवरीयं // 39 // 'पचक्ख०' गाहा / पच्चक्ख इंदियाणं / जं घडं पासंतो च्चेव अवधारेति-एस घडो। एवं सेसेसु वि इंदिएसु जं पच्चक्खं / पारोक्खं जं अणुमाणोवमेहिं गेण्हति / अणुमाणेणं जहा णदीपूरेणं वासं / सद्देणं संखं / ओवम्मेणं गावीओ गवयं / एवं पच्चक्खाणुमाणोवम्मेहिं जं अत्थं ऊहिऊणं ति अवधारेऊणं णिद्दिसति, तं होति आभिणिबोधं / 'अत्थाभिमुहं' ति अर्थं प्रति लब्धाऽर्थलाभमित्यर्थः / जहा गावि गावि चेव मण्णति न विवरीतं ति / न भवत्याभिनिबोधिकं विपरीतमवधारयमानस्य / गौरवं सर्वदेवमयीं२ वा, एवं मत्यज्ञानं भवतीत्यर्थः / 'दुगे यत्ति, चशब्दात् तं पुण आभिणिबोहियणाणं दुविहं-इंदियणिस्सियं च, अणिंदियणिस्सियं च / अणिदियं चित्तं भण्णइ / आह-कोऽनयोविशेषः ? भण्णति / अत्थाणंतरचारिं, णियतं चित्तं तिकालविसयं तु। अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगं इंदियं लहइ // 40 // "अत्थाणंतर०" गाहा / अत्थे सद्दादिम्मि अणंतरा इंदियावग्गहातो चरति गच्छति अवधारयतीत्यनर्थान्तरं / किञ्च तत् ? चित्तं / अयं विशेषः-किञ्च नियतं-नित्यं चित्तं त्रिकालविषयं / 'अत्थे उ पडुप्पण्णे विणिओगं' ति विसयं, 'लब्भति' त्ति प्राप्नोति / अस्य द्रव्यादिभिः किं परिमाणं ? भण्णति मतिविसयं मतिणाणं, मतिपुव्वं पुण भवे सुतं णाणं। तं पुण समतिसमुत्थं, परोवदेसा व सव्वं पि // 41 // "मतिविसयं मतिणाणं०" जस्स जारिसा मति त्ति भणितं होति, दव्व-खित्त-कालभावस्सिते विसए / सो य चउव्विधो विसओ जधा णंदीए / भणितं आभिनि-बोहियणाणं ॥छ।। इदाणि सुतणाणं / तं कतो उप्पज्जति ? भण्णति-मतिपुव्वं पुण उप्पज्जतिरे सुतणाणं / तं च समतिसमुत्थं परोवदेससमुत्थं च / तत्थ समतिसमुत्थं पत्तेयबुद्धाणं पदाणुसारीण य / परोपदेससमुत्थमस्मदादीनाम् / तं एगविहमेव ? भण्णति, न वि-नैव / तो 1. ०त्थ जाणिउं ति पू० 1 / 2. सर्ववाचम० पा० 2 / 3. पुण भवे सु० पू० 2 / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३९-४५] कतिविधं ? भण्णति–चोद्दसए त्ति (गा० 3) / अस्य व्याख्या अक्खर सण्णी सम्मं, सातियं खलु सपज्जवसितं च / गमियं अंगपविटुं, सत्त वि एते सपडिवक्खा // 42 // अक्खरतिगरूवणया,पढमणयादेसतो ण तं खरति / अभिलप्पा पुण भावा, होति खरा अक्खरा चेव // 43 // * "अक्खरसण्णी०" गाहा / "तत्थक्खर" त्ति, "अक्खरतिगरूवण०" गाहा, अक्खरतिगस्स परूवणा कायव्वा / अत्र बंधानुलोम्यात् प्रशब्दस्य लोपः कृतः / का य सा परूवणा ? इमा-अक्खरं तिविहं / सण्णक्खरं लद्धिअक्खरं वंजणक्खरं च / अक्खरमिति किं भणियं होति ? भण्णति-पढमनयादेसतो ण खरतीति अक्खरं / पढमो त्ति आदिणेगमो, आदेसओ त्ति मलं / तो पढमणयमतेन अणुप्पण्णं णाणं जीवाओ ण क्खरइ / जे पुण तेहिं अक्खरेहि अभिलप्पंति अत्था ते क्खरा वा होज्जा अक्खरा वा / घटादी क्खरा / धम्मत्थिकायादि अक्खरा / अहवा अक्खरा क्खरा णिच्चाणिच्च त्ति भणियं होइ / क्षर संचरणे। आह–केरिसं सण्णक्खरं ? भण्णइ संठाणमगाराई अप्पाभिप्पायतो व जं जस्स / "संठाणमगारादी०" गाहापुव्वद्धं / जहा 'वज्जाकृती मगारे'१ / आदिग्रहणेणं सव्वक्खराणं संठाणमभिधेयं२ / जो वा 'अप्पणो अभिप्पाओ' तेण अक्खरस्स संठाणं३ करेज्जा / यथा पुष्करसार्यां लिप्यां वज्रमित्यादि / इदाणि लद्धिअक्खरं... लद्धी पंचविगप्पा, जस्सुवलब्भो उ जो अत्थो // 44 // "लद्धी पंचविय०" पच्छद्धं / सोतिदियलद्धी जाव फासिंदियलद्धी / ततो लद्धीतो अक्खरं लद्धिअक्खरं / “जस्स'' त्ति / जस्स इंदियस्स 'जो अत्थो उवलब्भो' त्ति उवलंभणीयो, जहा सोइंदियस्स सद्दो उवलब्भो जाव फासिंदियस्स फासो त्ति / तातो उवलंभाओ अत्थाओ अक्खराणं लद्धी उप्पज्जइ / जहा संखसद्देण संखणादोवलंभो / दोण्ह वा अक्खराणं लंभो भवति / एवं सेसेंदिएसु वि भासियव्वं लद्धिअक्खरं / / सामण्ण विसेसेण य, दुविहवलद्धी उ पढमिय अभेया। तिविहा य अणुवलद्धी, उवलद्धी पंचहा बिइया // 45 // 1. वज्राकृतिर्मकारो पा० / ०मगारो पू० 1 // 2. सन्नाणम० पू० 1 / 3. सन्नाणं क० पू० 2 / .. 4. उवलंभो पू० 2 विना / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "सामण्ण विसे०" गाहा / अहवा लद्धिअक्खरं दुविहं-सामण्णलद्धिअक्खरं च विसेसलद्धिअक्खरं च / 'पढमिय'त्ति सामण्णलद्धी, अभेद त्ति विशेषविमुखाऽऽदौ स्कंधावारोपलब्धिवत् / एसा य उवलद्धी अणुवलद्धि' उवेक्खिऊण भवति त्ति / अओ अणुवलद्धी वत्तव्वा / सा तिविहा अच्चंता सामण्णा, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ। सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी // 46 // "अच्चंता साम०" गाहापुव्वद्धं / अच्चंताणुवलद्धि त्ति / अस्य व्याख्या अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो ण संभवइ / दर्दू पि ण याणंते, बोहिय पंडा फणस सत्तू // 47 // "अत्थस्स दरिसणम्मि वि०" गाथा / 'बोधिकाः' नाम पेरंता म्लेच्छाः / तेषां फणसो अत्यन्तपरोक्षः / 'पंडा' इति पाण्डुमधुरा तेषामपि सक्तवोऽत्यन्तपरोक्षाः / सामान्यानुपलब्धिरिदानीम् अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो ण संभवति / सामण्णा बहुमज्झे, मासं पडियं जहा दटुं // 48 // "अत्थस्स उग्गहं०" गाहा / कण्ठ्या / 'सामण्णं' त्ति, सामान्यानुपलब्धिः / विस्मृत्यनुपलब्धिरिदानीम् अत्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी ण होइ सव्वस्स / पुव्वोवलब्धमत्थे, जस्स उणामं ण संभरति // 49 // "अत्थस्स वि उवलंभे०" गाहा / कण्ठ्या / अनुपलब्धिरुक्ता / उपलब्धिः पंचहा। "बितिय"त्ति [गा० 45] विशेषोपलब्धिः / अस्या व्याख्या सारिक्ख विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खरं कोइ। सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे // 50 // "सारिक्ख विव०" पच्छद्धं (गा० 46) / सारिक्खविवक्खोवलद्धीओ जुगवं वक्खाणेति / "सारिक्ख विवक्खे०" गाहा / कण्ठ्या / "अणुमाणे"त्ति / सर्पदर्शनान्नकुलोन्मीयते नकुलदर्शनाच्च तद्विपक्षः सर्प इति / "उभयोपलब्धिः" / अस्या व्याख्या 1. अणुवलद्धी पू० 2 / 2. अस्या पू० 2 / 3. उवलद्धी पंचविहा पा० / उवलद्धी पंचहा पू० 2 / 4. नकुलोऽनुमीयते पू० 1 / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४६-५५] एगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पच्चओ होइ / अस्सतरि खरस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए // 51 // "एगत्थे उवलद्धे०" गाहा / 'अस्सतरो 'त्ति वेगसरो' / तं दटुं खरऽस्साणं दोण्हं जातीणं उवलद्धी भवति / सिहिरिणीउवलंभे गुल-दहियाणं उवलद्धी भवति / 'उवमोवलद्धि' त्ति / अस्या व्याख्या पुव्वं पि अणुवलद्धो, धिप्पति अत्थो उ कोति ओवम्मा। जह गोरेवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो // 52 // _ "पुव्वं पि अणु०" गाधा / कण्ठ्या / 'आगमतो य उवलद्धि' त्ति [गा० 46] / अस्या व्याख्या अत्तागमप्पमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि। भवियाऽभविया कुरवो, णारग दियलोग मोक्खो य // 53 // "अत्तागम्र०" गाधा / आप्ता नाम सर्वज्ञाः / तेभ्यः आप्तेभ्यः आगमः आप्ता-गमः / आप्तागम एव प्रमाणं आप्तागमप्रमाणम् / अतस्तेन आप्तागमप्रमाणेन किञ्चिदविषयस्थमप्यक्षरमुपलभ्यते / यथा-भव्या-ऽभव्य-देवकुरु-उत्तरकुरु-नारक-देवलोकमोक्षा इति, किञ्चिदिति न सर्वमुपलभ्यते / चशब्दादन्ये च भावाः / एवं ताव सण्णीणं उवलद्धी भणिता / असण्णीणं कथम् ? भण्णति-३सो वि चउरि-ति-बिइंदिएहिं / उस्सण्णेणं असण्णीण, अत्थलंभे वि अक्खरंणत्थि। अत्थो च्चिय सण्णीणं, तु अक्खरं णिच्छए भयणा // 54 // "उस्सण्णेण०" गाहा / 'उस्सण्णेणं'ति एकान्तेनैव तेषामसंज्ञिनां उपलब्धेऽप्यर्थेऽक्षरलब्धिर्न भवति / अर्थो नाम सोइंदियादीणं गज्झो / संखशब्दं श्रुत्वा न तेषामेषा लब्धिरुत्पद्यते यथा संखशब्दोऽयमिति / एवं शेषाणामपीन्द्रियाणां विभाषाः / सण्णीणं कहं ? भण्णति-अत्थो च्चिय' अत्थो नाम जहा सद्दो एस / ‘णिच्छए भयण' त्ति, संखसद्दो सिंगसद्दो वा एस एवं णिच्छयगमणं होज्जा वा नवेत्यर्थः / एवं शेषेन्द्रियाणामपि / उक्तं लब्ब्यक्षरं / व्यञ्जनाक्षरमिदानीम् अत्थाभिवंजगं वंजणक्खरं इच्छितेतरं वदतो। रूवं व पगासेणं, वंजति अत्थो जओ तेणं // 55 // 1. ति खरतरो पू० 2 / 2. ०स्थं सम्यग् अक्षरमुप० पू० 2 / 3. स ति-बिंदिएहिं पू० 2 / सो विइंदिएहिं पा० पू० 1 / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "अत्थाभिवंज०" गाहा / जो सोइंदियादीहिं अत्थो उवलद्धो, तं व्यञ्जयतीति वंजणक्खरं, अभिधानमित्यर्थः / इच्छितं णाम जइ आसं भणामि त्ति आसो चेव भणिओ इच्छितं / 'इतरं'ति अणिच्छियं / आसं भणामि त्ति गावी भणिया इतरं / आह, कस्मात् कारणात् अभिधानाक्षरमेव नोच्यते ? उच्यते / 'रूवं व०' पच्छद्धं / यथा रूपं घटादि प्रदीपादिना प्रकाशेन तमसि वर्तमानं अभिव्यज्यते दृश्यत इत्यर्थः / तद्वदर्थमभि-व्यंजयतीत्यर्थः / अस्मात् कारणात् गौणमिति कृत्वा व्यञ्जनाक्षरमभिधीयते / तं पुण जहत्थणियतं, अजहत्थं वा वि वंजणं दुविहं / एगमणेगपरिययं, एमेव य अक्खरेसुं पि // 56 // "तं पुण." गाहा / तं पुण वंजणं जेणत्थो अभिव्यज्यते तद् द्विविधम् / जहत्थणियतं च अजहत्थनियतं च / 'जहत्थणियतं' णाम जहत्थजुत्तं / जहा खमति खमणो इत्यादि / 'अजहत्थणियतं' जहा ण इंदं गोवेतीति इंदगोवओ। ण पलमसति पलासो इत्यादि / इदानीं जं तेण वंजणेण वंजिज्जति वत्थु तं एगपज्जायं वा, अणेगपज्जायं वा होज्जा / एकानेकाभिधानमित्यर्थः / 'एगपरिययं'१ जहा-अलोकः थंडिलमित्यादि / 'अणेगपरिययं'२ जहाजीवः, सत्त्वः प्राणी, भूत इत्यादि / अहवा एगक्खरियं अणेगक्खरियं च / 'एगक्खरियं' जहा-धीः श्रीः इत्यादि / 'अनेकाक्षरिकं' यथा- कन्या, वीणा, लता, माला इत्यादि / तं च वंजणं / सक्कय-पाययभासाविणियुत्तं देसतो अणेगविहं। अभिधाणं अभिधेयातो होइ भिण्णं अभिण्णं च // 57 // "सक्कय-पायय०" गाहा / 'सक्कय' जहा-वृक्ष. इत्यादि / 'पाययं' जहा-रुक्खो इत्यादि / देशाभिधानं च प्रतीत्याऽनेकविधानं भवति / जहा ओयणो मागहाणं, कूरो लाडाणं, चोरो दमिलाणं, इडाकु अंधाणं / एतेसिं अभिधाणाभिधेयाणं किमेकत्वमन्यत्वं वा? भण्णति-"अभिधाणं" पच्छद्धं / अभिधानं वचनं / अभिधेयादर्थात् भिन्नमभिन्नं वा अवगंतव्यम् / तत् कथं ? उच्यते खुर-अग्गि-मोयगोच्चारणम्मि जम्हा उ वयण-सवणाणं / ण वि छेदो ण वि दाहो, ण वि पूरण तेण भिण्णं तु // 58 // 'खुर-अग्गि०' गाहा / यथासंख्येन, एवं तावद्भिन्नं / अभिण्णं कहं ? भण्णति जम्हा उ मोयगे अभिहियम्मि तत्थेव पच्चओ होइ / ण य होइ सो अणत्ते, तेण अभिण्णं तदत्थातो // 59 // . 1. एगपरियायं पू० 1 / 2. अणेगपरियायं ज० पू० 1, पा० / 3. त्याऽनेकाभिधानं पा० / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५६-६३] "जम्हा उ०" गाहा / यस्मात्तु मोदक इत्यपदिष्टे विप्रकृष्टेऽपि मोदके एव संप्रत्ययो भवति, न सन्निकृष्टेऽपि घटे / न चानभिहिते मोदकाभिधाने आसन्नेऽपि मोदके प्रत्ययो भवत्यतो अभिन्नमभिधानमर्थात् / एवं क्षुराग्न्योरपि वक्तव्यम् / एक्कक्कमक्खरस्स उ, सप्पज्जाया हवंति इयरे य / संबद्धमसंबद्धा, एक्केक्का ते भवे दुविहा // 60 // .. "एक्केक्कमक्खर०" गाहा / अस्य पुनर्व्यञ्जनस्य यान्यक्षराणि तत्रैकैकस्याक्षरस्य द्विविधाः पर्यायाः भवन्ति / भेदा इत्यर्थः / तद्यथा-स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च / एक्केक्का ते दुविहा–संबद्धा असंबद्धा य / कहं संबद्धा भवन्ति ? इति उच्यते अत्थित्ते संबद्धा, होति अकारस्स पज्जया जे उ / ते चेव असंबद्धा, णत्थित्तेणं तु सव्वे वि // 61 // "अत्थित्ते संब०" गाहा / जे अकारस्स' सपज्जवा ते अत्थित्तेणं संबद्धा विद्यमानत्वात्, ते चेव सपज्जवा णत्थित्तेणं मग्गिज्जमाणा असंबद्धा / कस्मात् ? विद्यमानत्वात् / एवं ताव सपज्जवा भणिया / असपज्जवा कहं ? भण्णति एमेव असंता.वि उ, णत्थित्तेणं तु होति संबद्धा / ते चेव असंबद्धा अत्थित्तेणं अभावत्ता // 62 // "एमेव असंता वि०" गाहा / जेणेव पगारेणं सपज्जवा भणिया अत्थित्तेण संबद्धा एवं असंतावि णत्थित्तेणं संबद्धा / कस्मात् ? अभावत्वात् / 'ते च्चेव' त्ति असपज्जवा असंबद्धा / कथं ? / उच्यते-सद्भावेणं ति अत्थित्तेणं / कस्मात् ? अभावत्वात् / . . स्वपर्यायाश्चाकारस्य हुस्वादयः, परपर्याया इकारादयः / उक्तञ्च हुस्व-दीर्घ-प्लुतत्वाच्च त्रैस्वर्योपनयेन च। अनुनासिकभेदाच्च, संख्यातोऽष्टादशात्मकः // [ ] एवं शेषाणामप्यक्षराणां स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च वक्तव्या अकारवत् / इदानीं इदं चिन्त्यते / एगक्खरस्स वा अभिधाणस्स अणेगक्खरस्स वा जे अभिधाणक्खरस्स सपज्जवा ते तदैभिधानाभिधेयेऽर्थे सम्बद्धा / अण्णभिधाणाभिधेयेऽर्थे असंबद्धा / णिदरिसणं घडसद्दे घ-ड-ऽकारा, हवंति संबद्धपज्जया एते / ते चेव असंबद्धा, हवंति रहसद्दमादीसु // 63 // "घडसद्दे०" गाधा / 'घडसद्दे' त्ति घडाभिधाने घकार-डकारा “संबद्धपज्जव" 1. अक्खरस्स पू० 2 / 2. ०नासिकसंख्यातो-ऽकारोऽष्टा० पू० 1 / 3. स्वाभिधाना० पा० / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका त्ति, घडे अभिधेये "ते च्चेव"त्ति घकार-डकारा संबद्धा / "रहसद्दमादिसु" त्ति रथाभिधेयादिसु / किं बहुणा संजुत्ताऽसंजुत्तं, इय लभते जेसु जेसु अत्थेसु / विणिओगमक्खरं ते, से हुंति सब्भा( भा)वपज्जाया // 64 // "संजुत्ता०" गाधा / संजुत्तं ति द्विअक्खराइअभिधाणं जहा–कन्ना वीणा इत्यादि / असंजुत्तं एगक्खरमभिधाणं / जधा-धीः श्रीः इत्यादि / 'इय' त्ति एवं 'लभति' त्ति पावति 'भावेसु' त्ति अभिधेयेसु, 'विणिओगं' ति अभिधानत्वं / 'ते सिं होंति सब्भा( भा )वपज्जाया' संबद्धा इति वाक्यशेषः / आह-भणिता तुब्भेहिं सपज्जाया२ असपज्जाया य ते पुण एगस्स अक्खरस्स केवतिया पज्जवा ? भण्णति / सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसग्गेहि गुणियं जावतिया तम्मि पज्जवा एवतिया एगस्स अक्खरस्स सपज्जवा भवंति / एत्तिया चेव परपज्जवा / एत्थ भण्णइ–एगस्स आगासपएसस्स केवतिया पज्जवा? भण्णति -अणंता / तेसिं कओ पसिद्धी भवति ? उच्यते-रूपिद्रव्यमपेक्ष्य / पुनरप्याह-रूपिद्रव्यस्य कतिविहा पर्यायाः ? उच्यते-व्यवहारवशात् चतुर्विधाः-गुरुगादि / निश्चयतो द्विविधाः-गुरुलघवः अगुरुलघवश्च / यतोऽपदिष्टं णिच्छयतो सव्वगुरूं, सव्वलहुं वा ण विज्जते .दव्वं / ववहारतो तु जुज्जति, बादरखंधेसु णऽण्णेसु // 65 // . "णिच्छयतो०" गाधा / निश्चयो नाम निश्चयनयः, तस्य न किंचिद् द्रव्यं एकान्तगुरु, यद्येकान्तगुरु स्यात् ततः एकान्तेनैव पतनर्मि स्यात् / न च पतति / अतो न सर्वगुरु द्रव्यमस्ति / यद्यप्येकान्तेन लघु स्याद् न कदाचिदपि पतेत् / पतति च / तस्मान्न सर्वलघुद्रव्यमस्ति / व्यवहारात् तु युज्यते-गुरुद्रव्यं बादस्परिणतेष्वनन्तप्रदेशिकेषु स्कन्धेषु, "नान्येषु / सूक्ष्मपरिणतेष्वनन्तप्रदेशिकेष्वपीत्यर्थः / गुरु यथा-अयस्पिण्ड: / लघु यथाउलूकपत्रम् / गुरुलघु यथा-वायुः / अगुरुलघु आकाशं / निश्चयात्तु गुरुलघवः सर्वे पुद्गलाः / यस्मात् परमाणोरपि गुरुलघुभावो विद्यते / कथम् ? यदि तस्यैकान्तेन गुरुभावो न स्यात् ततोऽनन्तपरमाणुसमवायेऽपि गुरुत्वं न स्यात् ततश्चाऽसत्कार्यप्रसंगः / असत्कार्ये च वैशेषिकादिसिद्धान्तप्रसङ्गः / यस्मादमी दोषास्तस्मात् परमाणौ गुरुत्वं विद्यते। एवं लघुत्वमपि / अगुरुलघवश्च सर्वे अमूर्तास्तिकायाः / अतो अवेक्खिता पसिद्धी एतेसि / पोग्गलत्थिकायगुरुलघुपज्जवाणं परिमाणं भण्णति 1. द्वयक्षराभिधानं पू० 2 / 2. ०या परपज्जा० पू० 2 / 3. ०वा भवंति पू० 2 / 4. पज्जवा भवंति पू० 1 पा० / 5. नान्येषु / लघुद्रव्यं सूक्ष्म० पू०२ विना / 6. अपेक्षिका पू० 2 / / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६४-७०] ते गुरुलहुपज्जाया, पण्णाछेदेण वोकसित्ताणं। जा बायरो जहण्णो, अणंतहाणीए हायंता // 66 // "ते गुरुलघु०" गाहा / ते गुरुपज्जाया लहुपज्जाया य प्रज्ञाच्छेदेन अवणिज्जंति / थूलदविएहि आढवेत्ता जाव परमाणू / थूला बादरपरिणता अणंतपदेसिता खंधा, तेसिं गुरुपज्जाएहितो लहुपज्जाया अणंतगुणहीणा, तदणंतरा' सुहुमपरिणता अणंतपदेसिया खंधा / तेसिं बादरपरिणताणंतपदेसियखंधलघुपज्जाएहितो अणंतगुणहीणा गुरुपज्जाया / तग्गुरुपज्जाएहितो य अणंतगुणवड्डिया लहू पज्जाया / एवं जहा जहा सुहुमा तहा तहा गुरुपज्जाया अणंतगुणहाणीए हायंति, लहू पज्जाया अणंतवुड्डीए वटुंति / जाव दुपएसियलघुपज्जएहितो अणंतगुणहीणा परमाणुगुरुपज्जाया / तग्गुरुपज्जाएहितो य अणंतगुणवड्डिया लहू पज्जाया / आह, भणिता पोग्गलाणं गुरु-लहुपज्जयाणं हाणी वुड्डी य / एतेसिं पुण के कतो बहुया थोवा वा ? उच्यते-सव्वथोवा अणंतपदेसिया खंधा / णंतपएसाणं पि य, सव्वत्थोवा उ बादरा खंधा। तेसिं पि.वग्गणाओ, हवंति णंताओ सट्ठाणे // 67 // तत्तो य वग्गणाओ, सुहमाण भवंतऽणंतगुणियातो / परमाणूण य एक्का, संखे संखेयरेऽसंखा // 68 // "णतंपदेसा०" गाधार्द्धम् / ते केवतिया भेदेणं ? उच्यते / 'तेसिं०' पच्छ / जहा कुचिकण्णस्स गावीणं / 'तत्तो य०' पुव्वद्धं / परमाणूणं एगा वग्गणा / संखेज्जपएसियाणं संखेज्जाओ वग्गणाओ / 'इतरे'त्ति, असंखेज्जपएसिया, तेसिं असंखेज्जाओ वग्गणाओ / इति पोग्गलकायम्मी, सव्वत्थोवा उ गुरुलहू दव्वा / उभयपडिसेहिया पुण, अणंतकप्पा बहुवियप्पा // 69 // "इति पोग्गल०" गाधा / उभयपडिसेधिया णामं अगुरुलहू, ते य णयमतातो अत्थि अण्णम्मि सिद्धते / इहं न भणिया चुण्णिकारेणं / सिद्धते य "बादरमिह गुरुलहुयं अगुरुलहुं सेंसयं सव्वं [विशेषा० भा० गा० 660] // " - इह पुण पगए बादरीहोताणं पोग्गलाणं गुरुपज्जाया वर्ल्डति, लघुपज्जाया हायति / सुहमीहवंताण पुण लघुपज्जाया वटुंति गुरुपज्जाया हायति / केण हवेज्ज णिरोहो, अगुरुलहूपज्जवाण उ अमुत्ते / अच्चंतमसंजोगो, जहेय पुण तव्विवक्खस्स // 70 // 1. तदणंतर० पू० 1 / 2. अणंतहाणीए पू० 1-2 / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [ पीठिका ___ "केण०" गाहा / अमुत्ते पुण अत्थिकाए केण कारणेणं णिरुंभणं णिरोधो तेसिं? अगुरुलघुपज्जायाणं, केण पुण कारणेणं णत्थि वियारणा अगुरुलघुपरियायाणं ? उच्यते"अच्चतमसंजोगो०" पच्छद्धं / तद्विपक्षस्येति गुरुलघुपर्यायानाम् / एवं तु अणंतेहिं, अगुरुलहूपज्जवेहिं संजुत्तं / होइ अमुत्तं दव्वं, अरूविकायाण उ चउण्हं // 71 // _ "एवं तु०" गाहा / एक्कक्को पएसो अणंतेहिं अगुरुलहुपज्जवेहिं संजुत्तो / अरूविअत्थिकायाणं चउण्हं / आह च-तुब्भेहिं जं भणियं 'सव्वागासपएसग्गं अणंतगुणियं पज्जवग्गअक्खरं णिप्फज्जति' तं कथं ? उच्यते उवलद्धी अगुरुलहू, संजोग-सरादिणो य पज्जाया। एतेण हुंतऽणंता, सव्वागासप्पएसेहिं // 72 // "उवलद्धी०" गाहा / २उपलम्भनमुपलब्धिः ज्ञानमित्यर्थः / कस्य ? इत्यत्रोच्यतेधम्मा-धम्म-जीव-पोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं सव्वपगारेहिं उवलम्भनं उपलब्धिः। 'अगुरुलहु' त्ति सव्वागासपदेसाणं एक्केकस्स आगासपदेसस्स अणंता अगुरुलहुपज्जाया / 'संजोग'त्ति ते भावा जावतिएहिं अक्खरसंजोगेहिं अभिलप्पंति त्रिकालविषये। 'सरादि 'त्ति त एव भावा उदात्तादिभिः स्वरैरभिलप्यन्ते। आदिग्रहणाद् या चान्या काचिच्चेष्टा, शकुनरुताद्या वा स्वरा गृह्यन्ते। पर्यायशब्दः अन्तेऽभिहितः प्रतिपदमुपतिष्ठति / यथा-उपलब्धिपर्यायः, एवं सर्वत्र / अनेन कारणेनानन्ता ज्ञानपर्यायाः सर्वाकाशप्रदेशेभ्यः / यच्चैतद् ज्ञानसंज्ञकमक्षरं, अस्य “सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतो भागो निच्चुग्घाडिओ" / अपिग्रहणात् केषांचित् सर्वमेव / सर्वे जीवाः सर्वजीवाः / सर्वजीवानामप्यक्षरस्य अनन्तभागो नित्याऽपावृतः, संसारस्थानामिति वाक्यशेषः / तं पुण केण च्छादितं यस्यानन्तभागो नित्यापावृतः ? उच्यते अविभागेहिं अणंतेहिं, णाणावरणस्स एक्कमेक्को उ। होति पतेसो वरिता, सव्वजियाणं जिणे मोत्तुं // 73 // "अविभागेहिं०" गाहा / "अविभागेहिं"ति ण सक्कं ति छउमत्थेणं चक्खुणा विभयितुं / पलिच्छेदा इति वाक्यशेषः / अंशा भेदा उत्तरपगडीओ इत्यनर्थान्तरं / तैरविभागैरनन्तैः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः सर्वजीवानामेकैकः प्रदेश आवृतो जिनान् मुक्त्वा / अक्षरमित्येतस्याभिधानस्येयं व्याख्या 1. केसि अ० पू० 1, पा० / 2-3. उपलभन० पू०२ / 4. नन्दीसूत्रे सू० 77, पृ० 31; म००वि० आवृत्ति; सं० मुनि पुण्यविजय / 5-6. ०प्रावृतः पू० 2 / 7. गाथेयं अत्र वृत्तौ नादृता / . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७१-७८] ‘णाणं तु अक्खरं जेण खरति ण कयाति तं तु जीवातो। तस्स उ अणंतभागो, न वरिज्जति सव्वजीवाणं // 74 // जति पुण सो वि वरिज्जेज्ज, तेण जीवो अजीवयं गच्छे / सुट्ट वि मेहसमुदए, होति पभा चंद-सूराणं // 75 // "णाणं तु अक्खरं०" गाधा / कधमजीवत्तं गच्छे ? अज्ञत्वात् / यश्चाज्ञः स निश्चेतनो भवति, घटवत् / तस्मात् सुष्ठ्वप्याऽऽवृतोऽसौ न निश्चेतनः / कथं ? यथा-"सुट्ठ वि मेहसमुदए"। आह-णणु पुढविमादीणं पंचण्हं सव्वहा आवरितं णाणं ? उच्यते अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं / णाणावरणुदएणं, बिंदियमाई कमविसोही // 76 // "अव्वत्तमक्खरं०" गाहा / अव्यक्तमस्फुटं, केनाऽस्फुटमिति चेदुच्यते-पञ्चानां पार्थिवादीनां इटुं चित्तमित्यर्थः / स्त्यानं इटुं / यथा-स्थीनेन उदकेन न प्रयोजनं भवति / अथवा स्थीनगृद्धिः, गृद्धिरित्यर्थः / जेण भण्णति-इच्छा-मुच्छा-गेधी / अतस्तेन थीणगिद्धि-सहिएणं णाणावरणोदएणं / तं च सव्वथोवं पुढविकाइयाणं / कस्मात् ? निश्चेष्टत्वात् / ततः क्रमाद् यावत् वनस्पतिकायिकानां विसुद्धतरं, ततो परं बेंदियमादी-कमविसोही जाव अणुत्तरोववाइयाणं, ततो वि चोद्दसपुव्वीणं विसुद्धतरं / सेत्तं अक्खरसुतं ॥छ।। इयाणि अणक्खरसुयं ऊससियं णीससियं, णिच्छुढं खासियं च छीयं च / णिस्सिघियमणुसारं, अणक्खरं छेलिआदीयं // 77 // "ऊससियं णीस०" गाहा / उद्धं सासो उस्सासो, अहो सासो णिस्सासोरे / आदि ग्रहणात् जंभातियमाझ्याणि / तत्थ णिदरिसणं "तिट्टित्ति णंदगोवस्स बालिया वच्छए णिवारेइ। छच्छ त्ति य मुद्धडए, सेसे लट्ठीणिवाएणं // 78 // "तिट्टि त्ति नंदगोवस्स०" गाहा / कंठ्या / सेत्तं अणक्खरसुयं ॥छ।। इदाणि सण्णिसुयं / तत्थ गाहा ऊसासव 1. अज्ञानत्वात् पू० 1, पा० / 2. अहोस्सासो अधस्सासो पू० 2 / 3. ०तियमणियाणि पू० 2 / 4. तित्ति ति पू० 1-2 / तत्ति न० पा० / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका संजाणणेण सण्णी, कालिय हेऊ य दिट्ठिवाए य। आदेसा तिण्णि भवे, तेसिं च परूवणा इणमो // 79 // "संजाणणेण०" गाधा / संजाणतीति सण्णा, सा जस्स अत्थि सो सण्णी / तस्स सुतं सण्णिसुतं / तं तिविहं-कालिओवदेसेणं, हेऊवदेसेणं, दिट्ठीवादोवदेसेणं / एते आदेसा तिण्णि भवे / "तेसिं च परूवणा इणमो" त्ति इमा। तत्थ कालिओवदेसेणं सण्णी जस्स णं ईहा-ऽपूहा-मग्गणा-गवेसणा-चिंता इत्यादिम(म)नःपर्यायो यस्यास्ति स संज्ञी, तस्मान्मनसः उत्पत्तिर्वक्तव्या / अत उच्यते खंधेऽणंतपएसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणंते / तल्लद्धि मणेति तओ, भासादब्वे व भासते // 80 // "खंधे०" गाहा / जहा णंदीए आवस्सए मणवग्गणासु / तल्लद्धि त्ति मणलद्धी / भासाद्रव्याणीव भासंतो यथोपादत्ते तथा मणद्रव्याण्युपादाय "मणेति"-तेहिं य मणोदव्वेहिं ते ते भावे मुणेति / कहं ? उच्यते रूवे होउवलद्धी, चक्खुमतोवदंसिए पगासेण / इय छव्विहमुवओगो, मणदव्वपगासिए अत्थे // 81 // "रूवे होउवलद्धी०" गाहा / जहा चक्खुमतो पगाससंजुत्तेण चक्खुणा घडादिरूवोवलद्धी भवति, एवं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु छट्ठो य सुमिणादिसु उवतोगो भवति मणदव्वपगासिए अत्थे / आह-जति मणदव्व-पगासिए अत्थे उवओगो तो असण्णीणं मणदव्वविरहियाणं कहं अत्थोवलद्धी भवतु ? उच्यते एसेव य दिटुंतो, णातिफुडे खलु जहा पगासेणं। ' होउवलद्धी रूवे, अस्सण्णीणं तहा विसए // 82 // "एसेव य०" गाहा / एष इति, यथा-चक्षुष्मतो मन्दप्रकाशसंयुक्तेऽपि चक्षुषि रूपोपलब्धिर्भवति, अस्सण्णीणं तधा विसए / अथवा अयमन्यो दृष्टान्तः अधवा मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वा वि अत्थउवलंभो। इय होति असण्णीणं उवलंभो इंदिया जेसिं // 83 // "अधवा मु०" गाहा / “अत्थउवलंभो" अव्वत्तो भवतीति वाक्यशेषः / "इयर होइ असण्णीणं उवलंभो अव्वत्तो / इंदियाणि जइ जेसिं तेसिं ततिविहो / आह-यदि द्वयोरपि चैतन्यं जीवत्वं च तुल्यं कथं मनसो हीनाधिकत्वं भवति ? उच्यते-. 1. ०पर्यायाः पू० 2 / 2. इह हो० पू० 1 / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७९-८८] तुल्ले च्छेयणभावे, जं सामत्थं तु चक्करयणस्स / तं तु जहक्कमहीणं, न होइ सरपत्तमादीणं // 84 // "तल्ले च्छेयणभावे" गाहा / आदिग्रहणात् दर्भाणाम् / एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयःएवं मणविसतीणं, जा पडुया होइ उग्गहातीसु / तुल्ले चेयणभावे, न होइ अस्सण्णिणं सा तु // 85 // * "एवं मणवि०" गाहा / "पडुत"त्ति समत्थता उग्गहादीहिं चउहि पगारेहिं अत्थावधारणे कायव्वे / "न होति असण्णीणं सा तु" उग्गहादीहिं अत्थावधारणा / से तं कालिओवएसेणं / इयाणि हेतूवदेसेणं भण्णइ जेसि पवित्ति-णिवित्ती, इट्ठा-ऽणिढेसु होइ विसएसु। ते हेतुवाउ सण्णी, वइहम्मेणं घडो णाई( यं)॥८६॥ "जेसिं पवित्ति०' गाहा / जेसिं सत्ताणं इट्ठाणिढेसु सद्दादिविसएसु पवित्ति१णिवित्तीओ भवंति, ते हेउवातसण्णी / जहा-२पिपिलियाणं गुलादिसप्पणं / अतो हेतुवादसंज्ञिनो द्वीन्द्रियादय इति नः प्रतिज्ञा / कस्मात् ? इष्टानिष्टविषयप्रवृत्ति-निवृत्तित्वात् / वैधयेणाऽऽसादृश्येन ३ज्ञातं दृष्टान्तः घटः / यथा हि अचेतनस्य घटस्य इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्ती न भवतः न च तथा जीवानां विद्यमानेष्वीहादिषु इष्टानिष्टविषय-प्रवृत्तिनिवृत्ती न भवतः / तस्मादिष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तित्वात् पश्यामः, येषामिष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्ती स्तः, ते संज्ञिनो द्वीन्द्रियादयः / इत्युक्तो हेतुवादसंज्ञी ॥छ।। से किं तं "दिट्ठिवादोवदेसेणं ? दिट्ठिवादोवदेसेणं सण्णिसुतस्स खओवसमेणं सण्णीति लब्भति / असण्णीसुतस्स खओवसमेणं असण्णीति लब्भति / सण्णिसुतं नाम सम्मसुयं / असण्णिसुयं ति मिच्छसुयं / आह-जदि दो वि खओवसमियाणि दोण्ह वि य सुयाणि तो किं एगं असण्णिसुतं भण्णइ ? जेण असोभणं तं सुयं पि होतयं ? जहा होति असीला णारी, जा खलु पतिणो ण रक्खए सेज्जं / तं पि त हु होति सीलं, असोहणं तेण उ असीला // 87 // "असीला०" गाधा / कण्ठ्या / एस दिटुंतो / अयमत्थोवणओएवं खओवसमिए, जं वटुंते उणाणविसयम्मि / ते खलु हवंति सण्णी, अण्णाणी होति अस्सण्णी // 48 // 1. णियत्तीओ पू० 1-2 / 2. पिविलियाणं पू० 2; पिपीलियादीणं पा० / 3. नायं पू० 2 / 4-5. निवृत्तिर्न भवति पू० 2 / 6. निवृत्तिरस्ति पू० 2 / 7. दिट्ठिवातीओ० पू० 1 / दिट्ठिवादिओ० पू० 2 / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "एवं खओ०" गाधा / जं भणियं सम्मद्दिट्ठी सण्णी, मिच्छद्दिट्ठी असण्णी / सण्णिअसण्णिसुयाणि दोवि गयाणि ॥छ।। इदाणिं सम्मसुय-मिच्छसुयाणि दो वि समयं चेव भण्णंति अंगा-ऽणंगपविलु, सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं / आसज्ज उ सामित्तं, लोइय लोउत्तरे भयणा // 89 // "अंगा-ऽणंगप०" गाहा / "आसज्ज" त्ति प्राप्य "सामित्तं" ति परिगृहीतं / लोइयसुयं पि सम्मद्दिट्ठिपरिग्गहियं सम्मसुयं भवति / लोउत्तरसुयं पि मिच्छद्दिट्ठिपरिग्गहियं मिच्छसुयं भवति / एस भयणा / सम्मद्दिछिणा मिच्छद्दिविणा वा सामिणा उभयसुयसेवणत्ति भणियं होइ / आह जेण सम्मत्तेण परिग्गहियं सम्मसुयं भवइ, तं किंपच्चयं ? उच्यतेआभिणिबोहियणाणभेदो अवायो पच्चयो तस्स / जेण भणितं आभिणिबोहमवायं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं / जा मणपज्जवणाणी, सम्मद्दिट्ठी उ केवलिणो // 10 // "आभिणिबोहि०" त्ति गाधा / आभिणिबोधियणाणं तब्भेदमवायं वदंति / सो केरिसो ? भण्णति / जहा-खाणुपुरिसोचिते पदेसे मंदमंदपगासाएं रयणीए, तेसिं खाणुपुरिसाणं परिच्छेदो जया सलिंगेहिं कतो हवति / जहा-खाणू एस, न पुरिसो / पुरिसो वा एस, न खाणू। तियो अवाओ भन्नति / एवं अवाएणं अवगएसु खाणु-पुरिसेसु जा तत्तरुयी तं सम्मत्तं भवति / जं भणितं-खाणुं खाणुं चेव रोएति, पोग्गलमयं वणस्सतिसरीरं, न बंभणादि / एवं पुरिसं पि जहाऽवत्थियं रोएति / एवं च अवायपच्चयं सम्मइंसणं जाव मणपज्जवनाणी ताव भवति / "सम्मद्दिट्ठी उ केवलिणो", जं भणितं-णत्थि तेसिं अवायपच्चयं सम्मइंसणं आभिणिबोहियणाणाभावातो / तं पुण सम्मइंसणं कतिविहं ? अत उच्यते उवसामग सासाणं, खाओवसमियं च वेदगं खइयं / सम्मत्तं पंचविहं जह लब्भति तं तहा वोच्छं // 91 // "उवसामग सासायण०" गाहा / उवसमसम्मत्तं, सासायणसम्मत्तं, खओवसमियसम्मत्तं, वेयगसम्मत्तं, 'खइयसम्मत्तं ति / एयं "पंचविहं सम्मत्तं जह लब्भइ, तं तहा वोच्छं''ति भणामि / कम्माणं खएण वा उवसमेण वा खओवसमेण वा / एते य तिण्णि पगारा बद्धस्स कम्मणो हवंति, नाबद्धस्स / एएणाभिसंबंधेण 1. परिगृहीतारं लो० पू० 1 / परिगृहीतिं पू० 2 / 2. तहेयमवायं पू० 1 / 3. तदा पा० / तया पू० 1 / ततो पू० 2 / 4. खाइयं० पा० / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-८९-९७] बंधट्ठितीपमाणं, सामित्तं चेव सव्वपगडीणं / को केवइयं बंधइ, खवेइ वा केत्तियं कोइ // 92 // "बंधट्ठिति०" गाहा / बंध त्ति चउव्विहो बंधो वत्तव्वो / तत्थ जो ट्ठितिबंधो तम्मि आउयवज्जा उ ठिई, मोहोक्कोसम्म होइ उक्कोसा / मोहविवज्जुक्कोसे, मोहो सेसा य भइयाउ॥९३॥ "आउयवज्जा०" गाहा / वित्थरेण जहा विसेसावस्सगस्स भस्से / "सामित्तं चेव सव्वपगडीणं / को केवतियं बंधति, खवेति वा केत्तियं को उ?" // त्ति, जहा 'कम्मपगडीए'। एतं पसंगेण गयं ॥छ।। ___ इयाणि पगतं भण्णति / तत्थ सत्तण्ह' वि कम्मपगडीणं गंठिम्मि अपुव्वकरणेणं भिण्णे, अणियट्टिकरणेणं सम्मइंसणं लब्भति / एतेणाभिसंबंधेणं गंठी करणाणि य वत्तव्वाणि / तत्थ गंठी अंतिमकोडाकोडीएँ होइ सव्वासि कम्मपगडीणं / पलिया असंखभागे, खीणे सेसे हवइ गंठी // 14 // "अंतिमकोडाकोडीए०" गाहा / कंठा / इयाणि करणाणितिविहं च होइ करणं, अहापवत्तं तु भव्व-ऽभव्वाणं / भवियाण इमे अण्णे अपुव्वकरणाऽनियट्टी य // 15 // "तिविहं०" गाहा / कंठा / एतेसिं तिण्हं पि करणाणं कं कम्मि काले होति ? उच्यते जा गंठी ता पढम, गंठिं समतिच्छतो अपुव्वं तु / अणियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे // 16 // "जा गंठी०" गाहा / कंठा / 'सम्मत्तपुरक्खडे' त्ति सम्मत्ताभिमुहे / आह-जाव गंठी ताव णिग्गुणेणरे कहं कम्मरासी खविओ ? उच्यते णइ पह जर वत्थ जले, पिवीलिया पुरिस कोद्दवा चेव / सम्मइंसणलंभे, एते खलु अगुदाहरणा // 17 // 1. अट्ठण्ह पू० 2 / 2. निग्गुणा, ता कहं पू० 1 / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "णइ पह०" गाहा / अस्य व्याख्यागिरिसरियपत्थरेहि, आहरणं होइ पढमए करणे। एवमणाभोगियकरणसिद्धितो खवण जा गंठी // 18 // "गिरिसरित०" गाहा० / कंठा / इयाणि जं तं भणितं ."अणियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे" सो कहं सम्मत्तं लभेज्जा ? उच्यते-उवएसेण वा, सयं वा, णिसग्गेणं ति भणियं होति / दिटुंतो जहा- पह-जर' / अनयोर्व्याख्या उवदेसेण सयं वा, णट्ठपहो कोइ मग्गमोतरति। जरितो य ओसहेहिं, पउणइ कोई विणा तेहिं // 19 // "उवएसेण सतं वा०" गाहा / कंठा / ज्वरवद्दर्शनमोहं, औषधवदुपदेशः / इयाणि जो खओवसमसम्मदिट्ठी सो तप्पढमयाए सम्मत्तं पडिवज्जिउकामो अपुव्वेणं तिपुंजं मिच्छत्तं कुणति / अपुव्वेणं ति करणेणं तिपुंजं ति मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तं ति। दिलुतो जहावत्थ-जले / अनयोर्व्याख्या मइल दरसुद्ध सुद्धं, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं वा / एसेव य दिटुंतो, दंसणमोहम्मि तिविहम्मि // 100 // २"मइलदर०" गाहा / कंठा / इयाणि एयम्मि खओवसमसम्मदिदिम्मि अच्छउ असमत्ते चेव / चोदओ भणति-'कहं भविया तं गंठि भिंदिऊण तरंति? अभविया वा कहं तम्मि चेव चिटुंति परिवडंति वा ?' उच्यते-जहा पिवीलिया / अस्य व्याख्या अधभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा / चिटुंति तत्थ काई, पिपीलिया काइ उड्डुति // 101 // पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिटुंति तत्थ एवावि / पक्खविहूणातो पिवीलियातो उडुति उ सपक्खा // 102 // "अहभावेण पसरिया०" गाथाद्वयम् / 'पसरित 'त्ति बिलाओ णिग्गंतुं पचंकमिता चिट्ठति / तत्थ 'कायि' त्ति / अस्य व्याख्या-"पक्खविहूणाउ पिवीलियाओ / पिवीलिया काइ उड्डेति'"त्ति, अस्य व्याख्या / ‘उड्डेति उ सपक्खा' / एस दिटुंतो / अयं उवणओभवसिद्धि-सलद्धीण य पंखालपिवीलिया उवमा / अभविया पुण भविया य केइ परिवडेज्जा वि गंठीओ / जहा पिवीलियाणं पच्चोरुहणं वा खाणुयाहिं एवं / अहवा एतम्मि चेव अत्थे 1. ०णं ति त्ति करणेणं पू० 2 / 2. मलिण-दर० पा० / मलिण-तर पू० 2 / 3. आसां पू० 2 / 4. परिणतत्ति पू० 1 / 5. पचक्कम्मिता पू० 2 / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-९८-१०९] इमो अण्णो दिटुंतो-"पुरिस"त्ति, अस्य व्याख्या जह वा तिण्णि मणूसा, सभयं पंथं भएण वच्चंता / वेलाइक्कमतुरिया, वयंति पत्ता य दो चोरा // 103 // तत्थेगो उ नियत्तो, एगो थद्धो अतिच्छितो एक्को / कमगति अहापवत्तं, भिण्णेयर धावणं तइए // 104 // "जह वा तिण्णि०" गाहाद्वयम् / “इतर"त्ति अपुव्वकरणं / अयं उवणयोएवं संसारीणं, जोए सव्वाइं तिण्णि करणाई। भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा // 105 // "एवं संसारीण." गाधा / पुव्वद्धं कंठं / तत्थ जो सो थद्धपुरिससरिसो, सो तम्मि गंठिम्मि संखेज्जमसंखेज्जं वा कालं चिट्ठज्जा / तस्स य दट्टण जिणवराणं पूयं अण्णेण वा वि कज्जेण / सुयलंभो उ अभव्वे, हविज्ज थद्धेण उवणीए // 106 // "दट्ठण जिण०" गाहा / कंठा / एत्थ जेण अणियट्टिकरणेणं सम्मत्तं लद्धं, तस्स वड्डी वा हाणी वा / जति हाणी तो परिपडति / अध ण परिपडति, तो सावगादीणं पदाणि केच्चिरस्स लभति ? जहण्णेण समगं चेव लभेज्जा / जेण भणियं- “सम्मत्त-चरित्ताइं, जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं" // [ ] उक्कोसेणंसम्मत्ते पुण लद्धे, पलियपहत्तेण सावगो होज्जा। चरणोवसम-खयाणं, सागरसंखंतरा होंति // 107 // "सम्मत्ते पुण०" गाहा / "पलियपुहुत्तेण" त्ति / खविएणं ति वाक्यशेषः / सो तेण अप्परिवडिएणं कइ भवगहणाइं होज्जा ? उच्यते-उक्कोसेणं अट्ठ / जेण भणियं एवं अप्पडिवडिए, सम्मत्ते देव-मणुयजम्मेसु / अण्णयरसेढिवज्ज, एगभवेणं च सव्वाइं // 108 // "एवं अप्पडिवडिए" गाहा / कंठा / इदाणि जं तं हेट्ठा भणियं अपुव्वेण तिपुंज, मिच्छत्तं काउ कोद्दवे उवमा / तिण्णि वि अवेययंतो, उवसामगसम्मदिट्ठीओ // 109 // "अपुव्वेण तिपुंजं०" / मिच्छत्तं कुणति खओवसमसम्मदिट्ठी तप्पढमताए / तं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका कधं? उच्यते-कोद्दवे उवमा / एत्थ 'वक्कं पडितं / कोद्दवा चेव / अस्य व्याख्या जह मयणकोद्दवा ऊ, दरणिव्वलिया य णिव्वलियगा य / एमेव मिच्छ मीसं, सम्मं वा होति जीवाणं // 110 // "जह मयण०" गाहा / णिव्वलियगाणं मयभावो कहं णट्ठो ? उच्यतेकालेणुवक्कमेण व, जह णासति कोद्दवाण मदभावो। अहिगमसम्मंणेसग्गियं च तह होइ जीवाणं // 111 // "कालेणुवक्कमे०" गाहा / उवक्कम-णिव्वलियगसरिसं / अभिगमसम्मइंसणं सोतूणं अहिसमेच्च व करेड़ सो वड्रमाणपरिणामो। मिच्छे सम्मामिच्छे, मीसे वि य पोग्गले समयं // 112 // ... "सोऊणं०" गाहा / कंठा / तिण्हं पुंजाणं दिटुंतेणं णिण्णओ कओ / इयाणि ते पुंजे तिण्णि वि अवेयंतो उवसामगसम्मदिट्ठी / सो एस पुण उवसामगसेढी-अणियट्टी / जेण भणियं उवसामगसेढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं / आह-एस चेव एगो उवसमसम्मइंसणी ? उच्यते-ण वि / इमो बितीयो जो वि य अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहति सम्मं // 113 // "जो वि य अकयतिपुंजो' पच्छद्धं / अस्य व्याख्या खीणम्मि उदिण्णम्मि तु, अणुइज्जंते य सेसमिच्छत्ते / अंतोमुहत्तकालं, उवसमसम्मं लहति जीवो // 114 // , "खीणम्मि उदिण्णम्मि०" गाधा / कंठा / आह–सो मिच्छत्ते संतकम्मे कहं न वेदेति मिच्छत्तं ? उच्यते-उदयाभावातो, जहा वणदवो इंधणाभावे / ऊसरदेसं दड्डुल्लयं च विज्झाति वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म लभति जीवो // 115 // "ऊसरदेसं०" गाधा / कंठा / एवं सो मिच्छत्तोदयाभावातो मिच्छदसणं न वेदेति / किञ्च झीमीभवंति उदया, कम्माणं अत्थि सुत्तउवदेसो। उववायादी सायं, जह णेरड्या अणुभवंति // 116 // 1. वाक्यं पू० 1-2 / 2, झिम्मि० पू० 2 / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-११०-१२१] उववाएण व सायं रतिया देवकम्मुणा वा वि / अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं // 117 // "झीमीभवंति०" गाधाद्वयम् / कंठं / 'झीमीभवंति' त्ति मंदीभवंति / एते य दो वि उवसामगा अंतोमुहुत्तं उवसमसम्मइंसणीहोउं अवस्समेव परिवडंति / जहा वाही असव्वछिण्णो, कालाविक्खं कुरु व्व दड्ढदुमो। * उवसामगाण दोण्ह वि, एते खलु होति दिटुंता // 118 // "वाही असव्व०" गाधा / कंठा / एत्थ य उवसामगसेढी-अणियट्टी उवसमसम्मइंसणी देसपडिवाएण वा सव्वपडिवाएण वा परिवडति / इतरो अवस्समेव सव्वपडिवातेण परिवडति / मिच्छत्तं गच्छतीत्यर्थः / दिटुंतो आलंबणमलहंती, जह सट्ठाणं ण मुंचए इलिया। एवं अकयतिपुंजी मिच्छं चिय उवसमी एति // 119 // - "आलंबणमलभंती०" गाहा / कंठा / एत्थ य जो एस अकयतिपुंजी उवसामओ, एयं मोत्तुं सेसा मिच्छत्तम्मि अक्खविए तिपुंजी, सम्मद्दिछिणो णियमा अवस्समेव त्रिपुञ्जिनः इत्यर्थः / क्षपकश्रेण्यां तु-"खीणमि उ०" पच्छद्धं (पुव्वद्धं ?) / कंठं / से त्तं उवसमसम्मत्तं ॥छ। __ आह–सासायणसम्मद्दिट्ठी को ? उच्यते-जो कयतिपुंजी वा जो अकयतिपुंजी वा उवसामओ सो। . उवसमसम्मा पडमाणतो उमिच्छत्तसंकमणकाले। सासायणे छावलितो, भूमिमपत्तो व पवडतो // 120 // "उवसमसम्मा०" गाहा / कंठा / आह-सासादण इति किमुक्तं भवति ? इत्युच्यते आसादेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुट्ट जा सुयति / सं आयं सायंतो, सस्सादो वा वि सासाणो // 121 // "आसादेतुं व गुलं०" गाधा / 'ओहीरंतो' त्ति निद्दायतो / अहवा स्वं आत्मीयं आयमागम, सम्यग्दर्शनमित्यर्थः / तत् सादयति / अहवा सदिति शोभनं, तच्च सम्यग्दर्शनं / तत् 'सादयति / से तं सासायणं सम्मइंसणं ॥छ।। इयाणि खयोवसमसम्मइंसणं / तं केरिसं? उच्यते१. सातयति पू० 2 / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका जो उ उदिण्णे खीणे, मिच्छे अणुदिण्णगम्मि उवसंते। सम्मीभावपरिणतो, वेयंतो पोग्गले मीसो // 122 // "जो उ उदिण्णे०" गाधा / “सम्मीभावपरिणतो"त्ति सम्मत्तपोग्गले वेदेतो, मीसो त्ति, खओवसमसम्मइंसणी / ॥छ।। इयाणि वेदगसम्मट्टिी खवगसेढीए जो चरिमपोग्गले पुण, वेदेती वेयगं तयं बिंति / केसि चि अणादेसो, वेयगदिट्ठी खओवसमो // 123 // "जो चरिम०" गाधा / चरिमपोग्गले त्ति अंतिमपोग्गले सम्मइंसणस्स / तओ अणंतरे समए खीणसम्मत्तओ होहि त्ति / 'केसिं चित्ति बोडियाणं 'आएसो' त्ति अभिप्पाओ / 'वेदगदिट्ठि' त्ति, वेयगसम्मइंसणी / को ? जो मीसो त्ति खओवसमिओ / तच्च न ॥छ।' इयाणि खइयसम्मइंसणी, केरिसो ? उच्यतेदंसणमोहे खीणे, खयदिट्ठी होइ णिरवसेसम्मि / केण उ सम्मो मोहो, पडुच्च पुव्वं तु पण्णवणं // 124 // "दंसणमोहे०" गाधा। दंसणमोहणिज्जे खीणे, निरवसेसम्मि त्ति तिविहे वि मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते सम्मत्ते / आह-केण कारणेणं सम्मत्तं मोहणिज्जं ? उच्यते-"पडुच्च पुव्वं तु पण्णवणं" / जधामयणकोद्दवाणं णिव्वलियाणं पि कूरो भण्णति / एस सो मदणकोद्दवकूरो / एवं ते वि सम्मत्तपोग्गला पुव्वं मिच्छत्तपोग्गला आसि त्ति काउं मोहणिज्जं ति भण्णति // एवमेतं सम्मत्तं पंचविहं साधितं / एतेण परिग्गहितं सम्मसुतं भवति / मिच्छत्तेण वा,' सम्मामिच्छत्तेण वा परिग्गहितं मिच्छत्तसुयं भवति / आह-पंचविहंसम्मत्तवतिरित्तं मिच्छत्तं जाणामो / सम्मामिच्छत्तं पुण केरिसं ? उच्यते-मिच्छत्तोदयातो सम्मामिच्छत्तोदयसंकंती सम्मामिच्छत्तदंसणं / एतेनाभिसंबंधेण तिण्ह वि दंसणाणं संकंती भवति / मिच्छत्ताओ मीसे, मीसस्स उ होज्ज संकमो दोसुं। सम्मे वा मिच्छे वा, सम्मा मिच्छं न पुण मीसं // 125 // मिच्छत्ताओ अहवा, मीसं सम्मं च कोड़ संकमइ / मीसाओ वा सम्मं, गुणवुड्डी हायतो मिच्छं // 126 // "मिच्छत्ताओ मीसे०" गाहा / कंठा / "मीसे' त्ति सम्मामिच्छदसणे मिच्छत्ताओ, 1. मिच्छत्तेण वा परि० पू० 1 / 2. पंचविहं स० पू० 2 विना / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१२२-१३२] अहवा मीसं सम्मं वा कोति संकमति, मीसाओ वा सम्मं, गुणवुड्डी / अस्य व्याख्या. मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु / मीसातो वा दुण्णि वि, ण उ सम्मा परिणमे मीसं // 127 // "मिच्छत्ता संकंती०" गाहा / कंठा / हायतो मिच्छं ति / अस्य व्याख्याहायंते परिणामे, ण कणति मीसे उपोग्गले सम्मे / ण य सोहिया सि विज्जति केई जे दाणि वेएज्जा // 128 // सम्मत्त-पोग्गलाणं, वेदेउं सो य अंतिमं गासं / पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चेव संकमति // 129 // "हायंते परिणामे०" गाहाद्वयम् / कंठं / आह, मिच्छादसणी सम्मत्तं संकेतो? तस्समतं कति णाणाणि लभेज्जा ? उच्यते-तिण्णि वा, दोण्णि वा / यस्मादुक्तम् विब्भंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मति-सुतोहीणि / तइभावम्मि मति-सुते, सुतलंभं केइ उ भयंति // 130 // "विन्भंगी तु परिणामं०" गाहा / सुतलंभं केति उ भयंति / कधं ? जहासयंभुरमणे मच्छा / तेसिं पडिमासंठिए मच्छे उप्पलाणि वा पासित्ता सम्मत्तमुप्पज्जइ / तेसिं च ईहापूहादि करेंताणं आभिणिबोहियमत्थि, सुतं अणधीतं कतो? एत्थ अम्हे भणामो–ण होति २एतं / कहं ? जेण भणियं अण्णाण मती मिच्छे, जढम्मि मतिणाणतं जहा एइ। ... एमेव य सुयलंभो, सुयअण्णाणे परिणयम्मि // 131 // "अन्नाण मती०" गाहा / जति तस्स तं सुतअण्णाणं अच्छति तो मिच्छादिट्ठी, अह ण अच्छति तो सिद्धंतविरोधो / जेण भणियं-"जत्थाभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयणाणं" / एकतरं पि विसंजुत्तं णत्थि / आह-सव्वमेव दुवालसंगं गणिपिडगं मिच्छत्तपरिग्गहियं होज्जा? उच्यते-न / चोद्दस दस य अभिण्णे, णियमा सम्मं तु सेसए भयणा। मति-ओहिविवच्चासो, वि होति मिच्छे ण उण सेसे // 132 // "चोद्दस दस य०" गाहा / जाव दसपुव्वाणि अभिण्णाणि, संपुण्णाणीत्यर्थः / ताव नियमा सम्मं / सेसे भयण त्ति / दसपुव्वाणि ऊणाणि आदि कातुं आरेणं सम्मं वा होज्ज मिच्छं - 1. संकमंतो पू० 1 / 2. एतं एवं पा० पू० 1 / 3. सुतं अ० पू० 2 / 4. नन्दीसूत्रे सू० 44, म० जै० वि० आवृत्ति, पृ० 19, सं० मुनि पुण्यविजयजी / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका वा / किंच-मतिणाणविवज्जासो वि भवति मतिअण्णाणं / ओहिविवज्जासो विभंगनाणं / 'न सेसेसु' त्ति मणपज्जव-केवलनाणेसु नत्थि विवज्जासो / आह, एतेसिं सम्मइंसण-नाणाणं को पतिविसेसो तुल्ले तत्त्वावगमस्वभावे?। उच्यते-जधा तुल्ले अवबोहे मइणाणस्स-दसण-णाणभेदो दंसणमोग्गह ईहा, णाणमवातो उ धारणा जह उ। तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं णाणं // 133 // "दंसणमो०" गाहा / कंठा / तस्स पुण सम्मत्तस्स कहं लंभो भवइ ? उच्यतेसोच्चा व अभिसमेच्च व, तत्तरुई चेव होइ सम्मत्तं / तत्थेव य जा विरुयी, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं // 134 // "सोच्चाभि०" गाहा / सोच्चा केवलिमादीणं अभिसमेच्चा जातिसरणादीहिं / एवमवधारणे / किमवधारइतव्यं ? यां तां गतिं गत्वा तत्त्वरुचिरेवरे सम्मत्तं भवइ / 'तत्थेव यत्ति तत्त्वे / इतरत्थ त्ति, अतत्त्वे / से तं सम्ममिच्छासुयाणि / इदाणिं साइय-अणादियाणि दो दाराणि अव्वोच्छित्तिनयट्ठा, एयं तु अणाइयं जहा लोओ। वोच्छेयणया सादी, पप्प गईतो जहा जीवो // 135 // "अव्वोच्छित्ति०'' गाधा / अव्वोच्छित्तिणयो दवढिओ / जेण भणियं-"दव्वट्ठियस्स "दव्वं सदा अणुप्पण्णमविणटुं" / अविणटुं ति एत्थेव अपज्जवसियदारं गतं ॥छ।। वोच्छेतणतो पज्जवढिओ / तस्स "उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स"। वियंति यत्ति एत्थेव सपज्जवसियत्ति दारं गयं / वोच्छेद त्ति वोच्छेयणया, सादीति दुवालसंगं गणिपिडयं / एयं ओहेणं चउण्ह वि पयाणं वक्खाणं भणियं साईयमणाईय-सपज्जवसिय–अपज्जवसियाणं / इताणिं विभागतो भण्णइ दव्वाइचउक्कं वा, पडुच्च सादि व होज्जऽणादिं वा / दव्वंसि एगपुरिसं, पडुच्च सादि सणिहणं च // 136 // "दव्वाइ०" गाहा / दव्वतो णं एगपुरिसं पडुच्च सादीयं ति, जं ५तप्पढमताए पढइ। पज्जवसाणं, तं पंचहि ठाणेहिं पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभावमासज्ज / मणुये रोग-पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा // 137 // 1. मइणाण-दंसणाण भेदो खं० पू० 2 / 2. तत्ररुचि० पू० 2 / 3. अतत्ते पू० 1, अत्तत्थे पू० 2 / 4. सव्वं पू० 1-2 / 5. जं तं पढम० पू० 2 / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१३३-१४१] "पणयं खलु०" गाहा / 'तत्थेगो' त्ति, पडिवातो देवभावमासज्ज त्ति / चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं ण संभरड् सव्वं / देसम्मि होइ भयणा, सट्ठाण भवे वि भयणा उ // 138 // "चोद्दसपुव्वी०" गाहा / देसो एक्कारसअंगाणि / न केवलं देवत्ते, सट्ठाणं मणुयत्तं, तम्मि वि भयणा / रोग-प्रमाद-मिच्छत्तगमेहिं भिण्णदसपुव्विस्स आरेणं परिवडेज्जेज्जा वि, परेण सभवेणं न परिवडइ केवलुप्पत्तिं मोत्तुं / आह-सुयणाणं जीवाओ अण्णं, अणण्णं ? उच्यते-अणण्णं / जेण भणियं णियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु / सुयनाणि सुयअणाणी, केवलणाणी व सो होज्जा // 139 // "णियमा सुतं तु०" गाहा / खदिरवनस्पतिवत् / दव्वतो गयं / इदाणि खेत्त-काल-भावे पडुच्च सादीयं सपज्जवसियं च / खेत्ते भरहेरवए, काले उ समातों दोण्णि तत्थेव / भावे पुण पण्णवगं, पण्णवणिज्जे व आसज्जा // 140 // "खेत्ते भरहेर०" गाहा / 'समाओ'त्ति, उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ / भावओ सातीयं सपज्जवसियं च भवति पण्णवगभावं पडुच्च →पण्णवण्णिज्जे य भावे पडुच्च / 1 तत्थ उवयोग-सर-पयत्ता, ठाणविसेसा य हुँति पण्णवगे / गति-ठाण-भेय-संघाय-वण्णमादी य भावम्मि // 141 // .. "उवयोग-सर०" पुव्वद्धं / उवओगोत्ति तिव्वो मज्झो मंदो य भवति, सुभो वा असुभो वा / स्वरा-उदात्ताद्या षड्जाद्या वा / 'प्रयत्न' इति-आदरः, स क्षणे क्षणेऽन्यादृशः / 'ठाण-विसेस'त्ति, ठाणपगारा वीरासनाद्याः / एषामुत्पादे प्रज्ञापकस्यैतै- र्भावैरुत्पादो विनाशे विनाशः / तस्योत्पादे विनाशे वा तदात्मकस्य श्रुतज्ञानस्य प्रागेव विनाशः उत्पादो वा / भावान् प्रतीत्य २सादि सनिधनं च कथं भवति ? उच्यते-"गति-ठाण०" पच्छद्धं / गतिलक्खणो धम्मत्थिकायो / गतिपरिणतस्स जीवस्स पोग्गलस्स वा उवग्गहे वट्टिउं तस्सेव ठाणपरिणतस्स उवग्गहे न वट्टइ / एवं सादी सणिधणो य / एवं अधम्मत्थिकाओ वि ठाणलक्खणो उवयुज्जिउं वत्तव्वो / अधवा गतिपरिणयं दव्वं होउं ठाणपरिणयं भवति / अहवा "ठाण" त्ति एगपएसोगाढो होउं दुपएसोगाढो भवति / दुपदेसोगाढो वा होउं एगपएसोगाढो भवति / एत्थ वित्थरेण सव्वावगाहणा वत्तव्वा / भेद-संघाता वि सव्वपोग्गलाणं उवयुज्जिउं वित्थरेण 1. -- एतदन्तर्गतं पू० 1 प्रतौ नास्ति / 2. साद्यं पू० 1, पा० / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका वत्तव्वा। कालगवण्ण-परिणतो होउं नीलादिवण्णपरिणतो भवति / एवं एत्थ वित्थरेण परिणामो वत्तव्वो / आदिग्गहणेणं गंध-रस-फास-संठाणाणं / / इताणि दव्वादीणि चेव पडुच्च अणादीयं अपज्जवसियं च भण्णति / दव्वे नाणापुरिसे, खेत्ते विदेहाइँ कालो जो तेसु / खयउवसम भावम्मि य, सुयणाणं वट्टए सययं // 142 // "दव्वे नाणा०" गाहा / कंठा / / इदाथि गमिगागमिकमिति द्वारद्वयम् / गमिओ दिट्ठिवाओ / अगमियं कालियसुत्तं / एतं पि अपवदति-ण एगंतेणं एतं एवं / जम्हा भणियं भंग-गणियादि गमियं, जं सरिसगमं तु कारणवसेणं। .. 'भंगग०' पुव्वद्धं / कालियसुते वा, दिट्ठिवाए वा, जत्थ भंगा चउभंगादि गणियं संकलणादि / आदिग्गहणेण 'किरियाविसाले' पुव्वे छंदपगतं सरिसगमगं / जहा-णिसीहस्स वीसतिमो उद्देसओ / 'कारणवसेणं' ति अत्थवसेणं / एयं भणियं गमियं / इयाणि अगमियं ..गाधादि अगमियं खलु, कालिय तह दिट्टिवाते य // 143 // "गाधादि०" पच्छद्धं / आदिग्गहणेणं सिलोगा-वृत्तानि. ॥छ।। इदाणि अंगपविढं अंगबाहिरमिति दारदुगं / एत्थं जं तं हेट्ठा भणियं"णंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिगदुए य चोद्दस य / अंगगतमणंगगते कातव्व परूवणा पगतं // " (गा० 3) त्ति, तद् वाक्यं पतितं / अस्य व्याख्या गणधर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा / धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं // 144 // . "गणहर थेर०" गाहा / गणहरकतं अंगपविटुं / गणहरकतातो च्चेव थेरणिज्जूढं अंगबाहिरं / किंच आदेसा-जहा अज्जमंगू तिविहं संखं इच्छति / एगभवियं, बद्धाउयं, अभिमुहणामगोत्तं / अज्जसमुद्दा दुविहं-बद्धाउयं, अभिमुहनामगोत्तं च / अज्जसुहत्थी एगं अभिमुहणामगोत्तं इच्छइ / मुक्कवागरणा जहा–'वरिस देव ! कुणालाए' / मरुदेवा अणादि वणस्सइकातिता / एते आदेस-मुक्कवागरणा अंगबाहिरा / अधवा धुवा बारसंगा / चला पइण्णगा / कयाइ णिज्जूहिज्जंति, कताइ न वीत्यर्थः ॥छ।। 1. भणियं खं० / 2. पू० 1-2 न / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१४२-१४८] एस. अंगाऽणंगेसु विसेसो / आह-दिट्ठिवाए सव्वमेव वचोगतमवतरति / किणिमित्तं णिज्जूहणा ? उच्यते / जति वि य भूतावादे, सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो। णिज्जूहणा तहा वि य, दुम्मेहे पप्प इत्थी य // 145 // "जति वि य भूतावाते." गाहा / "भूतावादे" त्ति, दिट्ठिवाते, इत्थी ण चेव दिट्ठिवातं पढति / किणिमित्तं पुण ? उच्यते तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला य धीतीए। इति अतिसेसज्झयणा, भूतावातो य नो थीणं // 146 // "तुच्छा०" गाहा / दिट्ठिवाते बहुविज्जातिसया सव्वकामकामिणो' सा य 'तुच्छत्ति अप्पसत्ता / सेसं कंठं / २अतिसेसज्झयणा नाम महापरिणं अरुणोववातादि // सत्त वि एते पदा सपडिवक्ख त्ति [गा० 42] गाहानिबद्धपदाणं, एतं वित्थरेणं भणितं / आह, केणं पुण कारणेणं अक्खरणक्खरसुताणि पढमं ? उच्यते सुणेतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव / तेणऽक्खरेयरं वा, सुयणाणे होति पुव्वं तु // 147 // "सुणेतीति०' गाहा / कंठा। इताणिं जं तं हेट्ठा भणियं 'पगतंति / (गा० 3) / अस्य व्याख्याएत्थं पुण अहिगारो, सुयनाणेणं जतो हवति तेणं। सेसाण अप्पणो वि य, अणुयोग पईव दिटुंतो // 148 // ... "एत्थं पुण अहिगारो०" गाहा / एताणि पंच नाणाणि मंगलनिमित्तं परूविताणि / एत्थं सुतनाणेणं अहिगारो / किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-यत इति हेत्वर्थे पंचमी / यत इति यस्मात् कारणात् शेषाणामाभिणिबोधाऽवधि-मनःपर्याय-केवलज्ञानानामात्मनश्च श्रुतज्ञानमनुयोगभाषणं करोति / दृष्टान्तः प्रदीपः / यथा प्रदीपः घटादीनां प्रकाशनं करोत्यात्मनश्च / एवं श्रुतज्ञानं शेषज्ञानानामात्मनश्चानुयोगभाषणं करोति / उक्तञ्च सुयनाणं महिड्डीयं, केवलं तदणंतरं / अप्पणो सेसगाणं च, जम्हा तं परिभावगं // एतेन कारणेणं सुयणाणेणं अधिकारो / तस्स वि उद्देसादिचउक्कसंभवे अणुओगेणं अहिगारो / सो य इमेहिं दारेहिं अणुगंतव्यो / 1. ०कामगुणिणो पा० / 2. अइसेसयं नामऽद्धापरिण्णं पू० 1 / 3. पविभावणं पू० 2 / पविभावगं मु०। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका णिक्खेवेगट्ट णिरुत्त विहि पवित्तीय केण वा कस्स / तद्दार भेयलक्खण, तदरिह परिसा य सुत्तत्थो // 149 // णिक्खेवो णासो त्ति य, एगटुं सो उ कस्स णिवो। अणुओगस्स भगवओ तस्स इमे वणिया भेदा // 150 // "णिक्खेवगट्ठ०" दारगाहा / "णिक्खेव" त्ति / अस्य व्याख्या-"णिक्खेवो" गाहा। णिक्खेवो त्ति वा, णासो त्ति वा, एगटुं / आह-सो कस्स णिक्खेवो ? उच्यतेअणुओगस्स भगवओ / तस्स इमे सत्त भेदा भवंति / / णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य वयण भावे य / एसो अणुओगस्स उ, णिक्खेवो होइ सत्तविहो // 151 // .. सामित्त-करण-अहिगरणतो य एगत्त तह पहत्ते य / णामं ठवणा (णं) मोत्तुं इति दव्वादीण छब्भेया // 152 // "णामं ठवणा०" गाहाद्वयम् / णाम-ठवणाणुओगा पुव्ववण्णिय त्ति काउं ते छड्वेत्ता सेसाणं दव्वादीणं पंचण्हं अणुओगाणं सामित्त-करण-अधिकरणतो य एगत्त-पुहुत्तेणं समासो कायव्वो / तं जहा-१ दव्वस्स वा अणुओगो दव्वाणुओगो,.दव्वाण वा / 2 दव्वेण वा 3 दव्वेहिं वा / 4 दव्वम्मि वा 5 दव्वेसु वा 6 अणुओगो / एवं खेत्त-काल-वयणभावाणुओगाण वि एक्केक्कस्स छन्भेदा णेयव्वा / तत्थ दव्वस्स अणुओगोत्ति / अस्य व्याख्या दव्वस्स उ अणुओगो, जीवद्दव्वस्स वा अजीवस्स / एक्केक्कम्मि य भेया, हवंति दव्वाइया चउरो // 153 // "दव्वस्स उ०" गाहा / दव्वस्स अणुओगो दुविहो-जीवदव्वस्स वा अजीव-दव्वस्स वा / एतेसिं दोण्ह वि एक्केक्कस्स दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ अणुओगो वत्तव्यो / तत्थ जीवदव्वं / दव्वेणेगं दव्वं, संखातीतप्पदेसमोगाढं / काले अणादिनिधणं, भावे नाणाइयाऽणंता // 154 // "दव्वेणेगं०" गाहा / दव्वओ णं जीवे एगं दव्वं / खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढे / कालओ अणादिअणिहणे / भावओ अणंता णाणपज्जवा, अणंता दंसणपज्जवा, अणंता चरित्तपज्जवा, अणंता अगुरुलघुपज्जवा / इदाणिं अजीवदव्वस्स भण्णति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१४९-१५८] एमेव अजीवस्स वि परमाणू दर्वे एक्कदव्वं तु / खेत्ते एगपएसे, ओगाढो सो भवे णियमा // 155 // समयाइ ठिति असंखा, ओसप्पिणीऔं हवंति कालम्मि। वण्णादि भावऽणंता, एवं दुपदेसमादी वि // 156 // "एमेव य०" गाहाद्वयम् / एवमवधारणे / किमवधारयितव्यम् ? / जहा जीवदव्वस्स दव्वादीहिं चउहि अणुओगदारेहिं अणुतोगो भणिओ, तहा अजीवदव्वस्स वि / तं जहादव्वतो णं परमाणुपोग्गले एगं दव्वं / खेत्तओ एगपएसोगाढे / कालओ जहण्णेणं एगं वा दो वा तिण्णि वा समया, उक्कोसेणं असंखेज्जाओ उसप्पिणिओसप्पिणीओ / भावओ अणंता वण्ण-पज्जवा जाव अणंता फास-पज्जवा / एवं एगगुणादिणो विभासियव्वा / एतं दुपएसतिपएस जाव अणंतपएसियस्स उवउंजिउं विभासियव्वं / इदाणि दव्वाणं अणुओगं भण्णति / तत्थ गाहा दव्वाणं अणुयोगो, जीवमजीवाण पज्जवा णेया। तत्थ वि य मग्गणाओ, णेगा सट्ठाण परठाणे // 157 // "दव्वाणं०" गाहा / एत्थ दव्वाणं अणुओगे जीवपज्जवा य अजीवपज्जवा य जहा पण्णवणाए तहा वत्तव्वा / 'सट्ठाण परहाणे' त्ति / जइ एवं आलावओ होज्जा ___णेरइयाणं भंते ! असुरकुमाराण य केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?' [प० 5 पदे] एवमादि / 'परमाणुपोग्गलाणं भंते ! दुपएसियाण य खंधाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? / गोयमा ! अणंता / से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ ? / गोयमा ! परमाणुपोग्गले दुपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए हीणे, नो तुल्ले नो अब्भहिए / जइ हीणे पएसहीणे, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले / जइ हीणे पदेसहीणे द्वितीए चउट्ठाणवडिए वण्णातिपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए' / एस एगवयणेण अत्थो दाइओ सुहगेज्झो त्ति काउं / इहरा दव्वाणं अणुओगो अहिगतो त्ति काउं पोहत्तिएण उवयुज्जिउं वत्तव्वो / दव्वस्स दव्वाण य सामित्ते गयं / इदाणि करणे भण्णति वत्तीए अक्खेण व, करंगुलादीण वा वि दव्वेण / अक्खेहि उ दव्वेहिं अहिगरणे कप्प कप्पेसु // 158 // "वत्तीए अक्खेण०" गाहा / दव्वेण अणुतोगो जहा वत्तीए / वत्ती नाम सेडियाए सलागा कतेल्लिया / आदिग्गहणेणं पलेवगादिणो / एस दव्वेणाणुओगो / दव्वेहिं अणुओगो जं 1. पलेवइयाणो पू० 1 / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका बहूहिं अक्खेहिं दाएति / अहिकरणे-दव्वे एगम्मि कप्पे 'सामलए त्ति भणियं होति / दव्वेसुं बहुसु कप्पेसु / इयाणि खेत्तस्स खेत्ताण य पण्णत्ति जंबुदीवे, खित्तस्सेमादि होइ अणुओगो। खेत्ताणं अणुओगो दीवसमुद्दाण पण्णत्ती // 159 // "पण्णत्ति जंबुद्दी०" गाहा / आदिग्रहणादन्यस्यापि द्वीपस्य / दीवसमुद्दाण पण्णत्ति .. त्ति दीवसमुद्दाण पण्णत्ती दीवसागरपण्णत्ती / खेत्तेण जंबुद्दीवपमाणं, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं / एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेज्जा // 160 // "जंबुद्दीवप०" गाहा / जहा-जंबुद्दीवप्पमाणेणं पत्थएणं पुढविकाइया मविज्जंति। असंखेज्जा २जंबुद्दीवलोगा / ते य अलोगे परिकप्पंति / एवं असंखेज्जा लोगा भवंति / ' खेत्तेहिँ बहू दीवे, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेज्जा // 161 // "खेत्तेहिं०" गाहा / कंठा / तिप्पभितिं बहू / असंखेज्जा बहू लोगा / शेषं पूर्ववत् / खेत्तम्मि उ अणुयोगो तिरिए लोगम्मि जम्मि वा खेत्ते / अड्ढाइयदीवेसुं अद्धछवीसाएँ खेत्तेसु // 162 // "खेत्तम्मि उ०" गाहा / जम्मि वा खेत्ते त्ति भरहादिम्मि, खेत्तेसु अड्डादिज्जेसु दीवसमुद्देसु, अद्धछव्वीसाए वा खेत्तेसु रायगिह-मगहादिएसु / कालस्स समयरूवण, कालाण तदादि जाव सव्वद्धा,। कालेणऽणिलवहारो, कालेहि तु सेसकायाणं // 163 // "कालस्स०" गाहा / कालस्स अणुओगो जहा समतस्स / तस्स परूवणा कायव्वा पट्टसाडियाए / कालाणं अणुओगो जहा बहूणं समयाणं परूवणा कुज्जा / एवं आवलियाणं, जाव सव्वअद्धाणं / "कालेण अणिल" गाहद्धं / कालेणं अणुओगो / जधा वाउक्कातिय-वेउव्वियसरीरा बद्धल्लया पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरंति / 'अणिल 'त्ति, वाउक्कातिया / कालेहिं पुढविकातियादीणं ओरालियसरीरा बद्धेल्लगा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति / कालम्मि बितितपोरिसि, समासु तिसु दोसु वा वि कालेसु।। 1. सामलीए पा० / सामुलीए पू० 2 / 2. जंबुद्दीवा लोगो पा० / असंखेज्जजंबुद्दीवलोगो पू० 2 / 3. सो य अलोगे पक्खिप्पति पू० 2 / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१५९-१६८] "कालम्मि०" पुव्वद्धं / काले बितियाए पोरिसीए अणुओगो कथ्यते / कालेसु ओसप्पिणीए तिसु, सुसमदुस्समाए पच्छिमे भागे दुस्समसुसमाए दुस्समाए त्ति / उस्सप्पिणीए दोसु दुस्समसुसमाए सुसमदुस्समाए य / वयणस्सेगवतादी, वयणाणं सोलसण्हं तु // 164 // "वयण" पच्छद्धं / एगवयण-दुवयणादीणं एगतरस्स अणुओगो / जधा-एरिसं एगवयणं / वयणाणं अणुओगो-सोलसण्हं वि वयणाणं / वयणेणाऽऽयरियादी, एक्केणुत्तो बहूहि वयणेहिं / वयणे खओवसमिए, वयणेसु तु णत्थि अणुयोगो // 165 // "वयणे०" गाधा / वयणेणं अणुओगो जधा-कोइ आयरिओ केणति आयरिएण वा भिक्खुणा वा सावएण वा भणितो-'अणुओगं कधेहि, इच्छक्कारेणं वयणेहिं' / बहूहिं आतरियादीहिं कोइ आयरिओ भणितो-'अणुओगं कधेहि' / उक्त इति भणितो, बहूहिं भणित इति वाक्यशेषः / अधवा वयणेणं आयरियादीणं पंचण्हं अन्नतरेणं एगेणं वयणेणं उत्तो अणुओगो / जधा-समभावः सामायिकमित्यादि / वयणेहिं बहूहिं / वयणे खओवसमिए अणुओगो वट्टए / वयणेसु नत्थि- अणुओगो / भावस्सेगतरस्स उ, अणुयोगो जो जहट्ठिओ भावो। दोमातिसण्णिकासे, अणुयोगो होति भावाणं // 166 // "भावस्से०" गाधा / भावस्स अणुओगो / उदतियादीणं भावाणं एगतरस्स भावस्स जधावत्थाणकहणं / भावाणं अणुओगो दुगमादीणं भावाणं "सन्निकासे' त्ति संजोगो / जत्तिया भंगा भवंति, तेसिं जो अणुओगो।। भावेण संगहादी-अण्णयरेणं दुगातिभावेहिं / भावम्मि खओवसमे, भावेसु तु णत्थि अणुयोगो // 167 // "भावेण०" गाधा / भावेणाणुओगो जधा-"पंचहि ठाणेहिं सुयं वाएज्जा / तं जहासंगहट्ठयाए एवमादि" (स्था० ५-३-सू० 468) / एतेसिं जो जेणं भावेणं अणुओगं कधेति सो भावेणं अणुओगो भवति / भावेहि अणुओगो-एतेहिं चेव दुग-तिग-चउक्क-सव्वेहिं वा अणुओगं कधेति सो भावेहि अणुओगो / भावम्मि खयोवसमिए अणुओगो वट्टते / भावेसु णत्थि अणुयोगो / अधवा आयारादिसु, भावेसु तु एस होति अणुयोगो। सामित्तं आसज्ज व, परिणामेसुं बहुविहेसुं // 168 // Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "अहवा आयारादिसु०" गाधा / अहवा भावेसु वि अणुओगो भवति चेव / कधं ? आयारादिसु दुवालससु अंगेसु जे भावा तेसु अणुओगो भवति / अधवा सामित्तमासाद्य उदइयादिभावजुत्ते पुरिसम्मि अणुओगो / जो उदइयादिभावजुत्तो अणुओगं कधेति, बहुसु वा पुरिसेसु / किंणिमित्तं ? जीवस्स खणे खणे अण्णोण्णपरिणामो भवति / आह-एतेसिं दव्वखेत्त-काल-भावाणं अन्नोन्नम्मि समोतारो अत्थि, णत्थि ? उच्यते / अत्थि / कधं ? दव्वे णियमा भावो, न विणा ते यावि खित्त-कालेहिं। खेत्ते तिण्ह वि भयणा, कालो णियमा उ तीसुं पि // 169 // "दव्वे णिय०" गाधा / दव्वे ताव णियमा भावो अत्थि / जीवदव्वे उदइयादिणो भावा / अजीवदव्वे वण्णादिणो / ते य दव्वभावा "न विणा" खेत्त-कालेहिं भवंति / खेत्ते पुण दव्व-काल-भावा होज्जा वा न वा / एतेसु पुण दव्व-खेत्त-भावेसु णियमा कालो भवइ / आह-कधमेतदवगंतव्यम् ? इत्युच्यते आधारो आधेयं, च होति दव्वे तधेव भावे य। खेत्तं पुण आधारो, कालो णियमा उ आधेयो // 170 // "आधारो०" गाधा / तत्थ दव्वं आधारो भावस्स / अओ दव्वे णियमा भावो भवति / आधेयं पुण खेत्ते / कालो य तम्मि चेव आधेयो / आधारो भावो कालस्स आधेयो पुण 'दव्वे। जम्मि य दव्वं खेत्ते अवगाढं तदवगाढो भावो वि / तदविभागो त्ति काउं / अतो ण विणा ते यावि दव्वभावा / खेत्त-कालेहिं खेत्ते तिण्ह वि भयण त्ति / खेत्ते दव्वमत्थि वा ण वा / अलोगे णत्थि कालो वि, समयखेत्तातो ३वहिता णत्थि / भावो वि अलोगे चेव णत्थि / "कालो णियमा तु तीसुं पि" त्ति / समयखेत्तमधिगिच्च वच्छग गोणी खुज्जा, सज्झाए चेव बहिरउल्लावे। ' गामिल्लए य वयणे, सत्तेव य हुंति भावम्मि // 171 // "वच्छग गोणी०" गाधा / एतेसि दव्वादीणं अणुओगाणं एक्केकस्स अणुओगो य भवति अणणुओगो य / अणुओगो नाम जहाऽवत्थियस्स भावस्स जा पण्णवणा / तव्विवरीतो अणणुओगो / एत्थ अणुओगे य अणणुओगे य उदाहरणाणि भवंति / तत्थ दव्वस्स अणुओगे इमं उदाहरणं वच्छग-गोणी / दोहओ जति जं पाडलाए वच्छगं तं बाहुलाए मुयति, बाहुलेरं वा वच्छगं पाडलाए मुयति तो अणणुयोगो भवति / तस्स य दुद्धकज्जस्स य अप्पसिद्धी भवति / एवमिहावि जति जीवलक्खणेणं दोहयत्थाणीओ साधू अजीवं परूवेति, 1. दव्वो पा० पू० 1 / 2. तदभागो पू० 1 / 3. बहिः / 4. असिद्धी भ० पू० 1 / . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१६९-१७१] अजीवलक्खणेण वा जीवं परूवेति तो अणणुयोगो भवति / तं भावं अण्णहा गिण्हति, तेण विसंवतिएणं अत्थो वि विसंवयइ / अत्थेण विसंवइएण चरणं पि विसंवयइ, चरणेणं? विसंवइएणं मोक्खाभावो / मोक्खाभावे दिक्खा णिरत्थिया / जइ पुण जो जाए वच्छगं तं ताए चेव मुयति तो अणुतोगो भवति / तस्स य दुद्धकज्जस्स पसिद्धी भवति / एवमिहापि जति जीवलक्खणेणं जीवं परूवेति, अजीवलक्खणेणमजीवं, तो अणुओगो भवति / तस्स य मुक्खलक्खणस्सरे कज्जस्स पसिद्धी भवति / खेत्तस्स वि अणुओगो अणणुओगो य भवति / तत्थ अणणुओगे सातवाहणखुज्जा उदाहरणं पतिट्ठाणं नयरं / ३सातवाहणो राया / सो वरिसे वरिसे भरुकच्छे नधवाहणं रोधेति। जाधे य वरिसारत्तो भवति ताधे सयं णगरं पडियाति / एवं कालो वच्चति / अण्णया य तेणं रन्ना रोधगेणं गएल्लएणं अत्थाणियमंडवियाए णिच्छूढं / तस्स य पडिग्गहधारी खुज्जा। सा चितेति-अपरिभोंगा "एसाऽऽदिट्ठा / नूणमेस राया जाइतुकामो / तीसे य राउलगो५ जाणसालिओ परिजियओ / ताए तस्स सिटुं / सो पए जाणाई पमक्खिओ, ६पयट्टियाणि य / तं द8 सेसगो वि खंधावारो पयट्टिओ / राया रहस्सिययं पधाविओ जाव सव्वो खंधावारो गतेल्लओ। तुट्ठो राया चिंतेति-'न मए कस्स वि कधितं' ति / परंपरएणं जाव खुज्ज त्ति / ७आपुच्छिया। ताधे तधेव अक्खातं / एस अणणुओगो / तीसे मंडवियाए विवरीयं / एवं जति गणितविसंवातिं पण्णवेति खेत्तं जीव-धणुपट्ठादीहिं तो अणणुओगो भवति, तं कज्जं ण साधेति / जति पुण अविसंवादिं कधेति तो अणुओगो भवति ॥छ।। कालस्स अणणुओगे उदाहरणं एगो साधू पादोसियं परियट्टतो रभसेण कालं न जाणति / सम्मदिट्ठिया य देवया तस्स हियट्ठयाए संबोधयति मिच्छादिट्ठियाए भएणं / सा तक्कस्स घड़यं भरेउं महता महता सद्देणं उग्घोसेति-'महितं महितं' ति / सो तीसे कण्णारोडयं असहमाणो भणति-अहो ! तक्कवेल त्ति ? सा पडिभणति-जहा तुझं सज्झायवेल त्ति / उवउत्तो 'मिच्छा दुक्कडं' ति / देवयाए अणुसासितो-मा पुणो एवं काहिसि / मा मिच्छादिट्ठियाए छलिज्जिहिसि त्ति / एस अणणुओगो / काले पढियव्वं तो अणुओगो भवति / ___ वयणस्स अणुओगो य अणणुओगो य / एत्थं दो उदाहरणाणि / बधिरउल्लावो य गामेल्लओ य / 1. ०णं मोक्खो मो० पू० 1, पा० / 2. तस्स य क० पू० 1, 2, पा० / 3. साल० पू० 2 / 4. एस, नूणं राया पू० 1, 2, पा० / 5. रायओलग्गओ जा० पू० 1 / 6. पयट्टाविताणि य पा० / 7. सा पुच्छिता पा० / 8. ०ति भणि० पू० 2 विना / 9. सो अण० पा० / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका एगम्मि गामे बधिरकुडुंब परिवसति / थेरो थेरी य / ताणं पुत्तो / तस्स भज्जा। सो ताणं पुत्तो अण्णदा छेत्तं वाहेउं गदो / सो य वाहेति / अण्णो य मणूसो तेणं पदेसेणं जाति / तेणं सो पंथं पुच्छितो / इतरो चिंतेति-एस बइल्ले सिंगेति / ताधे भणति-अरे! मम घरे' जातया बइल्ला / ण ठासित्ति हलं उव्वत्तेउं तस्स वधाए धाइतो / इतरो चिंतेतिगहिल्लओ एस। संपट्ठिओ चेव / तस्स य भज्जा भत्तं घेत्तुं आगया / सो भज्जाए कहेतिबइल्ला सिंगित त्ति / सा चितेति-एस भणति 'अलोणयं भत्तं' ति / तओ भणति-लोणियं वा भवतु मा वा / मातुणा ते सिद्धं२ / सा घरं गया / ३सासूए कधितं 'अलोणियं' ति / सासू से कंतंतिया चिंतेति-एसा भणति / 'अतिथूलं कंतसि' / ताए पडिभणितंथूलं वा भवतु वरडं वा थेरस्स पोत्तं होही / सा थेरं सद्दावेत्ता भणति-सच्चं एतं अतिथूल। तत्थ य तिला विसारियया / सो चिंतेति-अहं भणितो 'तुमे तिला खइत' त्ति / सो भणति-पितुं जीविएणं एक्कं पि तिलं ण खामि / एवं जति एगवयणं परूवेतव्वं "दुवयणेण परूवेति, ५दुवयणेण वा एगवयणेणं, तो अणणुयोगो / अह तं चेव परूवेति तो अणुयोगो / गामेल्लओ ___ एक्का नागरमहिला / भत्तारे मते 'कट्ठादीणि वि ता अकीताणि घेच्छामो' त्ति अजीवमाणी खुड्डलयं पुत्तं घेत्तुं गामे पवुत्था / सो दारओ पवढंतो मातरं पुच्छति-'कहिं मम पिया ?' / मतो त्ति भणितं / सो केणइ जीविताइओ ? भणति–ओलग्गाए / तो खाइं अहमवि ओलग्गामि / सा भणति–ण याणिहिसि / तो कहमोलग्गिज्जति ? / भणितो-विणयं करेज्जासि। केरिसो विणयो ? जोकारो कातव्वो / णीयं चंकमियव्वं / छंदाणुवत्तिणा भवियव्वं / सो भणति एवं काहामो / सो णगरं पधावितो / अंतरा य णेणं वाहा मियाणं निलुक्का दिट्ठा / वड्डेणं सद्देणं 'जो भट्टि' त्ति भणितं अणेणं / तेण सद्देणं मिगा पलाया / तेहिं घेत्तुं पहतो / सब्भावो य णेण कधितो / मुक्को, भणितो य तेहिजया एरिसं पेच्छेज्जाहि तदा णिलुकंतेहिं सणियं सणियं आगंतव्वं न उल्लाविज्जति त्ति सणियं वा / ततो एंतेण रयगा दिट्ठा। ताधे णिलुक्कंतो सणियं एति / तेसिं च रयगाणं पोत्तगाणि हीरंति / ठाणयं बद्धं रक्खंति एते चोरे। 'एस चोरो णिलुक्कंतो एति' त्ति बंधिउं पिट्टितो / सब्भावे कधिते मुक्को भणितो य–भणेज्जासि 'सुद्धं सुद्धं भवतु, खारो पडतु' / पधावितो / कत्थ वि बीयाणि वाविजंति / तेणं भणितं-'सुद्धाणि हवंतु, खारो पडतु' / तेहिं वि पिट्टितो / सब्भावे कहिते मुक्को, भणितो य–'एरिसं बहुं भवतु, भंडिं भरेह एयस्स' / अण्णत्थ मडयं णीणिज्जंतं दटुं भणति-बहुं भवतु एरिसं / सब्भावे कधिते 1. घर० पू० 2 / 2. सिट्ठ पू० 1 / 3. सासुयाए कहेति पू० 1-2 / 4. दुवयणं पू०. 2 / 5. दुवयणे वा एगवयणं पू० 2 / 6. ०ज्जासि पू० 1 / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१७१-१७२] 45 भणितो य-एरिसे भण्णति-अच्वंतवियोगो भे भवतु एरिसेणं / अण्णत्थ विवाहे भणति'अच्चंतवियोगो भे भवतु एरिसेणं, तत्थ वि हतो / सब्भावे कधिते भणितो-एरिसे भण्णति-णिच्चं एरिसगाणि पेच्छंतया होध, सासतं च भवतु एयं / अण्णत्थ नियलबद्धयं दंडियं दटुं भणति–'णिच्चं एरिसाणि पेच्छंतया होध सासयं च एयं भे भवतु' / तत्थ वि हतो / सब्भावे कधिते मुक्को / गंतुं एगस्स खउलयस्स अल्लीणो तं सेवंतो अच्छति। अण्णया दुभिक्खे तस्स खउलयस्स अंबिलजाऊ सिद्धेल्लिया भज्जाए / सो ताए भणिओजाहि, महाजणमज्झातो सद्दावेहि, सीयला अचोक्खा 'जाऊ' / तेण गंतुं भणितोसीयलीहोति किर अंबिलजाऊ / लज्जितो जातो / घरं गतेण अंबाडितो भणितो य'एरिसकज्जे सणियं कण्णे कधेज्जति / ' अण्णया गिहं पलित्तं / ताधे गंतुं सणियं सणियं कधेति, जाव सो तस्स अक्खायति ताव घरं सव्वं झामितं / तत्थ वि अंबाडितो भणितो य-एरिसकज्जे ण 'वि आगम्मति अक्खाएहिं अप्पणा चेव पाणिएण वा आतिं काउं गोरसो विच्छुब्भति / अंबिली वि पल्हत्थिज्जति / जधा तधा विज्झातु त्ति। अण्णता पलित्ते तेल्लादिणो विच्छुभति। पाणिए अविज्जमाणे वत्थेसु वा धूविजंतेसु। एवं जो अण्णम्मि कहेयव्वे अण्णं चेव कहेति तस्स अणणुओगो भवति / सम्मं कहिज्जमाणे अणुतोगो भवति / भावस्स अणुओगो य अणणुओगो य भवति / तत्थ इमे सत्त उदाहरणा भवंतिसावगभज्जा सत्तवतिए य कुंकुणगदारए णउले / कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोवे // 172 // "सावगभज्जा०' गाधा / एगो सावओ, अण्णमहिलं दटुं अज्झोववण्णो दुब्बलीभवति / भज्जाए पुच्छिओ। णिब्बंधे सिटुं / ताए भणियं-आणेमि त्ति / सा ताए अविरइयाए तणएहिं वत्थेहि अप्पाणं णेवत्थेत्ता अंधगारे अल्लीणा / अच्छिओ। पच्छा बितितदिवसे अद्धिति पकओ 'वतं खंडियं' ति / ताए भणियं-मा अद्धिति करेहि / न खंडिज्जति / सो ण पत्तिज्जइ। ताहे साभिण्णाणं पत्तियावियो / एवं जो ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ति भणति, ओदतियभावलक्खणेणं उवसमियभावलक्खणं परूवेति ताहे अणणुयोगो भवति / सम्म परूविज्जमाणे अणुयोगो भवति ॥छ। सत्तपदिओ एगम्मि. पच्चंतगामे एगो ओलग्गयमणूसो / साहु-माहणादीणं न सुणेति न वा अल्लियति न वा वसहिं देति 'मा मम धम्मं कहेहिति' त्ति / तो हं मा सदयो होहामि त्ति। अण्णता तं गामं साहुणो आगता पडिस्सयं मग्गंति / ताहे सो गोट्ठिल्लएहिं 'एतेसिं 1. सीयला अजोग्गा मु० / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका वसहिं ण देहि त्ति एतेहिं य पवंचिओ होउ' त्ति तस्स घरं चिंधियं 'जहा एरिसो तारिसो सावगो' त्ति। ते गता पुच्छंता, दिट्ठो, जाव न चेव आढायति / तत्थ एगेण साहुणा भणियं-जति वि ण चेव एस सो, अहवा पवंचिया मो त्ति / तं सोऊणं तेणं पुच्छिता / तेहिं जहावत्तं कहियं / सो चितेति-अहो! अकज्जं, मए(मं) ताव पवंचेंति', साहुणो वि कहं २पवंचित त्ति / ताहे मा 'तेसिं समो होउ' त्ति तेणं भणितं३-देमि वसहिं जइ मम धम्म ण कहेह। साहूहि भणियं-एवं होउ त्ति / दिण्णं घरं। वासारत्ते वित्ते आपुच्छंतेहिं धम्मो कहिओ / तत्थ ण किंचि तरइ घेत्तुं मूलगुण-उत्तरगुणाणं, मधु-मज्ज-मंसविरति वा। पच्छा सत्तपइयं वयं दिण्णं-मारेउकामेणं जावइएणं कालेणं सत्त पदाणि ओसक्किज्जंति एवतियं कालं पडिक्खित्ता मारेतव्वं / 'संबुज्झिस्सइ' त्ति दाउं गया साहुणो / अण्णता ५चोरियाए गतो / अवसउणेणं णियत्तो रत्तिं सणियं घरं एति / तद्दिवसं च तस्स भगिणी आगएल्लया पुरिसणेवत्थं काउं भाउज्जाइयाए समं गोज्जपेच्छिता गता। तओ चिरेण आगयाओ णिद्दक्वंताओ तहेव एगम्मि सयणे सयिताओ / इयरो य आगओ ताओ पेच्छति / 'परपुरिसो'त्ति असिं उक्करिसित्ता 'आहणामि'. त्ति ववसिओ / वयं संभरियं / ठिओ 'सत्तपयंतरं अच्छामि' त्ति / एयम्मि अंतरे भगिणीए बाहा भज्जाए अक्कंतिया / ताए दुक्खाविज्जंतीए भणियं अवणेहि मे बाहातो सीसं / तेण सरो सण्णाओ / भगिणी मे एसा पुरिसणेवत्थिय त्ति / दिट्ठा / लज्जिओ जाओ 'अहो मणेणं अकज्जं कतं' ति / उवणओ जहा सावगभज्जाए / संबुद्धो / विभासा, पव्वतिओ ॥छ। [कोंकणदारग-] कोंकणगविसए एक्को दारगो / तस्स माता मता / पिया से अण्णं महिलं ण लभति 'सवत्तिपुत्तो अच्छइ' त्ति काउं / अण्णता सपुत्तओ कट्ठाणं गओ / ताहे.णेणं चिंतितं-एतस्स तणएणं महिलियं न लभामि / मारेमि त्ति / कंडं लंखियं / पुत्तो भणिओ-वच्च, कंडं आणेहि। सो पहाविओ अण्णेणं कंडेणं विद्धो / दारएण लवितं-किं ति कंडं खित्तं ? विद्धो मि। पुणो वि खित्तं, रडंतो मारिओ / 'पुव्वं अयाणंतेणं विद्धो मि' त्ति अणणुयोगो, 'मारिज्जामि' त्ति एवं णाए अणुओगो / अहवा 'सारक्खणिज्ज' मारेमि' त्ति अणणुओगो, सारक्खंतस्स अणुओगो / जधा सारक्खणिज्जं मारेंतो विवरीयं करेति / एवं अण्णम्मि परूवितव्वे अण्णं परूवेमाणस्स विपरीतत्वादननुयोगो भवति / जहारूवं परूवेमाणस्स अणुतोगो भवति / ॥छ।। 1. पवंचंतु पा० 1 / 2. पवंचेति त्ति पू० 2, पा० / 3. पवंचितत्ति मासातो तेणं भणितं पू० 12, पा० / 4. पू० 1-2, पा० प्रतिषु नास्ति / 5. चोरेउं पू० 2 / 6. ०त्ति लंखियं पू० 2 / कंडं खित्तं पा० / 7. जधाभूतं पू० 1-2, पा० / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१७२] [नउलोदाहरणं] एगा चारभडिया गब्भिणी / अण्णा वि णउली गब्भिणी / तत्थ वि 'पलिहए एति य जाति य / ताओ समिताओ पसूताओ / ताए चिंतियं-'मम पुत्तस्स रमणओ णउलो भविस्सइ' त्ति तस्स पीहयं खीरं च देति नउलस्स / अण्णता बारे तीसे अविरतियाए कंडेंतीए जत्थ मंचुल्लियाए सो दारगो ओतारियओ तत्थ सप्पेण चडित्ता खाइओ मओ / इयरेणं नउलेणं ३मंचुल्लियाए उयरंतओ दिट्ठो खंडाखंडिं 'कओ / ताहे सो तेणं रुहिरलित्तेणं तुंडेणं तीसे अविरतियाए मूलं गंतुं 'चाडूणि करेति / ताए णायं-एतेण मम पुत्तो खतिओ / मुसलेण आहणित्ता मारिओ / ताहे धावंती गता पुत्तमूलं / जाव सप्पं खंडाखंडिकएल्लयं पासइ, ताहे दुगुणतरयं अद्धिति पगता / तीसे अविरतियाए पुव्वं अणणुओगो, पच्छा अणुओगो / एवं जो अण्णं परूवेयव् अण्णं परूवेति तस्स अणणुओगो, जो तं चेव परूवेइ तस्स अणुओगो / [कमलामेलोदाहरणं] बारवईए बलदेवपुत्तस्स णिसढस्स पुत्तो सागरचंदो नाम कुमारो / रूवेणं उक्किट्ठो सव्वेसिं संबादीणं इट्ठो / तत्थ य बारवईवत्थव्वस्स चेव अण्णस्स रण्णो कमलामेला नाम धूता उक्किट्ठसरीरा। सा य उग्गसेणपुत्तस्स नभसेणस्स वरिएल्लिया / इओ य णारओ सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगतो, अब्भुट्टितो / उवविटुं समाणं पुच्छति-किंचि भगवं ! अच्छेरगं दिटुं ? आमं, दिटुं / कहिं ? / इधेव बारवईए नयरीए इधं चेव कमलामेला णामं दारिया / कस्सति दिण्णिया? आमं / कस्स?। कधितं / कधं मम ताए समं संजोगो होज्जा?। 'न याणामि'त्ति भणित्ता गतो / सो य सागरचंदो तं सोउं ण वि असणे ण वि सयणे वा धितिं लभति / तं दारियं फलयटिक्कतो नामं च गेण्हंतो अच्छति / नारदो वि कमलामेलाए अंतियं गओ / ताए वि पुच्छितो-किंचि अच्छेरतं दिटुं? ति / 'दुवे दिट्ठाणि, रूवेण य सागरचंदो विरूवत्तणेण य नभसेणो' / तओ सागरचंदे मुच्छिता नभसेणए' विरत्ता / णारएणं समासासिता / तेण गंतुं सागरचंदस्स आतिक्खितं, जधा 'इच्छति' त्ति / ताधे सागरचंदस्स माता अण्णे य कुमारा अद्दण्णा 'मरति' त्ति संबो आगतो। जाव पेच्छति सागरचंदं विलवमाणं / ताधे णेणं पच्छतो अच्छीणि हत्थेहिं मुद्दिताणि / सागरचंदेण भणि-कमलामेल त्ति / संबेण भणितं-णाहं कमलामेला, कमलामेलो हं / संबेण अब्भुवगयं-आम, अहं चेव तुमं कमलामेलं दारियं मेलेहामि / ताधे तेहिं कुमारेहिं संबो भणितो-कमलामेलं मेलेहि सागरचंदस्स / ताधे तेण पज्जुन्नं पण्णत्तिं विज्जं मग्गितुं जद्दिवसं तस्स नभसेणस्स विवाहदिवसो तद्दिवसं तेण सागरचंद-संबपमुहा कुमारा 1. य लिहए मु० / 2. तत्थ पू० 1, मु० / 3. ओयरंतओ मंचुल्लियाओ दिट्ठो पू० 1-2, पा० / 4. (खंडीकओ पू० 2 / 5. चाटुं करेति पा० / 6. अधियं गता पू० 1 / 7. संपओगो पू० 2 / 8. फलए लिहंतो पू० 2 / फलए टिकेंतो पू० 1 / 9. पू० 1-2, पा० प्रतिषु न / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका उज्जाणं गंतुं नारदरहस्सकतेणं कमलामेलं सागरचंदो परिणावितो / ते तत्थ किड्ता अच्छंति / इयरे य दारियं ण पेच्छंति / मग्गंतेहिं उज्जाणे दिट्ठा / विज्जाहररूवं विउव्वित्ता नारायणो सबलो णिग्गतो, जाव अपच्छिमं संबरूवेणं पादेसु पडितो / सागरचंदस्स चेव दिण्णा, नभसेणंबताय अणुक्खामिता / एत्थं सागरचंदस्स कमलामेलं संबं मण्णमाणस्स अणणुयोगो, 'णाहं कमलामेल'त्ति भणिते अणुयोगो / एवं जो विवरीतं परूवेति तस्स अणणुयोगो, जधाभावं परूवेमाणस्स अणुयोगो। [संबसाहसमुदाहरणं] जंबवती नारायणं भणति-एक्का वि मए पुत्तस्स अणाडिया न दिट्ठा / नारायणेण भणितं-'अज्ज दाएमि / ' ताधे नारायणेणं जंबवतीए आभीरीरूवं कतं, अप्पणो आभीररूवं / दो वि तक्कं घेत्तुं बारवति ओतिण्णाणि महितं विक्कंति / संबेण दिट्ठाणि / आभीरी भणिता–'महितं किणामि' त्ति एहि / सा अणुगच्छति / आभीरो से मग्गेण एति / सो संबो एंगं देउलियं पविसति / आभीरी भणति–'णाहं पविसामि / 'किंति ?' मोल्लं देहि / ' 'दिज्जति, पविसाहि' / एत्थ चेव ठितो तकं गेण्हाहि / सो भणति-न वि, अवस्स पविसितव्वं / णेच्छति, ताहे हत्थे लग्गो / आभीरो उद्धाइऊण लग्गो संबेण समं / संबो आपिट्टिओ / वासुदेवो जाओ। इयरी वि जंबवती / लज्जिओ ओगुंढेि कातुं पलातितो / बीयदिवसे मड्डा आणिज्जंतो खीलगं घडेंतो एति / जोकारो कतो / वासुदेवेणं पुच्छितो-किं एयं घडिज्जति ? भणति-'जो पारियासितं बोल्लं२ काहिति तस्स मुहे कुट्टिज्जति'३ त्ति / पढमं अणणुयोगो णाए अणुयोगो / एवं जो विवरीयं परूवेति तस्स अणणुयोगो भवति / तहाभावे अणुयोगो। [सेणियकोवोदाहरणं] चेल्लणा सामि वंदित्ता वेयालियं माहमासे पविसति / पच्छा साहू दिट्ठो पडिमापडिवण्णओ / तीए रत्ति सुत्तियाए हत्थो किहवि लंबिओ / जता सीतेणं गहितो तया चेतियं पवेसितो हत्थो / तस्स हत्थस्स तणएणं सव्वं सरीरं सीतेण गहितं / पच्छा ताए भणितं-'स तपस्वी किं करोति सांप्रतं ?' / पच्छा रण्णा सेणिएणं चिंतियं-संगारदिण्णओ से को वि / रुटेणं कलं६ अभओ भणितो-'सिग्धं अंतेउरं पलीवेहि' / सेणिओ गतो सामिणो मूलं / अभएण हत्थिसाला पलीविया / सामिं पुच्छति-चेल्लणा किं एगपत्ती अणेगपत्ती वा ? / सामिणा भणितं-एगपत्ती / ताहे 'मा डज्झिहिति' त्ति तुरियं णिवत्तो। अभओ य णिग्गच्छति / तेणं भण्णति, पलीवितं ? 'आमं'। "तुमं तत्थेव किं न पडितो ? पडिभणति-अहं पव्वतिस्सामि, किं मे अग्गिपवेसेणं ? ताहे तेण ण णातं ‘मा छिद्दिज्जिहि' त्ति / पच्छा 1. अंगुट्टि मु०, पृ० 1-2 / 2. खोल्लं पृ० 1 / 3. तस्स महे को डिज्जिहिति त्ति पू० 1-2, कोट्टिज्जिहितित्ति पा० / 4. विरूवं प० पू० 2 / 5. हत्थो किल लं० पू० 1 / 6. कण्णं पू० 2 / 7. तुमं किं तत्थेव पा० / 8. तेण नायं पू० 1-2 / 9. छड्डिहिति मु० / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१७३-१७७] भणितं-ण डज्झति त्ति / सेणियस्स चेल्लणाए पुव्वं अणणुयोगो / पुच्छिते अणुयोगो / एवं विवरीते परूविते अणणुयोगो, जधाभावे परूविते अणुयोगो भवति / 'णिक्खेवेत्ति दारं गतं ॥छ।। इदाणि 'एगट्ठियाणि' त्ति दारं, तं भणामि / अच्छउ ताव एतं / एगट्ठिएहिं को गुणो भणितेहिं ? उच्यते. बंधाणुलोमता खलु, सुत्तम्मि उ लाघवं असम्मोहो / सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेते // 173 // "बंधाणु०" गाधा / जाणि इच्छति अत्थपदाणि गाधादीहिं बंधिउं ताणि सुहं अण्णेणं अभिधाणेणं अपलोट्टेहोमाणे अण्णेणं बंधिस्सति, तेण य पल्लोट्टाभिहाणेणं बद्धं लघु सुत्तं भवति / असंमोहो य / जहा सक्को त्ति वा इंदो त्ति वा पुरंदरो त्ति वा / एवं एगट्ठिताणं एगतरगहणे वि असम्मोहो भवति / तदर्थसंप्रत्यय इत्यर्थः / 'सत्थ' त्ति तित्थकरा / तेसिं च गुणा दीविता भविस्संति / जहा एक्केक्कस्स दव्वस्स बहवे पज्जायनामे जाणंति / एते एगट्ठिताणं गुणा / आह-ट्ठिा एगट्ठितगुणा / पगतं भण्णतु / ताणि एगट्ठियाणि दुविहाणि सुत्तेगट्ठिताणि य अत्थेगट्ठिताणि य / तत्थ सुत्तेगट्ठिताणि इमाणि सुत सुत्त गंथ सिद्धंत सासणे आण वयण उवदेसो / पण्णवणमागमे त्ति य, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते // 174 // "सुत सुत्त गं०" गाधा / तत्थ सुतं दुविहं-दव्वसुतं भावसुतं च / तत्थ दव्वसुतं वतिरित्तं / दव्वसुतं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो / आगम-णोआगमतो, भावसुतं होति दुविहं तु // 175 // आगमतो सुतणाणी, सुतोवउत्तो य होति भावसुतं / सो सुतभावाऽणण्णो सुतमवि उवओगओऽणण्णं // 176 // __ "दव्वसुतं पत्तय०" पुव्वद्धं / कंठं / भावसुतं पि दुविहं-आगमतो णोआगमतो य। "आगमतो" गाधापुव्वद्धं / आह–केण कारणेण सुतणाणी सुंओवउत्तो भावसुतं भवति ? / उच्यते-“सो सुत०" पच्छद्धं / कंठं / जं तं दुसत्तगविधं, तमेव णोआगमो सुर्य होइ / सामित्तासंबद्धं, समितीसहियस्स वा जं तु // 177 // "जं तं दुसत्तग०" गाधा / णोआगमतो भावसुतं जं तं हेट्ठा भणितं चोद्दसविहं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका सुतणाणं अक्खरसुतादि, तं चेव पुरिसेहितो असंबद्धं णोआगमतो भावसुतं भवति / जाए वा वेलाए सुतनाणी समितीसु उवउत्तो भवति, तं णोआगमतो भावसुतं भवति / अधवा दुसत्तगविहंति अंगपविट्ठ दुवालसविहं, अंगबाहिरं दुविहं-कालियं च उक्कालियं च / एते दो सत्तगा चोद्दस / सुतं ति गतं / इयाणि 'सुत्तं' ति दारं / तं दुविहं-दव्वसुत्तं भावसुत्तं च / दव्वसुत्तं वतिरित्तं / पंचविधं पुण दव्वे, भावम्मि तमेव होति सुत्तं तु / "पंचविहं पुण०" पुव्वद्धं / "पंचविहं" ति–अंडयं पोंडयं कीडयं वालयं वागतं ति भावसुत्तं / जं चेव भावसुतं भणितं तं चेव भावसुत्तं / सुत्तं ति गतं / इताणि 'गंथो' / सो दुविहो-दव्वगंथो य भावगंथो य / सच्चित्तादी गंथो, दव्वे भावे इमं चेव // 178 // "सच्चित्तादी०" पच्छद्धं / दव्वगंथो तिविहो-सचित्तो अचित्तो मीसतो / एस तिविहो वि उवरि पढमसुत्ते परूविज्जिहिति / भावगंथो इमं चेव कप्प-व्ववहारसुतक्खधं / गंथे त्ति दारं गतं ॥छ।। इदानीं सिद्धांतो वक्तव्यः / जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो। सो सव्व-पडीतंतो अधिगरणे अब्भुवगमे य // 179 // . आह-सिद्धान्त इति कोऽर्थः ? / 'सिद्धमर्थं अन्तं णयती'ति सिद्धान्तः / सः चतुर्विधः / तद्यथा-सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, प्रतितन्त्रसिद्धान्तः, अधिकरणसिद्धान्तः, अभ्युपगमसिद्धान्तः इति / तत्र सर्वतन्त्रसिद्धान्तः संति पमाणातिं पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। थेज्जवई य वसुमई, आपो य दवा चलो वाऊ // 180 // "संति पमाणाति०" गाधा / संतीति विद्यन्ते प्रमाणानि प्रत्यक्षादीनि द्रव्यादीनां प्रमेयादीनां साधकानीति सर्वतन्त्रसिद्धान्तः / अर्थं तन्त्रयतीति तन्त्रं शास्त्रमित्यर्थः / यथा स्थैर्यवती पृथिवी, आपो द्रवाः, चलो वायुरचाक्षुषश्चेति / अधुना प्रतितन्त्रसिद्धान्तः जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो उ पडितंतो / णिच्चमणिच्चं सव्वं, णिच्चाणिच्चं च इच्चादी // 181 // "जो खलु०" गाधा / यः स्वतन्त्रे सिद्धः न च परतन्त्रेषु सिद्धः स प्रतितन्त्रसिद्धान्तः / यथा-सर्वं नित्यं सांख्यानाम्, सर्वमनित्यं क्षणिकवादिनाम् / सर्वं नित्याऽनित्यमार्हतानाम् / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१७८-१८४] अधुना अधिकरणसिद्धान्तः-अधिक्रियन्ते तस्मिन्नर्था इत्यधिकरणसिद्धान्तः / सो अधिकरणो जधियं, सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे। जध निच्चत्ते सिद्धे, अन्नत्ता-ऽमुत्तसंसिद्धी // 182 // "सो अधिकरणो०" गाधा / यस्मिन् २निष्पन्ने शेषमनुक्तमपि सिध्यति सोऽधिकरणसिद्धान्तः / यथा-आत्मनो नित्यत्वे सिद्धे शरीराद्यन्यत्वसिद्धिरस्तित्वसिद्धिश्च भवतीत्यादि / अधुना अभ्युपगमसिद्धान्तःजं अब्भुविच्च कीइ, सिच्छाएँ कहा स अब्भुवगमो उ। सीतो वण्ही गयजूह तणग्गे मग्गु-खरसिंगा // 183 // "जं अब्भुविच्च०" गाधा / यदिति वस्तु, शेषसिद्धान्तेष्वसिद्धमभ्युपेत्य स्वेच्छया अङ्गीक्रियते / यथा-शीतो वह्निः, गजयूथं तृणाग्रे, मद्गु-खरयोः शृंगम् / 'सिद्धान्त' इति द्वारं गतम् / इताणि सासणं आणं च / दो वि दारा एते एगट्ठा चेव भण्णति / कडकरणं दव्वे सासणं तु दव्वे व दव्वतो आणा / दव्वणिमित्तं वुभयं, दोण्ह वि भावे इमं चेव // 184 // ___ "कडकरणं०" गाधा / सासणं दुविहं-दव्वसासणं, भावसासणं च / आणा वि दुविधा-दव्वाणा, भावआणा य / तत्थ दव्वसासणं दव्वाणा य वतिरित्ता 'कडकरणं' ५मुद्दा 'इत्यर्थः / “दव्वनिमित्तं" ति दव्वहेउं करोतीत्यर्थः / "उभयं"ति सासणं आणं च / बीओ पकारो दव्वसासणं दव्वाणा य, भावसासणं भावाणा य / आगमओ णोआगमओ य / आगमओ विभासा / णोआगमतो इमं चेव, कप्पववहारसुयक्खंध इत्यर्थः / एयस्स जो आणं ण करेति सो अणेगाणि मरणादीणि पावति / 'दोण्ह वित्ति सासण-आणाणं / सासणं आणा . य गतानि / इताणि 'वयणं ति दारं-वयणं ति वा, वति त्ति वा, एगहुँ / सा वती दुविहा-दव्ववती भाववती य / तत्थ 1. अधिक्रियन्ते अस्मिन्नर्था इत्यधिकरणः पू० 1, पा० / 2. यस्मिन्निष्यते शेष० पू० 2 / . 3. सिद्धिरमूर्त्तत्वसंसिद्धिश्च मुटी० / 4. स्वेच्छया क्रियते पू० 2 / 5. मुद्रा पू० 1, पा० / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका दव्ववती दव्वाइं, जाइं गहिताई मुंचति न ताव / आराधणि दव्वस्स वि, दोहि वि भावस्स पडिवक्खो // 185 // "दव्ववती०" गाधा / वतिरित्ता दव्ववती, जाणि वि भासाजोग्गाणि दव्वाणि भासत्ताए गहिताणि न ताव णिसिरति सा दव्ववती / अधवा जा दव्वं आराधेति घडादि अभिव्यंजयतीत्यर्थः / "दोहि वि" त्ति दव्ववतीए पगारेहिं / "भावस्स पडिवक्खो" त्ति, जं भणितं-णोआगमतो भाववती, जाणि भासाजोग्गाणि भासत्ताए णिसिरिताणि / अधवा जा भावं आराधेति जीवस्स णाणादि, अजीवस्स वण्णादिं / 'वयणं' ति दारं गतं / इयाणि उवएस-पण्णवणा-ऽऽगमे तिण्णि वि दारे एगटे चेव भणति / उवएसो दुविहो-दव्वुवएसो भावुवएसो य / एवं पण्णवणागमा वि दुविहा, तिण्णि वि दव्वे वतिरित्ताणि इमाणि दव्वाण दव्वभूतो, दव्वट्ठाए व विज्जमादीया। अह दव्वे उवदेसो, पण्णवणा आगमे चेव // 186 // "दव्वाण." गाधा / दव्वुवएसो जधा-कोति आतुरस्स ओसध-दव्वाणं उवदेसं करेति / जो वा साधू अणुवयुत्तो उवएसं करेति, अधवा जो वेज्जो 'एस ममं दव्वं दाहिति' त्ति, ओसहदव्वाणं उवएसं करेति / दव्वपण्णवणा जधा कोइ दव्वे पण्णवेति जो वा भावं अणुवउत्तो पण्णवेति, जो 'वा 'देहिति एस मम किंचि' त्ति, तो पण्णवेति दव्वादीणि / अधवा जो वेज्जो दव्वाणं पण्णवणं करेति सिस्सस्स तो मे किंचि देहिति, एस दव्वपण्णवणा। दव्वागमो हिरण्णादीणं आगमं करेति संग्रहमित्यर्थः / जो वा अणुवउत्तो पढति / जं वा वेज्जो पढति वरं वित्ती होति / एस दव्वागमो / णोआगमतो भावओ उवएसपण्णवणागमो जो उवउत्तो उवदिसति पण्णवेति पढति वा / एते एगट्ठा पज्जव त्ति णामा सुत्ते भवंति / सुत्तेगट्ठिताणि गताणि / इदाणिं अत्थेगट्ठियाणि अणुयोगेगट्ठियाणीत्यर्थः / ताणि इमाणि अणयोगो य णियोगो, भास विभासा य वत्तियं चेव / एते अणुओगस्स उणामा एगट्ठिया पंच // 187 // "अणुयोगो य०" गाधा / एताण अत्थो २णिरुत्तेहिं समं भण्णिहिति / एगट्टितमिति दारं गतं। इयाणिं णिरुत्तं ति दारं / 1. जो भावा देहि त्ति पू० 1 / 2. अत्थणिरुत्तेहिं पू० 2 / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१८५-१९१] . णिच्छियमुत्त निरुत्तं, तं पुण सुत्ते य होति अत्थे य / सुत्ते उवरिं वोच्छिति, अत्थणिरुत्तं इमं तत्थ // 188 // "णिच्छितमुत्त०" गाधा / णिरुत्तमिति कोऽर्थः ? उच्यते-निश्चितं तथ्यं वा उक्तं निरुक्तम् / तं च दुविधं-सुत्तणिरुत्तं, अत्थणिरुत्तं च / तत्थ सुत्तणिरुत्तं उवरिं भण्णिहिति / 'णेरुत्तियाणि तस्स उ सूयति' इत्यादि गाधा (गा० 314) / अत्थणिरुत्तं पुण इमं- अणु बादरे य उंडिय, पडिंसुया चेव अब्भपडले य / वत्तिय चउक्क भंगो, णिरुत्तादी वत्तणी व जधा // 189 // "अणु बायरे०" गाधा / एते दिटुंता अत्थणिरुत्तेसु / एते पुण अत्थेगट्ठितेसु वक्खाणिज्जंति / तं जधा-अणुयोगे' अणुं च बादरो य दिटुंतो कीरति / णियोगे सुत्तं अत्थो य उंडियापत्तएणं दिटुंतो कीरति / भासाए पडिंसुया दिटुंतो कीरति / विभासाए अब्भपडलदिटुंतो कीरति / वत्तीए चत्तारि भंगा करेत्ता मंखदिटुंतो कीरति / तत्थ पढमं दारं अणुयोगो / अणु बादरे य० / अस्य व्याख्या अणुणा जोगो अणुयोगो, अणु पच्छाभावतो य थोवे य। जम्हा पच्छाऽभिहियं, सुत्तं थोवं च तेणाणू // 190 // - "अणुणा०" गाधा / अणुणा जोगो अणुयोगो / “अणु पच्छाभावे थोवे" य त्ति काउं / जेण कारणेण पच्छा कतं सुत्तं थोवं च तेणाणू भण्णति / अत्थो पुण बादरो पुव्वं भणितो बहू चेत्यर्थः / एवं भणिए आयरिएणं सीसो भणति पुव्वं सुत्तं पच्छा, य पगासो लोइया वि इच्छंति / पेडासरिसे सुत्ते, अत्थपया हुंति बहुया वि // 191 // "पुव्वं सुत्तं०" गाधा / 'पगासो 'त्ति अत्थो / ते ते भावे पगासीकरेतीति पगासो, सुत्ताभावे कस्स अत्थो भवतु ? / लोइया वि एवं इच्छंति / यथा पूर्वं सूत्रं ततो वृत्तिवृत्तेरपि च वार्तिकम् / सूत्र-वार्तिकयोर्मध्ये, ततो भाष्यं प्रवर्तते // एतेण कारणेणं जं भणध-पुव्वं अत्थो पच्छा सुत्तं ति, तं न घडति / जं पि य भणधसुत्तं अणुं अत्थो बादरो, तं पि ण घडति / कधं ? जधा एगाए पेलाए बहूणि पोत्ताणि मायति / तत्थ पुण पेलाए चेव बादरत्तणं भवति, जेण ते सव्वे वि ताए मायंति / एवं पेल्लियत्थाणीए सुत्ते बहू वि अत्थपदा भवंति चेव / एतेण कारणेणं जं भणध-पच्छा सुत्तं, एयं ण घडति / ण 1. अणियोगे पू० 2 / 2. ०भावो थोवेणत्ति पू० 1 / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका य एगंतेण अत्थस्स महत्थं ति ग्राह्यम् / कथं ? उच्यते एग वा अत्थपदं, सुत्ता बहुगा वि संपयं होति / उक्खित्तणायमादिसु, अयमवि तम्हा अणेगंतो // 192 // "एगंवा०"गाधा। एगं अत्थपदं बहूणि सुत्ताणि उवदंसेंति।जधा 'उक्खित्त-णाते' अणुकंपा कायव्व त्ति / बहूहि सुत्तेहिं वण्णिता / आदिग्गहणेणं संघाडादिसु 'न वि वण्णहेउं आहारेयव्वं'ति। . आचार्याह-जं तुमे भणितं-पुव्वं सुत्तं पच्छा अत्थो, तं ण भवति / कधं? जेण अरहा गाहा। अत्थं भासति अरहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी / अत्थं च विणा सुत्तं, अणिस्सियं केरिसं होज्जा // 193 // "अत्थं भासइ अरहा०" गाधा / कंठा / जं च तुमे भणितं पेलावद् बादरं सूत्रम्, अत्थो अणू , तं पि न भवति / कथं ? जधा 'तातो चेव पेलातो एगं वत्थं णीणेउं अणेगात्तो पेडातो बझंति / एवमेगतूभयतो वी अत्थस्सेह तु अनुत्तया पत्ता / कध भण्णति अणुसुत्तं, महति पगासो इमं सुणसु // 194 // "एवमेगं वा" गाधा / कंठा / तम्हा अणु पच्छाभावे, अयं ठितपक्खो अणुयोगो / अणु-बादरे त्ति गतं / इदाणि णियोगे / 'उंडित' त्ति / अस्य व्याख्या अधिगो जोगों निजोगो, जधातिदाहो भवे णिदाहो त्ति / अत्थणिउत्तं सुत्तं, पसवति चरणं जतो मुक्खो // 195 // वच्छणियोगे खीरं, अत्थणियोगेण चरणमेवं तु। . पत्तगउंडियमुभयं, उंडियसरिसो तहिं अत्थो // 196 // "अधियो जोगो०" गाधाद्वयम् / निराधिक्ये युजिर् योग इति कृत्वा अधिको योगो नियोगो भवति / तथा अतीव दाघो निदाघ उच्यते / एवं अधिको योगो नियोगो भण्णति / स केन साकं आधिक्येन योग ? इति चेत्, उच्यते-अत्थेण समं सुत्तं नियुत्तं चरित्तं प्रसवति, सुयति त्ति भणितं होति / जतो संसारातो मोक्खो भवति / जधा वच्छेण गावी णिउत्ता खीरं पसवति, एवं अत्थेण समं णिउत्तं सुत्तं चरित्तं पसवति / जति पुण सुत्तं एक्कं, न वि अत्थो णेणं गहितो, णत्थि चरणं मोक्खो वा / अत्थेण वि सुत्तविहूणेणं कज्जं न साधेति चेव / जति पुण सुत्तत्थोववेतो तो साधेति सकज्जं / एत्थ दिटुंतो उंडियाए / जधा-एगेणं कज्जिएणं पत्तयं 1. तओ पू० 1-2 / 2. गाथेयं बृहद्भाष्यसत्का इव, वृत्तौ न व्याख्याता, अशुद्धा प्रतिभाति / 3. ०णं वणिएणं पू० 1 / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-१९२-१९९] 55 आणीतं, अमुद्दितयं / तेण न साधितं कज्जं, मुद्दा नत्थि त्ति / न करेंति आणं / अण्णेणं उंडिया चेव एगल्लिया, पत्तयं णत्थि / तेणं पि न साधियं कज्जं, पत्तयं णत्थि त्ति / अण्णेण पत्तयं समुद्दितयं आणीतं, तेण साधितं कज्जं / एवमेव पत्तयसरिसं सुत्तं, अत्थो उंडियासरिसो / जस्स सुत्तं एति, अत्थो ण एति स अमुद्दियलेहसरिसो। जस्स अत्थो एति सुत्तं ण एति स मुद्दितलेहसरिसो' / जस्स अत्थो वि सुत्तं पि, उभयसंपण्णे चरणपसवो, तप्पसवे मोक्खो / ' एगतरविहूणे णत्थि चरणं, कुतो मोक्खो दिक्खासाफल्लं वा ? / उंडिया णाम लेहस्स मुद्दा / णियोगो उंडिया य गताणि ॥छ।। इयाणि भासा पडिंसुया चेव त्ति दारंपडिसद्दगस्स सरिसं, जो भासति अत्थमेगु सुत्तस्स / सामाइय-बाल-पंडिय-साधु-जतिमातिया भासा // 197 // ___ "पडिसद्द०" गाधा / जधा जलतले जारिसो सद्दो कीरति तारिसो चेव पडिसद्दओ उद्वेति / एवं जो ज़ारिसं सुत्तं तारिसं चेव अत्थं भासति आयरिओ, सा भासा भवति / जधासमभावः सामायिकं, बालभावो बालियं / अथवा द्वाभ्यां आगलितो बालः / पापाद् डीनः पंडितः / अधवा पंडा बुद्धिः, 'इण् गतौ', पंडां अनुगत:२ पंडितः / साधुकारी साधुः, यततीति यति: / आदिग्रहणात् तपतीति तपनः / भासा पडेंसुया य गतं / . इयाणि 'विभासा अब्भपडले य' त्ति दारं एक्केणं एक्कदलं, तर्हि कयं बीतिएण बहुतरगा / ततिएण छादितं तं, तिल्लंऽबिलमादुवाएहिं // 198 // .. "एगेण" गाधा / जधा छत्तकारेणं सिस्साणं अब्भपडला दिण्णा / छत्तं छादेध त्ति / तत्थ एक्केण ताव दो वा तिण्णि वा दले करेत्ता लाइतं, बितिएणं पंच वा छ वा सत्त वा दले करेत्ता लाइताणि छत्ते / ततिएणं तेल्लंबिलादीहिं तिम्मिताणि भेदं कातुं सव्वं छत्तं छादितं / एगपदे दुतिगादी, जो अत्थे भणति सा विभासा उ। असति य आसु य धावति ण य सम्मति तेण आसो उ॥१९९॥ "एगपदे०" गाधा / एवं एगम्मि पदे जो दो वा तिण्णि वा चत्तारि वा बहुतरए वा अत्थे भासति, ण वि सव्वं चेव णिव्वयणं सक्केति काउं, एस विभासा / यथा-अशति आशु च धावति, न च ३श्राम्यते, तस्मात् अश्व इति / एत्थ दोहिं छत्तछादेहि आदिल्लएहि अहिगारो मंतव्यः / विभासा अब्भपडले यत्ति गतं ॥छ। - 1. मुद्दियसरिसो पू० 1 / 2. 'पंडां अनुगतः' इति न पू० 1 / 3. श्राम्यति पा० / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका इदाणि 'वार्तिकः इति / सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमो विभासंति / चउरो खलु मंखसुता, वत्तीकरणम्मि आहरणा // 200 // जो सामाइयस्स अत्थं वित्थरेण भासति णिव्वयणिज्जं सो वत्तीकरो भवति / आह, को पुण सो ? उच्यते-सामाइयस्स अत्थं पुव्वधर समत्तमो विभासेति / जधा तेण छत्तारेण तेल्लंबिलादीहिं उवाएहिं सव्वं छादितं छत्तं / एस णत्थि संपदं / आह-संपदं केरिसो 'वत्तीकरो भवति ? उच्यते जे जम्मि जुगे पवरा, तेसिं सगासम्मि जेण उग्गहियं / परिवाडीण पमाणं, वुच्छं वत्तीकरो स खलु // 201 // "जे जम्मि०" गाधा / संपति जुगप्पवराणं सकासे तिहिं सत्तर्हि वा वारेहिं जेणं गहणधारणासमत्थेणं उग्गहितं सो वत्तीकरो भवति / एत्थ वत्तीए चत्तारि भंगा भवंति / 1. एक्कस्स सुत्तं एति णो अत्थो, 2. एगस्स अत्थो एति, णो सुत्तं, 3. एगस्स सुत्तं पि एति, अत्थो वि एति / 4. एगस्स णावि सुत्तं एति, णावि अत्थो / एस अवत्थू चेव / एत्थं दो आइल्ला कज्जं न साधेति / ण य वत्तीकरा भवंति / ततिओ सुत्तत्थ-समण्णागतो संजमकज्जं साधेति / दिटुंतो मंखेहिं चउहि / जहा चत्तारि मंखा / तेसिं फलएणेक्को गाहाय बितिओ तइओ वाचितत्थेणं। तिन्नि वि अकुटुंबभरा, तिगजोग चउत्थओ भरति // 202 // 5 "फलएणेक्को०" गाधा / एक्को फलयं गेण्हित्ता ६आहिंडति, ण गाधाओ उच्चारेति, ण वायाए ण अत्थेणं किंचि भणति / सो ण किंचि लब्भति / बितिओ फलयं ण चेव गेण्हति, णवरं गाधाओ पढंतो हिंडति, सो वि ण किंचि लब्भति / ततिओ ण वा फलयं गेण्हति ण वा गाधाओ उच्चारेति, परं वायाए अत्थं कहंतो हिंडति / एस वि ण किंचि लभति / चउत्थो फलयं गेण्हित्ता गाधाओ पढंतो वायाए य सातो हिंडति / सो लभति। जधा एते तिण्णि मंखा अकुंटुबभरा / चउत्थो य त्रिकयोगसंपउत्तो कुटुंबभरो भवति / एवं आदिल्ला दोण्णि पुरिसा मोक्खटुं न साधिति / तइओ य चउत्थमंखवदप्पणो मोक्खटुं साधेति / णिरुत्तादि त्ति / णिक्खेवा य णिरुत्ताणि जा य कधणा भवे पकासस्स / जह रिसभादीयाऽऽहंसु किमेवं वद्धमाणो वि // 203 // 1. वत्तिकरेति पा० / 2. ०भासंति पा० / 3. अत्थि सं० पू० 2, पा० विना / 4. वन्तीकारो पा० / 5. मु० टीका पुस्तके 200-201 गाथे व्युत्क्रमेण दृश्यते / 6. हिंडति पू० 1-2, पा० / 7. तृग० पू० 2 / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२००-२०७] "णिक्खेवा य०" गाधा / सीसो भणति-णिक्खेवा य चउक्क-सत्तयादीया, णिरुत्ताणि य सुत्तत्थाणं अत्थकधणा य एगट्ठिताणं / अधवा चतुर्भिरणुयोगैः या प्रकाशकथना। एवं जधा उसंभातिणो तेवीसं तित्थकरा भणंति किमेवं वद्धमाणसामी वि आतिक्खति ? / आयरिओ भणति-आमं / आह-तो ते उच्चतरा, वद्धमाणसामी सत्त रयणीओ, कधं तह चेव भणति ? / उच्यते धिति-संघयण तुल्ला, केवलभावे य विसमदेहा वि। केवलणाणं तं चिय, पण्णवणिज्जा य चरमे वि // 204 // णायज्झयणाहरणा, इसिभासियमो पइण्णगसुया य। एते हुंति अणियता, णियतं पुण सेसमुस्सण्णं // 205 // "धिति संघयणा०" गाधाद्वयम् / पण्णवणिज्जा वि भावा जे उसभादीणं ते इमस्स वि / किं पुण णायज्झयणादिसु जे दिटुंता एते ते वा होज्जा अण्णे वा ? पच्चुप्पण्णयाणि इसिभासियादीणि, ओसण्णमिति प्रायशः / आह-को दिटुंतो ? जधा तह च्चेव वद्धमाणसामी वि आह ? / उच्यते-'वत्तणी वि जधा' / अस्य व्याख्या जध सव्वजणवएसुं, एक्कं चिय सगडवत्तणिपमाणं / विसमाणि य वत्थूणी, सगडाईणं तध णिरुत्ता // 206 // "जह सव्व०" गाधा / 'विसमाणि य वत्थूणि' त्ति / जति वि अण्णे महल्ला तधा अण्णे खुड्डया / आदिग्गहणेणं २जुग्गयादीणं / आह-अवस्समेव पुरिल्लरधाणं संपयरहाण य विसेसो होति वित्थारस्स / महप्पमाणाण य मणुस्साणं संपतिच्चयाण य अप्पप्पमाणं ति ? / उच्यते जति वि य वत्थू हीणा, पुव्विल्लरधेहिं संपयरधाणं / तह वि जुगम्मि जुगम्मी, सहत्थ चउहत्थगा अक्खा // 207 // "जति वि य०" गाधा / कंठा / आह-जति वि णिक्खेवा य णिरुत्ताणि चेव, जा य कधणा पगासस्स, जहा रिसभादी आहु तधा वद्धमाणो वि, तो वि पंचधणुसतियाणं सातिरेगादीण य मणुस्साणं महल्लाणींदियाणि, तेणं ते सोत्तादिसु इंदिएसु बहुतरए खेत्ते सद्दातिए विसयोवलं भे जाणंति / जे हीणतरपमाणा पुरिसा तेसिं अप्पतराए खेत्ते सद्दादिविसओवलंभेणं भवितव्वं / तो कधं एतं एवं भवति ? / उच्यते 1. णिज्जे विभासा पू० 2 / 2. जुग्गादीणं पा० / जुत्तयादीणं पू० 1 / 3. सहादिसु पू० 1-2 / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका पुरिमेहिं जति वि हीणा, इंदियमाणा उ संपतनराणं / तह वि य सिं उवलद्धी, खेत्तविभागेण तुल्ला उ // 208 // "पुरिमेहिं 'जइ०" गाधा / 'खेत्तविभागेण 'त्ति आयंगुलेणं इंदियपमाणं, इंदियविसयखेत्तप्पमाणं च / जधा "सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जतिभागातो उक्कोसेणं बारसहिं जोयणेहितो २अच्छिण्णे पोग्गले पुढे २पविठ्ठातिं सद्दातिं सुणेति" / [प्रज्ञापना पञ्चदशमिन्द्रियपदं उ० 1 सू० 195] एवमादि। अत्थणिरुत्तं गतं / णिरुत्तं ति दारं गतं / इयाणि 'विहि'त्ति दारं / तीसे इमाणि एगट्ठियाणि / अणुपुव्वी परिवाडी, कमो य णातो ठिती य मज्जाया। .. होति विधाणं च तधा, विहीऍ एगट्ठिया एते // 209 // "अणुपुव्वी०" गाधा / कंठा / तत्थ इमाए विधीए अणुओगो कातव्वो सुत्तत्थो खलु पढमो, बितिओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणितो। ततितो य णिरवसेसो, एस विधी होति अणुयोगे // 210 // "सुत्तत्थो खलु०" गाधा / पढमसोतारस्स पढमं ताव सुत्तत्थो कधेतव्वो / जधा"नो कप्पति निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिण्णे पडिग्गाहेत्तए" (उ० 1 सू० 1) / न इति प्रतिषेधे / ण वट्टतित्ति भणितं होति / न अस्य ग्रन्थो विद्यते इति निर्ग्रन्थः / वा विभाषायां / आमं अपक्वम् / तालो रुक्खो / ताले भवं तालं फलमित्यर्थः / पलंबं मूलं / तस्यैव अभिण्णं, ६अव्यपगतजीवं / पडिगाहित्तए त्ति गेण्हित्तए / एवं ताव कहेतव्वं जाव समत्तं सुतक्खंधं / बितियपरिवाडीए णिज्जुत्तिमीसओ कहेतव्वो / पढियसुत्तफासिंयगाधातो य जाव समत्तं / तइयाए परिवाडीए पद-पदत्थ-चालणा-पच्चवत्थाणादीहिं कहेतव्वो / अणुओगकहणाए एस विधी / अधवा मूतं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा / तत्तो पसंगपारायणं च परिणि? सत्तमए // 211 // "मूतं०" गाधा / कंठा। चोदेति राग-दोसे, समत्थ परिणामगे परूवणया / एतेसिं णाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए // 212 // 1. जह पू० 2 / 2. छिपणे पू० 2 / 3. पविढे पू० 1-2, पा० / 4. पू० 2 प्रतौ न / 5. वट्टिति पू० 1, पा० / 6. अव्ववगय० पू० 1-2; अव्यवगत० पा० / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२०८-२१८] "चोतेति राग-दोसे०" गाधा / चोदतो चोदेति-१अहो राग-दोसिया / कधं ? / सो सीसो दुविहो होज्जा-गहणधारणासमत्थो य जड्डो य / मच्छरता अविमुत्ती, पूया-सक्कार गच्छति य खिण्णो। दोसो गहणसमत्थे, इतरे रागो य वोच्छेदो // 213 // "मच्छरता०" गाधा / 'मच्छरत'त्ति, एस मम सवत्तीहोहिति लहुं सिक्खितो तेण खेदेध सत्तहिं परिवाडीहिं / अविमुत्ती२-एस सुत्तत्थेसु समत्तेसु णिप्फिडिहिति त्ति इयरधा किंचि अमुत्ती होहिति / सीसपरिवारितस्स पूयासक्कारो भविस्सति / ताधे य सो गच्छिधिति खिण्णो त्ति परिस्संतो अण्णं गच्छं / अणुओगवोच्छेदो भवति / एवं द्वेषो गहणसमत्थे एताए विहीए कधिज्जमाणे / इतरो नाम जड्डो, तम्मि भे रागो, जं सत्तहिं परिवाडीहिं देह / असमत्थ त्ति आयरिओ अप्पणो असमत्थत्तणं सीसस्स य जाणित्ता इमं आह णिरवयवो न हु सक्को, सयं पगासो उ संपयंसेउं / कुंभजले वि हु तुरितुज्झितम्मि न वि तिम्मए लिहूं // 214 // "णिरवयव०" गाधा / कंठा / 'सयं' ति एगाए परिवाडीए / इदाणिं अपरिणामग त्ति। एकग्रहणात् तज्जातीयग्रहणं / सीसो तिविहो-परिणामओ अपरिणामओ अतिपरिणामओ य। सुत्त-ऽत्थे कधयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुपलब्भ / अणुकंपाएँ अपत्ते, णिज्जूहति मा विणस्सिज्जा // 215 // "सुत्तऽत्थे०" गाधा / "णिज्जूहति" त्ति अपवातं न कथयतीत्यर्थः / तत्थ (अपरिणामतेसु इमे उदाहरणा दारुं धातुं वाही, बीए कंकडुय लक्खणे सुविणे / एगतेण अजोग्गे, एवमादी उदाहरणा // 216 // को दोसो एरंडे, जं रहदारूंण कीरए तत्तो। को वा तिणिसे रागो, उवजुज्जइ जं रहंगेसु // 217 // जं पि य दारुं जोग्गं, जस्स उ वत्थुस्स तं पि हु ण सक्का / जोएउमणिम्मविउं, तच्छण-दल-वेह-कुस्सेहिं // 218 // 1. अहोत्थ रागद्दो० पा० / 2. अविज्झती पू० 2 / 3. ०प्फिडति पू० 1-2 विना / 4. अमुयी पू० 2, पा० / 5. सो गंछिसीति पू० 2 / 6. सई ता० / 7. लेट्ट ता० / 8. अतिपरिणामएसु पा० / 9. बाधि बी० ता० / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पीठिका बृहत्कल्पचूर्णिः // एमेव अधाउं उज्झिऊण धाऊण कुणइ आयाणं। ण य अक्कमेण सक्का, धाउम्मि वि इच्छियं काउं // 219 // सुहसज्झो जत्तेणं, जत्तासज्झो असज्झवाही उ। जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससभावाण वि तहेव // 220 // बीयमबीयं णाउं, मोत्तुमबीए उ करिसतो सालिं / ववइ विरोहणजोग्गे, ण यावि से पक्खवाओ उ॥२२१॥ कंकडए को दोसो, जं अग्गी तं तु ण पयइ दित्तो। को वा इयरे रागो, एमेव य सूवकारस्स // 222 // जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते णिसेहिउं इयरे। रज्जरिहे अणुमण्णइ, सामुद्दो णेय विसमो उ॥२२३॥ जो जह कहेइ सुमिणं, तस्स तह फलं कहेइ तण्णाणी। रत्तो वा दुट्ठो वा, ण यावि वत्तव्वयमुवेइ // 224 // "दारूं धातुं०" दारगाधा / वक्खाणगाधा सिद्धा चेव / १किंचि भणामि / जोएतुं ति लाएतुं / दलो णामं दुधा-तिधादि-फालणं / कुस्सो णामं जो वेधे पवेसिज्जति प्रान्ते / एवं चेव अम्ह वि रागो दोसो वा णत्थि / दारुत्ति गतं / जाधे राता(या) ववगतो भवति ताधे जे तस्स पुत्ता कुमारगा ते सव्वे सामुद्दलक्खणपाढओ परिक्खित्ता जो रायलक्खणसंपण्णो तं संदिसति-एस लक्खणजुत्तो त्ति। एगंतेण चेव अयोग्गे अववायस्स अतिपरिणामए पुरिसे एवमादीया उदाहरणा भवंतीति। जो पुण अपरिणामओ तस्स कमेण, णिम्मवेतुं णिम्मवेतुं कधिज्जति / असमत्थे य इमाणि उदाहरणाणि अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमादीया। अपरिणतजणे एते, सप्पडिवक्खा उदाहरणा // 225 // जध अरणी णिम्मवितो, थोवो विउलिंधणं ण चाएति / दहिउं सो पज्जलितो, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा // 226 // एवं खु थूलबुद्धी, णिउणं अत्थं अपच्चलो घेत्तुं / सो चेव जणियबुद्धी, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा // 227 // 1. किंपि पू० 1 / 2. प्रान्तो पू० 2, पा० / 3. असमत्थेण पू० 1 / असमत्थे व पू० 2 / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२१९-२३२] देहे अभिवबँते, बालस्स उ पीहगस्स अभिवुड्डी / अइबहुएण विणस्सइ, एमेवऽहुणुट्ठिय गिलाणे // 228 // खीर-मिउपोग्गलेहिं, सीहो पुट्ठो उखाइ अट्ठी वि / रुक्खो विवण्णओ खलु, वंसकरिल्लो य णहछिज्जो // 229 // ते चेव विवढेता, हुंति अछेज्जा कुहाडमाईहिं। तह कोमला वि बुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु // 230 // "अग्गी बाल०" दारगाधा / "अग्गि''त्ति / "जध अरणी०" गाधा / "एवं खु थूलबुद्धी०" गाधा / कण्ठा / सेसाओ गाहातो पायं वक्खाणगाधासिद्धाओ / “करिल्लो" त्ति वंसो / आदिग्गहणेणं- . सिद्धत्थए वि गिण्हति, हत्थी थूलगहणे सुणिम्माओ। सरवेध-छिज्ज-पवए, घड-पड-चित्ते तधा धमए // 231 // "सिद्धत्थए वि०" गाधा / जधा हत्थीण वल्लओ सिक्खाविज्जतो पढमं कट्ठाणि गाहिज्जति, पच्छा २पाहणा खुड्डलया, पच्छा गोलियाओ, तओ बोरे सिद्धत्थए वि गेण्हति / जति पुण पढमं चेव सिद्धत्थएं गाहिज्जंतो तो ण चेव सक्तो गेण्हिउं / सद्दवेही वि पढमं थूलं दव्वं विधाविज्जति पच्छा वालं / पच्छा सद्देण चेव विंधति / पत्तछेज्जं पि जो सिक्खति सो पढमं अकिंचिक्करहिं चीरेहिं सिक्खाविज्जति, जाधे णिम्मातो भवति ताधे इच्छितं पत्तच्छेज्जं करेति / पवओ वि पढमं वंसे लग्गावित्ता पवाविज्जति, पच्छा अब्भसंतो अब्भ अब्भ आगासे अवि ताणि ताणि करणाणि करेति / घडकारो वि पढम सरावादीणि सिक्खविज्जति, पच्छा सिक्खिओ घड़े वि करेति / पडयारो वि पढमं ताहे चीरुल्लयाणि सिक्खविज्जति पच्छा पट्टाणि वि वुणति / ५चित्तगारो वि पढमं अंडयं पच्छा सिक्खितो सव्वं चेव चित्तकम्मं करेति / धमओ वि पढमं सिंगमादीणि धमति, पच्छा संख-भेरियादीणि वि धमति / जधा एते हत्थिमातिणो कमेणं णिम्मविजंति, एवं सिस्सस्स वि / जत्थ मती ओगाहति, जोग्गं जं जस्स तस्स तं कहए। परिणामाऽऽगमसरिसं, संवेगकरं सणिव्वेयं // 232 // "जत्थ मती ओगाहति०" जं च जस्स जोग्गं परिणाम जाणित्ता तं तस्स कहेतव्वं / जधा एरिसपरिणामयस्स पुरिसस्स इमं जोग्गं, एरिसपरिणामस्स इतरमित्येवमादि / तं च 1. करीलो पू० 1 / 2. पाहाणा पा० / 3. ठिताणि ताणि पा० / 4. चीरूल्लया सि० पू० 2 / 5. चित्तको पू० 2 / 6. कंमेणं पू० 2 / 7. नास्ति पू० 1, पा० / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका संवेगकारयं कधेयव्वं / जधा "सिद्धी य देवलोगो, सुकुलुप्पत्ती य होति संवेगो / णिव्वेयकारयं च ज़धा"णरओ तिरक्खजोणी कुमाणुसत्तं च णिव्वेतो" // कधं पुण जत्थ मती ओगाहति तं तस्स कहेतव्वं ? / उच्यतेणिउणे णिउणं अत्थं, थूलत्थं थूलबुद्धिणो कहए। बुद्धीविवद्धणकरं, होहिइ कालेण सो णिउणो // 233 // "णिउणे णिउणं०" गाधा / कंठा / सप्पडिपक्खा उदाहरण त्ति / जाणि हेट्ठा अग्गिमादीणि उदाहरणाणि भणियाणि / जधा-१जलियमेत्तओ अग्गी खोडेहिं २अकंतो विज्झाति / एतस्स पडिपक्खो-सो च्चेव अग्गी जया थोवं थोवं इंधणेणं उज्जालिओ भवति, तदा जारिसं छुब्भति तारिसं सव्वमेव डहति / एवं सीसो वि जदा थोवत्थोवेणं जणियबुद्धी कतो भवति, तदा जारिसं कहिज्जति उस्सगाऽववाएहिं तं सव्वं सक्केति गेण्हितुं / एवं सव्वोदाहरणाणि उवजुंजिउं सपडिपक्खाणि वत्तव्वाणि / तम्हा आयरिएणं सीसं परिणामगादि सुपरिच्छितं काउं, सीसेणं वि आयरियं सुपरिच्छितं काउं, वत्तव्वं सोतव्वं वा। सा य परोप्परपरिच्छा / गेण्हंत-गाहगाणं, आइसुएसु उविही समक्खाओ।' सो चेव य होइ इहं, उज्जोगो वण्णिओ णवरं // 234 // "गेण्हत०" गाधा / "आदि सुते" त्ति सामाइए / जधा-"गोणी चंदण कंथा." [आव नि० 136] / कस्स ण होहिति वेसो / विणओणएहिं पंजलियउडेहिं पजंपइ इत्यादि / 'विहि' त्ति परिक्खा, एसा चेव णिरवसेसा इधं वत्तव्वा / 'उज्जोग' त्ति परिवाडीहिं तिहिं सत्तहिं वा उज्जोगो कातव्वो उस्सग्गाववातपरमत्थजाणणट्ठाए / 'विधि' त्ति दारं गतं ॥छ।। इयाणि पवित्ति त्ति दारं-पवित्ति त्ति वा पवहो त्ति वा पसूति त्ति वा एगटुं / कधं ? अणुयोगो पवत्तइ त्ति भणितं होति / सा पवित्ती दुविधा-दव्वे भावे य / तत्थ गाहा अणिउत्तो अणिउत्ता, अणिउत्तो चेव ते वि उणिउत्ता। नि(णे)उत्तो अणिउत्ता, उणिउत्तो चेव उणिउत्ता // 235 // णिउत्ता अणिउत्ताणं, पवत्तई अहव ते वि उणिउत्ता / दव्वम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति // 236 // 1. जणिय० पू० 1, पा० / 2. ओक्वंतो पू० 2 / 3. होति पेस्सो पू० 2 / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२३३-२४०] - "अणिउत्तो०" गाधाद्वयम् / तत्थ दव्वे गावी अणिउत्ता, दोहओ वि अणिउत्तो 1 / गावी अणिउत्ता, दोहओ णिउत्तो 2 / एवं चत्तारि भंगा / तत्थ पढमं भंगं वक्खाणेति अप्पण्हुया य गोणी, णेव य दुद्धा समुज्जओ दोद्धं / खीरस्स कओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा घेणू // 237 // बीए वि णत्थि खीरं, थेवं व हविज्ज एव तइए वि / ___ अत्थि चउत्थे खीरं, एसुवमा आयरिय-सीसे // 238 // "अपण्हुगा०" गाधाद्वयम् / 'अपण्हुत 'त्ति अपण्हुता गावी, दोहतो वि ण 'दुहति / णत्थि खीरस्स पवित्ती / बितिए वि भंगे णत्थि चेव खीरस्स पसवो / अधवा थोवस्स होज्जा पवत्ती वातादीहिं / ततिए वि भंगे जत्थ गावी पण्हुता, दोहओ न दुहति, णत्थि चेव पसवो खीरस्स / थोवं वा होज्जा थणएसु गलंतेसु / चउत्थभंगे गावी पण्हुता, दोहतो वि दुहति / अत्थि खीरस्स पसवों / एसा चेव उवमा भावे अणुयोगस्स पसवे आयरिए सीसेसु य / आयरिओ अणिउत्तो, सीसा वि अणिउत्ता, णत्थि अणुयोगस्स पवित्ती / अणिउत्तो णिउत्तेसु णत्थि अणुयोगस्स पसवो / अधवा अणिच्छमाणमवि किंचि उज्जोगिणो पवत्तंति / तइए सारिते वा होज्ज पवित्ती गुणिते वा // 239 // "अधवा०" गाधा / अधवा होज्जा पवत्ती / कधं ? / ते उज्जोगमंता सीसा अणिच्छंतयं चेव पडिपुच्छादीहिं पवत्तेति / णिउत्तो आयरिओ, सीसा अणिउत्ता / एत्थ वि णत्थि पवत्ती / होज्जा वा पवत्ती सारेंते जधा, एवं अणियोगे भणितेल्लयं / अधवा असोतुकाममवि कंचि गुणणाणिमित्तं, माणस्स ओ त्ति सेलसमाणस्स कधिज्जा, बला वा घेत्तुं कहेज्जा-सुणेहि त्ति / एवं ततिए भंगे पवत्ती होज्जा / जधा-कोति णिउत्तो अणिउत्तारे य / एत्थ दिटुंतो अज्जकालया सागारियअप्पाहण, सुवण्ण सुयसिस्स खंतलक्खेण / कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च // 240 // "सागारिय०" गाधा / उज्जेणीए अज्जकालया नाम आयरिया सुत्त-ऽत्थोववेता बहुपरिवारा विहरंति / तेसिं च अज्जकालताणं सीसस्स सीसो सुत्त-ऽत्थोववेतो सागरो णामं सुवण्णभूमीए विहरति / ताधे अज्जकालया 'एते मम सीसा अणुओगं न सुणेति त्ति काउं किं एतेसिं मज्झे अच्छामि ? तहिं जामि जहिं अणुओगं पवत्तेमि / अवि य-एते वि सिस्सा लज्जाहिताए सोच्छिहिति' काउं सेज्जायरं आपुच्छंति-'अहं जामि अण्णत्थ, ४ण सुणेहिति 1. पडिदुहति पू० 1 / 2 / 2. अणुओगे पू० 1-2 / 3. अणिउत्तो पू० 1 // 4. तो पू० 2, पा० / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका सिस्सा / मा साहेज्जासि तेसिं / जति पुण गाढं णिब्बंधं करेज्जा तो खरंटेउं साहेज्जासिसुवण्णभूमीए सागराणं सगासं गत त्ति' / एवं अप्पाहेत्ता रत्ति चेव पासुत्ताणं गता सुवण्णभूमि / तत्थ गंतुं खंतलक्खेणं पविट्ठा सागराणं गच्छं / ताधे सागरेहिं 'खंतो'त्ति काउं तं णाढाइया अब्भुट्ठाणादीहिं / ताधे अत्थपोरिसिवेलाए भणिता सागरेहि-खंता ! 'तुब्भं एतं गतेल्लयं' ? ति / आयरिया भणंति-आमं / 'तो खाई सुणेह'त्ति पकधिता अत्थं / गव्वातंता य कधेति / इतरे वि सीसा पंभाते संते संभंता आयरियं अपासंता ते मग्गितुं सेज्जातरं पुच्छंति / ण कधेति य / तुहं अप्पणो आयरिओ न कधेति कतो जामि त्ति, तो ममं कधेति !! ताधे गाढे णिब्बंधे कते आतुरीभूतेसु कधितं जधा-तुब्भच्चएणं णिव्वेदेणं गता सुवण्णभूमि सागराणं सगासं आयरिया / खरंटिया य / ताहे ते उच्चलिया सुवण्णभूमिं / पंथे य लोगो पुच्छति-एस कतरो आयरिओ जाति त्ति ? / ते कधेति-अज्जकालय'त्ति / ताधे सुवण्णभूमीए सागराणं कधितं लोगेणं-जधा अज्जकालया णाम आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा इह आगंतुकामा पंथे वटुंति त्ति / ताधे सागरा सिस्साणं पुरओ भणंति-मम अज्जया इंति / तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि त्ति / अचिरेणं२ ते सीसा आगया / तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छिज्जंति-केति एत्थं आयरिया आगत त्ति ? / णत्थि / णवरं अण्णे खंता आगता। केरिस ? त्ति / वंदिते णातं / ताधे सो सागरो लज्जिओ जातो / मए एत्थं बहुं पलत्तं, खमासमणा य वंदावित त्ति / ताधे अवरण्हवेलाए मिच्छामि दुक्कडं करेति 'आसातित' त्ति / भणियं च णेण-केरिसं खमासमणो ! अहं अत्थं कधेमि त्ति ? / आयरिया भणंति-सुंदरं, मा पुण गव्वं करेज्जासि / ताधे धूलिपुंजदिटुंतं कधेति / धूलि हत्थेण घेत्तुं तिहिं अंतेहिं उत्तारेंति, जधा एसा धूलीवि ठविज्जमाणी उक्खिप्पमाणी य सव्वत्थ परिसडति / एवं अत्थो वि तित्थकरेहितो५ जाव गणहराणं, गणहरेहितो जाव अम्हं आयरि-उवज्झायाणं परंपरएणं आगतं / को जाणति कस्स के वि पज्जाया गलिता ? / ता मा गव्वं काहिसि त्ति / ताधे 'मिच्छा दुक्कडं' करेत्ता आढत्ता अज्जकालया सीस-पसीसाणं अणुयोगं कधेउं / 'सागारिउत्ति, सेज्जातरो / सुतो सीसो / तस्स सीसो सुतसीसो / कधणा अणुओगस्स सागराणं / चउत्थभंगो णिउत्तो णिउत्ताणं / एत्थं भावम्मि जिणादिता होंति त्ति / अस्य व्याख्या णिउत्तो उभयकालं, भयवं कहणाएँ वद्धमाणो उ। गोयममाई वि सया, सोयब्वे हुँति उणिउत्ता // 241 // 'णिउत्तो'य सव्वगाधा / कंठा / 'पवत्ति'त्ति दारं गतं // इयाणि 'केण वत्ति दारं / 1. खंते पू० 1-2 / खंति खं० / 2. आयरेणं पा० आतरेणं खं० / 3. करेज्जध प्रा० / 4. करेंति खं० पा० / 5. हिंतो जाव अम्हं आय० पा० / 6. आयरियाणं उवज्झायाणं खं० / 7. तो पू० 1-2 / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२४१-२४४] केरिसेणं अणुओगो कधेतव्वो ? / उच्यते देस-कुल-जाइ-रूवी, संघयणी धिइजुओ अणासंसी। अविकंथणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को // 242 // "देस-कुल०" गाधा / 'देस'त्ति जो मज्झदेसजातओ / अधवा अद्धछव्वीसाए जणवतेहिं जातो / किं कारणं ? सो भणिति णाहिति / सुहं च तस्स सीसा परियच्छंति, कुडुक्कादीणं ण चेव परियच्छंति / कुलं पेतियं, जधा-इक्खागकुलिओ, णायकुलिओ इत्यादि। मातिकी जाती / एतेहिं जो उववेतो तेण कधेतव्वो / किं कारणं? कुलीणे गुणा विणयादिणो बहू भवंति / सो य जइ रूवसंजुत्तो भवति / किं कारणं ? 'यत्राकृतिर्भवति तत्र गुणा वसन्ती'ति काउं / ण वि अवत्थुम्मि सीसे णिओएहिति / संघतणधितिजुत्तो ण वि लहुं खिज्जिहिति त्ति / जुत्तसद्दो सव्वहि अणुयत्तति / जो य अणासंसी, ण वि सोतारेहितो वत्थादीणि आसंसति, तर्कयतीत्यर्थः / अविकंथणो २णातिबहुं पलवेति३ / [अमायी न शाठ्येन शिष्यान् वाहयति] / थिरपरिवाडिस्स न गलति / गहितवक्को शोभनवाक्यः / जितपरिसो जितणिद्दो, मज्झत्थो देस-काल-भावण्णू। आसण्णलद्धपइभो, णाणाविहदेसभासण्णू // 243 // "जितपरि०" गाधा / जितपरिसस्स संखोभो न भवति / जितनिद्दस्स ण णस्सति, लहुं च उस्सारेति / मज्झत्थो सव्वेसु सिस्सेसु समचित्तो / देश-काल-भावज्ञः देसं कालं भावं च णातुं तथा विहरिस्सति कधेहिति य / आसण्णलद्धपतिभो परवादिणा आभट्ठो लहुं उत्तरं दाहिति। नानाविधदेशभाषाज्ञस्य नानादेसीया सीसा सुहं परियच्छंति / किञ्च... पंचविधे आयारे, जुत्तो सुत्त-ऽत्थतदुभयविहण्णू। आहरण-हेउ-उवणय-णयणिउणो गाहणाकुसलो // 244 // "पंचविधे०" गाधा / पंचविधो आयारो नाणादि / 'सुत्तत्थ 'त्ति चउभंगो सूतिओ। 'तदुभय'त्ति, ततियभंगिओ इच्छिज्जति / विहण्णु त्ति जाणओ / आहरणं दिटुंतो / हेतू चउव्विधो जावगादि / जधा-धम्मो मंगल०णिज्जुत्तीए तधा भाणितव्वो६ / अधवा हेतुरिति कारणापदेशः / स पुनर्द्विविधः-कारको ज्ञापकश्च / तत्र कारको यथा-मृत्पिण्ड-दंड-चक्रसूत्रोदक-कुलालसामग्रीलक्षणो हेतुर्घटादीनां निर्वर्तकत्वात् कारकः / ज्ञापको यथा-तैलस्थाल-वर्ति-ज्योतिःसामग्रीनिष्पन्नः प्रदीपलक्षणो हेतुः / वस्त्र-शयनाऽसनानामनेकेषां द्रव्याणां तमस्यभिव्यञ्जकत्वाद् ज्ञापकः / अस्मिन् चतुर्विधे वा हेतौ निपुणः हेतुनिपुणः / 1. गुणापि संति पू० 1-2 / 2. णोति० पू० 2 / 3. बहुं वलवलेति पू० 1-2 / 4. भावज्ञ पू० 2 / 5. परियच्छेहिति पा० / 6. ०धा वत्तव्वो पू० 1-2 / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका निपुणशब्दः सर्वानुपातीति कृत्वा / आह, हेतुनिपुणत्वे किं प्रयोजनम् ? / उच्यते-निर्हेतुको हि व्यपदेशो वाङ्मात्रमेव भवतीति कृत्वा हेतुनिपुणः प्रशस्यते / उवणओ उवसंहारो / णया णेगमादिणो सत्त / एतेहिं आहरणादीहिं निउणो जो सो य सीसगाहणाकुसलो / किञ्च ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं // 245 // "ससमयपरसमय०" गाधा / रविद् ज्ञाने, सो अक्खित्तो सुहं णिव्वहिति / गम्भीरो तुच्छत्तं न काहिति / दित्तिमंतो परवादीणं अणोद्धंसणिज्जो भवति / अण्णे य बहू गुणा तम्मि / सिवो अकोधणो / अधवा अणोद्दाइयसरोगसंसतिकरो' गच्छस्स / ५सोम्मो अघोरदिट्ठी, अकुद्धमुही वा / गुणा-मूलगुणा उत्तरगुणा य / गुणाण सताणि गुणसताणि तेहिं गुणसतेहिं, कलितो त्ति संपण्णो / जुत्तो जोग्गो / पवयणं-द्वादशाङ्गम् / सारो तस्स अत्थो, उत्सर्गापवादा वा, तं कथयितुं योग्यः / आह, किं निमित्तं गुणसतसंपन्नेणं अत्थो कधेतव्वो ? / उच्यते गुणसुट्टितस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ / गुणहीणस्स ण भायति, णेहविहूणो जह पईवो // 246 // "गुणसुद्वितस्स०" गाधा / जो मूलगुणादिएहिं गुणेहिं सुट्ठिओ तस्स वयणं घयपरिसित्तो इव अग्गी दीप्यते / शेषं कंठं / उक्तञ्च- . आयारे वटुंतो, आयारपरूवणे असंकियओ / आयारपरिब्भट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भतिओ // 'केण व त्ति' दारं गतं ॥छ। इताणि 'कस्स'त्ति दारं / आह जति पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स वत्तव्यो / एवं गुणण्णिएणं, सव्वसुयस्साऽऽउ देसस्सा // 247 // "जति पवयणस्स सारो०" गाधा / कंठा / णवरं कस्स सुतस्स ? / सव्वस्स आओ देसस्स ? / देसो णाम एगो सुयक्खंधो दो वा तिण्णि वा इत्यादि ।आयरियो भणतिअणुओगम्मि य त्ति सव्वम्मि चेव अणुयोगे जो अत्थो सो एरिसेणं वत्तव्वो / जेण भणितं को कल्लाणं णेच्छति, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। कप्प-व्ववहाराण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं // 248 // 'को कल्लाणं णेच्छति सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो' / अणुओगम्मि / च शब्दात् 1. हिवाङ्मात्रेण बोधयितुं न शक्नोतीति कृत्वा हेतु० पा० / 2. विदक् पू० 1, पा० / 3. णिव्वहिहिति पू० 2 / 4. . रोगसंतिकरो' इति पाठः संभवति / 5. सोमो पू० 1, पा० / 6. असंकेओ पू० 2, पा० / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२४५-२५४] 67 'कप्प-व्ववहाराणं पगतं सीसाणं थेज्जत्थं' / जेण एतं अववायबहुलं सुतखंधं, तेण वित्थरेण एयस्स एवंगुणजुत्तेणं कधेतव्वो / किं कारणमिति चेदुच्यते-सीसाण थिरी-करणत्थं / कधं ते सोतारा णाहिति ? एसुस्सग्गठियप्पा, जयणाणुण्णातो दरिसयंतो वि। तासु ण वट्टइ नूणं, णिच्छयओ ता अकरणिज्जा // 249 // "एसुस्सग्ग०" गाधा / जति ताव एस जतणाए पणगादियाए अणुण्णाओ पडिसेवणाओ पयरिसंतो अप्पणा उस्सग्गे ठितेल्लओ तासु जयणाए अणुण्णासु न वट्टते, नूणं णिच्छएण ताओ 'जतणाए अणुण्णाओ अकरणिज्जाओ अणायरितव्वाओ भवंतीति / किं च जो उत्तमेहिँ पहओ, मग्गो सो दुग्गमो ण सेसाणं / आयरियम्मि जयंते, तदणुचरा केण सीएज्जा // 250 // अणुओगम्मि य पुच्छा, अंगाई कप्प छक्कणिक्खेवो / सुय खंधे णिक्खेवो, इक्केको चउव्विहो होइ // 251 // "जो उत्तमेहिँ०" गाधा / 'उत्तमा' गणधरा आयरिया य / तेहिं जो मग्गो ‘पहतो 'त्ति क्षुण्णः, सो पंथो ण य सेसाणं दुग्गमो भवति, सुगमो चेव भवति / 'सेस'त्ति तद्व्यतिरिक्ताःशिष्या इत्यर्थ: 2 / आचार्ये च जतंते तदनुचारिणां शिष्याणां कथं सीदना भविष्यतीति / इदाणि पुच्छा-'अंगादि 'त्ति / अस्य व्याख्या जति कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो / अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो // 252 // सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति णिक्खिप्पा। सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं // 253 // "जति कप्पा०" गाधा / जति एरिसेणं आयरिएणं कप्पस्स अणुओगो वत्तव्वो, आदिग्गहणेणं ववहारस्स / तो किं ते कप्पववहारा ? 1 अंगं अंगाई, 2 सुयक्खंधो सुयक्खंधा, अज्झयणं 3 अज्झयणाई, 4 उद्देसो उद्देसा ? / उच्यते-कप्पववहारा णं णो अंगं णो अंगाई, सुयक्खंधो णो सुयक्खंधा, अज्झयणं णो अज्झयणाई, णो उद्देसो उद्देसगा / तम्हा उणिक्खिविस्सं, कप्प-व्ववहारमो सयक्खंधं / अज्झयणं उद्देस, णिक्खिवियव्वं तु जं जत्थ // 254 // 1. जयणाओ पू० 1 / पा० प्रतौ नास्ति / 2. शिष्याणामि० पा० / 3. णो अज्झयणं अज्झयणाई पू० 2 / णो अज्झयणं णो अ० पू० 1 / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "तम्हा उ०" गाधा / तम्हा कप्पं णिक्खिविस्सामि, ववहारं णिक्खिविस्सामि, सुतं णिक्खिविस्सामि, खंधं णिक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि, उद्देसा णिक्खिविस्सामि / णिक्खिवितव्वं च जं जत्थ त्ति / अस्य व्याख्या कप्पस्स छव्विधो णिक्खेवोणामादि / जेण भणितं-'कप्प छक्वणिक्खेवो' / ववहारस्स चउव्विहो णिक्खेवो–णामादि / एतेसिं आदिल्लाणं दुण्ह वि, सट्ठाणं होइ णामणिप्फण्णे। अज्झयणस्स उ ओहे, उद्देसस्सऽणुगमे भणिओ // 255 // "आदिल्लाणं०" ति गाधा / सूत्रक्रमप्रामाण्यात् 'दोण्ह वि' त्ति कप्प-ववहाराणं 'सट्ठाणं'ति णिक्खेवा / छक्कग-चउक्कगा णामणिप्फण्णे त्ति णिक्खेवो / कप्पस्स पंचकप्पे, ववहारस्स पेढियाए / इयाणि सुयखंधे णिक्खेवो / एक्केक्के चउव्विहो होति इमो णामादि / णामसुयं ठवणसुयं, दव्वसुयं चेव होइ भावसुयं / एमेव होइ खंधे, पण्णवणा तेसि पुव्वुत्ता // 256 // "णामसुयं०" गाधा / एतस्स सुतस्स खंधस्स य पण्णवणा पुव्वपरूविया / आवस्सए अज्झयणस्स चउव्विहो निक्खेवो / ओहनिप्फण्णे भण्णिहिति / उद्देसगस्स वि उपोग्घातणिज्जुत्तिअणुगमे भण्णिहिति / 'कस्स'त्ति दारं गतं / इदाणि 'तद्दार'त्ति दारं / . कप्प-व्ववहाराणं ओहत्थो वणितो समासेणं / एत्तो एक्ककं पुण अज्झयणं वण्णतिस्सामि // 257 // .. तत्थ पढमं अज्झयणं कप्पो / तस्स चत्तारि अणुओगद्दाराणि भवंति / तस्स दाराणि तद्दाराणि / तस्येति कल्पस्य दाराणि अत्थमुहाणि उवक्कमादीणि / चत्तारि दुवाराइं, उवक्कम णिक्खेव अणुगम णया य / काऊण परूवणयं, अणुगम-णिज्जुत्ति सुत्तस्स // 258 // "चत्तारि" पुव्वद्धं / तं जधा-उवक्कमो णिक्खेवो अणुगमो णयो / एतेसिं चउण्हं वि परूवणा कातव्वा / जधा अणुओगदारे / जाव अणुगमस्स सुत्ताणुगमस्स णिज्जुत्तिअणुगमस्स य परूवणा कता पच्छद्धणं / एतं भेयद्दारं सूतियं / आह, कीस अणुओगद्दाराणि कताणि, कीस वा चत्तारि, एगं चेव सुंदरं दारं ? / अतो भण्णति-वच्छ ! जधा अद्दारगं अनगरं, एगद्दारे य होइ पलिमंथो / चउदारे तेण भवे, देसपएसे य छिडीओ // 259 // Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२५५-२६१] 'अद्दारगं०" गाधा / कंठा / 'पलिमंथो 'त्ति आस-हत्थिमादीहिं पविसंत-णितेहिं संघट्टो / देसो द्दारस्स कुच्छी, तीए छिंडी भवति / पदेसा पगासा, अणेगाओ छिंडीओ, तेसु तेसु पदेसेसु / इमो उवणओ-अकताणुओगद्दारो ताव सव्वधा अगेज्झो अद्दारक-नकरवत् / एगाणुओगद्दारो पुण दुरधिगमो एकद्वार-नकरवत् / तेणाणुओगद्दाराणि चत्तारि कयाणि / 'तद्दार'त्ति दारं गतं ॥छ।। इयाणि 'भेद'त्ति दारं / जधा णगरस्स देसपदेसेसु छिडीओ तधा अणुओगस्स वि चउण्हं दाराणं भेदो / तत्थ उवक्कमो छव्विधो णामादि / णाम-ठवणाओ गताओ / दव्वोवक्कमो सच्चित्तादी तिविहो, उवक्कमो दव्वि सो भवे दुविधो / परिकम्मणम्मि एक्को, बितिओ संवट्टणाए उ॥२६०॥ "सच्चित्तादी०" गाधा / दव्वोवक्कमो तिविधो / सचित्तो अचित्तो मीसओ य / एक्केको दुविधो-परिकम्मणाए य संवट्टणाए य / परिकम्मणं संवट्टणं च / किमुक्तं भवति ? / उच्यते जेण विसिस्सति रूवं, भासा व कलासु वा वि कोसल्लं / परिकम्मणा उ एसा, संवट्टण वत्थुणासो उ॥२६१॥ . "जेण विसिस्सति०" गाधा / विसिस्सति त्ति णिम्मविज्जति / कहं ? २रूवं जधा सुवण्णे अंगुलेज्जयं विसिस्सति / भासा वा जेण विसिस्सति उप्पातिज्जतीत्यर्थः / जधा-अमुगस्स कलाकोसल्लं / जहा-बावत्तरिकलापंडिओ पुरिसो कीरति / एसा परिकम्मणा भवति। संवट्टणा णाम जं वत्थु चेव विणासिज्जति, जधा-अंगुलेज्जयं भज्जति, पुरिसो वा मारिज्जति / तत्थ सचित्ते संवट्टणा, जधा-कोति पुरिसो मारिज्जति / परिकम्मणा जधाणडस्सरे रायणेवत्थं कीरति, सुयओ वा पाढिज्जति, पुरिसो वा बावत्तरि कलाओ गाहिज्जति। अचित्ते संवट्टणा-अंगुलेज्जयं भज्जति / परिकम्मणा जधा-सुवण्णे अंगुलेज्जयं चेव कीरति / मीसए संवट्टणा जधा-सायुधो पुरिसो मारिज्जति / परिकम्मणा जधा-साभरणो पणडो रायवेसं कारिज्जति / अधवा सुगस्स सरो° पाढिज्जति / अथवा साभरणो पुरिसो बावत्तरिं कलाओ सिक्खाविज्जति / दव्वोवक्कमो गतो / इदाणिं खेत्तोवक्कमो 1. पू० 2 प्रतौ न / 2. पा० प्रतौ न / 3. रायाण णे० खं० / 'राय' न पू० 2 / 4. सूयओ पा० / 5. भडो पू० 1 / 6. सूयओ पा० / सूयओ पू० 1-2 / 7. सरोमओ पू० 1-2, पा० / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका णावाति उवक्कमणं, हल-कुलियाइहिं वा वि खेत्तस्स / सम्मज्ज-भूमिकम्मे, पंथ-तलागाइएसुं तु // 262 // "णावाति उ०" गाधा / णावाए जधा-णदि तरति, आदिग्गहणेणं उडुपादीहिं / अधवा हलकुलियादीहिं वि खेत्तं उवक्कामिज्जति / अहवा संमज्जणं घरातीणं जं कीरति / भूमिकम्मं वा देउलादीणं. जं कीरति / जधा १पंथो सोधिज्जति, तलागं वा खण्णति / . आदिग्गहणेणं अगडादि / एसो खेत्तोवक्कमो भवति / इदाणि कालोवक्कमो छायाएँ णालियाइ व, कालस्स उवक्कमो विउपसत्थो। रिक्खाईचारेसु व, साव-विबोहेसु व दुमाणं // 263 // "छायाए०" गाधा / छायाए वा णालियाए वा णज्जति जधा-एत्तितो कालो गतो। "विदू" जाणगा / प्रशस्तः प्रशंसितः / विदूहि पसत्थो अपसत्थो वि / रिक्खं णक्खत्तं / आदिग्गहणेण गहाण वि चारेणं / जधा-एत्तिएणं कालेणं अमुगं णक्खत्तं २भुज्जति एवमादि / समि-चिंचिणियादीणं वा सावं विबोहं च पासित्ता णज्जति जहा-सूरो अत्थं गतो उदितो वा। कालोवक्कमो गतो। इयाणि भावोवक्कमो / सो दुविधो-पसत्थो अप्पसत्थों य / गणिया मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भाववक्कमो होइ। ' आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिज्जा अह पसत्थो // 264 // "गणिया०" पुव्वद्धं / तत्थ अप्पसत्थो भावोवक्कमो इमो एक्का गणिया चउसट्ठिकलापंडिया / तीए चित्तसभाए सव्वमणूसंजातीणं जातिधम्म४ सिप्पाणि कुवित-पसातणं च लिहावितं / ताधे जो कोति मेथुणट्ठी एति तं भणति-चित्तसभं पेच्छ / परं णज्जतो किंजातिओ ? केरिसो वा एस ? | ताधे सो तत्थ जातिधम्मं सिप्पाणि कुवित-पसातणं च दट्ठमवस्समेव भणति-जं 'जत्थ सुकतं दुक्कतं वा। ताधे सा जाणति एसअमुगजातीओ, अमुगं सिप्पं जाणति / कुवितपसायणे दारुणसभावो इत्थिणिज्जितो वा / एवं णाउं तथा उवचरति / [मरुगीदिद्रुतो-] एगा मरुइणी / सा चिंतेति-कधं मज्झ धीयाओ सुहिया होज्ज त्ति ? / ताधे जा जाधे 1. वायवो पू० 2 / 2. भुंजति पा० / 3. अत्थन्नो पू० 2 / 4. जातिकम्मं पू० 2 / जायाकम्म पू० 1 / 5. तत्थ पू० 1-2, पा० / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२६२-२६६] 71 परिणिज्जति -तं ताधे सिक्खावेति-भत्तारस्स दुक्कमेत्ता चडंतं तं पण्हीताए आहणेज्जासि / तत्थ पढमाए आहओ पादं मद्दितुमारद्धो परिचुंबति य ‘हा ! दुक्खावित' त्ति / ताए माउं (तीए माऊए) सिटुं / माताए भण्णति-"दासभोज्जो एस तव" / बितियाए आहओ / रुट्ठित्तार उवसंतो / सिढे भणति-तुमं पि दासभोगेण चेव भुंजाहि / मा अति आतयं / नात्यायतं न शिथिलं / ततियाए आहतो / रुट्ठो / पिट्टिता य / उद्वित्ता गतो / माऊए सिटुं / ४मातूए भणिताएस उत्तमो, चंगिता होज्जाहि / देवयं व जधा उवचरेज्जासि, ‘भर्तारदेवता नारी' / पच्छा किधवि गमेत्ता पसादितो / एस अम्हं कुलधम्मो / उवायकं वा। ५अमच्चे-पज्जोतस्स रण्णो आहेडएणं णिग्गतस्स आसेण मुत्तितं / पडिनियत्तो ६राया तेणेव मग्गेण आगतो पासति मुत्तं ण चेव “सुक्खयं / सुचिरं णिरिक्खित्ता चिंतितं णेणं-'जति एत्थं तलागं खणेज्जा तो सुंदरं होज्ज' त्ति / अमच्चेण तस्स भावं णातुं तलागं खणावितं, तडे वणसंडाणि रोविताणि / अण्णदा रण्णा णिग्गतेणं दिटुं / पुच्छितं-कस्सेतं तलागं? / तुब्भं ति। कधं ? / सव्वं सिटुं अमच्चेणं, अमच्चस्स राया तुट्ठो / एस अप्पसत्थो भावोवक्कमो / इयाणि पसत्थो भावोवक्कमो-आयरियाणं भावो उवक्कमियव्वो / उवक्कमित्ता किं कायव्वं ? उच्यते जो जेण पगारेणं, तूसइ कार-विणयाणुवत्तीहि / आराहणाइ मग्गो, सु च्चिय अव्वाहओ तस्स // 265 // "जो जेण०" गाधा / "जो" त्ति आयरिओ "जेणं पगारेणं' ति काराइणा / कारो जधा पादा कप्पेतव्वा विस्सामेतव्वा वेयावच्चं गिलाणादीण य णिच्चं कातव्वं / विणयस्स जत्तिया भेदा तेसिं जो जेणं तूसति तस्स करेज्जा / अणुयत्ती सव्वत्थेसु अपडिकूलया'० तं करेज्जा / किं निमित्तं, जेणं जेणं करणं तूसति तं तं कायव्वं ? / उच्यते-आराधणाए एस 'अव्याहतः पन्थाः' अनिवारित इत्यर्थः / किञ्चापरं आगारिंगितंकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा / तह वि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे // 266 // "आगारि०" गाधा / आकारैरिंगितं आकारे इंगितं आकारिंगितं / आकारो अवलोयणा दिसाणं / 'इगि गतौ' सर्वे गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था इति वचनात् / इंगितं ज्ञानमित्यर्थः / आकारे ज्ञातव्ये कौशलं यस्य स भवत्याकारेंगितकुशलः / अतस्तं-आकारेंगितकुशलं / अधवा आकारो अवलोयणादि, इंगितमभ्यंतरोऽभिप्रायः / ताभ्यां आकारेंगिताभ्यां कुशलं शिष्यं, 'पूज्या:' आचार्या 1. ०माढत्तो पा० / 2. रुद्दित्ता पू० 2 / रुंढित्ता पा० / 3. सिट्ठ पू० 2 / 4. मायाए पू० 1 / माऊए पू० 2 / 5. अमच्चे पू० 2, पा० / 6. नास्ति पू० 1-2, पा० / 7. अंतेण पा० / 8. सुक्कयं पा० / 9. तं पू० 1-2 / 10. डिक्खलया पू० 2 / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका इत्यपदिश्यन्ते / स यदि ब्रूयात् 'श्वेतो वायस' इति / तथापि तस्य आचार्यस्य तद्वचनं तेन शिष्येण न प्रतिषेद्धव्यं, यथा-न भवति श्वेतः, कृष्णो वायसः इति / अन्यत्र विरहे प्रष्टव्यं / कथं तद् गुरुपादैरपदिष्टं४ 'श्वेतो वायस' इति ? / तत्राचार्येण वक्तव्यं-आमं, न भवति श्वेतः / किं तर्हि ? मया तवैव जिज्ञासनार्थं उक्तम् / किं मज्झ कोवयसि न वेति ॥छ।। भावे उवक्कम वा, छव्विहमणुपुब्विमाइ वण्णेउं / जत्थ समोयरइ इमं, अज्झयणं तत्थ ओयारे // 267 // "भावे उवक्कमं०" गाधा / उवक्कमो छव्विहो भवति / तं जधा-अणुपुव्वी, नाम, जहा ६अणुओगदारे तधा भाणितव्वं जाव समोयारे, इच्चेयं कप्पज्झयणं उवक्कमे अणुपुव्विमातिएहिं दारेहिं जत्थ जत्थ समोयरति तत्थ तत्थ समोयारेयव्वं / तत्थाणुपुव्वी तिविधापुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुव्वी / तत्थ-- दोण्हं अणाणुपुव्वी, ण हवइ पुव्वाणुपुविओ पढमं / पच्छाणुपुव्वि बिइयं, जइ उ दसा तेण बारसमं // 268 // "दोण्हं अणा०" गाधा / “जति तु दसा तेण बारसमं" ति / केति आयरिया भणंति-कप्प-ववहार-दसाओ एगं चेव सुयक्खंधं / तेण पुव्वाणुपुव्वीए पढमं / पच्छाणुपुव्वीए बारसमं / अणाणुपुव्वीए एगादियाए एगुत्तरियाए बारसगच्छगयाते सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवहीणो। सव्वज्झयणा णामे, ओसण्णं मीसए अवतरंति / जीवगुण णाण आगम, उत्तरऽणंगे य काले य॥२६९॥ "सव्वज्झय०" गाधा / छव्विहणामे समोयरंति / तत्थ वि भावणामे मीसए त्ति / खओवसमिए उस्सणं ति सव्वकालं / पमाणे भावपमाणे समोतरति / तं तिविहं-गुणप्पमाणं, णयप्पमाणं, संखप्पमाणं च / तत्थ गुणप्पमाणं दुविधं-जीवगुणप्पमाणं, अजीवगुणप्पमाणं / जीवगुणप्पमाणे समोतरति, णो अजीवगुणप्पमाणे / जीवगुणप्पमाणं तिविधं-नाणगुणप्पमाणं, दंसणगुणप्पमाणं, चरित्तगुणप्पमाणं / णाणगुणप्पमाणे समोतरति / तं पच्चक्खादि चउव्विहं / तत्थ वि आगमे / तत्थ वि लोउत्तरिए, तत्थ वि अणंगपविटे, तत्थ वि कालिए / णो णयप्पमाणे समोतरति / संखाए कालियसुयपरिमाणसंखाए समोयरति / पज्जव पुवुद्दिट्टा, संघाया पज्जव-ऽक्खराणं च / मुत्तूण पज्जवा खलु, संघायाई उ संखेज्जा // 270 // 1. इत्यपदिश्यते पा० पू० 2 / 2. प्रतिषेधयितव्यं पू० 2 विना / 3. विरहेऽपदेष्टव्यं पू० 2 / 4. रुपदिष्टं पू० 1 / 5. पू० 2, पा० मध्ये न। 6. अणुओगे पू० 2 / 7. तथाणु० पू० 2 / 8. अणोण्णब्भा० पा० 2 / 9. दुरूवूणो पू० 2, पा० / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२६७-२७५] 73 "पज्जव०" गाधा / कप्पस्स वक्खाणे अणंता पज्जवा / "सव्वागासपएसग्गं अणंतगुणितं १पज्जवग्गं अक्खरं लब्भति" / एयं णंदीए पुव्वुत्तं / संघाता दुविधा-पज्जवाणं, अक्खराण य / 'संघातादी उ संखेज्ज'त्ति अक्खरसंघाता गहिता / इतरे अणंता चेव / आदिग्गहणेणं सिलोगा वेढादयो कप्पस्स संखेज्जा उस्सण्णं सव्वसुयं, ससमयवत्तव्वया समोयरइ / अहिगारो कप्पणाए, समोयारो जो जहिं एस // 271 // "उस्सण्णं०" गाहा / ससमयवत्तव्वयाए 'उस्सण्णं 'ति णिच्चं सव्वज्झयणाई समोयरंति / अत्थाहिगारो मूलगुण-उत्तरगुणेसु आवण्णाणं पायच्छित्तकप्पणाए / इयाणि सीहावलोइतेणं जं भणितं ससमयवत्तव्वयाए समोयरति तं अववदति, परसमयवत्तव्वयाए समोयरति / कधं पुण ? अत उच्यते परपक्खं दूसित्ता, जम्हा उ सपक्खसाहणं कुणइ / णो खलु अदूसियम्मी, परे सपक्खंजसा सिद्धी // 272 // णिक्खेवो होइ तिहा, ओहे णामे य सुत्तनिप्फण्णे। अज्झयणं अज्झीणं, आओ झवणा य तत्थोहे // 273 // "परपक्खं०" गाधा / जम्हा परपक्खस्स परूवणं वोत्तुं तं दूसेत्ता सपक्खो साहिज्जति / तेणं परसमयवत्तव्वयाए वि समोयरति / णो खलु अदूसितम्मि परसमए 'सपक्खस्स अंजस'त्ति, व्यक्ता प्रधाना वा सिद्धिर्भवति / इच्चेतं कप्पज्झयणं उवक्कमे अणुपुव्विमादीएहिं दारेहिं जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थ समोतारितं / से तं उवक्कमे / ॥छ।। से किं तं णिक्खेवे? णिक्खेवे तिविधे पण्णत्ते-तं० ओहणिप्फण्णे, णामणिप्फण्णे, सुत्तालावगणिप्फण्णे य / तत्थोहणिप्फण्णे चउव्विधे-अज्झयणे, अज्झीणे, आओ, ज्झवणा। जधा अणुओगद्दारे। एक्कक्कं तं चउहा, णामाईयं विभासिउं ताहे। भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयणं समोयरति // 274 // "एक्कक्कं तं०" गाधा / चउसु वि भावेसु समोतरति / ओहणिप्फण्णो णिक्खेवो गतो / णामणिप्फण्णे कप्पो त्ति / णामे छव्विध कप्पो, दव्वे वासि-परसादिएहिं तु / खेत्ते काले जहुवक्कमम्मि भावे उ पंचविहो // 275 // 1. पज्जवग्गक्खरं पा० / 2. आए पू० 2, पा० / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "णामे छव्विह०" गाधा / सो कप्पो छव्विधो-णामकप्पो, ठवणकप्पो, दव्वकप्पो, खेत्तकप्पो, कालकप्पो, भावकप्पो / नाम-ठवणाओ गताओ / दव्वकप्पो जं वासिपरसुमादीहिं दव्वेहिं किंपि कप्पिज्जति / खेत्त-कालकप्पा जधा खेत्त-कालोवक्कमा भणिया तहा भाणियव्वा / भावकप्पो पंचविहो इमो छव्विह सत्तविहे या दसविह वीसइविहे य बायाला। जस्स उणत्थि विभागो, सुव्वत्त जलंधकारो से // 276 // एसा गाधा जहा पंचकप्पे [175] तहा विभासितव्वा / से तं णामनिप्फण्णो' / ॥छ।। इयाणि सुत्तालावगणिप्फण्णो णिक्खेवो पत्तो / सो पत्तो वि न णिक्खिप्पड़, सुत्तालावस्स इत्थ णिक्खेवो। .. सुत्ताणुगमे वुच्छं, इति अत्थे लाघवं होइ // 277 // "पत्तो वि न०" गाधा / स इदानीं सूत्रालापकणिप्फण्णो निक्षेपः प्राप्तलक्षणो पि सन् न निक्षिप्यते / यदुक्तं भवति २अवसरप्राप्तस्यापि व्याख्या तस्य न क्रियते / कस्मात् ? लाघवार्थम् / इतो अत्थि ततियं अणुओगद्दारं अणुगमे त्ति, तर्हि वा णिक्खित्तो इहं णिक्खित्तो भवति / इहं वा णिक्खित्तो तहिं णिक्खित्तो भवति / तम्हा इधं न णिक्खिप्पति, तहिं णिक्खिप्पिहिति / निक्षेप इति द्वारं वर्तते / तस्यैव निक्षेपद्वारस्यानुगमे त्रयो द्वाराः प्रत्येतव्याः / तद्यथा-लक्षण, तदरिह, परिसा य त्ति / तत्थ पढमं 'लक्खणं' ति दारं, तं भण्णति / तस्स कप्पणामज्झयणस्स लक्खणजुत्तं सुत्तं इच्छिज्जति / जं लक्खणविहूणं तं सुत्तं चेव न भवति / आह-कधं सुत्तं ण भवति ? / उच्यते लक्खणतो खलु सिद्धी, तदभावे तं न साहए अत्थं / सिद्धमिदं सव्वत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुयं तेण // 278 // "लक्खणतो०" गाधा / लक्खणजुत्तस्स सुत्तस्स अत्थो भवति / लक्खणहीणस्स अत्थो चेव णत्थि / अत्थाभावे जंणिमित्तं सुत्तमुवणिबद्धं तस्याप्रसिद्धिरिति / सिद्धं चेदं सव्वलोए, लक्खणहीणं जं किंचि मणिमादि दव्वं लाभत्थं कीतं तं लाभत्थं ण साधेति / एवं लक्खणहीणं सुत्तं तमत्थं ण साहेति / एतेण कारणेणं लक्खणजुत्तं सुत्तं इच्छिज्जति / केरिसं पुण लक्खणजुत्तं सुत्तं ? / उच्यते 1. णिप्फण्णे पू० 1-2 / 2. अवसरप्राप्ताऽपि पू० 2 / 3. लाघवार्थः पू० 1-2 / 4. दव्वलाभ० पू०२। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२७६-२८३] अप्पग्गंथ महत्थं, बत्तीसादोसविरहियं जं च / लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य गुणेहिँ उववेयं // 279 // "अप्पग्गंथ०" गाधा / अप्पक्खरं अप्पत्थं च चउभंगो / अप्पक्खरं अप्पत्थं जधाकप्पासीयं / अप्पक्खरं महत्थं-सामातिय-कप्प-ववहारादी / महक्खरं अप्पत्थं जहा–जीमूतेति वा, अंजणेति वा, इत्यादि बहुएहिं अक्खरेहिं कालयवण्णो भणितो / महक्खरं महत्थंदिट्ठिवातो. / जं अप्पक्खरं महत्थं तारिसं सुत्तं इच्छिज्जति / दोसा बत्तीसं अलियादिणो भणिया। तं जहा अलियमुवघायजणयं, अवत्थग णिरत्थयं छलं दुहिलं / णिस्सारमहियमूणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं // 280 // कमभिण्ण वयणभिण्णं, विभत्तिभिण्णं च लिंगभिण्णं च / अणभिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च // 281 // काल-जइ-च्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च / अत्थावत्ती दोसो, हवइ य असमासदोसो य // 282 // उवमा-रूवगदोसो, परप्पवत्तीय संधिदोसो य / एए उ सुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति णायव्वा // 283 // "अलियमुव०"गाहातो चत्तारि / तत्थ अलियं दुविधं-अभूतुब्भावणं, भूतणिण्हवो य। तत्थ अभूतुब्भावणं जधा-सामागतंदुलमेत्तो जीवो / भूतणिण्हवो जधा-णत्थि जीवो एवमादि / '१उवग्घातजणगं' जं परस्स २उवग्घाते वट्टति / यथा-'न मांसभक्षणे दोषः' (मनुस्मृति अ० 5 श्लो० 56) / 'चर पिब च खाद मोद च' इत्यादि / 'अवत्थयं' जस्स अवयवे अत्थो अत्थि समुदए णत्थि / जधा-'शंखः कदल्यां कदली च भेर्याम्' असंबद्धार्थमित्यर्थः / अधवा वंजुलपुप्फुम्मीसा, उंबर-वडकुसुममालिया सुरभी। वरतुरगस्स विरायइ, ओलइता अग्गसिंगेसु // - ‘णिरत्थयं' जस्स अवयवे वि अत्थो णत्थि / जधा–डित्थो डवित्थो ५अडबडो-पाहुडु। 'छलं' जधा-नवकम्बलो देवदत्तः / अथवा-अस्त्यात्मा, यद्यस्ति आत्मा तेन तर्हि यद् यदस्ति स स आत्मा भवतु, सर्वस्यात्मप्रसंगः / द्रोहणशीलं दुहिलं, जेण भणिएणं पुण्णपाव 1. उवघाय० पा० / 2. उवधाते पू० 1, पा० / 3. पिबत पू० 1-2 / 4. वंजुलफलउम्मीसा पू० 1-2, पा० / 5. अडपन्नो पन्नो पू० 1 / अड्डपड्डो पाड्डाड्ड पा० / अडपड्डो पाड्डाडुः पू० 2 / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका हीणाहियसमत्तणं भवति / यथा-'एतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः' / "णिस्सारं' जम्मि सारो णत्थि, जो वि अत्थो सो वि तुच्छो / जहा अस्थि-चर्मशिलापृष्ठं वृद्धाः / 'अधितं' जं पंचण्हं अवयवाणं अन्नयरेण / 'ऊणं' एतेहिं चेव / पुणरुत्तं तिविधंअत्थपुणरुत्तं, वयणपुणरुत्तं, उभयपुणरुत्तं / तत्थ अत्थपुणरुत्तं जधा-इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः / वचनपुणरुत्तं यथा-सैन्धवमानय लवणं / यथा-सैन्धवमानय मनुष्यम्। एवं अश्वं वस्त्रम् / उभयपुणरुक्तं यथा-क्षीरं क्षीरं / तत्थ वयणपुणरुत्तं निद्दोसं / 'वाहतं' जत्थ पुव्वं अवरेण २वाहम्मति / यथा कर्म चास्ति फलं चास्ति, भोक्ता नास्ति च निश्चये / 'अजुत्तं' जं चिन्तिज्जंतं बुद्धीए जुत्ति ण देति / जधा तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः / प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी // "कमभिण्णं" जधा-धरणिधर-इंद-चंद-पउम-सागरे गंभीर-नयण-मुह-बलथिरगुणेहिं जिणति / 'वयणभिण्णं' जत्थ एगवयणे दुवयणं बहुवयणं वा कीरति / एवं दुवयणबहुवयणाण विवच्चासो वत्तव्वो / 'विभत्तिभिण्णं' अट्ठण्हं विभत्तीणं जत्थ अण्णहा पयोगो कीरति / 'लिंगभिण्णं' जत्थ इथिलिंगे पुल्लिंगं णपुंसगलिंगं वा कीरति / एवं सेसाण वि / 'अणभिहितं' जं ससमए अणभिधितं अप्पणो इच्छाए भण्णति / 'अपदं' जत्थ गाधापए गीतियापदं वाणवासियापदं वा कीरति / अपदं परपदमित्यर्थः / ' 'सभावहीणं' जो जस्स दव्वस्स अप्पणओ भावो तेण सुण्णं भवति / जधा-थिरो वायू / 'ववहितं' जत्थ किंचि कारणं णिदिसितूणं णिण्णिमित्तं अण्णं कारणं वित्थारेणं वण्णेतूणं पुणो आइल्लस्स गहणं करेति / 'कालदोसो' जत्थ तीया-णागय-वट्टमाणकाल-विवच्चासो कीरति / "जती" नाम विच्छेदो, तीए दोसो-जत्थ सिलोगे गाधाए वृत्ते वा स्वलक्षणप्राप्तः पदच्छेदो न क्रियते, ५अस्थाने वा क्रियते / यथा जयति जतीणं पवरो, गुणनिगरो नाणकिरणउज्जोओ। लोईसरो मुणिवरो सिरिवच्छधरो महावीरो // 'छविदोसो' जत्थ फरुसा छवी कीरति / 'समयविरुद्ध' जधा-जति वइसेसिओ भणति-पधाणं कारणं / आहतो वा भणति-'णत्थि जीवो' इत्यादि / 'वयणमेत्तं' जधा-कोइ खीलगं णिहंतूणं भणेज्जा-एत्थ लोगमज्झं / किं वि हेउं कारणं वा ण णिद्दिसति / 1. एत्थ पू० 1-2 / 2. वाहण्णति पा० / 3. आवर्तेत पू० 2 / 4. सभावो पा० / 5. अत्थाणे पू० 2 / 6. किंचि पू० 2 / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२८४-२८७] 77 'अत्थापत्तिदोसो' जधा-'बंभणो ण हंतव्वो', अर्थादापन्नं सेसलोगो हंतव्वो त्ति / 'असमासदोसो' जत्थ समासे विज्जमाणे असमासजुत्तं वयणं भण्णति / 'उवमादोसो' जधाबंर्भणस्स सुरा पिबणिज्जा [काञ्जिकमिव] / 'रूवगदोसो' जधा-पव्वतरूवगं अप्पणोच्चएहिं अंगेहि करेति / 'परपवित्तिदोसो' नाम जत्थ सुबहु पि अत्थं वण्णेउं णिद्देसं ण करेति / 'पददोसो' सुबंते वि तिगंतं करेति तिगंते वि य सुबंतं / संधिदोसो-जत्थ संधि होतियं ण करेति / विसग्गलोवं वा कातुं पुणो संधि करेति / एतेहिं बत्तीसाए दोसेहिं विरहितं लक्खणजुत्तं सुत्तं भवति / अट्ठहि य इमेहिं गुणेहिं उववेतं / तं जधा णिद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारंच, मियं महुरमेव य // 284 // दोसा खलु अलियादी, बहुपज्जायं सारवं सुत्तं / साहम्मेयरहेऊ, सकारणं वा वि हेउजुयं // 285 // उवमाइ अलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं / काहलमणोवयारं, दंडगममियं तिहा महुरं // 286 // "णिद्दोसं सार०" गाहा / 'णिद्दोसं'ति दोसा खलु अलियादी तेहिं वज्जियं / 'सारवंतं च'त्ति / अस्य व्याख्या-बहुपज्जायं तु सारवंतं सुत्तं, बहुअभिधाणमेकैकस्मिन्नभिधेये इत्यर्थः / 'हेतुजुत्तं' ति, साधम्मेण वइधम्मेण य हेतुणा जुत्तं / अथवा हेतुः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् / ततो यत् सकारणं तद् हेतुयुक्तमिति उच्यते / जधा-"सुत्तत्तं भंते ! साधू ? जागरियत्तं साधू ?" इत्यादि / 'अलंकियं' ति उवमादिअलंकारो जं उवमाजुत्तं, जधा-"सूरेव सेणाए समत्तमायुहे" / आदिग्गहणेणं णियमा अक्खरलंभो, माउक्कमणिट्ठरं छवीजमगं। महुरत्तणमत्थघणत्तणं च सुत्ते अलंकारा // 'उवणीतं' उवसंहारजुत्तं / जधा-महज्झयणेसु अप्पच्चक्खाणकिरियाए / 'अणोवयारं' नाम जं काहलं जधा-पुग्गलउं फुट्टएहिं वा / एय'वतिरित्तं' सोवयारं / 'मितं' णाम पदेहि सिलोगादीहिं वा, अमितं दंडएहिं / 'मधुरं' तिविधं-सुत्तमधुरं, अस्थमधुरं, उभयमधुरं। केति भणंति-ततियं अभिहाणमधुरं, अट्ठहिं य गुणेहिं उववेतं / चशब्दात् अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओमुहं। अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं // 287 // 1. ०प्पणोच्चएहिं गुणसुत्तएहिं अंगेहिं क० पू० 1, पा० / 2. तिदंतं० तिदंते पू० 2 / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "अप्पक्खरं०" गाधा / पुव्वभणितं तु जं भण्णति "कारग०" गाधा (329) / संदिद्धं ति। अत्थेसु दोसु तीसु व, सामण्णभिहाणओ उ संदिद्धं / जह सिंधवं तु आणय, अत्थबहुत्तम्मि संदेहो // 28 // उय-वइकारो ह त्ति य, हीकाराई य थोभगा हुंति / वज्जं होइ गरहियं अगरहियं होइ अणवज्जं // 289 // "अत्थेसु०" गाधा / यस्मिन्नर्थेऽभिहिते' द्वयोस्त्रिषु चार्थेषु २सन्देह उत्पद्यते तत् संदिग्धम् / यथा-सैन्धवमानयेत्युक्ते सन्देह उत्पद्यते / किं तावद् वस्त्रस्य ग्रहणं आहोस्वित् पुरुष-लवणयोरिति ? / सारवदिति नवनीतभूतम् / सर्वतोऽर्थं प्रयच्छतीति 'विश्वतो-मुखं' / 'अत्थोभमणवज्जं'ति / अनयोर्व्याख्या-उत वै हा ही अकारणे एवमादीनां प्रक्षेपः स्तोभकाः / शेषं कंठं / तं पुण एवंगुणजातीयं सुत्तं कहमुच्चारेतव्वं पढितव्वं वा? / उच्यते अहीणऽक्खरं अणहियमविच्चामेलियं अवाइद्धं / अक्खलियं च अमिलियं, पडिपुण्णं चेव घोसजुयं // 290 // "अहीणक्खरं०" गाधा / हीणं दुविधं-दव्वहीणं, भावहीणं च / दव्वहीणे उदाहरणम् तित्त-कडुओसहाई, मा णं पीलिज्जऊ ण ते देइ / / पउणइ ण तेहि अहिएहिँ मरड़ बालो तहाहारे // 291 // . "तित्त-कडु०" गाधा। एगाए अविरतियाए पुत्तो गिलाणो / तीए वेज्जो पुच्छितो। तेण ओसहाणि दिण्णाणि / सा चिंतेति-इमाणि तित्त-कणि मा पीडेज्जा / ततो णाए अद्धाणि अवणीताणि / सो तेहिं ण तिगिच्छितो मतो / 'तहाहारे'त्ति / एगा ऊणयं पीहयं देति / तीए वि मतो / जधा ताओ एगभवियं दुक्खं पत्ताओ, एवं चेव जो भावहीणं सुत्तं करेति अक्षरै नमित्यर्थः, तस्स मासलहुं / आणं तित्थयराणं अतिचरति अर्का [चतुर्गुरु] / अणवत्थाए ण्र्का [चतुर्गुरु] / मिच्छत्ते ण्र्क चउलहुं / विराहणा दुविधाआतविराहणा, संजमविराहणा य / तत्थ आतविराहणा पमत्तं देवया छलेज्जा / अण्णो वा साधू भणेज्जा–किं विद्दवेसि ? तत्थ असंखडे पसंगेण अट्ठिभंग-मारणादी होज्जा / सुत्तं हीणं करेंतेणं संजमो विरहितो चेव / कहं ? उच्यते 1. ०ते द्वाभ्याम् त्रिषु पू० 2 / 2. सन्देहमुत्पद्यते पू० 1-2 / 3. कडुआणि पू० 1 / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२८८-२९७] अक्खर-पयाइएहि, हीणऽइरेगं च तेसु चेव भवे / दोसु वि अत्थविवत्ती, चरणे य अयो य ण य मुक्खो // 292 // ____ हीणे सुत्ते अत्थविसंवादो / अत्थविसंवादे चरणविसंवादो / चरणविसंवादा मोक्खाभावो / मोक्खाऽभावे 'सव्वा दिक्खा णिरत्थिया / एस भावहीणस्स दोसो / दव्वहीणे बालो दिटुंतो / इयाणि भावहीणे इमो दिटुंतो विज्जाहर रायगिहे, उप्पय पडणं च हीणदोसेणं / सुणणा सरणा गमणं, पयाणुसारिस्स दाणं च // 293 // "विज्जाहर०" गाहा। रायगिहे सामी समोसढो / तत्थ एगो विज्जाहरो वंदितुं पडिणियत्तो विज्जं आवाहेति / तस्स तीसे विज्जाए कतियि अक्खराणि विस्सरिताणि / सो उप्पय-पडणं२ करेति / ३सा हीणदोसेण ण वहति / अभतो तं दट्ठण तस्स सगासं गंतुं पुच्छति / तेण सिटुं / अभएण भणितं-जति ममं पि देसि तो उज्जुयारेमि / इयरेण पडिवण्णं / अभएण भणितं-तो खाई भण एगं पदं / तेण भणितं / अभएण सुयं / एस सुणणा / ताहे अभएण पयाणुसारिणा ताणि अक्खराणि सरियाणि / एस 'सरणा' / गमणं'ति / ताधे सो विज्जाधरो उप्पतित्ता गतो। सो चेव उवणओ / अहियं पि दुविधं-दव्वे, भावे य / दव्वे अहिए तधेव दो अविरतियाओ दिटुंतो-ओसधेहिं पीहएण य / एवं भावे वि सुत्तं अक्खरेहिं अधियं करेति, मासलहुं / विभासा तधेव, जधा हीणे / इयाणि भावे अधिए दिटुंतोपाडलऽसोग कुणाले, उज्जेणी लेहलिहण सयमेव / अहिय सवत्ती मत्ताहिएण सयमेव वायणया // 294 // मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं णिवे णाणं / गामग सुयस्स जम्मं, गंधव्वाऽऽउट्टणा को त्ति // 295 // चंदगुत्तपपुत्तो तु, बिंदुसारस्स णत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं // 296 // "पाडलऽसोग०" गाधाओ तिण्णि / पाडलिपुत्ते णगरे चंदगुत्तपुत्तस्स बिंदुसारस्स रण्णो पुत्तो असोगो णाम राया / तस्स 1. सव्वदिक्खा पू० 2 / 2. सोउप्पयणं पडणं च खं० / 3. सो पू० 1, पा० / 4. दटुं पू० 12, पा० / 5. उज्जुतारेमि पू० 1-2 / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका असोगस्स पुत्तो कुणालो णाम उज्जेणीए / सा से कुमारभुत्तीए दिण्णिया / सो खुड्डुलओ / अण्णता तस्स रण्णो णिवेदितं, जधा-कुमारो सातिरेगट्ठवासो जायओ त्ति / ताधे रण्णा सयमेव लेहो लिहितो / जधा-अधीयतां कुमारः / कुमारस्स य माति-सवत्तीए रण्णो पासे ट्ठिताए भणितंआणेहि, पासामि लेहं ति / रण्णा पणामितो / ताधे ताए रण्णो अण्णओचित्तस्स अंजणातो सलागाप्रान्तेन थिणुएणं तिम्मेत्ता अकारस्स अणुस्सारो कतो। 'अंधीयतु'त्ति जातं / पडिअप्पितो रण्णो / रण्णा वि पमत्तेणं न चेव पुणो अणुवातितो / मुद्दित्ता उज्जेणिं पेसितो / वाइतो / वायगा पुच्छिता–किं लिहितं ति ? / णेच्छंति कधेउं / ताधे कुमारेणं सयमेव वातितो। चिंतियं च णेणं'अम्हं मुरियवंसिताणं अप्पडिहता आणा, तो कधं अप्पणो पिउणो आणं भंजामि त्ति ?' तत्तसलागाए अच्छीणि अंजियाणि / ताधे रण्णा णातं / परितप्पित्ता उज्जेणी अण्णस्स कुमारस्स दिण्णा / तस्स वि कुणालस्स अण्णो गामो दिण्णो / अण्णता तस्स कुणालस्स अंधयस्स पुत्तो जातो / णामं च से कतं संपती। सो त अंधकुणालो गंधव्वे अतीव कुसलो / अण्णता अण्णातवज्जाए हिंडति गायंतो / तत्थ रणो णिवेदितं, जधा-एरिसो तारिसो गंधव्विओ अंधलओ। आणेधत्ति / आणीतो। जवणीअंतरितो गायति / जाधे अतीव असोगो अक्खित्तो, ताधे भणति-किं देमि त्ति ? / एत्थ कुणालेण गीतं-"चंदगुत्तपवोत्तो य" गाधा / ताधे रण्णा पुच्छितो-को एस तुमं? / तेण कधितं-तुब्भं पुत्तो / जवणियं अवसारेउं कंठे घेत्तुं अंसुपातो कतो / ३भणितं च णेण–कि देमि? / कागणिं देहि / भणियं च णेणं- किं कागणीए वि तुम नारिहसि त्ति जं कागिणिं जायसि ? / अमच्चेण भणितं-सामि ! रायपुत्ताणं रज्जं कागणी / तो किं काहिसि अंधगो रज्जेणं ? / कुणालो भणति-मम पुत्तो अत्थि संपती नाम कुमारो / दिण्णं ते रज्जं / सो चेव उवणओ // अधवा भावाधिके चेव इमं लोइयं अक्खाणयं ___ कामितसरस्स तडे वंजलरुक्खो महतिमहालओ / तत्थ किर रुक्खे विलग्गिउं जो सरे पडति सो जति तिरिक्खजोणिओ तो मणूसो भवति / अध मणूसो पडति तो देवो भवति / अध बितियं वारं पडति तो प्रकृति 'गमयति / तत्थ य वाणरो सपत्तीओ ओतरति पाणितं पाउं / अण्णता पाणियपिबणट्ठाए आगतो / संलावं प्रकृतिगमण-६विरहितं सोतुं वाणरो सपत्तीओ संपहारेति-रुक्खं विलग्गिउं सरे पडामो, जा माणुसजुयलं भवामो / पडिताणि / उरालं माणुसजुयलं जातं / सो भणति-पुणो पडामो जा देवजुयलं होमो / इत्थी वारेति-को जाणति ण होज्जामो देवा ? / पुरिसो भणति–जति न होज्जामो देवा, किं “माणुसत्तं अम्हं णासिहिति ? / वारिज्जमाणो पडितो, वाणरो जातो / पच्छा सा रायपुरिसेहिं गहिता / रण्णो 1. थेणुएणं पू० 1, पा० / 2. पुच्छितं पू० 1-2 / 3. भणितो-किं देमि ते ?, काकणि० पा० / 4. नारिहिसिज्जित्ति पा० / नार्हसित्ति पू० 1 / 5. गच्छति पा० / 6. विरहितं पू० 2 / विरहिं पा० / 7. भोमो पू० 2 / 8. माणुसत्तणं पि पू० 2 विना / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२९७-२९८]. भज्जा जाया.। इतरो वि मायारएहिं गहितो। खेड्डाओ सिक्खावितो / अन्नदा ते मायारगा रण्णो पुरतो पेच्छं देंति / राया देवीए समं पेच्छति। ताधे सो वाणरो देविं णिज्झायंतो अभिलसति / ताधे ताए अणुकंपाए वानरो भणितो जो जधा वट्टए कालो, तं तथा सेव वाणरा ! / मा वंजुलपरिब्भट्ठो, वाणरा पडणं सर // 297 // "जो जहा वट्टते कालो०" सिलोगो / अण्णं वाणरिं मग्गाहीत्यर्थः / “मा वंजुलपरिब्भट्ठो"। तुम तदा मए भणितो-मा वंजुलरुक्खातो सरं पडाहि / बितियं वारं पडितो पगति जाएज्जासि त्ति, तं सराहि मम पडिसेधं ति / एवं भावे अधिए अत्थादिविसंवाद-विभासा / 'अविच्चामेलितं, अवाइद्धं' च / एते दो वि एक्कगाधाते वक्खाणेतिविच्चामेलण अण्णुण्णसत्थपल्लवविमस्स पयसो वा। तं चेव य हिट्ठवरिं, वायद्धे आवली णायं // 298 // "विच्चामेलण०" गाधा / विच्चामेलितं दुविध-दव्वे जधा-कोलिता वतियं गता। तत्थ तेहिं ओहारएण 'परमण्णं रंधेमो'त्ति दुद्धं आहेहेत्ता जं जं एत्थ छुब्भति, तं सव्वं पायसो भवति त्ति, तंदुला चवलया तिला मुग्गा कुक्कुसा यपण्णं च छूढं / तं सव्वं विणटुं अकिंचिकरं जातं / एवं चेव भावे / भावे सुत्तं विच्चामेलेति जहा-"सव्वभूयप्पभूतस्स सम्मं भूयाणि पासतो" [दश० अ० 4 गा० 9] एत्थ इमं पि घडति त्ति काउं छुब्भति "४श्रूयतां धर्मसर्वस्वं०" श्लोकः / एवं भावे विच्चामेलितं सुत्तं करेंतस्स अत्थविसंवायादी जाव दिक्खा णिरत्थया / वाइद्धं दुविधं-दव्वे-आवली णाम हारो, सो उदाहरणं एगा आभीरी णगरं गता / तीसे वयंसिता वाणिगिणी, सा हारं पोएति / इतरी भणतिआणेध, अहं हारं पोएमि / ताए पणामितो / इयरीए उप्परिवाडीए पोतितो / जाव वाणिगिणी वक्खित्ता / पच्छा ताए दटुं भणिता-हा पावे ! विणासितो ते हारो / महं दुक्कम्मयं कयं / एतं दव्ववाइद्धं / एवं जो भावे सुत्तं वाइद्धं करेति तस्स अत्थविसंवातादि विभासा, जाव दिक्खा णिरत्थया / केरिसं पुण वाइद्धं ? तं चेवेगं सुत्तं हेट्ठोवरिं करेति / जधा 1. अद्दहेत्ता पू० 2 / 2. पस्सओ पू० 2 / 3. इमं घ० पू० 2 / 4. श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् / आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् // [ इतिहास समुच्चये ] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका अहिंसा संजमो तवो, धम्मो मंगलमुक्टुं / जस्स धम्मे सया मणो, देवा वि तं नमसंति // सुत्तं वाताइद्धं करेंति, 01, अत्थं करेंति 0 / , आणादीया / तम्हा अवायाइद्धं कातव्वं / खलित-मिलित-अपडिपुण्ण-अघोसजुत्ताणं / अस्य व्याख्या खलिते पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धण्णवावणया। मत्ताइ-बिंदु-वण्णे घोसाइ उदत्तमाईया // 299 // "खलिते पत्थर०" गाधा / खलितं दुविधं / दव्वे 'पत्थरसीत'त्ति, सीतत्ति खेत्तं, तम्मि वाहिज्जमाणे हल-कुलियादीणि उप्फिडित्ता अण्णहि अण्णहिं निवडंति / एवं भावखलितं जो अंतरा अंतरा आलावए छड्डेति / जधा-"धम्मो, अहिंसा, संजमो, तवो / देवा वि तं णमंसंति, पुप्फेहिं भमरा जधा" / (दश० अ० 1 गा० 4) / पच्छित्तं तं चेव, दोसा य / मिलियं पि दुविधं-दव्वमिलितं जधा-बहूणि वीहिणि जवादीणि एगट्ठाणि कताणि / एवं जो भावे अण्णोण्णस्स उद्देसगस्स अज्झयणस्स वा आलावए मेलेति / सव्वं चेव तं जिणवयणं ति काउं / जहा "सव्वे चेव पाणा पिताउगा" [आचा० श्रु० 1 अ० 2 उ० 3] / “सव्वजीवा वि इच्छंति, जीविउंण मरिज्जिउं" [दश० अ० 6 गा० 11] एवमादी / न णज्जति–किं कालियं उक्कालियं वा छेयसुत्तं वा ? / एत्थ वि तं चेव पच्छित्तं विराहणा य। पडिपुण्णं दुविधं, दव्वे भावेण य / दव्वे घडो पडिपुण्णो / भावे पडिपुण्णं मत्तादीहिं / आदिग्गहणेणं पदेहिं बिंदूहिं वण्णेहिं ति अक्खरेहिं अपडिपुण्णे तं चेव पच्छित्तं विराहणा य / मत्ताहिं अपडिपुण्णं जधा"धम्म मंगलमुक्कटुं" पदेहिं जधा-धम्मो उक्टुं। बिंदूहि जधा-धम्मो मंगल उक्ट्ठ। वण्णेहि जधा-"धम्म लंकटुं" / घोसजुत्तं ति, घोषाः उदात्ताद्याः त्रयः / उच्चैंरुदात्तः, नीचैरनुदात्तः, समाहारः स्वरितः / उच्चैःशब्देन यथा-"उप्पण्णेति" वा "एवमादि / नीचैःशब्देन यथा"जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति" [निशीथ उ० 1 सू० 1] इत्यादि / घोसे अजुत्तं करेंतस्स तं चेव पच्छित्तं / इताणि विच्चामेलितादीणं पंचण्हं इमो अण्णो वि अत्थोमोत्तूण पढम-बीए, अक्खर-पय-पाय-बिंदु-मत्ताणं / सव्वेसि(सु)समोयारो, सट्टाणे चेव चरिमस्स // 300 // "मोत्तूण पढम०" गाधा / 'पढम' ति हीणक्खरं, बितियं ति अधितक्खरं / सव्वेसुत्ति विच्चामेलितादीसु / विच्चामेलितं अण्णोण्णसत्थाणं पदेहिं अक्खरेहिं बिंदूहि मत्ताहिं घोसेहि 1. निप्फडंति पू० 1 / 2. पू० 1, पा० प्रत्योर्न / 3. 'उच्च' शब्देन पू० 1-2, पा० / 4. 'नीच' शब्देन पू०१-२, पा० / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-२९९-३०२] 83 वाइद्धं / तस्सेवेगस्स हेट्ठोवरिं करेति पयाणि अक्खराणि बिंदूणि मत्ताओ घोसे वा / खलितं पि पदादीहिं चेव पंचहिं / 'मिलितं'-सामाइयपदे दसवेयालिय-उत्तरज्झय-णादीणं अणेगाणि पदादीणि पंच एगम्मि मेलेति / अपडिपुण्णं पि पदादीहिं चेव पंचहि / 'सट्टाणे चेव चरिमस्स'त्ति घोसअजुत्तं?, घोसेहिं चेव न पदादीहिं / इताणि एतेसिं हीणक्खरादीणं पच्छित्तं भण्णति... खलिय मिलिय वाइद्धं, हीणं अच्चक्खरं वयंतस्स / विच्चामेलिय अप्पडिपुण्णे घोसे य मासलहुं // 301 // "खलिय मिलिय०" गाधा / हीणक्खरं वयमाणे अधितक्खरं, विच्चामेलितं, वाइद्धं, खलितं, मिलितं,अपडिपुण्णं, अघोसजुत्तं वदमाणे सव्वेसु एतेसु मासलहुं / आणाभंगे सामिणो ह्वा 4 / अणवत्थाए ह्वा 4 / जधा सो तधा अण्णे वि काहिंति मिच्छत्ते ह्व 4 / जधा तं२ अलितं ३तहण्णं पि त्ति मिच्छत्तं भवति / अधवा जहुत्तकारी न भवति त्ति मिच्छत्तं भवति। विराधणा दुविधा-आतविराधणा, देवता छलेज्जा, अण्णो वा साधू भणेज्जा-'मा हीणादीणि करेहि' त्ति असंखडादी होज्जा / आतविराधणाए परितावमहागिलाणाऽरोवणा, संजमविराधणा / "सुत्तऽण्णधुच्चारणे अत्थविसंवादो, अत्थविसंवादे चरणविसंवातो, चरणाभावे सव्वा दिक्खा णिरत्थिया / लहुगग्रहणाद् ह्रस्व-दीर्घवद् गुरुकोऽपि सूचितो भवति / गुरुगं ति वा, अणुग्घातियं ति वा, कालगं ति वा, गुरुगस्स णामाणि / लहुगं ति वा, उग्घातियंति वा, सुक्किलं ति वा लहुगस्स णामाणि / एत्थ गुरुय-लहुय-विसेस-वित्थरजाणणत्थं आयरितो तिविधं पच्छित्तं दाएति / तं जधा-दाणपच्छित्तं, तवपच्छित्तं, कालपच्छित्तं / तत्थ दाणपच्छित्तं गुरुयं लहुयं च / एवं तव-कालपच्छित्ताणि वि गुरु-लहूणि। तत्थ दाणपच्छित्तं गुरुयं जंतु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं / जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ // 302 // "जं तु निरंतर०" गाधा / 'जस्स व तस्स व तवस्स त्ति,' गुरुगस्स वा अट्ठमादिणो, लहुगस्स वा णिव्वियादिणो / इदाणि दाणओ चेव लहुयं भण्णति / 'जं पुण संतरदाणं, गुरू वित्ति अट्ठमादी वि तवो संतरं कीरति जाए आवत्तीए सा दाणतो लहुती / जहा चउलहु-छल्लहुगाणं अट्ठमदसमाणि संतरं कीरंति / एस ताव दाणओ विशेषो गुरुलघ्वोः / 1. घोसजुत्तं पू० 1 / 2. जधेयं पू० 1-2 / 3. वण्णं पि, पा० / 4. पच्छित्तं भ० पू० 2 / 5. सूत्राऽन्यथोच्चारणे / 6. जाव पू० 2 / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका इदाणिं तव-कालाभ्यां गुरू लहू' वाऽभिधीयते तव-काले आसज्ज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो। कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइ तवो लहू सेसो // 303 // "तव-काले०" गाधा / ३अट्ठमादिणा तवेण जं बुज्झति तं तवगुरुयं / णिव्वीयादिणा छटुंतेण बुज्झमाणं तवलहुयं / कालतो जं गिम्हे बुज्झति तं कालगुरुयं / जं वासारते हेमंते वा बुज्झति तं काललहुं / एत्थं णवविहववहारेण तं दाणं दायव्वं / तम्हा पच्छित्तं परियाणामि। आणा, अणवत्था, मिच्छत्तं, विराहणा य परिहरिया ५भवंति / तेण दोसविजुत्तं सुत्तं विधीए उच्चारेयव्वं / सत्तं पदं पयत्थो, पयणिक्खेवो य णिण्णयपसिद्धी। पंच विगप्पा एए, दो सुत्ते तिण्णि अत्थम्मि // 304 // . .. "सुत्तं पदं०" गाधा / सुत्तं उच्चारतव्वं / उच्चारिए पदाणि छेतव्वाणि, ताधे पदत्थो वत्तव्वो, ताधे पदाक्षेपो वक्तव्यः / पदार्थचोदनेत्यर्थः / ताधे पदाक्षेपनिर्णयः करणीयः / निर्णये कृते सर्वार्थप्रसिद्धो निरवशेषो अर्थो वक्तव्यः / एतेसिं पंचण्हं विकप्पाणं सुत्तं पदं च सुत्तपविट्ठा णातव्वा / पदार्थ तदाक्षेप-निर्णय-प्रसिद्धयोऽर्थे ज्ञातव्याः / अण्णे भणंति संघिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो। . चालणा य पसिद्धी य, पंचहा विद्धि लक्खणं // 305 // "संघिया य०" गाधा / पढमं ताव संहितासूत्रमुच्चारयितव्यम्, अस्खलित-मित्यादि / आह संहितेति कोऽर्थः ? / उच्यते सण्णिकरिसो परो होइ संहिया संहिया व जं अत्था / लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ त्ति // 306 // "सण्णिकरिसो०" गाधा / 'पर: सन्निकर्षः संहिता' पर इति पूर्वस्योत्तरत्र, सन्निकर्ष इति संपर्कः / द्वयोर्बहूनां वा पदानां अक्षराणां वा यः सन्निकर्षः, संपर्क इत्यर्थः, सा संहिता / अथवा संहिता अर्थाः संहिता / सा द्विधा-लौकिकी लोकोत्तरा च / लौकिकी यथाधूमकेतुः / पदानि यथा इति पदम् / धूम इति पदम् / केतुरिति पदम् / ___1. गुरुलहुया अभि० पा० / 2. 'काल-तवे' मु० टी० पाठः / 3. अट्ठमादिणो पू० 1-2 / 4. णातव्वं, पा० / 5. भवइ पू० 2 / 6. पूर्वस्योत्तरं पू० 1 / 7. लौकिका लोकोत्तराच पू० 1-2 / 8. लौकिका पू० 1-2 / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३०३-३११] . . तिपयं जह ओवम्मे, धूम अभिभवे केउ उस्सए अत्थो। .. को सु त्ति अग्गि उत्ते, किंलक्षणों डहण-पयणादी // 307 // "तिपदं०" गाधा / त्रिपदं संहितासूत्रमेतत् / पदार्थ उच्यते-यथेत्यौपम्ये, धूम इत्यभिभवे, केतुरुच्छ्रये / एष पदार्थः / एकपदत्वान्नास्ति विग्रहः / कश्चासौ ? उच्यते-अग्निः / अग्निरित्युक्ते ब्रवीति-स कीदृग्लक्षणः ? / उच्यते-दहन-पचन-प्रकाशन-समर्थोऽर्चिष्मान् इति / अत्र चालना जति एव सुत्त-सोवीरगाई वि होंति अग्गिमक्खेवो / ण वि ते अग्गि पइण्णा, कसिणग्गिगुणण्णितो हेतू // 308 // दिटुंतो घडकारो, ण वि जे उक्खेवणादि तक्कारी / जम्हा जहुत्तहेऊसमण्णिओ णिगमणं अग्गी // 309 // “जति एव०" गाधाद्वयम् / यदीदृशलक्षणोऽग्निर्भवति, तेन तर्हि शुक्तसौवीर-कादयो दहन्ति, करीषादयः पचन्ति, खद्योत-मणिप्रभृतयः प्रकाशयन्ति, एवमेतेऽप्यग्निर्भवन्तु इत्याक्षेपः / अत्र प्रसिद्धि करोत्याचार्य:-यदभिहितमनेन 'यदि दहनादिलक्षणोऽग्निर्भवति तेन तर्हि शुक्तादयोऽप्यग्निर्भवन्ति'; इत्यत्र ब्रूमः-'असदेतत्' इति नः प्रतिज्ञा, ३'कृत्स्नाग्निगुणसमन्वितत्वात्' इति हेतुः / दृष्टान्तो घटकारः / यथा हि-घटकर्ता मृत्पिण्ड-दण्ड-चक्रसूत्रोदकप्रयत्नहेतुकस्य घटस्य कात्स्न्र्येनाभिनिर्वर्तको भवति, अभिनिवृ()त्तस्य चोत्क्षेपणोद्वहनसमर्थो यथा भवति तथाऽन्येऽपि पुरुषाः / नद्युत्क्षेपणोद्वहनादिसामर्थ्यादेव तेषां घटकर्तृत्वं भवति / किमेवं न गृह्यते घटकतुरेवैकस्य घटकारत्वं विद्यते, नेतरेषां ? तस्मात् कृत्स्नगुणान्वितत्वात् पश्यामोऽग्नेरेवैकस्याऽग्नित्वं विद्यते, न शुक्तादीनामिति निगमनम् / लोकोत्तरे इदानीम् उत्तरिऍ जध दुमादी, तदत्थहेऊ अविग्गहो चेव / को पुण दुमु त्ति वुत्तो, भण्णति पत्तातिउववेयो // 310 // तदभावे न दुमु त्ति य, तदभावे वि स दुमु त्ति य पतिण्णा। तग्गुणलद्धी हेतू, दिटुंतो होति रधकारो // 311 // "उत्तरिए०" गाधाद्वयम् / “जधा दुम्मस्स पुष्फेसु भमरो आयियती रसं" [दश० अ० 1 गा० 2] संहितैषा / पदानि-यथा इति पदम्, द्रुम इति पदम्, पुष्प इति पदम्, भ्रमर इति पदम्, आ इति पदम्, पिबतीति इति पदम्, रसमिति पदम् / पदार्थ उच्यते-'यथा' इत्यौपम्ये / - 1-2. शुक्ल० पू० 1, मु० टी० / 3. कृत्स्नगुण० पू० 1-2 / 4. शुक्लादी० पू० 1-2 / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "दु द्रु गतौ," द्रुमः, दोहि वा मातो द्रुमः / पुष्प विकसने, भ्रम अनवस्थाने, आङ् मर्यादाभिविध्योः / पा पाने, रस प्रीणने / अत्र व्यस्तपदत्वाद् विग्रहानुपपत्तिः / अत्र चोदक आह-किंलक्षणः पुनर्द्वमः ? उच्यते पत्र-पुष्प-फलोपेतो, मूलस्कन्धसमन्वितः। एष वृक्ष इति ज्ञेयं, विपरीतमतोऽन्यथा // यदि 'पत्राद्युपेतलक्षणो द्रुमः इति अभिप्रेतं, तेन तर्हि यदा परिशटितपाण्डुपत्रादिद्रुमो भवति, तदा हि अद्रुमत्वं प्राप्तमिति चालना / अत्र प्रत्यवस्थानम्-यदुक्तं भवता पत्राद्यनुपपेतस्याद्रुमत्वं, 'असद् एतदिति नः प्रतिज्ञा', 'तद्गुणलब्धित्वात्' इति हेतुः / दृष्टान्तो रथकारः / यथा-रथकारस्य रथकर्तृत्वे प्रयत्नमकुर्वाणस्यापि रथकर्तृत्वं नातिवर्तते, किमेवं न गृह्यते परिशटितपाण्डुपत्रस्यापि वृक्षस्य तद्गुणलब्धेरनिवृत्तौ भवत्येव द्रुमत्वं ? / तस्मात् तद्गुणलब्धित्वात् पश्यामो यदुक्तं भवता 'परिशटितपाण्डुपत्रत्वाद् द्रुमस्याद्रुमत्वं प्राप्तम्' तदसदिति निगमनं / लक्षणमिति वर्तते / जं च हेट्ठा भणियं-सुत्तणिरुत्तं उवरिं भण्णिहिति त्ति [गा० 188] / तं इदाणि भण्णंति सुत्तं तु सुत्तमेव उ, अधवा सुत्तं तु तं भवे लेसो। अत्थस्स सूतणा वा, सुवुत्तमिति वा भवे सुत्तं // 312 // पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोधियं ण तं जाणे। लेससरिसेण तेणं, अत्था संघातिता बहवे // 313 // "सुत्तं तु सुत्तमेव तु०" गाधा / अस्य व्याख्या–“पासुत्तसमं०" पुव्वद्धं / जधाबावत्तरिकलापंडितो वि मणूसो पासुत्तेल्लओ न किंचि तासि कलाणं जाणति विसेसं / एवं चेव सुत्तं पि अत्थतो अबोधितं न किंचि वि अत्थविसेसं जाणति / जता सो चेव पुरिसो पडिबोहितो भवति तदा तासिं जाणओ भवति / एवं चेव जधा सुत्तं पडिबोधितं भवति तदा सव्वेसि तदन्तगताणं३ भावाणं जाणतं भवति / "अधवा सुत्तं तु तं भवे लेसो''त्ति / अस्य व्याख्या "लेससरिसेण" पच्छद्धं / सिलेसो दुविधो-दव्वसिलेसेणं जधा-पदाणि पदकारो दोण्णि तिण्णि वा एगतो लेसेति / एवं सुत्ते वि / एगेणं सुत्तपदेणं अणेगाणि अत्थपदाणि सुलेसिताणि अच्छंति / अत्थस्स सूतणा वा इति / अर्थस्य सूचनात् सूत्रमित्यपदिश्यते / यस्मात् तेनार्थः सूचित इत्यर्थः / "सुवुत्तमिति वा सुत्तं तु सुट्ठ उक्तं ५सुत्तं भवतीत्यर्थः / अथवाऽन्यः प्रकारो नैरुक्तिकानां, पुव्वभणितं तु कारकगाधा 1. पत्राद्युपपेत० पू० 2 / 2. द्रुमत्वात् पू० 2 / 3. तदंतग्गताणं पू० 1-2 / 4. सुव्वुत्त० पू० 2 / 5. सूक्तं पू० 2 / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३१२-३१७] 87 णेझत्तियाइँ तस्स उ, सूयति सिव्वति तधेव सुवति त्ति / अणुसरति त्ति य भेदा, तस्स उणामा इमे हुंति // 314 // "णेरुत्तियाइं०" गाधा / तस्स उ सुत्तस्स इमाणि णिरुत्तणिप्फण्णाणि नामधेज्जाणि भवंति / तं जधा सुतति त्ति वा, सिव्वति त्ति वा, पसवति त्ति वा, अणुसरति त्ति वा / तत्थ 'सूयति'त्ति, अस्य व्याख्या - सूइज्जति सुत्तेणं, सूयी णट्ठा वि तध सुतेणऽत्थो / सिव्वति अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगादीणि // 315 // "सूइज्जति०" पुव्वद्धं / यथा-नष्टा सूची सूत्रेण पाशकविलग्नेन सूच्यते एवं अर्थः सूत्रेण / सूच्यत इति सूत्रम् / “सिव्वति" त्ति, अस्य व्याख्या-'सिव्वति अत्थ०' पच्छद्धं / सिव्वणा दुविहा / दव्वे भावे य / दव्वे जहा-सुत्तेणं 'कंचुगादीणि सिव्विज्जंति, आदिग्गहणेणं फाडितादीणि / तद्वद्भावे एंगेण सुत्तपदेण अणेगाणि अत्थपयाणि एगओ सिव्विताणीति सूत्रं भवति / 'पसवति 'त्ति, अस्य व्याख्या सूरमणी जलकंतो व, अत्थमेवं तु पसवती सुत्तं / वणियसुयंध कयवरे, तदणुसरंतो रयं एवं // 316 // ___ "सूरमणी०" पुव्वद्धं / यथा हि-सूर्यकान्त-जलकान्तादयोऽग्न्युदकानि श्रवन्तिएवमर्थं श्रवतीति सूत्रम् / “२अणुसरति त्ति य भेदा" / अणुसरणं दुविधं / दव्वे "वणितसुत" पच्छद्धं / जधा एगस्स वणियस्स पुत्तो अंधलओ / वणिएण चिंतियं-मा एस अणिविट्ठ भत्तं भुंजतु 'मा परिभविज्जिहिति'त्ति / खंभे दो णिहणीऊण रज्जू बद्धा / सो अंधलओ तेण अणुसारेणं कतारं छड्डाविज्जति / एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयः-वाणियथाणीओ आयरिओ, अंधलथाणीओ साधू / रज्जूथाणीएणं सुत्तेणं अट्ठविहं कम्मकतारं छड्डेति / तम्हा अणुसरति त्ति भण्णति / आह, तं पुण सुत्तं कतिविधं ? / उच्यते सण्णा य कारगे पकरणे य सुत्तं तु तं भवे तिविधं / उस्सग्गे अववाते, अप्पे सेए य बलवंते // 317 // "सण्णा य०" पुव्वद्धं / तत्थ सण्णासुत्तं-जं सामतियाए सण्णाए भण्णति / जधा-"जे छेते' पच्छद्धं (गा० 318) / "जे छेये से सागारियं परियाहरे।" तधा-“सव्वामगंधं परिणात 1. सीवि० पू० 2 / 2. अणुसरति त्ति / अथेदानी अणु० पू० 2 विना / 3. दोण्णि हणीतूण पू० 1-2 विना / 4. कयरं पा० / 5. जधा च्छेदे पा० / 6. जे छेये सागरियं पू० 2 / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका णिरामगंधो परिव्वए" (आचा० श्रु० 1 अ० 2 उ०५) / तधा-"आरंदुगुणेणं पारंएगगुणेणं" ति / सागारियं मैथुनमित्यर्थः / परियाहरे परिवज्जतेदित्यर्थः / तधा–आमं-अविसोधिकोडी, गंधोविसोधिकोडी। परिण्णा दुविधा-जाणणापरिण्णा, पच्चक्खाणपरिण्णा य / जाणणापरिण्णाए जाणित्ता पच्चक्खाणपरिण्णाए पच्चक्खाइत्ता, परि-समंतात् व्रजेत् "व्रज गतौ" अप्रतिबद्धो विहरेद् इत्यर्थः / आरो-संसारो / सो दुगुणेणं ति रागेण य दोसेण य / पारो मोक्खो, सो एगगुणेणं ति रागदोसविमुक्केण साधिज्जति / आह, को गुणो भवति सण्णासुत्तेणं? / उच्यते उवयार अणिहरया, कज्जित्थीदाणमाहु णित्थक्का / जे छऍ आमगंधादि, आरं सण्णा सुतं तेणं // 318 // "उवयार०" पुव्वद्धं / उवयारवयणेणं भण्णमाणेण वि णिटुरत्तणं न भवति / ताहे कज्जे पत्ते इत्थियाते साहुणो पासे पढंतीए सुहं दिज्जति, इहरधा भिण्णमाणे भिण्णकधा भवति। ततो य सा 'णित्थक्कत्ति णिल्लज्जा भवति / जारिसे य कज्जे साधुणी साधुसगासे पढति, तं उवरिं भण्णिहिति / कारगसुत्तं नाम जधा-अहाकम्मं णं भंते ! भुंजमाणे 'समणे निग्गंथे कति कम्मपगडीओ बंधंति ? पण्णत्तीए आलावतो / गोयमा ? आयुअवज्जाओ सत्त / आलावगो / से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति ? (भग० श० 1 उ० 9) / आधाकम्मं णं आलावओ / एतं 'कारगं'ति सुत्तं / आह, ननु सर्वज्ञोक्तप्रामाण्यादेव एतद् श्रद्धीयते / यथाआधाकर्म ३/जानः आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां बन्धकः इति / उक्तञ्च–“तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेतितं" / उच्यते सव्वण्णुप्पमाणाओ, जति वि य उस्सग्गतो सुतपसिद्धी। वित्थरतोऽपायाण य, दरिसणमिति कारगं तम्हा // 319 // "सव्वण्णु०" गाधा / यद्यपि सर्वज्ञोक्तप्रामाण्यादेकान्तेन सर्वश्रुतस्य प्रसिद्धि-र्भवति, तथापि विस्तरापायदर्शनार्थं कारकश्रुतमपदिश्यते इति / प्रकरणसूत्रमिदानीम् पगरणतो पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव-णिण्णयपसिद्धी। नमि-गोतम-केसिज्जा, अद्दग-नालंदइज्जा य // 320 // "पगरण." गाधा / प्रकरणसूत्रं खलु भो ! यत्र स्वसमयेनैवाक्षेपस्य निर्णयेन प्रसिद्धिर्वर्ण्यते / यथा-नमिप्रव्रज्या, गौतमकेशीयं, आर्द्रकीयं, नालन्दकीयमिति / अधवा दुविधं सुत्तं-उस्सग्गियं च अववातियं च / तत्थ उस्सग्गियं जहा-"णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिण्णे पडिगाहित्तए" (बृ०क०उ० 1 सू०. 1) / 1. परिवर्जयेदि० पा० / 2. 'समणे निग्गंथे' नास्ति पू० 1-2, पा० / ३...कर्म भुंजमानः आयुष्कवर्जा० पू० 2 / 4. स्वसमयैवा० पू० 2 / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३१८-३२३] अववातियं जहा-"कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पक्के तालपलंबे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगाहित्तए" / अहवा तिविधं सुत्तं-उस्सग्गितं, अववातितं, उस्सग्गाववातियं च / उस्सग्गियं अववातियं च भणियमेव / उस्सग्गाववातियं जधा-'णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अण्णमण्णस्स मोयं आदित्तए वा आयमित्तए वा णण्णत्थागाढेहिं रोगायंकेहिं" (बृ०क०उ० 5 सू० 47-48) / अधवा चउव्विहं सुत्तं-उस्सग्गितं, अववातितं,उस्सग्गाववातितं,अववाउस्सग्गितं ति / एत्थ आदिल्लाणि तिण्णि सुत्ताणि भणिताणि चेव / अववाउसग्गितं जधा-"मंसयं मंसयं दलाहि मा अद्विताणि" / आहउत्सर्ग इति कोऽर्थः, अपवादो च ? इत्युच्यते १उज्जयसग्गस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो। उस्सग्गा विणिवतितं, धरेति सालंबमववातो // 321 // "१उज्जतस०" गाधा / उद्यतः सर्गः उत्सर्गः / उत् प्राबल्ये, सृज् गतौ२, तस्य उत्सर्ग इति भवति / उत्सर्गो नाम उद्यतविहार इत्यर्थः / तस्य चोत्सर्गस्याऽपवादः प्रतिपक्षो भवति / कथमित्युच्यते-उत्सर्गाद् अध्वानावमौदर्यादिषु प्रच्युतं ज्ञानादिसालंबं अपवादो धारयतीति / आह, कथं सो भग्गव्वओ न भवति उस्सग्गातो अववातं गतो संतो? उच्यते धावंतो उव्वाओ, मग्गण्णू किं ण गच्छइ कमेणं / किं वा मउई किरिया, ण कीरये असहुओ तिक्खं // 322 // "धावंतो०" गाधा / सव्वो अम्हं पयासो मोक्खसाधणणिमित्तं, सो तहा मोक्खटुं साधेति इतरहा न साधेति / दिटुंतो जधा-कोइ पाडलिपुत्तं गंतुकामो धावंतओ जाधे ३उव्वातो भवति ताधे गतीए वच्चंतो णवरं जाणओ होतुं किं न गच्छति पाडलिपुत्तं ? परं चिरेण गच्छेज्जा / अध पुण धावति तो अंतरा चेव ५मरति / एवं सो तारिसे कज्जे अपवादं अपडिवज्जतो विणस्सति चेव / किं वा रोगिणो तिक्खं किरियं असहंतस्स मउई किरिया न कज्जति ? / जधा एयं एवमेव उस्सग्गविणिवातितस्स अववातगमणं भवतीति / आह-कि ताव उस्सग्गातो अववातप्पसिद्धी, अह अववातातो उस्सग्गपसिद्धी भवति ? उच्यते उण्णतमविक्ख णिण्णस्स पसिद्धी उण्णयस्स णिण्णातो। इय अण्णुण्णपसिद्धा, उस्सग्गऽववातमो तुल्ला // 323 // "उण्णत०" गाधा / यथा हि उन्नतमपेक्ष्य निम्नप्रसिद्धिर्भवति, ६उन्नतस्य च निम्नात् प्रसिद्धिरित्येवमुत्सर्गादपवादप्रसिद्धिरपवादाच्चोत्सर्गप्रसिद्धिरिति / उत्सर्गे(\) अववादो त्ति 1. उज्जुय० पू० 2 / 2. 'सृ गतौ' पू० 1-2, पा० / 3. उव्वाणओ पू० 2 / 4. धावति चेव, पू० 2 / 5. भवति, पा० / 6. निम्ना-च्चोन्नतप्रसिद्धि० पा० / 7. अपवादे० पा० पू० 1 / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका गतम् / ॥छ। ___इदाणि अप्पे त्ति दारम् / सीसो पुच्छति-भगवं ! किं उसग्गा अप्पा १अववादा वा? उच्यते-तुल्ला / यस्मादुक्तम् जावतिया उस्सग्गा, तावतिया चेव हुँति अववाता। जावतिया अववाता, उस्सग्गा तत्तिया चेव // 324 // "जावतिया०" गाहा / कंठा / केण कारणेणं ? उच्यते-जेण सव्वपडिसेहस्स अणुण्णा भवति / इदाणिं सेए य बलवंते, एते दो वि दारे एगगाधाए भणति / सीसो चेव पुच्छति-कि उस्सग्गो सेओ अववादो वा ?, उस्सग्गो बलवं अववादो वा ? उच्यते सट्टाणे सट्टाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एते। .. .. सट्ठाण-परट्ठाणा य, हुंति वत्थूतो णिप्फण्णा // 325 // . "सट्ठाणे०" गाधा / पुव्वद्धं कंठं / परट्ठाणे दुब्बलया / आह, किं सट्ठाणं परट्ठाणं ति वा ? उच्यते-"सट्ठाण-परट्ठाणा" पच्छद्धं, कंठं / आह-वत्थुमेव ण याणामि किं वत्थु ति? उच्यते-पुरिसो वत्थु / तस्स संथरतो सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं / इय सट्ठाण परं वा, ण होति वत्थू विणा किंचि // 326 // "संथर०" गाधा / संथरंतस्स उस्सग्गो सट्टाणं भवति / अववादो पहाणं / असहू नाम जो ण सक्केति संथरिउं तस्स असंथरंतस्स अववातो सट्ठाणं, उस्सग्गो परट्ठाणं / एस वत्थू जो संथरति वा न वा, एतातो णिप्फण्णं सट्ठाणं वा परढाणं वा भवति / सुत्तं ति दारं गतम् / इदानीं पदं ति दारं / तत्थ गाहा णाम णिवाउवसग्गं, अक्खाइय मिस्सयं च णायव्वं / पंचविधं होति पदं, लक्खणकारेहिँ णिद्दिटुं // 327 // "णाम णिवाउस्स( वस )ग्गं०" / अश्व इति नामिकं पदं भवति / खल्विति नैपातिकं पदं भवति / परि इत्यौपसर्गिकं पदं भवति / २पतति इत्याख्यातिकं पदं भवति / संयत इति मिश्रं पदं भवति / एतत् पंचविकल्पं पदं लक्षणविद्भिराख्यातम् ॥छ। इदानी पदार्थ इति द्वारं / तत्थहोति पदत्थो चउहा, सामासिय तद्धितो य धातुकओ। णेरुत्तिओ चउत्थो, तिण्ह पयाणं पुरिल्लाणं // 328 // 1. अल्पा अपवा० पू० 1-2 / 2. पचति पू० 1-2 / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३२४-३३१] "हवति०" गाधा / एषामेव पूर्वोद्दिष्टानां पदानां णाम-णिपात-उस्स(वस)ग्गिताणं तिण्हं चउव्विहो पयत्थो भवति / सामासिकः ताद्धितिकः धातुकृतो नैरुक्तिकश्च / सामासिकः सप्तर्विधो भवति / दंदे य बहुव्वीही, बोधव्वे कम्मधारय दिगू य / तप्पुरिस-अव्वइभावे एगसेसे य सत्तमे // तत्र द्वंद्वः-दन्ताश्च औष्ठौ च दन्तोष्ठं / बहुव्रीहिः-फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडय–कयंबा सो इमो गिरी १फुल्लकुडयकयंबो / कर्मधारयः-श्वेतः पटः श्वेतपटः / द्विगु:-त्रीणि मधुराणि त्रिमधुरं / तत्पुरुषः-वने हस्ती वनहस्ती / अव्ययीभावः-अणुचरिया अणुफरिहा / एगसेससमासः-यथा एकः पुरुषः तधा २बहवः पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषाः तथा एकः पुरुषः / उक्तः सामासिकार्थः / इदानीं तद्धितार्थः / स चाष्टविधो भवति / कम्मे सिप्पे सिलोगे य, संजोग-समीवओ य संजूहे। ईसरियाऽवच्चेण य, तद्धियअत्थो उ अट्ठविहो // कर्मतो यथा-तणहारओ / सिप्पओ जहा–३तुण्णागादी / श्लाघतो जधा-समणे माहणे। संयोगतः-राज्ञः श्वसुरः / समीपत:-गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम् / संजूहतःमलयवतीकारः इत्यादि / ईश्वरत:-राजा युवराजा / अपत्यतः-तीर्थकरमाता / इदानीं धातुकृतः / यथा-भू सत्तायाम्, परस्मैभाषा / इदानीं नैरुक्तिकः-मह्यां शेते महिष इत्यादि / त्रयाणां पदानामेष ५अर्थो वक्तव्यः / आख्यातिकपदस्य कारक० गाहा कारगकतो चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सतो चउत्थो उ / सामासिओं सत्तविधो, हवति पयत्थो उणायव्वो // 329 // - "कारग०" गाहा / कारक इति क्रियामित्यर्थः / शेषमुक्तार्थम् ॥छ। उक्तः पदार्थः / इदानी आक्षेपः प्रसिद्धिश्च अक्खेवों सुत्तदोसा, पुच्छा वा तत्तौ णिण्णयपसिद्धी / आयपया दो सुत्ते, उवरिल्ला तिण्णि अत्थम्मि // 330 // "अक्खेव०" गाहा / सिद्धमेव / ६शिष्याह-पदस्य किं परिमाणम् ? आचार्याह अत्थवसा हवति पदं, अत्थो इच्छियवसेण विण्णेयो। इच्छा य पकरणवसा, पकरणतो णिच्छओ सत्थे // 331 // ... 1. फुल्लिय० पू० 1-2 / 2. बहवे पू० 2 / 3. पुण्णागादी, पू० 2 / 4. गिरेः समीपे पा० / 5. मेष पदार्थो, पा० / 6. शिष्य आह पा० 2 / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः॥ [पीठिका "अत्थ०" गाहा / अत्थस्स किं परिमाणं ? अत्थो पदेनोत्तरं / इच्छाया(याः) किं प्रमाणं ? इच्छापेदेनोत्तरं / प्रकरणस्य निश्चयः शास्त्रे वक्तव्यः / लक्षणं ति दारं गतं ॥छ।। एवंगुणजातीयस्स सुत्तस्स को अरिहो ? एतेन अभिसंबंधेणं तदरिह'त्ति दारं पत्तं / सो अरिहो उंडियादिदिटुंतस्स उवणए भण्णिहिति / उंडिय भूमी पेढिय, पुरिसग्गहणं तु पढमतो काउं। एवं परिक्खितम्मी, दायव्वं वा ण वा पुरिसे // 332 // "उंडिय भूमी०" गाधा / 'उंडिय भूमी पेढिय' अस्य व्याख्या अभिणवणगरणिवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहण्णू। पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोधणया // 333 // खणणं कोट्टण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो। इय संजम णगरुंडिय, लिंगं मिच्छत्तसोहणयं // 334 // वय इट्टगठवणणिभा, पेढं पुण होति जाव सूतगडं। पासातो जहिँ पगतं, रयणणिभा हुंति अत्थपदा // 335 // "अभिणवणगर०" गाधा दिवड्डा / जधा-कोति राया अभिणवं णगरं णिवेसितुकामो भूमिं परिच्छित्ता वरं सव्वो लोगो जाणंतो जधा समां भूमी विरिक्कत्ति / अणूणि मवेत्ता पासायं ५करेत्ता तत्थ ठाइत्ता रयणाणं आदाणं करेत्ता सुहंसुहेण परिवसति / एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-"पुरिसग्गहणं तु पढमतो काउं" ति पुच्छा / सुद्धं पव्वावेउं ? ति भणितं होति / ताधे ठवणं ति–नगरट्ठाणीए संजमे "ठविज्जति / ताधे से उंडियाथाणीयं लिंगं दिज्जति रयहरणादि / 'ततो से मिच्छत्तं अण्णाणं कयवरथाणीयं खणित्ता सोधित्ता थिरीकरणणिमित्तं सम्मत्तद्रुहणेहिं कोट्टित्ता, इट्टगठवणथाणीयाणि वयाणि दिज्जंति / ताधे से आवस्सयं आदि काउं जाव सूतगडं १°ताव पेढत्थाणीयं भवति / ताहे से पासायठाणीया जेहिं पगतं ति कप्पववहारा ते दिज्जति / रयणसरिसा अववातपदा भवन्ति / एते पुण कप्पववहारे जाधे सिक्खिउं पत्तो ताधे परिणामओ अपरिणामओ वत्ति परिच्छित्तव्वो / सा परिच्छा उरि भण्णिहिति / ताधे "एवं परिच्छितम्मि दातव्वं वा न वा पुरिसे त्ति ?" / अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्स वा ण दायव्वं / 'तयरिह'त्ति दारं गयं ॥छ।।। ___ इयाणि परिस त्ति दारं-जीसे कप्प-ववहारा दिज्जति सा परिसा सेलघणादीहिं 1. अर्थः पादेनो० पू० 1-2 / 2. ०पादेनो० पू० 1-2, पा० / 3. दंडिया० पू० 2 / 4. त्ति धणूणा मवे० पू० 1 / 5. कारेत्ता पा० / 6. भणंति-णगरं तट्ठाणीए पू० 2 / 7. ठावि० पा० / 8. ताधे पू० 1, पा०। 9. से वयाणि पा० / 10. ताव जाव पेढ० पा० / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३३२-३४०] दिटुंतेहिं परिच्छिज्जति / तं जधा सेलघण कुडग चालिणि, परिपूणग हंस महिस मेसे य / मसग जलूग बिराली, जाहग गो भेरि आभीरी // 336 // "सेलघण०" गाधा / 'सेलघणे'त्ति / अस्य व्याख्याउल्लेऊण ण सक्का, गज्जति इय मुग्गसेलओ रणे। तं संवट्टगमेहो, सोउं तस्सोवरिं पडति // 337 // रवितु त्ति ठितो मेहो, उल्लो य ण व त्ति गज्जइ य सेलो। सेलसमं गाहिस्सं, णिव्विज्जति गाहगो एवं // 338 // "उल्ले०" गाधाद्वयम् / 'मुग्गसेलओ' त्ति मुग्गप्पमाणो पाहाणो / तस्स य पुक्खलसंवट्टगस्स य महामेहस्स विसंवादो / मुग्गसेलओ भणति-जति तुमं मम तिलतुसतिभागमेत्तमवि सक्केसि खंडिउं तो सि सच्चो पुक्खलसंवट्टओ त्ति / सो पडिभणति–जति तुम मम एगधाराणिवातमवि सक्केसि सहिउं तो सि मुग्गसेलओ त्ति / मुट्ठिप्पमाणाहिं धाराहिं सत्तरत्तं वासित्ता चिंतेति-सो विरातो होहिति त्ति / अर्वरिसतो जातो, जाव मुग्गसेलो मिलिमिलेंतो अच्छति / ताहे सो. मुग्गसेलो गज्जति आगारेति य-जं तं भणियं तं कहिं गतं? ति / मेहो लज्जितो जातो विलक्खीभूओ य / एरिसं सेलसमं अण्णण्णायरिएणं ण सक्किउं गाहेडं, ताधे अण्णो भणति-अहं गाधेमि त्ति / सो किलिसित्ता णिव्विज्जति, ण किंचि सक्केति गाहेउं / इमो य दोसो आयरिए सुत्तम्मि य, परिवादो सुत्त-अत्थपलिमंथो / .. अण्णेसि पि य हाणी, पुट्ठा वि ण दुद्धदा वंझा // 339 // ___"आयरिए०" गाधा / आयरिए परिवादो-अहो से सिक्खावेंतओ, जेणेरिसो ३सिक्खवितो / सुत्तपरिवादो-नूणं एरिसं चेव सुत्तं जारिसं एस पढति / सुत्त-अत्थपलिमंथो त्ति / जाव सो गाहिज्जति ताव अप्पणा न गुणेति / अण्णेसिं च सिक्खगाणं हाणी जाव सो गाहिज्जति / जहा-वंझागावी दुद्धनिमित्तं सुपोसिता वि न दुद्धदा भवति, एवं सुबहुओ वि किलेसो तम्मि कज्जमाणो निरत्थओ चेव / सेल-घणा गता / एय-पडिपक्खे सिस्से दायव्वं / केरिसो पुण सो ? उच्यते-कण्हभूमीसमाणो / जो वुढे वि दोणमेहे, ण कण्हभोमाउ लोट्टती उदयं / गधण-धरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि // 340 // 1. अधरिसतो, पू० 2 / 2. अण्णेणा० पू० 2 / 3. सिक्खा० पू० 1, पा० / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "वुढे वि०" गाधा / जधा-कण्हभूमीए दोणमेहे वि वुढे जं जत्थ पडति तं तत्थेव पविसति अण्णत्तो ण पलोदृति / एवं जो जत्तियं भासिज्जति तं सव्वं गेण्हति / एरिसे गहणधारणसमत्थे दातव्वं / अव्वोच्छित्तिं काहिति सो / इयाणि 'कुडो 'ति दारं भाविय इयरे य कुडा, पसत्थ-अपसत्थभाविता दुविधा। पुप्फादीहिँ पसत्था, सुर-तिल्लादीहि अपसत्था // 341 // वम्मा य अवम्मा वि य, पसत्थवम्मा य हुंति अग्गिज्झा। अपसत्थअवम्मा वि य, तप्पडिवक्खा भवे गेज्झा // 342 // कुप्पवयण-ओसण्णेहिँ भाविता एवमेव भावकुडा / संविग्गेहिँ पसत्था, वम्माऽवम्मा य तध चेव // 343 // "१ते भावित०" गाथात्रयम् / कुडा दुविधा-भाविता अभाविता य / जे भाविता ते पसत्थभाविता य, अप्पसत्थभाविता य / जे पसत्थभाविता ते २पुप्फादीहिं / आदिग्रहणात् गंधेहिं कप्पूरेणं / जे अप्पसत्थभाविता ते सुराए तेल्लेणं, आदिग्गहणेणं वसादीहिं। तत्थ जे पसत्थाऽपसत्थभाविता ते एक्केक्का-वम्माः य अवम्मा य / वम्मा नाम जे तं भावं 'सक्केंति छड्डावेतुं, इयरे अवम्मा / एत्थ जे पसत्थभाविता वम्मा, जे. यं अपसत्थभाविता अवम्मा, एते ५अगेज्झा / 'तप्पडिवक्ख'त्ति, जे पसत्थभाविता अवम्मा, जे य अघसत्थभाविता वम्मा ६एतेपि ग्राह्याः, कुडा इति घडा / एते दव्वकुडा / एवं चेव भावकुडा सीसा ते दुविधाभाविता य अभाविता य / जे भाविता ते दुविधा-पसत्थभाविया य, अपसत्थभाविया य। तत्थ जे पसत्थभाविता ते जे संविग्गेहि भाविता / जे अप्पसत्थभाविता ते कुप्पवयणओसण्णेहि भाविता / जे पसत्थ-अप्पसत्थभाविता ते दुविधा-वम्मा अवम्मा य / तत्थ जे पसत्थभाविता वम्मा, अपसत्थ-भाविता य अवम्मा, एते अगेज्झा / जे पसत्थभाविता अवम्मा, जे अप्पसत्थभाविता वम्मा, एते दो वि गेज्झा / जे अवम्मा ते सुचिरेण वि कालेणं तं भावं ण छड्डेति / पच्छा ते णिस्साणपदं लभित्ता पावतरा भवंति / गेज्झा णाम कहिज्जति जेसिं / जे पुण अभाविता ते, चउव्विधा अधविमो गमो अण्णो। छिड्डकुड खंड बोडे, सगले य परूवणा तेसिं // 344 // "जे पुण अ०" गाधा / जे अभाविता कुडा ते छिड्डादिणो चउब्विधा भवंति / 1. 'ते' इति पाठ: गाथायां न दृश्यते / 2. पुप्फेहि, पू० 1-2, पा० / 3. वम्मास्थाने धम्मा पा० पू० 2 / 4. सक्किज्जंति, पा० / 5. अग्राह्याः पू० 2, पा० / 6. एते दोवि पू० 1 / एते पू० 2 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३४१-३४७] "अहविमो गमो अण्णो" त्ति / अण्णेसि आयरियाणं जं एवं भणितं, एतं मतं अण्णेसिं, जाधे १कुडयं ति दारं पत्तं भवति ताधे ते आयरिया परूवेंति-कुडा दुविधा दव्वकुडा भावकुडा य / तत्थ दव्वकुडा इमे चत्तारि "छिड्ड 'कुड' पच्छद्धगहिता परूवणा तेसिं ति एए परूवेतव्वा को केरिसो त्ति ? 1 'छिडकुडो' नाम जस्स छिडू हेट्ठा तत्थ छूटं च गलियं च / 2 'खंडकुडो' नाम जस्स कण्णा बोडिया सो ऊणतं पाणितं गेण्हति / 3 'भिण्णो' णाम जस्स पासे कपालभेओ तत्थ वि थोवं ठाति / 4 'सगलो' नाम संपुण्णो घडो, तत्थ जत्तियं छुब्भति तं सव्वं ठाति / एमेव चत्तारि सीसा भवंति / तं जहा-छिड्डकुडसमाणे, खंडकुडसमाणे, भिण्णकुडसमाणे, सयलकुडसमाणे / एते भावकुडा / छिड्डकुडसमाणस्स जं कधिज्जति तं जाव कधिज्जति ताव सरति, उट्ठितो न सरति / खंडकुडसमाणो ऊणं गेहति / भिण्णकुडसमाणो थोवं गेण्हति / सकलकुडसमाणो सव्वं गेण्हति, जत्तियं कहिज्जति / एतेसिं सगलसरिसं वज्जेत्ता जे मुग्गसेलसमाणस्स दोसा ते च्चेव / सकलकुडसमाणस्स कहेतव्वं सो अव्वोच्छित्ति काहिति / ॥छ। ___ इयाणि 'चालणि 'त्ति दारं / चालणीए जं पाणियं पक्खिप्पति, तं पक्खिप्पंतं चेव हेतुणं सरति णासति / एवं जो चालणीसमाणो सिस्सो तस्स एक्केणं कण्णेणं पविसति बितिएणं नासति / एरिसे वि गाहिज्ज़माणे मुग्गसेलसमाणे जे दोसा ते भवंति / सेले य छिद्द चालिणि, मिधो कधा सोउ उट्ठियाणं तु / छिड्डाऽऽह तत्थ विट्ठो सरिंसु सुमराणि णेयाणिं // 345 // एगेण विसति बीएण णीति कण्णेण चालिणी आह। धण्ण त्थ आह सेलो, जं पविसति णीति वा तुझं // 346 // "सेले य०" गाधाद्वयम् / तेसिं मुग्गसेल-छिड्डुकुड-चालणिसमानानां सिस्साणं सोऊण उट्ठियाणं समाणाणं इमे एतारूवे मिधो कधासमुल्लावो भणध-अज्जो ! केण भे किं अवधारितम् ? ति / तत्थ छिड्डकुडसमाणो भणति-जाव तत्थ मंडलीए अच्छिताइओ ताव सुमरातिओ अहं, उट्ठतस्स सव्वं विस्सरितं / चालणिसामाणो आह-एगेण कण्णेण अतीति बितिएण "मे नासति / सेलसमाणो भणति-धण्णा तुब्भे सभग्गा य जेसिं पविसति वा णीति वा, मम ण चेव पविसति / तावसखउरकढिणयं, चालणिपडिवक्खु न सवति दवं पि। "तावस०" पुव्वद्धं / चालणीए पडिपक्खो तावसखउरकढिणयं, तं तावसस्स भवति / 1. कुड इति, पू० 2, पा० / कुडयं दारं, पू० 1 / 2. छिद्द० पू० 2 / 3. समणाणं सोऊणं पू० 1 / सामाणाणं सिस्साणं पू० 2 / 4. समणाणं, पू० 1 / 5. ते पू० 2 / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका तं च खउर-बिल्ल-गिरिभल्लायगरसेहिं लित्तं घणपाणियस्स वि भरियं ण गलति / एरिसस्स कहेतव्वं / जस्स किंचि ण णासति सो अव्वोच्छित्तिं काहिति / इयाणि परिपूणगे ति दारं / परिपूणगं पिव गुणा, गलंति दोसा य चिटुंति // 347 // परिपूणओ णामं जेण घतपुण्णाणं संपाणं गलिज्जति / तत्थ किट्टं ठाति, सारो गलति। एरिसो जो सीसो जस्स गुणा गलंति, दोसा ठायंति, तम्मि गाहिज्जमाणे सेलसमाणा दोसा / आह-किं भट्टारयवयणे दोसा अत्थि ? उच्यते सव्वण्णुप्पामण्णा, दोसा उण हंति जिणमते के वि। जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवंति // 348 // "सव्वण्णु०" गाधा / सर्वज्ञप्रामाण्यादिति / वीतरागा हि सर्वज्ञाः मिथ्या न ब्रुवते वचः / यस्मात् तस्माद् वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम् // इति वचनाज्जिनानां मते न विद्यन्ते दोषाः / यदनुपयुक्तेनाऽऽचार्येण कथितं स्यात्, अथवा अपात्रमासाद्य गुणा अपि सर्पोदकवद् दोषीभवन्ति / तं परिपूणगसामाणं गाहेमाणस्स ते चेव दोसा जे सेलघणसामाणस्स / "हंसे 'त्ति, परिपूणगस्स पडिपक्खो / तस्स अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि। हंसो मोत्तूण जलं, आपियति पयं तह सुसीसो // 349 // "अंब० "गाधा / सो खीरमिस्सउदए खीरं आदियति उदयं छंडेति / कथं पुण? उच्यते-तस्स जीहा अंबा, ताए खीरं विक्कुइत्ता 'कुच्चीभवति / जाधे तं कुच्चीभूतं खीरं ताधे तं कुच्चितं खातति / एवं जो गुणे गेण्हति दोसे छड्डेति तस्स सीसस्स दातव्यं / महिसो त्ति सयमवि ण पितति महिसो, ण य जूधं पियति कलुसितं तोयं / विग्गह-विकहाहिँ तधा, अथक्कपुच्छाहि य अभागी // 350 // "सयमवि०" गाधा / जधा-महिसो तण्हातितो 'पाणियं पाहामि' त्ति काउंद्रहं ओयरित्ता पढमं चेव सव्वं लोलेति, जधा-कद्दमीभूतं / ण वि अप्पणा पिबति ण वि अण्णं सक्केति जूहं पाउं / एरिसो जो सीसो पट्ठविए समाणे विग्गहेणं जधा-अमुओ भिक्खाए ण 1-2. कुची० पू० 2 / 3. य कुसीसो ता० / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३४७-३५४] 97 गच्छति, अमुओ एरिसो तारिसो त्ति विकहाहिं य अथक्कपुच्छाहि य आयरियं तधा तधा परिस्समेति, जधा ण वि तस्स कहिज्जति ण वि अण्णस्स गणस्स / एरिसे ते च्चेव दोसा। "मेसे"-त्ति, महिसपडिपक्खो मेसो-एलओ / सो अवि गोपयम्मि वि पिबे, सुढितो तणुयत्तणेण तुंडस्स। ण करेति कलुस तोयं, मेसो एवं सुसीसो वि // 351 // - "अवि गोपयं०" गाधा / गोप्पए वि जं जण्णुएहिं णिसुढित्ता तणुयत्तणेणं तुंडस्स अलोलितं चैव पाणियं पीउं गच्छति / एरिसो जो सीसो आयरियं अणुद्धरूसेतो गेण्हति तारिसे दातव्वं / इयाणि 'मसए' त्ति दारंमसगो व्व तुदं जच्चाइएहिं णिच्छुब्भती कुसीसो वि / जलुगा व अमितो पियति सुसीसो वि सुयणाणं // 352 // "मसगो व्व०" गाधा / जधा मसओ रेलग्गंतओ चेव दुक्खावेति, पच्छा उड्डाविज्जति मारिज्जति वा / एवं जो सिस्सो जातिकुलादीहिं तर्जेतिरे सो णिच्छुब्भति / तारिसस्स देंते असंखडादतो दोसा / 'जलोग' त्ति / मसगपडिपक्खो जलूगा / जधा-सा अदूमेंती अदुक्खावेंति त्ति भणियं होति, लग्गित्ता रुधिरं पिबति / उक्तञ्च दंसो तिक्खणिवातेणं, अप्पणो वधमिच्छति / ____जलूगा वि तदेवत्थं, मद्दवेणोपसप्पति // एवं जो सीसो आयरियं अदुहावेतो गेण्हइ तस्स दायव्वं / 'विरालि'त्ति / सा छड्डेडं भूमीए, खीरं जह पियति मुद्ध मज्जारी / परिसुट्ठियाण पासे, सिक्खति एवं विणयभंसी // 353 // "छड्डेउं०" गाधा कंठा / 'मुद्ध'त्ति अपंडिया / एवं जो गारवेणं ण सुणेति मंडलीए, जाधे उद्वित्ता सोतारा भवंति, ताधे अणुभासंताणं पासे उवेसित्ता सुणेति, तस्स न दायव्वं / 'जाहए' त्ति विरालीए पडिवक्खो / सो पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाणि जाहगो लिहति / एमेव जियं काउं, पुच्छति मइमं ण खेएइ // 354 // "पाउं" गाधा कंठा / 'गो'त्ति 1. अणुगुरुसेतो, पू० 2, पा० / 2. लब्भंतओ पू० 2 / 3. हीलेति पा०, पू० 1-2 / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका अण्णो दुज्झिहि कल्लं, णिरत्थयं किं वहामि से चारों चउचरणगवी य मता अवण्ण हाणी य मरुयाणं // 355 // माणे हुज्ज अवण्णो, गोवज्झा मा पुणो य ण दलिज्जा। वयमवि दोज्झामो पुण, अणुग्गहो अण्णदूढे वि // 356 // सीसा पडिच्छगाणं, भरो त्ति ते वि य हु सीसगभरो त्ति / ण करिति सुत्तहाणी, अण्णत्थ वि दुल्लभं तेसिं // 357 // "अण्णो०" गाधात्रयं / 'एगेणं अविरतएणं गावी चाउवेज्जस्स२ दिण्णा / ते तं वारएणं दिणे दिणे दुहंति / जाधे जस्स वारओ भवति ताधे सो चिंतेति-सुचारितं पि एतं कल्ले अण्णो दुहिहि त्ति चारितफलं ण चेवाहं उवजीवीहामि, तो किं णिरत्थयं से चार खावेमो त्ति काउं दुहित्ता अवतालेउं मुयति / एवं सा मता / ताधे तेसिं मरुताणं अवण्णो जातो-गोवज्झारय त्ति / दाणहाणी य जाता-मारेंति त्ति काउं / ण कोइ वि दाणं देति। एस अपसत्था। एवं गोणीथाणीया आयरिया, धिज्जातितथाणीया सीसा / ते चितेंति-अम्हे धुवा, पडिच्छगा सुत्तत्थाणि घेत्तुं गंतुकामा, ते से काहिति पडिलेहण-भिक्ख-पादधोवणादीणि / पडिच्छगा वि चिति-'एस सीसगाणं से भरो, अम्हे सुत्तत्थाणि गेण्हामो' / पच्छा आयरिओ अकज्जमाणे सव्वं अप्पणा करेति / ताधे वातिय-पेत्तिय-सेंभिएहि रोगायंकेहिं गहितो किं देउ ? / एवं सुत्तत्थहाणी जाता / पच्छा ते तेणं दोसेणं अण्णहिं पि गच्छे ढोयं ण लभंति / ३एरिसेसु न दायव्वं / बितिया गोणी पसत्था, एगेणं तधेव दिण्णा / ते चिंतेंति-मा णे होज्ज अवण्णो जाव अणुग्गहो चण्णदूढे वि त्ति काउं ४णीसटुं तण-पाणियं देंति / एरिसेसु आयरियभत्तिमंतेसु दातव्वं ॥छ। 'भेरि' त्ति कोमुदिया संगामिया य दुब्भूतिया य भेरीओ। कण्हस्स आसि तइया, असिवोवसमी चउत्थी उ // 358 // "कोमुदिया संगामिया०" गाधा / बारवती णगरी / कण्हो वासुदेवो / तस्स तिण्णि भेरीओ / कोमुइया, संगामिया, दुब्भूतिया / गोसीसचंदणमईयातो५ देवता-परिग्गहियातो / चउत्थी असिवोपसमणभेरी / सा जत्थ तालिज्जति तत्थ छम्मासे सव्वरोगा पसमंति, जो तं सदं सुणेति / तस्स य सा देवेहिं दिण्णा / कधं ? उच्यते सक्कपसंसा गुणगाहि केसवा णेमिवंद सुणदंता। आसरयणस्स हरणं, कुमारभंगे य पुययुद्धं // 359 // 1. एगेण अविरएणं पा० / 2. चतुर्वेदब्राह्मणस्य / विज्जस्स पू. 1 / 3. एरिसे णं दातव्वं पा० / 4. नीसढं पू० 1 / 5. चंदणमईओ पू० 1-2 / पा० / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३५५-३६१] णेहि जितो मि त्ति अहं, असिवोवसमीऍ संपयाणं च। छम्मासियघोसणया, पसमेति ण जायए अण्णो // 360 // ___ "सक्क०" गाधाद्वयम् / सक्को सभाए भणति-केसवा सव्वे गुणगाहिणो णीययुद्धं च ण करेंति / तत्थ एगो देवो असद्दहतो भणति-'अहं अगुणे गेण्हावेमि णीययुद्धं च कारेमि'त्ति / कण्हस्स अरिहणेमिवंदगस्स सखंधावारस्स पट्ठितेल्लियस्स अंतरा सुणहरूवं कुधितं दुब्भिगंधं मतेल्लयं, दंता से अतीव पंडरया सोभमाणा विउव्विया / ताधे सो खंधावारो जाधे तं पदेसं पत्तो, ताधे उत्तरिज्जएहिं मुहं ठवेत्ता अण्णेणं अंतेणं पगतो। कण्हेण पच्छातो एंतेण पुच्छितं 'किमेतं ति ?' / 'सुणहो कुधितो' त्ति / ताधे सो तेण चेव अंतेण आगतो, मुहं च णेण न चेव 'कुणितं ठतियं वा ण वि य विरूवं कयं, एयं च पुणो भणियं-अहो ! सुणयस्स २पंडुरा दंता सोभंति य त्ति, जाधे ण खोभितो ताधे ३पडिएंतस्स आसरयणमणेण अक्खित्तं / कधितं वासुदेवस्स / संबादिया कुमारा णिग्गता / ते जुद्धे भग्गा / ताधे सयं वासुदेवो णिग्गतो / दिट्ठो य अणेणं आसो णिज्जंतो / भणितो य णेणं-किं आसं अवहरसि त्ति ? देवो भणति-अहं अमुगो विज्जाहरो, जुद्धं मग्गामि / बाढं जुज्झामो, केरिसेणं जुज्झेणं ति पुच्छितो देवो भणतिपरोप्परं पुतफेट्टाहिं। वासुदेवो भणति–णाहमेरिसेणं जुद्धणं जुज्झामि त्ति पराजितो हं, णेहि आसं ति / ताधे देवो सरूवं काउं भणति-सच्चं सक्को भणति / ब्रूहि वरं / कहियं च णेणं सव्वं / ताहे वासुदेवो भणति-मम असिवोवसमणि भेरिं देहि, ५जीए ताडिताए जत्थ तीसे सद्दो सुव्वति तत्थ छम्मासे रोगातंको ण भवति, पुव्वुप्पण्णा य खिप्पामेव उवसमंति / दिण्णा भेरी। गतो देवो / आगंतु वाधिखोभो, महिड्डि मोल्लेण कंथ डंडणया। अट्ठम आराधण अण्ण भेरि अण्णस्स ठवणं च // 361 // "आगंतु०" गाधा / तत्थ अण्णदेसीओ वाणिओ आगओ / महिड्डीओ त्ति ईसरो / सो सीसवेयणाए गहितो / तस्स वेज्जेणं गोसीसचंदणमुवतिटुं / अण्णत्थ अलब्भमाणे रहस्सितयं बहुं मोल्लं दाउं ततो खंडं दिण्णं / तत्थऽण्णं लाइतं / एवं सा तेणं कंथा कता / पच्छा से तारिसो * सद्दो नत्थि / ण य रोगा उवसमंति / भेरी जोताविया जाव कंथा कता / ताधे सो भेरीपालो सकुलो उच्छादितो / ताधे वासुदेवेणं अट्ठमेणं भत्तेणं आराधित्ता अण्णा लद्धा / अण्णो य भेरीपालो ठवितो / सो आयरेणं रक्खति / एवं जो सीसो आलावए णटे समाणे अण्णं लाएति लोइयं एवं सो वि कथं करेति / तस्स ण दातव्वं / जो तहेव रक्खति तस्स दातव्वं / इदाणि 'आभीरि'त्ति दारं 1. विक्कुणियं ठतियं वा, भणियं च णेणं-अहो ! पू० 1-2, पा० / 2. पंडरा पू० 1-2, पा० / 3. पडिनियत्तस्स पू० 1 / 4. आसं हरसि पू० 2, पा० / 5. जाए तालिताए पू० 2 / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका मुक्कं तया अगहिते, दुपरिग्गहियं कयं तया कलहो। पिट्टणय इयर विक्किय, गएसु चोरेहि ऊणऽग्यो // 362 // "मुक्कं त०" गाधा / जधा एगा आभीरी सगडाणि घतस्स भरेउं णगरं विक्किया गता समं भत्तारेणं-अण्णेहिं य आभीरेहिं घतविक्किणएहिं समं / तत्थ सो आभीरो उवरिं विलग्गओ, सगडस्स हेवा ठिताए तीसे आभीरीए घतघडए २पणामेति / तत्थ तेणं णायं-गहितो / ताए णातं–ण ताव मुंचति त्ति; घडतो पडित्ता भिण्णो / ताधे सा आभीरी भणति-तुमे अगहितो चेव मुक्को / आभीरो भणति-तुमाए दुग्गहितं कतं / एवं तेसिं 'तुमं तुमति २भंडंताणं कलहो जातो / पच्छा उत्तरित्ता णीसहूँ पिट्टिता / तं पि छड्डिएल्लयं घयं तेसिं भंडंताणं सुणयजातीएहिं चट्टितं भूमीए य पविटुं / ताव य अण्णेहिं घतविक्किणएहिं विक्कियं / ताहे ताइं पविक्कीयाई ऊणग्घेण / तेसु य घयविक्किणएसु गतेसु सग्गामं ताई एकल्लयाणि जायाणि / चोरेहिं उच्छूढाति / एवं जो सीसो आलावयं विच्चामेलेंतो आयरिएहिं भणितो-अज्जो ! मा एवं भण, ताधे सो भणति मा णिण्हव इय दाउं, उवजुंजिय देहि किं विचिंतेसि / विच्चामेलणदाणे, किलिस्ससी तं च हं चेव // 363 // "मा णिण्हव०" गाधा / तुमए चेव एवं दिण्णं / आयरिओ भणति–ण देमि अहं, एवं तुमे विणासितं / सीसो भणति-मा णिण्हवाहि, ण वट्टति अप्पणा चेव एवं दाउं, उवउज्जिउं देहि, मा अण्णं चेव चिंतेहि / विच्चामेलिए दिज्जंते अहं च तुमं च किलिस्सामो। एतेण कारणेणं उवउज्जिउं उवउज्जिउं देहि / एवं तेसिं असंखडं भवति / एरिसस्स ण दातव्वं / अण्णा आभीरी तधेव णगरं गता / तधेव भिण्णं / ताधे सो भणति, ण तुमं दोसो, ममं एस दोसो / बितियो वि भणति-न तुमं, ममं ति / तधेव सा वालुया संगहिता / उण्होदएणं तावेत्ता सीयलं काउं सव्वं णिरवयवं गहितं / एवं जो सीसो ‘मा विच्चामेलेहि' त्ति भणितो, 'मिच्छामि दुक्कडं मए विणासितं' ति / जति वा आयरिएहिं अणुवयुत्तेहिं दिण्णं जं ताधे भणंति 'मिच्छामि दुक्कडं मए चेव अणुवउत्तेणं दिण्णं' ति / एत्तिएणं चेव गतं भवति / एरिसस्स दायव्वं / इदाणि एतेसि सेलादीणं आभीरीपज्जवसाणाणं पच्छित्तं भण्णति सेल-कुडछिद्द-चालिणि, सुद्धो चउगुरुग घडदुवे होति / परिपूण महिस मसए, बिरालि आभीरि एमेव // 364 // 1. विक्विणिता पा० / 2. पणावेति पू० 2 / 3. भणंताणं पू० 2 विना / 4. उद्दूढाति पू० 2 / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३६२-३७०] 101 एमेव गोणि भेरी, हंसे मेसे य जाहग जलूगा / चउलहुगमदाणम्मी, पावति एतेसु आयरितो // 365 // "सेलकुड०" गाधा / मुग्ग-सेल-च्छिड्डुकुडग-चालणिसमाणाणं गुणणाकज्जे देतो सुद्धो भवति / किंणिमित्तं ? तत्थ णत्थि सुत्तत्थहाणी / अण्णेसिं वा सिस्साणं परिहाणी, अकज्जे एतेसु चेव चतुलहुं / 'घडदुइए'त्ति पसत्थवम्मेसु अपसत्थअवम्मेसु य / बितिओ खंडे य भिण्णे य, एतेसु चउसु वि चउगुरु चउगुरु / परिपूणए महिसे मसए विरालीए आभीरीए गोणीए भेरीए, एएसु सव्वेसु चउगुरुं / जे एतेसिं पडिपक्खा चोक्खा हंसादिणो य, तेसिं जो ण देति आयरिओ, तस्स चउगुरु // अधवा इमा तिविधा परिसा जाणंतिया अजाणंतिया य तध दवियडिया चेव / तिविधा य होति परिसा, तीसे णाणत्तगं वोच्छं // 366 // "जाणंतिया०" गाधा / इमागुण-दोसविसेसण्णू, अणभिग्गहिया य कुस्सुतिमतेसु / सा खलु जाणगपस्सिा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा // 367 // "गुण-दोस०" गाधा / कंठा / जे वि णाम दोसा भवंति ते वि छडेति / कहं ? खीरमिव रायहंसा, जे घोट्टंति उगुणे गुणसमिद्धा / दोसे वि य छडुंती, ते वसभा धीरपुरिस त्ति // 368 // "खीरमिव०" गाधा / कंठा / 'वसभ'त्ति, जे णिसीधेण गीतत्था इमस्स अज्झयणस्स जोग्गा इति यावदुक्तं भवति / इयाणि 'अजाणिया' जे होंति पगतिमुद्धा, मिगछावग-सीह-कुक्कुरगभूता / रयणमिव असंठविता, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा // 369 // "जे होंति पगति०" गाधा / जधा-मिगछावया सीह-कुक्कुरगा वा अरण्णातो आणेउं जति रुच्चति भद्दया कीरंति / २अहवा कूरा कीरंति / एवं चेव जे पगतिमुद्धा अभाविता परतित्थिएहिं जधा भण्णंति तधा कीरति / जध वा रयणं असंठवियं जारिसो अभिप्पाओ तारिसं घडेउं कीरति, तस्यैव विभाषा / जे खलु अभाविता कुस्सुतीहिँ न य ससमए गहियसारा / अकिलेसकरा सा खलु, वयरं छक्कोडिसुद्धं वा // 370 // 1. ०त्थधम्मेसु अपसत्थवम्मे० पू० 2 / 2. अध रुच्चति तो कूरा० पू० 1-2, पा० / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका "जे खलु०" गाधा / छक्कोडिसुद्धं नाम सभावेण चेव जं सुद्धयं छसु दिसासु / . इयाणि 'दुब्वियड्डियाकिंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य / दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा // 371 // णाऊण किंचि अण्णस्स जाणियव्वे ण देति ओगासं / ण य णिज्जितो वि लज्जति, इच्छति य जयं गलरवेण॥३७२॥ ण य कत्थइ णिम्मातो, ण य पुच्छति परिभवस्स दोसेण / वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टति गामिल्लगवियड्ढो // 373 // "किंचिम्मत्तग्गा०" गाधात्रयम् / कंठं / गामेल्लएसु विदग्धो गामेल्लगविदड्ढो / सो केरिसो ? उच्यते दुरधि( धी )तविज्जो पच्चंतनिवासो वावदूक कीकाको। खलिकरण भोइपुरतो, लोगुत्तर पेढियागीते // 374 // "दुरधि( धी)तवि०" गाधा / जधा-एगो वागरणसुत्ताणि दरपढियाणि काउं पच्चंतं गंतुं भणति-अहं वैयाकरणो / तत्थ सो गामेल्लएहिं आभीरएहिं परिग्गहितो / वित्ती से कता। एवं सो तत्थ सुहं णिवसति / अण्णदा तत्थ एगो वावदुगो पंडित इत्यर्थः, पोत्थगभारेण चट्टेहिं परिवुडो आगतो / तेहिं पच्चंतिएहि ते तस्स सीसा पुच्छिता–को एस ? तेहिं भणितंवइयाकरणो / ते पच्चंतिया भणंति-अम्ह वि अत्थि वागरणो / बोल्लाबोल्ली होतु त्ति पडिस्सुते, दुरधीतविज्जेण भणितं-काको कधं भण्णति ? / वाकरणिणा भणितं-काकः / ताहे दुरधीतविज्जो भणति-अण्णो वि लोगो काकमेव भणति / को विसेसो वागरणस्स ? अहं भणामि क्रीकाकः / गामेल्लएहिं हसितं उक्किट्ठी त कता / 'अम्हं वागरणेणं पराजितो' त्ति / पच्छा सो वागरणी पओसमावण्णो णगरं गंतुं जस्स भोइयस्स सो गामो तेण कड्ढावेत्ता तस्स पुरओ खलीकरेत्ता ततो गामातो णिच्छुब्भावितो / एवमेव लोउत्तरो वि / कोति कस्सति आयरियस्स सीसो किंचि पेढियामेत्तं सिक्खितुं एगाणिओ पच्चंतणगरं गंतुं अण्णे अगीयत्था(त्थे?)द्रावेति, अकरणिज्जाणि य करेति, अपच्छित्ते य पच्छित्तं देति, ण य अण्णं पुच्छति पूयासक्कारगारवेणं / पच्छा अण्णे गीतत्था आगता / तेहिं द्रावितो, पच्छित्तं च से दिण्णं / दिसा य से हरिया / जे एरिसा पुरिसा सा दुव्वितड्ढिया परिसा // 1. दुद्दिड्डिया पू० 2 / 2. विज्जेण भणितं पा० / 3. उक्कुट्ठी पू० 1, पा० / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३७१-३७८] 103 आयरियत्तणतुरितो, पुव्वं सीसत्तणं अकाऊणं / हिंडति चोप्पायरितो, णिरंकुसो मत्तहत्थि व्व // 375 // "आयरिय०" गाधा / जधा वा कोति सीसो 'दसवेकालियमेत्तं दरपढितं काउं आयरियत्तणतुरितो अकातूण सीसत्तणं पूर्वमन्येषामाचार्याणां पच्चंतं गंतुं पीढियाए णिविट्ठो अप्पाणं आयरियं ति मण्णति / चोप्प इति २अचोक्खो मूोऽसौ, केरिसं पुण तस्स मुक्खत्तणं? उच्यते छण्णालयम्मि काऊण कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो। गेरू पुच्छति पसिणं, किण्णु हु सा वागरे किंचि // 376 // "छण्णालय०" गाधा / जधा-कोति 'गेरू'त्ति परिव्वायओ तिदंडे कुंडियं काउं अभिमुहो पंजलिओ रेजाणुपादपडितो तं कुंडितं प्रश्नं पृच्छति-अत्थि सा कुंडिया पुच्छिज्जती तस्स परिव्वायगस्स किंचि वागरेज्जा ? णो त्ति / एरिसं तस्स आयरियत्तणं जारिसं तीए कुंडियाए / जधा वा सीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहुं पसीयंति / तेण दरसिक्खियाणं, भरितो लोगो पिसायाणं // 377 // "सीसो वि य०" गाधा / कंठा / जधा-कोति दरसिक्खितो ? उच्यतेतेगिच्छ मते पुच्छा, अण्णहि वालुंक देवि कहि चिण्णा। तोसत्येण कहंति य, वेज्जणिसिद्धे ततो दंडो // 378 // "तेगिच्छ०" गाधा / जधा-एगो वेज्जो राउलोलग्गओ / मतो / रण्णा पुच्छितं-अस्थि से पुत्तो त्ति ? कधितं-अस्थि / णवरं असिक्खितओ वेज्जयं / रण्णा भणियं- वच्च, पढाहि, तदवत्था चेव ते भोगा / सो अण्णत्थ गंतुं पढितो / तत्थ य अतियाए पुरोहडे चरंतीए वालुंके गलए लग्गं, चिर्भिटमित्यर्थः / सा वेज्जसमीवमाणिया। वेज्जेण पुच्छिता-कहिं चिण्णा एसा? कधितं-पुरोहडे / तेण णातं-चिब्भिडं लग्गं ति / पोत्तं गलए बंधिउं तहा वलितं जधा तस त्ति भग्गं, णिग्गतं गलयातो / तेण वेज्जपुत्तेण चिंतियं-एस उवाओ वेज्जियाए किरियाए। पडिगतो रण्णो अल्लीणो / पुच्छितो-सिक्खिता वेज्जिय ? त्ति / जहाणवेह / 'अहो ! मेहावी' ति सक्कारो कतो / अण्णया रण्णो महादेवीए गलगंडं उद्रुितं / सो वाहित्तो भणति कहिं चिण्णेल्लिया ? तेहिं भणियं-पुच्छामो / इतरो भणति-भणध-'पुरोहडे' त्ति / इतरे चितेंति-णूणं वेज्जरहस्सं एतं ति। भणितं पुरोहडे चिण्णिया / पच्छा तेण गलए साडगेण आवेढेत्ता मारिया / पच्छा रण्णा अण्णे वेज्जा पुच्छिता-किं सत्थणिद्देसेण कता किरिया ? उस्सत्थेणं ? / ति ? तत्थ विवादे 1. दसालियमेत्तं पू० 1-2, पा० / 2. अचोक्षः पू० 1-2, पा० / 3. जंणुपाद० पू० 2 / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका वेज्जेहिं णिसेधितो। पच्छा सारीरेण दंडेण दंडितो / एवामेव कोइ सीसो कारणणिसेवि लहुसग, अगीयपच्चय विसोहि दट्टण / सव्वत्थ एव पच्चंतगमण गीतागते दंडो // 379 // "कारण०" गाधा / आयरिएहि अण्णस्स कस्सइ साहुस्स कारणणिसेविस्स अगीयपच्चयाणिमित्तं किंचि अधालहुस्सयं पच्छित्तं दिण्णं / तं दटुं चिंतेति-एवं सव्वत्थ वि दायव्वं ति / पच्चंतं गतो भणति-एध, अहं पि जाणामि पच्छित्तं / णिक्कारणे पडिसेविते भणति-भणह, कारणे / ताधे इतरो भणति-सुद्धो त्ति / पच्छा अण्णेहिं गीतत्थेहिं दिट्ठो / तेहिं द्रावितो / दिसा य से हरिता / एरिसा जे पुरिसा सा दुव्वियड्डिया परिसा / दुव्वियड्डियाए जो देति तस्स ह्व (4) / जाणियाए अजाणियाए य जो ण देति तस्स वि ह (4) / अधवा परिसा दुव्विहा-लोइया लोउत्तरिया य / लोइया पंचविधा / तं जधा पूरंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव / पंचविधा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव // 380 // पूरंतिया महाणो, छत्तविदिण्णा उ ईसरा बितिया / समयकुसला उमंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या // 381 // "पूतिया महाणो०" त्ति गाधा / अस्य व्याख्या णीहम्मियम्मि पूरति, रणो परिसा ण जा घरमतीति / जे पुण छत्तविदिण्णा, अतंति ते बाहिरं सालं // 382 // "णीहम्मियम्मि०" गाधा / जाधे राया घरातो णिग्गतो भवति, ताधे जावंतिको एति सव्वो ढुक्कति, जाव घरं न एति / एसा पूरेतिता / 'छत्तविदिण्णा य ईसरा बितिय' त्ति परिसा। जाधे बाहिरिल्लं सालं पविसेति ताधे जे छत्तविदिण्णा रायाणो भड-भोइया य ते पविसंति, सेसा वारिज्जंति / एसा छत्तंतिया / बुद्धिपरिसा समयकुसला य त्ति / अस्स ३विभासा जे लोग-वेद-समएहिँ कोविया तेहिँ पत्थिवो सहितो। समयमतीतो परिच्छति, परप्पवादागमे चेव // 383 // "जे लोग०" गाधा / कंठा / परप्पवादागमे चेव त्ति परप्रवादानां आगमं करोति शृणोतीत्यर्थः / एसा बुद्धिपरिसा / 'मंतिपरिसा' / अस्य व्याख्या 1. ०पच्चय० पू० 1, पा० / 2. जावंति कोइ एति पू० 1-2 विना / 3. व्याख्या पा० / 4. विभासा पू० 2 / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 भाष्यगाथा-३७९-३८७] जे रायसत्थकुसला, अतक्कुलीया हिता परिणया य। __ मातिकुलीया वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं // 384 // __"जे रायसत्थ०" गाहा / जे कोडिल्लयादीहिं रायसत्थेहिं कुसला / 'अतक्कुलीय'त्ति, जे पेतिएणं संबंधेणं असंबद्धया / जस्स वा जातो सबंधातो दाइयत्तणं भवति तेण असंबद्धया जे ते अतक्कुलीया / 'हित'त्ति हितान्वेषिणः / 'परिणता' वएणं / 'मातीकुलिता वसिय त्ति / अण्णेसिं. मातिसंबंधेण वि दाइयत्तणं भवति / तेण भणियं करेति / ‘णिवो' त्ति राया। सो एतेहिं समं मंतेति विरहे / एसा मंतिपरिसा / 'लोइय' त्ति, परिसा / इयाणिं राहस्सिया। सा रोहणिज्जा य / अस्स विभासा कुविया तोसेतव्वा, रयस्सला वारअण्ण( वार-कण्ण? )मासत्ता। छण्ण घगासे य रहे, मंतयते रोहिणिज्जेहिं // 385 // "कविया०" गांधा / जा देवी रुट्ठिया रण्णो तं रोहणिज्जा णिवेदेति / ते वा पेसिज्जति दूता / तीसे १पत्तियाणिमित्तं / तोसेतव्व त्ति पसातेतव्वा / रतस्सल त्ति ऋतुस्नाता, तं रोहणिज्जा कहेंति / जीसे वा तद्दिवसं वारओ / कण्ण त्ति, जा कण्णा पत्तजोव्वणा तं पि ते चेव कहेंति / 'आसत्त'त्ति आवण्णसत्ता / अथवा ३अण्णआसत्ता अन्यासक्ता या व्यभिचारिणीत्यर्थः / एयाओ सव्वाओ रोहिणिज्जा कहेंति / अण्णे य जे छण्णा पगासा य रतिकज्जा ते राया रोहिणिज्जेहिं समं मंतेति / 'रोहिणिज्ज'त्ति / वद्धितया अंतेपुरमहत्तरया इत्यर्थः / जहा एसा लोतिया पंचविहा परिसा भवति रण्णो / एवामेव य आयरियस्स वि अम्हं लोउत्तरे पंचविहा परिसा भवति / आवासगमादी या (जा) सुत्तकड पुरंतिया भवे परिसा / दसमादि उवरिमसुता, हवति उ छत्तंतिया परिसा // 386 // "आवासग०" गाधा / आवस्सयं आदि काउं जाव सूतकडं ताव पूरेतिया परिसा। एत्थ ण को ति साधू ५रुब्भति / णवरं पढियतें होतु / दसाओ आदि काउं परेण सव्वा छत्तंतिया परिसा / एत्थ जेहिं पढितं तेसिं जे परिणामता ते ण वारिज्जंति / बुद्धिपरिसा लोइय-वेइय-सामाइएसु सत्थेसु जे समोगाढा / ससमय-परसमयविसारया य कुसला य बुद्धिमती // 387 // "लोइय०" गाधा / कंठा / 'बुद्धिमति' त्ति बुद्धिपरिसा / आह-किं पओयणं बुद्धिपरिसाए ? / उच्यते 1. पत्तियावणनिमित्तं पा० / 2. जद्दिवसं पू० 1, पा० / 3. अण्णं आसत्ता पा० / 4. ०मयहरया पू० 2 / 5. णिरुब्भति पू० 1 / 6. पढियओ पू० 1 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 म्म। बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका आसण्णपतीभत्तं, खेयपरिस्समजतो तधा सत्थे / कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी // 388 // "आसण्णपती०" गाहा / कंठा / पुव्वं संसीलिए सुहं णिग्गिज्झति परप्पवादी / इयाणि मंतिपरिसापुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविधी समणुभूतो। लोए वेदे समए, कतागमा मंतिपरिसा उ // 389 // "पुव्वि पच्छा०" गाधा / अस्स विभासा२गिहवासे अत्थसत्थेहिं कोविया केइ समणभावम्मि / कज्जेसु सिंगभूतं, तु सिंगणादिं भवे कज्जं // 390 // "२गिहवासे०" गाधा / पुव्वि तु गिहवासे पच्छत्ति पव्वज्जाए कोविदा-विपश्चित इत्यर्थः / 'सिंगणाइयं 'ति सव्वेसिं कज्जाणं सिंगभूतं / किं पुण तं सिंगभूतं ? उच्यते तं पुण चेतियणासे, तद्दव्वविणासणे दुविधभेदे / भत्तोवधिवोच्छेदे, अभिवादण-बंध-घातादी // 391 // "तं पुण०" गाधा / 'चेतियणासे 'त्ति ३लोउत्तमघर-पडिमविणासे चेतियदव्वविणासे / दुविहभेद त्ति मारणे उप्पव्वावणे य / जो वा भत्तं ति भिक्खं वारेति, उवधि वा वारेति ‘मा एतेसिं कोति देतु' / जधा वा कोति भणेज्जा-बंभणे अभिवादेह / जो वा बंधेति / जो वा पहारेहिं पिट्टावेति / आदिग्गहणेणं जो णिव्विसए आणवेति अक्कोसावेति वा। एताणि जो पदुट्ठो रातादी करेति / एरिसं सिंगणाइयं भवति / ते य जेहिं लोइय-वेतिय- सामातियसत्थेहिं आगमो कओ, ते मंतिपरिसा भवति / ताधे वितधं ववहरमाणं, सत्थेण वियाणतो निहोडे। अम्हं सपक्खडंडो, ण चेरिसो दिक्खिए डंडो // 392 // "वितधं०" गाधा / रायादि वितधं ववहरमाणं तेन शास्त्रेण विजाणगो उ तस्य शास्त्रस्य सुहं वारेहि त्ति / जधा अम्हं सपक्खदंडो भवति / संघो दंडं करोतीत्यर्थः / ण वि राया “पसीयति ण य दिक्खियस्स एरिसो दंडो भवति / एस मंतिपरिसा / इयाणिं रहस्सिता। का पुण सा ? उच्यते सल्लुद्धरणे समणस्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा / अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा // 393 // 1. संसालिहे सुत्तं पा०, संसालिए पू० 2 / 2. गिहि० पू० 2 / 3. लोउत्तर० पा० / 4. सपक्खो पू० 1-2 / 5. वसायति पू० 2 / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३८८-३९८] 107 "सल्लुद्धर०" गाधा / सल्लो दुविधो-दव्वे भावे य / दव्वे कंटादिसल्लो, भावे मायाणिदाण-मिच्छा / अधवा भावसल्लो मूलुत्तरगुणातिचारो / तं आलोएंतस्स आयरिय-सगासे रहस्सिता परिसा भवति, जाव चउकण्णा आयरियस्स 2, आलोयंतस्स साहुस्स 2, एते चत्तारि साहू जदा आलोयणं पउंजति, गारवपरिवज्जितो गुरुसगासे / एगंतमणावाते, एगो एगस्स णिस्साए // 394 // "आलोयण" गाधा / कंठा / 'गारवपरिवज्जितो' त्ति, गारवेणं ण किंचि गूहियव्वं / तं पुण कहं आलोएयव्वं ? उच्यते विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली णिसेज्जा वा / एस सपक्खे परपक्खें मोत्तु छण्णं णिसिज्जं च // 395 // "विरहम्मि०" गाधा / जत्थ ण कोइ अच्छति छण्णे ठाणे पुव्वं णिसेज्जं काउं पुव्वं उत्तरं चरंतियं वा. दिसं अभिगेज्झ वंदणगं दाउं उकुडुओ पंजलीए अध अरिसालो बहुं च आलोएयव्वं ताधे णिसेज्जं अणुजाणावेति, ताधे आलोएतव्वं / परपक्खो णाम संजती। जया संजतिं संजतस्स आलोएति तदा छण्णं वज्जेति / जत्थ लोगस्स संलोगो तत्थ आलोएति, णिसेज्जं च ण करेति आयरियस्स, अप्पणा वि उद्वितिया ईसिं ओणेता आलोएति / अज्जाण चउकण्णा छक्कण्णा अट्ठकण्णा व त्ति / जता णिग्गंथी णिग्गंथीए आलोएति तदा तह चेव चउकण्णा आलोयणा, जधा णिग्गंथस्स णिग्गंथे / सा पुण आलोयणं पउंजति, गारवपरिवज्जिया उ गणिणीए / एगंतमणावाए, एगा एगाएँ णिस्साए // 396 // "आलोयणं०" गाधा / कंठा / छक्कण्णा कधं ? उच्यतेआलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। अब्बितियथेरगुरुणो, सबिईया भिक्खुणी णिहुता // 397 // "आलोयणं प०" गाधा / कंठा / थेरायरियस्स अब्बितियस्स णिग्गंथी सब्बितिया, णिहुत त्ति ण वि दिसाओ पलोएति जं किंचि वा उल्लावेति / सा पुण केरिसी तीसे बितिज्जिता भवति ? उच्यते णाण-दंसणसंपण्णा, पोढा वयस परिणया। इंगियागारसंपण्णा, भणिता तीसे बितिज्जिया // 398 // 1. पंजली पू० 2, पा० / 2. अण्णोअत्ता पू० 2 / अण्णता पू० 1 / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "णाण-दसण०" गाधा / पोढा णाम जा एगमेगस्स असुभं भावं जाणित्ता ण मंतक्खयं करेति, भणति 'आलोइयं, वच्चामो'त्ति / ण चेव तस्स पासे आलोएति / का? जा य इंगितेणं जस्स जारिसो भावो तं जाणति / सा पुण केदूरे ठाति ? / एगे आयरिया भणंति- . जत्थ आगारादी पासति / अण्णे भणंति-जत्थ सुणति वि / अट्ठकण्णा कधं ? उच्यते आलोयणं पउंजति, एगते बहुजणस्स संलोए। सब्बितियतरुणगुरुणो, सब्बितिया भिक्खुणी णिहुता // 399 // "आलोयणं प०" गाधा / जति तरुणो आलोयणायरिओ तो सो वि सब्बितिओ भिक्खुणी वि सब्बितिया चेव / णिग्गंथीए बितिज्जिता पुव्वभणिया / आयरियस्स बिइज्जिओ केरिसो ? उच्यते णाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं। वयपरिणामेण य अभिगमेण इतरो हवति जुत्तो // 400 // "णाणेण०" गाधा / कंठा / आलउ त्ति बाहिरा चेट्ठा पडिलेहणादि, उवसमो य / गुणसद्दो सव्वाणुवादी / अभिगमो अत्थो / सो वि तद्दूरे चेव ठाति जं पुव्वं भणितं // एसा परिसा वण्णिता // एत्थ कतराए अहिगारो ? उच्यते छत्तंतियाएँ पगतं, जति पुण सा होज्जिमेहि उववेया। तो देंति जेहिँ पगतं, तदभावे ठाणमादीणि // 401 // , "छत्तंतिया०" गाधा / कंठा / सेसाओ परिसाओ उच्चारियसरिसाओ त्ति काउं परूवियाओ / सा छत्तंतिया परिसा जति इमेहिं ति वक्ष्यमाणेहिं गुणेहिं उववेता भवति ता दिज्जति / 'जेहिं पगतंति कप्प-व्ववहारा / तदभावे त्ति अध वक्ष्यमाणेहिं न उववेता तो ठाणमादीणि दिज्जति / आदिग्गहणेणं पइण्णगाणि / के पुण ते गुणा ? उच्यते बहुस्सुते चिरपव्वतिते, कप्पिए य अचंचले। अवट्ठिए य मेधावी, अपरिस्सावी य जे विदू // 402 // पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे। एतारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहति // 403 // "बहुस्सुए०" दारगाधाओ दो / तत्थ पढमं दारं बहुस्सुतो / सोतिविधो बहुस्सुतो खलु, जघण्णतो मज्झिमो उ उक्कोसो। आयारपकप्पे कप्प णवम-दसमे य उक्कोसो // 404 // 1. पुव्वभणितं पा० / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-३९९-४०९] 109 "तिविधो बहु०" गाधा / जहण्णओ बहुस्सुओ आयारपकप्पधरो / 'आयारप्पकप्पो 'त्ति, णिसीहं कप्पे त्ति / मज्झिमो कप्पववहारधरो / उक्कोसो णवम-दसमपुव्वधरो / इयाणि 'चिरपव्वतिए 'त्ति दारं / सो वि चिरपव्वतितो तिविधो, जघण्णतो मज्झिमो य उक्कोसो। तिवरिस पंचग मज्झो, वीसतिवरिसो य उक्कोसो // 405 // "चिरपव्व०" गाधा / तिवरिसपव्वतितो जहण्णओ चिरपव्वतिओ / पंचवरिसपव्वतिओ मज्झिमओ चिरपव्वतितो / वीसवरिसपव्वतिओ उक्कोसो चिरपव्वतितो / बहुसुत चिरपव्वइओ, उ एत्थ मज्झेसु होति अधिगारो। एत्थ उ कमे विभासा, कम्हा उ बहुस्सुओ पढमं // 406 // "बहुस्सुय०" गाधा / एत्थ जो मज्झिमो बहुस्सुओ, जो य मज्झिमो चिरपव्वतितो तेधि अहिगारो / आह-कम्हा बहुस्सुओ पढमं ति ? पढमं ताव पव्वज्जा भवति, ततो 'सुतं, तओ केण कारणेणं बहुस्सुतस्स पुव्वणिवातणं कतं / अत्र क्रमे विभाषा करणीया / २क्रियताम् / उच्यते-जो बहुस्सुतो सो णियमा चिरपव्वतिओ भवति / जेण तिवरिसस्स णिसीहं उद्दिसति / पंचवरिसपव्वतितस्स कप्प-ववहारा, वीसतिवरिसस्स दिट्ठिवातो / इदाणि 'कप्पिए' त्ति दारं / सो दुवालसविधो इमो१. सुत्ते अत्थे तदुभय, उव्वट्ठ विचार लेव पिंडे य / सिज्जा वत्थे पाए, उग्गहण विहारकप्पे य // 407 // "सुत्ते अत्थे०" पडिदारगाधा / तत्थ सुत्तकप्पिओ इमो सुत्तस्स कप्पितो खलु, आवस्सगमादि जाव आयारो। तेण पर तिवरिसादी, पकप्पमादी य भावेणं // 408 // "सुत्तस्स०" गाधा / आवस्सयं आदि काउं जाव आयारो / एत्थ ण कोइ विरुज्झति / परेणं तिवरिसमादि काउं जं जं ववहारे भणितं तं तं तधा उद्दिसति जाव वीसतिवरिसे सव्वसुत्ताणुवाती भवति / णवरं आयारपकप्पमादि काउं जे अववायबहुला अज्झयणा, जे वा अतिसेसिता, ते जता भावेण परिणओ भवति, ३अधिकारि त्ति भणितं होति, तदा उद्दिस्संति / आह-तिसु वरिसेसु अपुण्णेसु आयारे पढिए किं करेउ ? उच्यते सुत्तं कुणति परिजितं, तदत्थगहणं पइण्णगाइं वा। इति अंगऽज्झयणेसुं होति कमो जाहगो णायं // 409 // 1. सुत्तं पा० / 2. क्रियते पू० 2 / 3. अविकारि पू० 2 / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "सुत्तं कुणति०" गाधा / जं पढितं सुत्तं तं परिजियं करेउं, तस्स चेव अत्थं गेण्हउ। पतिण्णगाणि य सुत्तत्थाणि अज्झायति त्ति / एवं अंगाणं अज्झयणाण य जाणि अतिसेसियाणि जाव तेसिं कप्पितो भवति ताव एस कमो / जाहगदिटुंतो पुव्वं भणितो। एवं इमो वि सुत्तत्थाणि सुगहिताणि करेउ / एस सुत्तकप्पिओ / इदाणिं अत्थकप्पिओ सो अत्थस्स कम्पितो खलु, आवासगमादि जाव सूयगडं। मोत्तूणं छेयसुतं, जं जेणऽहियं तदट्ठस्स // 410 // "अत्थस्स०" गाधा / कंठा / सूयगडस्स उवरिं पि छेयसुत्तं मोत्तुं जं जेण पढितयं तो तस्स सव्वस्स अत्थस्स कप्पिओ सोतव्वस्स / छेयसुत्ता पुण पढिता वि जाव अपरिणओ ताव न सुणाविज्जति / जता पुण परिणतो भवति तदा कप्पिओ भवति / अत्थकप्पिओ गओ। इयाणि 'तदुभयकप्पिओ'त्ति दारं / तदुभयकप्पिय जुत्तो, तिगम्मि एगाहिएस ठाणेस। पियधम्मऽवज्जभीरू, ओवम्मं अज्जवइरेहि // 411 // "तदुभय०" गाधा / 'तदुभय'त्ति, सुत्तं अत्थो य / जस्स समयं दिज्जंति सो य जुत्तो त्ति / जो दो वि समत्थो एगसराए घेत्तुं सो उभतकप्पिओ / अधवा-तदुभयकप्पी जुत्तो २तिगम्मि एगाधिएसु ठाणेसु'त्ति / तिगम्मि सुत्तं, ३अत्थो, उभयं / सुत्तातो अत्थो अधिओ, अत्थाओ उभतं अधितं / एतम्मि ततियठाणे 'जुत्तो 'त्ति जोग्गो, सो तदुभयकप्पी / सो य जो "पियधम्म' पच्छद्धं / अधवा तिगम्मि एगाधिएसु ठाणेसु त्ति / 'पियधम्म' इति ग्रहणात् चत्तारि भंगा-१ पियधम्मे णामेगे णो दढधम्मे, 2, दढधम्मे नामेगे णो पियधम्मे, 3 एगे पियधम्मे वि दढधम्मे वि / एयं तियं, चउत्थभंगो अवत्थुमेव / एतम्मि तिगे एगाधिएसु त्ति, पढमभंगाओ बितियभंगे दढधम्मट्ठाणयं अधितं / 2 बितियभंगातो ततियभंगे पियधम्मे दढधम्मट्ठाणयं अधितं, जुत्तो तिगम्मि एगाधिएसु ठाणेसु ततियभंगेनेत्यर्थः / एसेव 'ऽवज्जभीरू' भवइ / जो पियधम्मो दढधम्मो य आवजंति कस्स उवमं ? अज्जवइरेणं / जधा तेण बालभावे कण्णाऽऽहाडियं, पच्छा से उद्दिटुं, समुद्दिटुं, अणुण्णायं / अत्थो य से तहेव बितियपोरुसीए कधिज्जइ / एवं अण्णेण वि होज्जा / पुव्वभवे वि अहीयं, कण्णाहडगं व बालभावम्मि / उत्तममेहाविस्स व, दिज्जति सुत्तं पि अत्थो वि // 412 // 1. परिचितं क० पा० / 2. तिगंति पा० 1, पा० / 3. अत्थं पू० 2 / 4. पियधम्मट्ठाणयं अधितं पू० 2 / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 भाष्यगाथा-४१०-४१५] "पुव्वभवे वि०" गाधा / कंठा / एरिसोभयकप्पितो भवइ ण अण्णो / इदाणि 'उवट्ठावणाकप्पिओ'त्ति दारं अप्पत्ते अकधेत्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा // 413 // "अप्पत्ते अकधेत्ता०" गाधा / अप्पत्तं सुत्तेणं जति उवट्ठावेति चउगुरुगा, तवेण वि गुरुगा कालेण वि / तं पुण किं सुत्तं ? इदाणि छज्जीवणिया, पढमं सत्थपरिण्णा आसि / अह वि सुत्तेण पत्तं अत्थं अकहेत्ता उवट्ठावेति तस्स वि (4) चउगुरुगा कालेणं लहुगा / अध कहियं ण ताव से अधिगतं परितच्छितमित्यर्थः / अधवा अणधिगतो परियच्छितं पि न ताव सद्दहति, तं अणधिगतं उवट्ठावेति ह्व / चतुगुरुगा, तवेणं लहुगा, कालेणं गुरुगा। अध अभिगतं पि अपरिच्छित्ता उवट्ठावेति 4 / तवेण वि कालेण वि लहुगा। इमा विरयणा-४, 4, 4, 4 / एस तवकालविसेसणा / आणादीया दोसा सव्वत्थ / जं सेविहिति' छण्हं जीवणिकायाणं तं उवट्ठावेंतओ पावति / तम्हा पच्छित्तं परियाणामि / आणा अणवत्था मिच्छत्तं विराहणा य परिहरिता भवंति / तेण पढिते य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो / छक्कं तीहिँ विसुद्धं परिहर णवगेण भेदेण // 414 // "पढिते य०" गाधा / सुत्तं पाढेत्ता अत्थं गाहेत्ता जाव सद्दहति, परिच्छित्ता य जाधे परिहरति ‘छक्कं 'ति छज्जीवणिकाए तीहिं ति मण-वयण-काएहिं विसुद्धं ति भावतो न पराणुयत्तीए / नवएण भेदेणं ति, छक्कं मणेण परिहरति 1 परिहरावेति 2 परिहरंतं अणुजाणति .3 / एवं वायाए वि 3 काएण वि 3 / एते तिण्णि तिया णव, ताहे उवट्ठावेतव्वो / आह-अच्छउ ताव उवट्ठावणा कधं चेव पव्वावेतव्वो ? एत्थ छव्विधदवियकप्पो भाणितव्वो। तं जधा पव्वावण मुंडावण, सिक्खावण उवट्ट 3 ज य संवसणा। एसो उ दवियकप्पो, छव्विहतो होति णायव्वो // 415 // ___ "पव्वावण०" गाधा / जो उवट्ठितो 'पव्वामि'त्ति, सो धम्मेण कधिएण वा अकधिएण वा, जता पुच्छा-'परिसुद्धो' ? 'आम' ति अब्भुवगतो तदा पव्वावणा, भण्णति / ताधे पसत्थेसु दव्वादिसु आयरिओ सयमेव अट्टगहणं करेति / एस मुंडावणा। थिरहत्थेण लोए कए रयहरणमप्पेतुं सामातियं से कीरति / णिवेदाविज्जति–'सामातियं मे कयं / इच्छामि अणुसद्धि"। ते भणंति 1. से विराहेति पू० 1 / 2. अत्थं पाढेत्ता अत्थं कहेत्ता पा० / 3. संभुंजणा पू० 2 विना / 4. पव्वाविओ पू० 1-2 / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका णित्थारगपारओ होहि, खमासमणाण य 'गुणेहिं वड्डाहि। ताधे दुविहं पि सिक्खं गाधिज्जति-गहणसिक्खा पाढो, आसेवणासिक्खा सामायारी। जाधे दुविधं सिक्खं गाधियो२ भवति, ताधे उवठ्ठाविज्जति पसत्थेसु दव्वादिसु / दव्वतो-सालिकरण-उच्छुकरण-चेतियरुक्खे वा। खेत्ततो-पउमसरे साणुणादे चेतियघरे वा। कालतो-चउत्थि छट्ठि ३अट्ठमि णवमि बारसीओ वज्जेत्ता / भावतो-अणुकूले णक्खत्ते / जति तस्स न णज्जति तो आयरियस्स अणुकूले सुंदरे मुहुत्ते अधाजातेणं लिंगेणं / तं जधा-रयहरणेणं णिसेज्जादुएणं मुहपोत्तियाए चोलपट्टेण य वामे पासे ठवेत्ता एक्ककं महव्वयं तिण्णि वारे उच्चारिज्जति जाव रातीभोयणं / जति ते दो तिण्णि तिण्णि वा, ताधे जो अभणितो आयरियस्स आसण्णतराओ तस्स रातिणियत्तं, अध उभयतो पासितो जे समा ते दो दो समरातिणिया वतेसु उच्चारितेसु पदाहिणं काउं पादेसु पाडिज्जंति, भणति य-महव्वता मे आरुभिता इच्छामि अणुस४ि / सेसाण वि साधूणं णिवेदेति / ते वि भणंति-णित्थारयपारओ होहि, खमासमणाण य गुणेहिं वड्वाहि / उवट्ठावितस्स य दुविधो संगहो साधुस्स-'अहं ते आयरिओ, अमुगो ते उवज्झाओ।' साधुणीए तिविधो संगहो, ततिया 'अमुता ते पवत्तिणी'। एवं उवट्ठावेउं केसिंचि पंचकल्लाणयं, केसिंचि अब्भत्तटुं, केसिंचि आयंबिलं, केसिंचि निव्वीतं, जं वा जस्स तवोकम्मं, अण्णेसि ण किंचि वि / एवं उवट्ठावितो संभुज्जति। सेहो य पाढिज्जंतो जाव उवट्ठावणं ण पावेति ताव भिक्खं ण हिंडाविज्जति / छज्जीवणियाए इमे अधिकारा कधिज्जंति जीवा-ऽजीवाभिगमो, चरित्तधम्मो तहेव जयणा य। , उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणिकाएँ अहिगारा // 416 // . "जीवा-ऽजीवाहिगमो०" गाधा। जहा-'दसालियाए। गतो उवट्ठावणाकप्पिओ ॥छ। इयाणि 'वियारकप्पिओ' त्ति दारं / वियारो त्ति सण्णाभूमी / एत्थ वि अप्पत्ते अकहेत्ता, अणहिगयऽपरिच्छणम्मि चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा // 417 // "अप्पत्ते०" गाधा / 'अप्पत्ते 'त्ति सुत्तं, तं च सत्तिक्कएसु ओहनिज्जुत्तीए वा / सेसं तहेव विभासितव्वं / वीयाराधिकारेण धी धी धी धी६ / आणादिणो य दोसा, संजमविराहणा। सो अप्पत्तो एगाणिओ पट्ठविओ छसु काएसु वोसिरेज्जा, तण्णिप्फण्णं, जं च उड्डाहं 'काहिति आतोवहातिए वा आयविराहणं पावेज्जा / तम्हा 1. गुरुगुणेहिं खं० / 2. ०क्खं सिक्खाविओ भव० पू० 1 / 3. सत्तमि-अट्ठमि पू० 2 / 4. सिक्खं सिक्खावितो पू० 2 / 5. दसालिए पा० / 6. ह्या ह्वा ह्वा ह्वा पा०, 4, 4, 4, 4 पू० 2 / 7. पत्थवितो पा० / 8. कार्हिति पू० 1 / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 भाष्यगाथा-४१६-४२३] पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ। तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर णवगेण भेदेणं // 418 // "पढिते य०" गाधा। जाधे पढितं सुत्तं, कधितं अत्थओ, अभिगतं णाम सद्दहति / जति य परिच्छिज्जमाणो परिहरति / परिच्छा जधा णिसीधे / तं पुण जति कधं परिहरति ? उच्यते'तिविधं' ति-सच्चित्तं, मीसयं, अचित्तं / अणावात-असंलोगवज्जेसु उवरिमेसु भंगेसु, जं तं मणेणं ण गच्छति 1, ण गच्छावेति 2, गच्छंतं णाणुजाणति 3 / एवं वायाए वि 3 / काएण वि 3 / एते णव चेव भेदा / जं अचित्तं तं पि 'आवात-संलोगदोसोत्ति काउं परिहरिज्जति / भेदा सोहि अवाया, वज्जणया खलु तहा अणुण्णा य / कारणविही य जयणा, थंडिल्ले होंति अहिगारा // 419 // "भेदा सो०" गाधा / 'भेद'त्ति तस्स अचित्तथंडिल्लस्स इमे तिण्णि पंथा अचित्तेण अचित्तं, मीसेण अचित्त छक्क मीसेण / सच्चित्त छक्कएणं, अचित्त चउभंग एक्कक्के // 420 // अचित्तेण पंथेण अचित्तं थंडिलं गच्छेज्जा / मीसेणं पंथेणं अचित्तं थंडिलं गमेज्जा। :: केण मीसएण? इति चेदुच्यते-छक्कायमीसएणं / सचित्तेणं पंथेण अचित्तं थंडिलं गमेज्जा, सो पुण पंथो छक्काएहिं सचित्तो होज्जा / 'अचित्तं 'ति अचित्तं थंडिलं गमेज्जा / एवं मीसयस्स वि तिण्णि पंथा / सचित्तस्स वि तिण्णि पंथा / 'चउभंग एक्कक्के' ति / एतेसिं अचित्त-मीससचित्ताणं एक्ककं चउप्पगारं इमं अणवातमसंलोए, अणवाए चेव होति संलोए। आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए // 421 // "अणावात०" गाधा / एतेसिं पढमं अणुण्णातं, सेसाणि पडिकुट्ठाणि / णिग्गंथीणं ततियं अणुण्णातं / एत्थं च चउत्थं थंडिल्लं वक्खाणेति / आवातं संलोगं च, तं च आवातं संलोगं वा इमेसि होज्जा तत्थाऽऽ-वायं दुविहं, सपक्ख-परपक्खतो उणायव्वं / दुविहं होइ सपक्खे, संजय तह संजतीणं च // 422 // "तत्थावायं०" गाधा / कंठा / परपक्खो निहत्था / .. संविग्गमसंविग्गा, संविग्ग मणुण्ण एतरा चेव / असंविग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिय एयरा चेव // 423 // 1. गच्छेज्जा पू० 1 / 2. चउभंगो, पू० 2 / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका __ "संविग्ग०" गाधा / तप्पक्खिय त्ति, संविग्गपक्खिता / 'एयर'त्ति, असंविग्गपक्खिया / परपक्खे वि य दुविहं, माणुस तेरिच्छगं च णायव्वं / एक्ककं पि य तिविहं, परिसित्थि णपुंसगं चेव // 424 // पुरिसावायं तिविहं, दंडिय कोडुबिए य पागइए। ते सोयऽ-सोयवादी, एमेव णपुंस-इत्थीसु // 425 // दित्तमदित्ता तिरिया, जहण्णमुक्कोस मज्झिमा तिविहा / एमेवेत्थि-णपुंसा, दुगुंछिय-ऽदुगुंछिया णवरं // 426 // "परपक्खे वि य०" गाधात्रयम् / कंठं / किंचि भणामि / 'दित्ते' त्ति दुष्टाः / दुगुंछिता महासद्दियादी / उक्कोसा हत्थिमाई मज्झिमा महिसमादी, जहण्णा एलियादी / एतेसिं तं आवातं संलोगं वा होज्जा / 'भेद'त्ति गतं / इयाणि 'सोधि'त्ति पच्छित्तं / तं आवातं संलोगं वा चउत्थथंडिलं गच्छंतस्स मणुय-तिरिएसु लहुगा, चउरो गुरुगा य दित्ततिरिएसु। तिरियणपुंसित्थीसु य, मणुयत्थि-णपुंसगो गुरुगा // 427 // मणुय-तिरियपुंसेसुं, दोसु वि लहुगा तवेण कालेण / कालगुरू तवगुरुगा, दोहिँ गुरू अद्धोकंती वा // 428 // पागय कोडुंबिय दंडिए य अस्सोय-सोयवादीसु। चउगुरुगा जमलपया, अहवा चउ छच्च गुरु-लहुगा // 429 // [ पागइयऽसोयवादी, पुरिसाणं लहुग दोहि वी लहुगा / ते चेव य कालगुरू, तेसिं चिय सोयवादीणं // 430 // ते च्चिय लहु कालगुरू, कोडुंबीणं असोयवादीणं / तेसि चिय ते चेव उ, तवगुरुगा सोयवादीणं // 431 // दंडिय असोय ति च्चिय, सोयम्मि य दोहि गुरुग चउलहुगा / एस पुरिसाण भणिओ, इत्थि-नपुंसाण वी एवं // 432 // ] 1. अत्र मुद्रित बृ०क०३० पुस्तके (विभाग 1, पृ० 123) श्रीपुण्यविजयमुनिना कृता टिप्पणी एवं"मणुयतिरिएसु' गाथाष्टकं कण्ठयम् / सोधि त्ति गतम्।" इत्यनेन चूर्णिग्रन्थेन चूर्णिकृता "भद्द तिरी पासंडे' 429 गाथां यावत् शोधिद्वारसत्कं गाथाष्टकमावेदितम् इति "पागय कोडुंबिय" इति 427 गाथाटीकायां टीकाकृद्भिः "उक्तं च" इति उल्लिख्य यत् "पागइयऽसोयवादी०" इत्यादि गाथात्रिकं निष्टङ्कितं तत् चूर्णिकारमतेन भाष्यसत्कामिति सम्भावयामः / न खल्वेतत् “पागइयसोयवादी०'' इत्यादिकं गाथात्रिकमस्मत्पार्श्ववर्तिनीषु भाष्यप्रतिषु क्वापि दृश्यते / " एतत्सम्भावनामाश्रित्य एतद्गाथात्रयं अत्र [ Jकृत्वा मूलपाठ रूपेण निर्दिष्टमस्तीति बोध्यम् / / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४२४-४३७] तिरिएसु वि एवं चिय, अदुगुंछ-दुगुंछ-दित्त-ऽदित्तेसु / अमणुण्णेयर लहुगो, संजतिवग्गम्मि चउगुरुगा // 433 // भद्द तिरी पासंडे, मणुयाऽसोएहिँ दोहिँ लहु लहुगा / कालगुरू तवगुरुगा, दोहि गुरू अड्डोंकंति दुगे // 434 // मणुय-तिरिएसु / गाहाष्टकं कंठं / 'सोहि'त्ति गतं / इदाणि अवाया-१दोसा / ते ताव इमें भण्णंति अमणुण्णेतरगमणे, वितहायरणम्मि होइ अहिगरणं / पउरदवकरण दटुं, कुसील सेहादिगमणं च // 435 // "अमणुण्णेतर०" गाधा / 'अमणुण्णाणं'ति २अण्णसंभोइयाणं असंविग्गाण य आवाते केसिंचि आयरियाणं अण्णधा सामायारीओ / ताधे वितधाचरणे तीसे सामायारीए "ण एस सामायारी, इम" त्तिरे अधिकरणं होज्जा / 'इतर त्ति पासत्थादिणो ते पउरेणं दवेणं ४निल्लेवणं करेंति / तं दटुं सेहा आदिग्गहणेणं सुतिवादिणो मंदधम्मा य तेसिं कुसीलाणंतेणं गच्छंति / . णिग्गंथाणं पढम, सेसा खलु होंति तेसि पडिकुट्ठा / दव अप्प कलुस असती, अवण्ण पुरिसेसु पडिसेहो // 436 // तम्हा णिग्गंथाणं पढम अणावातमसंलोगं अणुण्णातं / अध परपक्खावातं वच्चंति, तो 'दवे अप्पे 'त्ति थोवे कलुसे वा 'असति'त्ति विणा पाणएणं गतो होज्जा, ताधे पासित्ता 'अवण्णं' करेज्जा असुतियत्ति डिसेधो नाम मा एतेसिं कोति किंचि वि देतु असुतियाणं। एस दोसो पुरिसावाते भवति / इदाणिं इत्थि-णपुंसावाते सा भण्णंति'आत पर तभए वा, संकाईया हवंति दोसा उ। पंडित्थीसुं गहिते, उड्डाहो पडिगमणमादी // 437 // "आत पर०" गाधा / 'आत'त्ति, साधू संकिज्जेज्जा जधा-एत्थ एस उब्भामेति कं पि। 'पर'त्ति, इत्थिया नपुंसओ वा संकिज्जेज्जा / एते पावकम्मा एतं साधु कामेति / तदुभए त्ति, दो वि परोप्परं एत्थ मेथुणट्ठिता आगता / सो य तत्थ आत-पर-उभयसमुत्थेणं दोसेणं, पंडएणं, इत्थियाए वा सद्धि मेहुणं सेवेज्जा / तत्थ केणति अगारेणं दटुं गहितो, ताधे उड्डाहो / सो य उड्डाहो 1. दोसा सपक्खा वा पू० 1-2 / 2. अण्णं सं० पा० / 3. इमेसत्ति पा० / 4. निल्लेवणकरणं पू० 1-2 / 5. कुसीलाणंते पू०१-२॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका त्ति काउं पडिगमणादीणि करेज्जा / इमे चउत्थथंडिले च्चेव / तिरितावाए दोसा आहणणादी आहणणादी दित्ते, गरहियतिरिएसु संकमादीया। एमेव य संलोए, तिरिए वज्जित्तु मणुएसु // 438 // "आहणणादी०" गाधा / आदिग्गहणेणं मारणं संका मेथुणे / आदिग्गहणेणं पडिसेविज्जा वि / 'एमेव य' पच्छद्धं / चउत्थे थंडिले जं संलोतिज्जति तत्थ तिरिक्खजोणिएसु णत्थि दोसो, 'मणुस्साणं पुरिसित्थि-नपुंसाणं जे आवाते दोसा ते चेव संलोए वि / जइ वि मेधुणे आतादिसमुत्था दोसा कदाति ण होज्जा, तधा वि चउत्थे थंडिले गिहत्था गिहत्थीओ य इमं चिंतेज्जा जत्थऽम्हे पासामो, जत्थ य आयरइ णातिवग्गो णे। परिभव कामेमाणो, संकेयगदिण्णको वा वि // 439 // "जत्थऽम्हे०" गाधा कंठा / किंच कलुस दवे असतीय व, पुरिसालोए हवंति दोसा उ। पंडित्थीसु वि य तहा, खद्धे वेउव्विए मुच्छा // 440 // "कलुस०" गाधा / खद्धं वा सागारियं, कसातियं वा विउव्वितं वा दलृ णपुंसगो इत्थिया वा मुच्छिता वा संता तं साधु उवसग्गेज्जा / चउत्थथंडिलं गतं ॥छ। इदाणिं ततितं आवातं असंलोगं / तत्थ आयसमुत्था तिरिए, पुरिसे दव कलुस असति उड्डाहो / आयोभय इत्थीसुं, अतिति णिते य आसंका // 441 // "आयसमुत्था०" गाधा / कंठा / च शब्दात् नपुंसकेषु च / . , आवातदोस तइए, बिइए संलोयतो भवे दोसा। ते दो वि णत्थि पढमे, तहिँ गमणं तत्थिमा मेरा // 442 // "आवातदोस०" गाधा। 'बितिए' त्ति थंडिले आवाते पच्छित्तं पुव्वभणितं, पुरिसालोए ह्व / इत्थि-णपुंसालोए ह्वा / तम्हा पढमं गंतव्वं / तत्थ णत्थि दोसा / का सा मेरा ? उच्यते कालमकाले सण्णा, कालो तइयाएँ सेसगमकालो। पढमा पोरिसि आपुच्छ पाणगमपुस्फिअण्णदिसि // 443 // "कालमकाले०" गाधा / तत्थ ताव अकालसण्णाए भण्णति-किध वि गंतव्वं ?' तत्थ जति पढमपोरुसीए हवेज्जा तो उग्गाहेत्ता पाणगस्स वच्चति / अध न उग्गाहेति, लोगो३ 1. माणुस्सीणं प० / 2. आतसमुत्था पू० 2 / 3. मासलहू / लोगो पू० 2 विना। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 भाष्यगाथा-४३८-४४६] जाणेज्जा जधा-एस बाहिरे पाणयं गिण्हति त्ति ण देज्जा चउत्थरसयं / उग्गाहिते य इमो गुणो-कोति सड्ढो धावितो३ सद्धाए उप्पण्णाए पडिलाभेज्जा, सो वि लाभो भवति, संका वि न भवति जधा-एस पाणगस्स हिंडति / सो पुण केरिसं पाणगं गेण्हति ? 'अपुष्फितं' अच्छं, सुगंधं / जाधे चउत्थरसयं ण होज्जा ताधे उण्होदकाती गेण्हति / 'अण्णदिसिं'ति, जाए दिसाए सण्णाभूमी ताए दिसाए ण गंतव्वं पाणगस्स / जति ताए दिसाए वच्चति अतिरेगगहणमुग्गाहियम्मि आलोय पुच्छियं गच्छे। एसा उ अकालम्मी, अणहिंडिय हिंडिए काले // 444 // "अतिरेग०" गाधा / तं च अतिरेगं घेत्तव्वं / केत्तियं ? जति दो जंतया तो तहा गेण्हति जधा एगस्स उव्वरति / एवं जत्तिया वच्चंति तत्तियाणं घेत्तुं जधा उवरिं एगस्स उव्वरति तथा घेत्तव्वं / आगतो बाहिं ५पडिसयस्स पाए पमज्जित्ता दंडयं ठवेत्ता इरियावहियं पडिक्कमेत्ता आलोइत्ता दाएत्ता आपुच्छित्ता 'जामो सण्णाभूमि'ति, जति कोति वच्चति उग्गाहणयातो मत्तए तप्पमाणं पाणयं गेण्हति जधा एगस्स ६उव्वरति / ताधे उग्गाहणयं अण्णस्स दातुं दंडयं पमज्जित्ता आवस्सितं काउं वच्चति / एत्थ सव्वत्थ अकरणे मासलहू / एस अकालसण्णाए विधी // इदाणिं कालसण्णं भण्णति-ततियाए पोरुसीए अहिंडितए कालस्स पडिक्कंते जाव ण ताव भिक्खवेला / अधवा हिंडिते समुद्दिढे भायणेसु कप्पिएसु जाव न ताव “उग्गाहति पोरसीए सकालो / अध उस्सूरे भिक्खवेला चिरं वा हिंडिओ ओगाढाए वि / तत्थ पुण काले इमा विही.. कप्पेऊणं पाए, एक्वेक्कस्स उ दुवे पडिग्गहगे। दाउं दो दो गच्छे, तिण्हट्ट दवं च घेत्तूणं // 445 // "कप्पेऊणं" गाधा / कंठा / जे संघाडइल्ला तेसिं एगो दोह'० वि पडिग्गहे धरेति / बितिओ अण्णेण समं जाति / तेसु आगतेसु जे अच्छिताइया ते गच्छंति / इयरे धरति / ते पुण कधं जंति ? अज्जुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु। णिसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वच्चमासज्जा // 446 // 1. बाहिरि पाणयं गि० पू० 2 / बाहिरपाणयं पा० / 2. रसितं पू० 2, पा० / 3. ०ड्डो पहाविओ पू० 2 / 4. ०रसियं पू० 2, पा० / 5. पडितस्स पू० 2 / 6. उव्वरितं पा० / 7. अकारणे मा० पू० 2 / 8. ओगा० पू० 2 / 9. जे संघाडतल्ला पू०१।१०. दोन्नि वि पा०१। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "अज्जुयलिया०" गाधा / कंठा / 'पढमं' थंडिल्लं अणावातमसंलोगं इत्यर्थः / उद्धठिता' ण गेण्हंति डगलए / ते य जे असंबद्धा भूमीए ते आवडणं ति टिट्टियावेत्ता / जो तत्थ विच्चुगादी सो अवसरति / वच्चमासज्जत्ति तेसिं पमाणं वच्चं आसाद्य भवति / जो भिण्णवच्चो सो तिण्णि गेण्हति, अण्णो दोण्णि एगं वा / ताधे थंडिलं गंतुं आलोएउं य दिसा, संडासगमेव संपमज्जित्ता। पेहिय पमज्जिएसु य, जयणाए थंडिले निसिरे // 447 // "आलोएउं०" गाधा / कंठा / 'जयणाए'त्ति "दिस पवणादियाए" [गा० 461] / तं पुण अणावातमसंलोगं थंडिल्लं इमेहि दसहि विसुद्धं णातव्वं / अणावायमसंलोए, परस्स अणुवघातिए। समे अज्झुसिरे यावि, अचिरकालकयम्मि य // 448 // विच्छिण्णे दूरमोगाढेऽणासण्णे बिलवज्जिए। तसपाण-बीयरहिए, उच्चारादीणि वोसिरे // 449 // "अणावातमसंलोगं 1, परस्स अणुवघातियं 2, समं 3, अज्झुसिरं 4, अचिरकालकतं वा 5, वित्थिण्णं 6, दूरमोगाढं 7, अणासण्णं 8, बिलवज्जितं 9 तसपाणबीजरहितं 10, एस एगसंजोगो // इदाणि दुगसंजोगादी संजोगा एग-दु-ती-चउ-पंचग-छग-सत्तग-अट्ठ-णवग-दसगेहिं। संजोगा कायव्वा, भंगसहस्सं चउव्वीसं // 450 // सुद्धाण असुद्धाण य २मिस्सा / तत्थ दुगसंजोगो इमो-अणावातमसंलोगं, परस्स अणुवघातियं, समं, अज्झुसिरं, अचिरकाल जाव बिलवज्जितं, तसपाण-बीयरहितं 2 / अणावातमसंलोगं जाव अणासण्णं बिलवज्जितं तसपाण-बीजरहितं 3 / अणावातमसंलोगं जाव दूरमोगाढं, अणासण्णं बिलवज्जितं तसपाणबीजरहितं 3 / अणावातमसंलोगं जाव दूरमोगाढं अणासन्नं बिलरहितं तसपाणबीजरहितं / एवं पण्णत्ती-वीसइम-सतग-मतेण जाव दससंजोएण भंगसहस्सं चउव्वीसं / इदाणिं ताणि चेव दस पदाणि असुद्धाणि वक्खाणेति-जे य जत्थ दोसा तत्थ आवातं च संलोगं च पुव्वभणितं होति / इयाणि परस्स उवघातितं / तं 1. उद्रुितया पू० 1-2 / 2. मिस्साण तत्थ पू० 2 / 3. होति, ते आता विराधेज्जा / 'उभयंति सण्णा काइयं च तं लुढं / इया० पा० / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४४७-४५५] आता पवयण संजम, तिविधं उवघातितं मुणेयव्वं / आराम वच्च अगणी, घायादऽसुती य अण्णत्थ // 451 // "आता पवयण" गाधा / पच्छद्धेण जधासंखं विभासा / आरामे वोसिरंतस्स आतोवग्घातितं पिट्टणादि / 'वच्च घरे असुतिणो' त्ति पवयणोवघातितं अगणिट्ठाणे संजमोवघातितं, अण्णत्थ अथंडिल्ले अगणिट्ठाणं करेंति' / उज्झंति वा तं सण्णं अथंडिले / विसमे दोसा / विसम पल्लोट्टणे आया, इतरस्स पलोट्टणम्मि छक्काया। झुसिरम्मि विच्छुगादी, उभयक्कमणे तसादीया // 452 // "विसम पलोट्टणे०" गाधा / विसमे साधू पडेज्ज, लुढेज्ज त्ति भणियं होइ, तत्थ आता विराधेज्जा / 'उभयं 'ति सण्णा काइयं च, तं लुढंतं छक्काए विराहेज्जा / एस संजमविराधणा / झुसिरे-आताए विच्चुगादीहिं विराहणा, आदिग्गहणेणं सप्पादी / 'उभयं ति कातितं सण्णाततेहिं अक्कमणे तस-थावराण वहो / एस संजमविराहणा / के रिसं पुण चिरकालकतं ? उच्यते जे जम्मि उउम्मि कंया, पयावणादीहिँ थंडिला ते उ। होति इयरे चिरकया, वासावुत्थे य बारसगं // 453 // "जे जम्मि०" गाधा / जे हेमंते कता ते हेमंते चेव अचिरकालकया थंडिलीभूता इत्यर्थः / जत्थ पुण एगं वासारत्तं सधणो गामो वुत्थो भवति तत्थ बारसवासातिं थंडिलं भवति, परेणं अथंडिलीभवति / इंदाणि वित्थिण्णंहत्थायाम चउरस, जहण्ण उक्कोस जोयणविछक्कं / चउरंगुलप्पमाणं, जहण्णयं दूरमोगाढं // 454 // "हत्थायामं०" गाधा / जहण्णयं हत्थायामं समंततो चउसु वि दिसासु तं चउरंसं३ / इतरं ति उक्कोसं बारसजोयणवित्थिण्णं / तं चक्कवट्टीखंधावारणिवेसस्स / ___इदाणि दूरोगाढं-जहण्णेणं चत्तारि अंगुलाई, जत्थ हेट्ठा अचित्ता भूमी / अर्थादापन्नं, परेण जं तं उक्कोसं पंचअंगुलादि / इदाणिं आसण्णं / तं दुविधं / तत्थ दव्वासण्णं भवणाइयाण तहियं तु संजमाऽऽयाए। आया-पवयण-संजमदोसा पुण भावमासण्णे // 455 // 1. करेति पू० 1-2 / 2. वधेज्जा पा० / 3. चउरस्सं पू० 1-2, पा० / 4. पंचंगुलादि पा० / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "दव्वासण्णं०" गाधा / दुक्कडयं भवणादीणं गृहादीनामित्यर्थः / आदिग्गहणेणं देवउलाणं गामस्स छेत्तस्स पंथस्स रुक्खस्स, जस्स हत्थिपयपमाणमेत्तो खंधो तस्स हत्थो समंततो वज्जेतव्वो / जदि दव्वासण्णे वोसिरति 'ततो संजमोवघातो / ते तं अथंडिले उज्झेज्जा पाणिएण वा २लिंपेज्जा, आतविराहणा पंतावणादि / भावासण्णं णाम ताव अच्छति जाव सण्णा किंचि ण आगच्छति / ताधे अणधितासतो थंडिलं असक्केमाणो गंतुं अथंडिले वोसिरेज्जा, भवणादियाण वा आसण्णे वोसिरेज्जा, ते चेव दोसा / अध अथंडिलं ति वा सागारितं ति वा काउं धरेति तो आतविराधणा भवति / अणधियासेण य लोगपुरओ वोसिरिए वा लेवाडिए वा पवयणोवघातो भवति // बिलसहिते तस-पाण-बीयसहिते य इमा गाधा होंति बिले दो दोसा, तसेसु बीएसु वा वि ते चेव / संजोगतो य दोसा, मूलगमा होति सविसेसा // 456 // "होति बिले०" गाधा / दो दोस त्ति आतविराधणा संजमविराधणा य / जे बिले जीवा ते सण्णाते काइयाए या वधिज्जंति / आताए सप्पादी खाएज्जा / बीएसु संजमविराधणा आयविराधणा य / तेसिं सरगालं छेज्जा, फिल्लुसित्तु वा पडितो भज्जेज्जा / विभासा / एते एक्कक्के दोसा भणिता / इदाणि जे दुगादिसंजोगतो दोसा भवंति, ते मूलगमातोत्ति / एक्कगमसंजोगातो, सविसेस त्ति दुगुणा जाव दसगुण त्ति, उवउंजितुं वत्तव्वा / पंथम्मि य आलोए, झसिरम्मि तसेसु चेव चउलहगा। पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए य ते चेव // 457 // "पंथम्मि य०" गाधा / ५अण्णायरियपरिवाडीए पुव्वभणि पि पच्छित्तं पुणो भण्णति / 'पुव्वभणितं तु जं तं कारग० गाधा / एत्थ विसेसोवलंभो दट्ठव्वो / पंथे पंथासण्णे आलोगे झुसिरे तससहिते, एतेहिं चउलहुगा / सव्वमणूसपुरिसावाते सव्वतिरियपुरिसावाते एतेसु वि चउलहुगा चेव / इत्थि-णपुंसावाए, भावासण्णे बिले य चउगुरुगा। पणगं लहुयं गुरुगं, बीए सेसेसु मासलहुं // 458 // "इत्थि०" गाधा / सव्वित्थितावाते, सव्वणपुंसगावाते, भावासण्णे, बिलसहिते य / एतेसु सव्वेसु चउगुरुगा / "परित्तेहिं बीएहिं पंचरातिदिया लहुगा / अणंतेसु बीयसंकुलेसुं. ते 1. तो पू० 1-2 / 2. लेवेज्ज पू० 2 / 3. काइएण य व० पा० / 4. उवउज्जित्तुं पा० / 5. अण्णायपरि० पू० 2 / 6. पि जं भं पा० / तु जं हं पू० 2 / 7. परित्तेसु बीएसु पा० / 8. अणंतेहिं तेच्चेव गुरूगा पू० 2 / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४५६-४६२] 121 च्चेव गुरुगा। सेसेसु थंडिलेसु सव्वेसु मासलहू / एवं सुद्धं सुद्धेणं जं चण्णं आवज्जति तं सव्वं पावति / जत्थ असामायारिं करेति तत्थ वि मासलहुं / अपमज्जणा अपडिलेहणा य दुपमज्जणा दुपडिलेहा। तिय मासिय तिय पणगं, लहु काल तवे चरिम सुद्धो // 459 // "अपमज्जणा०" गाधा / वोसिरंतो ण पडिलेहेति ण पमज्जति मासलहुं, तवगुरु काललहुं / पडिलेहेति न पमज्जति मासलहु, कालगुरु / पमज्जति ण पडिलेहति मासलहुं, दोहिं वि लहुं / इदाथि पडिलेहेति, पमज्जति / तत्थ दुप्पडिलेहितं दुप्पमज्जितं पंचराइंदिया लहुगा, तवगुरुगा काललहू / दुप्पडिलेहिए सुपमज्जिते पंचराइंदिया लहुगा, तवलहुगा कालगुरू / सुप्पडिलेहिते दुप्पमज्जिए पंचराइंदिया लहुगा / सुप्पडिलेहिए सुप्पमज्जिते सुद्धो। खुड्डो धावण झुसिरे, तिक्खुत्तो अपडिलेहणा लहुगो। घर-वावि-वच्च-गोवय-ठिय-मल्लगछडणे लहुगा // 460 // "खुड्डो धावण" गाधा / अण्णपरिवाडीए पुव्वभणितं तु गाधा / खुड्डलओ धावणदोसो भवति पलोट्टणदोंसो इत्यर्थः / 'कूवे वोसिरति वावीए वोसिरति वा, घरे वोसिरति वच्चघरे वच्चोवरिं वा, गोप्पदे उद्रुिततो वा वोसिरेति, मल्लए वोसिरित्ता छड्डेति / एतेसु सव्वेसु चउलहुगा। अवाय त्ति गतं / इदाणि वज्जणत त्ति, इमाणि वजंतेण विहीए वोसिरितव्वं / दिस-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमज्जिऊण तिक्खुत्तो। जस्सुग्गहो त्ति काऊण, वोसिरे आयमे वा वि // 461 // उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माएँ णिसीचरा अभिवडंति / घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवण्णो उ॥४६२॥ "दिस पवण०" गाधा / "दिस''त्ति / "उत्तर" गाधा / उत्तर-पुरत्थिमा य दिसा पुज्जा लोगस्स, तासु अवण्णो भवति / "जम्म''त्ति दाहिणा, तीए रत्तिंचरा देवा चरंति, ताधे ताए दिसाए रत्तिं पिटुंतो न कायव्वो / मा छलेज्जत्ति / जतो पवणो ततो पिटुंतो ण कातव्वो। लोगो भणति-एतं चेव अग्घाति / अरिसाओ वा खुब्भंति / सूरिए गामे य तेणं पिटुंते कज्जमाणे अवण्णो भवति / लोगो भणति-लोउज्जोयकरं गाम वा अभिर्णितुरे एंति / एते 1. घरे पू० 2 / 2. अभिभूएंति पा० / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका चत्तारि वि दारा एगगाधाए चेव गता भवंति। “छायाए" [गा० 461] त्ति संसत्तग्गहणी पुण, छायाए णिग्गयाएँ वोसिड। छायाऽसति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहुत्तगं चिट्ठे // 463 // "संसत्त०" गाधा / कंठा / पमज्जिऊण तिक्खुत्तो त्ति, अप्पडिले हितस्स अप्पडिलेहणे अपमज्जणे दुप्पडिलेहिए दुप्पमज्जिए य पुव्वुत्तं पच्छित्तं / वोसिरंतस्स य उवगरणस्स इमा विधी उवगरणं वामगऊरुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे / तत्थऽण्णत्थ व पुंसे, तिहिं आयमणं अदूरम्मि // 464 // "उवगरणं०" गाधा / दंडगं रयहरणं च वामे ऊरुम्मि ठवेति, मत्तओ दाहिणहत्थे, डगलया 'डब्बहत्थे / तिहिं ति णावापूरेहिं आयमति णिल्लेवेति / णावा पसती ! जइ दूरे आयमती उड्डाहो / कोति पासित्ता चिंतेति–ण चेव णिल्लेवितं तो गतो / जति तं पढमं थंडिल्लं अविहीए वच्चति तो इमं पच्छित्तं छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टण परियावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं // 465 // "छक्काय०" गाधा / पुढविक्कायं संघट्टति मासलहुं, परियावेति मासगुरुं, उद्दवेति चउलहुगं / एवं जाव 'परित्त' वणस्सतिकाए / एवं एकेकेणं दोहिं मांसगुरूए आढवेत्ता चउगुरूए ठाति, एवं जाव अट्ठहिं सपदं / अणंतवणंस्सइकाए मासगुरुए आढवेत्ता चउगुरुए ठाति / एवं जाव सत्तहिं दिवसेहिं सपदं / बेइंदिए चउलहुए आढवेत्ता छल्लहुए ठाति / एक्कसि जाव छहिं सपदं / तेइंदिए चउगुरूए आढवेत्ता छगुरूए ठाति, पंचहिं सपदं.। चउरिदिए छल्लहुए आढवेत्ता छेदे ठाइ, चउहिं सपदं / एगं पंचेंदियं संघट्टेति छग्गुरु, परितावेति छेओ, उद्दवेइ मूलं, तिहिं वाराहिं चरिमं / 'वज्जण'त्ति गतं / इयाणि "अणुण्णा कारणविहीए [गा० 419] परिपाट्या इत्यर्थः / पढमिल्लुगस्स असती, वाघातो वा इमेहिँ ठाणेहिँ। पडिणीय तेण बाले, खेत्तुदग णिविट्ठ थी अपुमं // 466 // "पढमिल्लुग०" गाधा / भवे कारणं ण गच्छेज्जा वि पढमं थंडिलं / असति त्ति नत्थि पढमं थंडिलं / अधवा होतयं पि इमेहिं वाघातितं-पडणीतो तत्थ अच्छति / पंथे वा तेणया दुविधा-उवगरणतेणा सरीरतेणा य / वाला वा तत्थ होज्जा सप्पादी / खेत्तं वा जातं, उदएणं वा 1. दव्व० पू० 2 / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४६३-४६९] 123 तं अकंतं / गामो वा णिविट्ठो तत्थ, वतिया वा, खंधावारो वा, इत्थी वा तत्थ, अपुमो वा, मेधुणट्ठियाणि संजते एंते पडिक्खंति / पढमासति वाघाए, पुरिसालोगम्मि होति जयणाए। मत्तग अपमज्जण डगल कुरुअ तिविहे दुविहभेदो // 467 // "पढमासति०" गाधा / एवं असति वाघाते वा पढमस्स कत्थ गंतव्वं ? / उच्यतेबितियं. थंडिलं अणावातसंलोगं संजयाणं अण्णसंभोतियाणं संविग्गाणं गंतव्वं / तस्सासति अमणुण्णाण चेव आवातं गंतव्वं / तत्थ अपरिणता पुव्वं चेव गाहितव्वा / जधा-केसिंचि आयरियाणं विसरिसाओ सामायारीओ। तो तुब्भे ते मा पडिचोएज्जाह, तुब्भे वि तेहिं चोइया उदासीणा होज्जाध / एवं असंखडादयो दोसा परिहरिया भवंति / असति अमणुण्णावातस्स पासत्थादीणं जं आलोगं तं जंति / तस्सासति तेसिं चेव पासत्थादीणं आवातं वच्चंति / तत्थ खुड्डादी अपरिणता य पुव्वं गाहेतव्वा / जहा-एते णिद्धम्मा इत्यादि विभासा / तं तुब्भे मा चित्ते करेज्जाध-'एतं सुंदरं'ति / संजतिसंलोगावातं सव्वपयत्तेण परिहरेज्जा / तत्थ 'संगारदिण्णउ त्ति संकादी, आत-परोभयसमुत्था य दोसा / एसा सपक्खजतणा / ___इदाणि परपक्खजतणा-पासत्थादियावातस्स असति "पुरिसालोगम्मि होति जतणाए"। एत्थ 'जयण'त्ति वाक्यं पडितं / तिविधं ति–पुरिसा इत्थीओ नपुंसगा / दुविध भेद त्ति-एतेसिं २एक्केको असोयवादी य सोयवादी य / अधवा दुविधभेदो-सावगा असावगा य / अधवा तिविधभेदो-थेर मज्झिम तरुणा / अधवा तिविधा पायाऽवच्चकुडुंबिया डंडिया य। एवं इत्थि-णपुंसगाण वि भेदो / एत्थ जा पुरिसालोगे जतणा सा पुरिसावाते वि। तेण तं पुरिसावाते चेव भणीहामि लाघवत्थं / तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवायं / इत्थि-णपुंसालोए, परम्मुहो कुरुकुया सा य // 468 // "तेण परं०" पुव्वद्धं / 'तेण परं' ति, पुरिसालोगस्स परतो असति सोयवादीणं तत्थ जतणा / 'मत्तग'त्ति पत्तेयमत्तएहिं पउरं दवं गेण्हंति, डगलादी ण पमज्जंति, कुरुकुचं च करेंति। मट्टियादीहिं मत्तगस्स य बाहिरकप्पं करेंति / असति ताधे "इत्थि-णपुंसालोए" पच्छद्धं / सोयवादीणं संलोगे परम्मुहो कुरुकुचा / सा एव // . तेण परं आवातं, पुरिसेतर-इत्थियाण तिरियाणं / तत्थ वि य परिहरेज्जा, दुगुछिए दित्तऽदित्ते य // 469 // "तेण परं०" गाधा / कंठा / तदसति आवातं पाता-ऽवच्चादीणं, इत्थि–णपुंसाणं 1. ०वातं सं० पा० खं० / 2. संगारा० पू० 2 / 3. एक्केक्का पू० 2, पा० / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका वच्चति / अस्स व्याख्या तत्तो इत्थि-णपुंसा, तिविहा, तत्थ वि असोयवाईणं / तहियं च सद्दकरणं, आउलगमणं कुरुकुया य // 470 // इत्थि-णपुंसावाते, जा उण जयणा उ मत्तगादीया / पुरिसावाए जयणा, सच्चेव उ मत्तगादीया // 471 // "तत्तो इत्थि ण." गाधाद्वयम् / 'आउल'त्ति वृन्देण २सद्ददद्दराणि उल्लावित्ता वच्चंति / हत्थारंडिं च करेत्ता सव्वत्थ / पढमं असोयवादीसु, पच्छा सोयवादीसु वि जतणाए। एवं ताव अचित्तं थंडिलं चउप्पगारं अचित्तेणं पंथेणं गम्मतित्ति गतं / इदाणिं तं चेव मीसेणं पंथेणं अववादेणं गमेज्जा / ताधे एतं चेव सचित्तेणं पंथेणं अववादेणं चेव 'गमेज्जा / इदाणिं मीसं थंडिलं, तं पि अणावातादि चउव्विधं / तस्स वि अच्चित्तादी तिण्णि पंथा। एत्थ गाधा ६अच्चित्तेणं मीसं, मीसं मीसेण छक्कमीसेणं। सच्चित्तछक्कएणं, मीसे चउभंगिग पदेसे // 472 // "अच्चित्तेणं मीसं०" गाधा / एत्थ मत्तएहिं जतिंतव्वं / असति मत्तयाणं वोसिरंताण वा सागारियं परिढुवेत्ताण वा, ताधे धम्मत्थिकायादिपदेसे णिस्सा काउं वोसिरति / एतं अववाते पत्ते / एवं भवति चउभंगिय त्ति / अणावातादिअसंलोगे चउव्विधे वि / इदाणि सच्चित्तं थंडिलं, तं पि आवातादि चउव्विधं / एतस्स वि अचित्तादी तिण्णि पंथा अच्चित्तेण सचित्तं, मीसेण सचित्त छक्कमीसेण / सच्चित्त छक्कएणं सचित्त चउभंगिय पदेसे // 473 // "अच्चित्तेण०" गाधा / कंठा। पढित सुत गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तौ परिहरति। आलोयाऽऽयरियादी, आयरिओं विसोहिकारो से // 474 // "पढित सुत०" गाधा / जम्हा अयाणए पच्छित्तं भवति तम्हा पढियं जेण सुतं च 1. विभासा पा०, पू० 2 / 2. सहरविड्डराणि पा० / सद्दरवद्दराणि पू० 1 / 3. उल्लावेंति पू० 2 / 4. करेंता पू० 1-2 विना / 5. गम्मेज्जा पू० 2 / 6. सच्चि० पू० 2 / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४७०-४७९] 125 गुणितं वा. भवतु अगुणितं वा, धारितं वा भवतु अधारितं वा, णवरं उवउत्तो १परिहरितो कप्पिओ चेव भवति / पुणरवि पठ्यते / पढिएण वा, अपढिएण वा, सुएण वा असुतेण वा, गुणिएण वा, अगुणिएण वा, धारिएण वा, अधारितेण वा, थंडिलसुत्तेणं उवजुत्तो वा, अणुवयुत्तो वा जं विराधणं करेति, आलोएति आयरियस्स / आदिग्गहणेणं असति आयरियस्स अण्णस्स वि उवज्झायादिणो आलोएति / आलोइज्जंते आयरिया पच्छित्तं देंति तेण सुद्धो भवति / 'वियारे'त्ति दारं गतम् / इदाणि लेवे त्ति अप्पत्ते अकहेत्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा // 475 // "अप्पत्ते अकहेत्ता०" गाधा / सुत्तं पाएसणा ओहणिज्जुत्तिगाहातो वा / एतं अप्पत्तं जति लेवस्स पेसेति तं चेव पच्छित्तं गाधाए, चर्चा पूर्ववत् / चोदओ वदति अज्जक्कालिय लेवं, वयंति अवियाणिऊण सब्भावं / ते वत्तव्वा लेवो, दिट्ठो तेलोक्कदंसीहिं // 476 // अज्जकालियलेवो कहं पुण ? उच्यते आता पवयण संजम, उवघाओ दिस्सए जओ तिविहो / तम्हा वयंति केई, ण लेवगहणं जिणा बेंति // 477 // "आता पवयण०" गाधा / केइ त्ति चोदकाः / स्यान्मति:-कहं पुण आत-पवयणसंजमाणं उवग्घाओ भवति ? / उच्यते रधपडण उत्तमंगादिभंजणा घट्टणे य करघातो। अह आयविराहणया, जक्खुल्लिहणे पवयणम्मि // 478 // "रधपडण०" गाधा / कंठा / 'घट्टणे 'त्ति २भाणे दिण्णे लेवे घट्टएणं घट्टेतस्स / 'यक्ष' . इति श्वा, तेण अक्खो उल्लिहितो / इमो वि तम्मि चेव गेण्हेज्जा / गमणाऽऽगमणे गहणे, तिट्ठाणे संजमे विराहणया / महि सरि उम्मुग हरिया, कुंथू वासं रयो व सिया // 479 // "गमणागमणे०" गाधा / 'महि'त्ति, पुढवी / 'सरि'त्ति, णदी / तीए भोम्मो आउकाओ होज्जा / उम्मुग त्ति, कदादि सागडिएहिं अगणिकाओ उद्दीविओ होज्जा, तं 1. परिहरउ पू० 2 / 2. भायणे दिन्नं लेवं घुट्टएणं पा० / दिन्ने लेवघट्टएणं पू० 1 / हाणे दिण्णे पू० / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका संघट्टेज्जा / 'यत्राग्निस्तत्र वायुः', कुंथुमादिणो य पाणा लेवे लग्गया होज्जा / एतेण कारणेणं आता-पवयण-संजमाणं विराधणा / किंच, जधा पिंडेसणा-पाणेसणातो' भणियातो, ण एवं लेवेसणा / आयरिओ भणति-जे एवं भणंति ते अवियाणित्तूण सब्भावं / ते वत्तव्वा-लेवो अज्जकालितो न भवति, जेण दिट्ठो तेलोक्कदंसीहिं / कधं पुण ? उच्यते-जेण पाएसणाए तिविधं पायं भणितं अधाकडादि / एत्थ अप्पसपरिकम्माणं अवस्स लेवेण कज्जं / जं च ओहणिज्जुत्तीए इहं च लेवेसणा भणिया, तम्हा लेवो दिट्ठो तेलोक्कदंसीहिं / जं च भणसिआतोवघातादी दोसा, हे चोदक ! / तेसिं दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाएँ कीरए तेसिं / पाते उ अलिप्पंते, ते दोसा होतऽणेगगुणा // 480 // "दोसाणं०" गाधा / कंठा / 'अणेगगुण'त्ति अणेगप्पगारा, ते आयादीणं उवग्घाता भवंति / कधमिति चेत् ? उच्यते उड्डादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए / दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि // 481 // "उड्डादीणि०" गाधा / कंठा / किंच, जधा२पवयणोवघाता अण्णे, वि अत्थि ते उ जयणाएँ कीरंति। आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को णु // 482 // , "पवयणोवघाता अण्णे वि०" गाधा / कंठा / जधा अंबिलाऽऽयमणं काइयायमणं अणायमणं पात्रभोयणं मंडलीभोयणं चेति / / खंडम्मि मग्गियम्मी, लोणे दिण्णम्मि अवयवविणासो। , अणुकंपादी पाणम्मि होति उदगस्स उविणासो // 483 // "खंडम्मि०" गाधा / अलित्ते पाते कम्मिइ कज्जे खंडे मग्गिते अविरतियाए 'खंड'ति काउं अणाभोगेणं सैंधवादिलोणं दिण्णं, ताधे अलित्ते अंबे भायणे तं पुढविक्कातियं विद्धंसति / 'अवयव'त्ति, अंबावयवेहिं अधवा पाणए मग्गिते अणुकंपाए सा अविरतिया ‘एते उदगस्स सायं न जाणंति' त्ति उदगं देज्जा / आदिशब्दादनाभोगेणं / वताणि वा से भज्जंतु, ताधे अंबावयवेहि आउक्काओ विद्धंसिज्जति / पूतलियलग्ग अगणी, पलीवणं गाममादिणं होज्जा। रोट्टपणगा तरुम्मि, भिगु-कुंथादी य छम्मि // 484 // 1. पादेसणातो पा० / 2. पवयणघाया पा० मु० / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४८०-४८८] 127 - "पूतलिय०" गाधा / काएति अविरतियाए सइंगाला पूयलिया दिण्णा होज्जा, ताधे अंबाऽवयवेहिं विद्धंसति / अधवा तं चेव पादं डहेज्जा, ताधे अचेतंतस्स पलित्तं होज्जा। सहस त्ति छड्डिए वतिमादीहिं पलित्ताहिं गामो १डज्झेज्जा / आदिग्गहणेण गाउयदुगुणा दुगुणं डझेज्जा, वाउक्कातो वि तत्थेव / वणस्सतिविराधणा-अतिछड्डाणं३ रोट्टो दिण्णो होज्जा, सो विद्धंसति अंबभावेणं / पणओ वा भिग्गूहिँ सम्मुच्छेज्जा, सो अण्ण-पाणेणं विराहिज्जति / तसकायविराधणा ४भिग्गूहि कुंथू जाता होज्जा, ते अंबभावेणं विराधिज्जंति / "छट्टम्मि" त्ति तसकाए / एवं छह वि कायाणं विराधणा अवस्सं / पातग्गहणम्मि उ देसियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता। तम्हा उ आणणा लिंपणा य लेवस्स जयणाए // 485 // "पातग्गहणम्मि०" गाधा / कंठा / चोदगो भणति-जति जतणाए कातव्वा आणणादी तो अहं जतणं भणामि जेण एते दोसा ण भवंति / आणणे ताव हत्थोवघातो, तम्हा गंतूण लिंपणा। हत्थोवघाय गंतूण लिंपणा सोसणा य हत्थम्मि / सागारिए पभू जिंघणा य छक्कायजयणाए // 486 // "हत्थोवघाय०" दारगाधा / 'गंतूण लिंपण'त्ति अस्स पविभासा चोयगवयणं गंतूण लिंपणा आणणे बहू दोसा। संपातिमादिघातो, अहिउस्सग्गो य गहियम्मि // 487 // "चोयग०" गाधा / आदिग्गहणेणं असंपातिमाण वि / अहिओ य कतादि होज्जा, तांधे 'उस्सग्गो 'त्ति पारिट्ठावणिया भवति / आयरितो भणति एवं पि भाणभेदो, वियावडे अत्तणो उ उवघातो। निस्संकियं च पायम्मि गेण्हणे इयरहा संका // 488 // "एवं पि भाण." गाधा / ६उद्विततो लेवं घेत्तुं घेत्तुं भाणे छुब्भति, तत्थ वियावडस्स विछुडेज्जा / एवं ताव भाणभेदो भवति / आतोवघातो कधं ? सगडेण खुत्तिएणं अभिहम्मेज्जा। किंच पवयणोवघातो वि / ते पच्चक्खमेव पासंता जाणंति-एतेण असुतिणा लिप्पंति त्ति / इतरधा संका भवति–कि पात्रस्य उत पादस्य दुक्खंतस्स त्ति / 'गंतूण लिंपण' त्ति गतं। 1. डहेज्जा पू० 2 / 2. नास्ति पू० 2 / 3. अतिच्छडाणं पू० 2 / 4. भिगूहि पू० 2 / 5. व्याख्या पा० / 6. उद्घट्ठियतो पा० / 7. जाव पू० 2 / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका इयाणि 'सोसण'त्ति दारं जति णेवं तो पुणरवि, आणेउं लिंपिऊण हत्थम्मि / अच्छति धारेमाणो, सद्दवणिक्खेवपरिहारी // 489 // चोदगो भणति–जति एते दोसा तो आणेउं लिंपतु / किं पुण लिंपित्ता ? जं अहं भणामि तं कज्जउ / "चोदेति पुण" १गाधा / कंठा / २"सद्दवणिक्खेवपरिहारं' इच्छंतो एवं करेउ / आयरिओ भणति एवं पि हु उवघातो, आयाए संजमे पवयणे य। मुच्छादी पवडते, तम्हा उण सोसए हत्थे // 490 // "एवं पि हु उव०" गाथार्द्धम् / कधं आतादीणं विराधणा? उच्यते-सो चिरं अच्छितो हत्थओ धरेतो ताधे मुच्छाए पडितो, खाणुगादीसु आवडितस्स आतविराधणा / संजमे-जे पवडतो विराधेति / पवयणे-पडतो असुतियम्मि पडेज्जा / जम्हा एते दोसा तम्हा न सोसेतव्वं हत्थे / एत्थ य सव्वत्थ चोदगस्स अधाछंदो त्ति काउं चउगुरुगा आत-पवयण-संजमाणं / एवं आयरिओ सीसं पडिभणिऊणं अप्पणो जतणसामायारिं भणति दुविहा य होंति पाता, जुण्णा य णवा य जे उ लिप्पंति / जुण्णे दाएऊणं, लिंपति पुच्छा य इयरेसिं // 491 // "दुविहा०" गाधा / ते दुविधा पादा जे लिप्पंति जुण्णा य णवाय / तत्थ जे णवगा ते आपुच्छित्ता आयरियं अवस्सं लिंपितव्वं ति काउं लिंपति चेव / इयरत्ति णवा / जे पुण जुण्णा ते अवस्सं आयरियाणं दातव्वा / जधा–४एरिसो लेवो खमासमणो ! लिंपामि त्ति / जति ण दाएति, "मासलहुं / को दोसो अदाइते ? / उच्यते पाडिच्छग-सेहाणं, णाऊणं कोई आगमण मायी। दढलेवे वि उ पाए, लिंपति मा तेसि दिज्जेज्जा // 492 // अहवा वि विभूसाए, लिंपति जा सेसगाण परिहाणी। अपडिच्छणे य दोसा, सेहे काए यतोऽदाए // 493 // "पाडिच्छग०" गाधा / कंठा / “अधवा" गाधा / परिखुत्थएत्ति जुण्णओ त्ति काउं अजुण्णयं चेव लेवं विभूसाणिमित्तं लिंपंति / तम्मि लित्ते भाणेण विणा जा सेसगाण साधूणं 1. गाथेयं बृ०भाष्यसत्का स्यादिति सम्भाव्यते / 2. सद्रवनिक्षेपः परि० पू० 1-2, पा० / 3. एवं होउव० पू० 2 / 4. एसेरिसो पू० 2 / 5. मासं पू० 2 / 6. परिखुडओ त्ति पा० / 7. पू० 1-2 नास्ति / 8. लिंपति पू० 1-2 / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४८९-४९८] 129 परिहाणी तं प्रावति सो, जो सो मायी लिंपति / मा पडिच्छगाणं सेहाणं वा दिज्जिहिन्ति / तत्थ पादेहिं विणा जं पाडिच्छगाण पडिच्छिज्जंति तण्णिप्फण्णं, णाण-दसण-चरित्ताण य वोच्छेओ। 'सेहे'त्ति सेहो उवट्ठितो जा अभाणएणं विराधणा / जं सो अपव्वाविज्जंतो कातविराहणं करेति, तण्णिप्फण्णं / जम्हा एते दोसा अदाइए तम्हा दाएतव्वं / दाएत्ता काए विधीए लेवो दातव्वो घेत्तव्वो वा ? उच्यते पुव्वण्हे लेवगमं, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं। लेवस्स आणणा लिंपणा य जयणाएँ कायव्वा // 494 // पुव्वण्हें लेपगहणं, काहं ति चउत्थगं करेज्जाहि / असहू वासियभत्तं, अकारऽलंभे व दितियरे // 495 // 'पुव्वण्हे' गाधा / अस्स विभासा / "पुव्वण्हे लेवगह०" गाधा / साधुणा काउसग्गे चेव चिंतेतव्वं "किं अज्ज भाणाणि लिंपितव्वाणि ण व त्ति ?" / ताधे जति लिंपितव्वाणि ता पुव्वण्हे लेवगहणं रेकाहिति, चउत्थं करेति / अध ण सक्केति अब्भत्तटुं काउं तो दोसीणं गेण्हति / अध ण उवकरेति ण वा लब्भति दोसीणो तो इयरे साहुणो हिंडित्ता मज्झण्हे देंति, पोरिसिं ण करेति / कतकितिकम्मो छंदेण छंदितो भणति लेव घिच्छामि / तुब्भं वियाणिमट्ठो, आमं तं कित्तियं किं वा // 496 // सेसे वि पुच्छिऊणं, कयउस्सग्गो गुरूण णमिऊण / मल्लग-रूए गेण्हइ, जति तेसिं कप्पितो होति // 497 // "कतकितिकम्मो०" गाधाद्वयम् / आयरियाणं वंदणयं दातुं भणति-संदिसध ! / आयरिया भणंति-छंदेणं / ताधे छंदिओ संतो भणति-लेवं गेण्हीहामो त्ति / आयरिए सेसे य साधुणो भणंति-तुब्भ वि अट्ठो, आणेज्जा / तत्थ जो भणति आमं, तं भणति-केत्तियं कं वा लेवं ? अट्ठतस्स इतरं चेत्यर्थः / जं भणति तं इच्छामि त्ति भणित्ता उवओगकाउसग्गं करेत्ता गुरुं पनमित्ता संदिसावेत्ता 'आवस्सिताए' त्ति काउं जति पात-वत्थाणं कप्पितो भवति, तओ चेव मल्लयं रूवं च गेण्हइ / अध अकप्पिओ, तो गीयत्थपरिग्गहिते, अयाणओ रूय-मल्लए घेत्तुं / छारं च तत्थ वच्चति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा // 498 // 1. अप्पव्वा० पू० 1-2 विना / 2. व्याख्या पा० / 3. काहंति पू० 2 / 4. हिंडंता पू० 2 विना। * 5. णमिउं पू० 2 / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "गीयत्थ०" गाधा / कंठा / इदाणिं जं तं हेट्ठा भणितं 'सागारिए'त्ति / अस्स व्याख्या वच्चंतेण य दिटुं, सागारिदुचक्कगं तु अब्भासे / तत्थेव होइ गहणं, ण होति सो सागरियपिंडो // 499 // "वच्चंतेण य०" गाधा / कंठा / 'अब्भास' विसेसणं कीरति ‘मा सागारियपिंडो'त्ति काउं वोलेहिति' / 'पभु'त्ति गंतुं दुचक्कमूलं, अणुण्णविज्जा पभुं तु साहीणं / एत्थ य पभु त्ति भणिए, कोई गच्छे णिवसमीवं // 500 // किं देमि त्ति णरवई, तुब्भं खरमक्खिया दुचकित्ति / सो य पसत्थो लेवो, एत्थ य भद्देयरा दोसा // 501 // "गंतुं दुचक्क०" गाहा / णाणुण्णवेति, मासं / तम्हा पच्छित्तभीरुणा अणुण्णवेत्तव्वो / को इति चेत् ? उच्यते-पहू अणुण्णवेयव्वो त्ति काउं कोति चिंतेति-रायं मोत्तुं को अण्णो पभू, तो रायं चेव अणुण्णवेमि त्ति रण्णो सगासं गंतुं धम्मलाभेति / तत्थ राया भणेज्जा-'किं देमि?' / साधू भणति-तुब्भं सगडाणि तेल्लेण उवंगिताणि तेसिं जं होति तेण चोक्खो लेवो भवति, तं अणुजाणह मे / एत्थ 'भद्देयरा दोसा' / इतरे त्ति पंतदोसा / भद्दओ भणेज्जा-"अहो णिम्ममत्ता भगवंतो जे एतं पि अयाचितं न गेण्हंति" / ताधे भणेज्जा-मम विसए सगडाणि तेल्लेण उवंगितव्वाणि / पंतो भणेज्जा-अहो असुइणो नगरं सव्वं धरिसितं ति पदूसेज्जा घोसावेज्जा वा, जधा-मम रज्जे ३मा कोति तेल्लेण सगडाणि उर्वजउ त्ति, घयेण उवंजध / पडहओ भमितो। तम्हा दुचक्कपतिणा, तस्संदिद्वेण वा अणुण्णाते / कटुगंधजाणणट्ठा, जिंघे णासं अघट्टतो // 502 // "तम्हा दुच०" पुव्वद्धं / जम्हा एते भद्द-पंतदोसा तम्हा णाणुण्णवेतव्वो राया / को अणुण्णवेतव्वो? जो तस्स सगडस्स, अधिपती, जो वा तेणं संदिट्ठतो, तमणुण्णवेत्ता / जिंघणा य त्ति / अस्स विभासा / कडुगंधजाणणट्ठा णासेण अच्छिवंतो ओसिंघति तेल्लस्स कडुओ गंधो। इदाणि 'छक्कायजतणत्ति दारं / हरिते बीऍ चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए / पुढवी संपातिमा सामा, महावाते महियाऽमिते // 503 // 1. वोलेहिति पू० 2 / 2. मक्खियव्वाणि पा० / 3. ण पू० 2 / 4. ०ण्णातो ता० / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-४९९-५०५] 131 "हरिते." दारगाधा / 'हरिए बीए' त्ति / अनयोर्व्याख्या'हरिते बीएसु तहा, अणंतरे परंपरे य बिचउक्के / आता दुपदं च पयट्टितं तु एत्थं तु चउभंगो // 504 // "हरिते०" गाधा / हरितेसु साधू अणंतरपतिट्ठितो णो परंपरपतिट्ठितो वा चउभंगो। एवं बीएसु वि चउभंगो / हरितेसु भंडी अणंतरपतिट्ठिता णो परंपरपतिट्ठिता चउभंगो / एवं बीएसु वि चउभंगो / बि चउक्क त्ति साधुम्मि हरितेसु एगो चउभंगो, बितिओ बीएसु। एवं भंडीए वि दो चउभंगा भणिता / "आता दुपतं च पतिद्रुितं ति एत्थं पि चउभंगा" / दो इति वाक्यशेषः। 'आय'त्ति साधू / हरितेसु साधू भंडी त अणंतरपतिट्ठिताणि णो परंपरपतिट्ठिताणि चउभंगो / एवं बीएसु वि चउभंगो // इदाणि एतेसिं चेव पच्छित्तं भण्णति चउरो लहुगा गुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुयं / छसु परितऽणंत मीसे, बीजे य अणंतर परे य // 505 // "चउरो०" गाधा / जत्थ परित्तेसु हरितेसु साधू अणंतरपतिट्ठितो णो परंपरपतिट्ठिओ, तत्थ ह / जत्थ वि परंपरपइटिओ णो अणंतरपतिट्टिओ तस्स वि ह / ततियभंगे अणंतरपरंपरपतिट्ठितो दो चउलहूणि, चरिमो सुद्धो / एवं भंडीए वि / परित्त-हरितेसु अणंतरपइट्ठिताए परंपरपतिट्ठियाए य, आदिमभंगेसु दोसु दो३ चउलहू / ततियभंगे दो चउ लहूणि, चरिमे सुद्धो / जत्थ परित्त-हरिएसु साधू भंडी य अणंतरपतिट्ठियाणि णो परंपरपतिट्ठिताणि, एत्थ आदिमभंगेसु दोसु दो दो चउलहूणि / तइयभंगे चत्तारि चउलहूणि / . चरिमे सुद्धो। जत्थ अणंताणि हरिताणि तत्थ तिसु वि चउभंगेसु एते चेव चउगुरुगा / चरिमेसु तिण्ह वि सुद्धो / जत्थ मीसयाणि हरिताणि तत्थ एतेसु चेव ठाणेसु परित्तेसु मासलहू, अणंतेसु मासगुरू। चरिमेसु तिण्ह वि सुद्धो / बितिएसु परित्तेसु सचित्तेसु मीसेसु वा तेसु चेव भंगेसु पंचरातिदिया लहुगा / चरिमेसु तिण्ह वि सुद्धो / अणंतेसु पंचरातिदिया गुरुगा। चरिमेसु 3 सुद्धो / छसु त्ति छसु चउभंगेसु / अधवा छसु त्ति परित्त-हरिएसु सचित्तेसु 1 अणंतहरिएसु सचित्तेसु 2 परित्तहरिएसु मीसेसु 3 अणंतहरिएसु मीसेसु 4 परित्तबीएसु 5 अणंतबीएसु 6 / इमं सेसदारपच्छित्तं / 1. हरिते बीएँ पतिट्ठिय, अणंतर परंपरे य बोधव्वे / परिताणते य तहा, चउभंगो होति नायव्वो // 501 // [वृत्तौ स्वीकृतः पाठः // ] 2. पा० प्रतौ न / 3. पू० 2 नास्ति / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका चल-जुत्त-वच्छ-महिया-तसेसु सामाएँ चेव चतुलहुगा। दव्वचल साण गुरुगा, मासो लहुओ उ अमियम्मि // 506 // "चल-जुत्त०" गाधा / एस वक्खाणिज्जंतेसु चेव दारेसु भण्णिहिति / तत्थ चलं दुविधं दव्वे भावे य चलं, दव्वम्मी दुट्टियं तु जं दुपयं / आयाएँ संजमम्मि य, दुविहा उ विराहणा तत्थ // 507 // "दव्वे भावे०" गाधा / दव्वचलं नाम जं सगडं दुट्ठितं तहिं गेण्हति, चतुगुरू / 'आतविराहण' त्ति काउं / आतविराहणा-सगडे रेखुइते अभिहतो मरेज्जा / संजमविराहणासंचालिज्जंते पाणजातितविराधणा भवति / भावचल गंतुकामं, गोणाईअंतराइयं तत्थ / जुत्ते वि अंतरायं, वित्तसचलणे य आयाए // 508 // भावचलं ३जं गंतुकामं जोतिज्जितुकामं इत्यर्थः / तत्थ जाव लेवो घेप्पति ताव अंतराइयं होति, गोणाणं चारि-पाणियस्स निरुद्धाणं / आदिग्गहणेणं मणुस्साण वि / तम्मि भावचले गेण्हति चउलहुगा / चले त्ति गतं / इताणि 'जुत्ते 'त्ति, दारं। 'जुत्ते' वि 'पच्छद्धं / जुत्तं णाम जं जुत्तयं बइल्लेहिं गच्छंत वारेत्ता जति गेण्हति चउलहुगा / सो चेव अंतरायदोसो / अण्णो य इमो-तें बइल्ला वित्तसेज्जा, तत्थ भंडीए चालियाए चलणो अक्कमेज्जा, आयविराहणा संजमविराहणा य / तसातिपाते एत्थ वि ह्व। ___ इताणिं वच्छ-साणा दो वि दारा एगट्ठा ५भण्णंति / जम्मि सगडे वच्छो बद्धो जत्थ वा साणो ठिएल्लओ बद्धओ वा / एत्थ वच्छे ह्वा / साणे ह्वा / को दोसो ? उच्यते वच्छो भएण णासति, भंडिक्खोभे य आयवावत्ती। आया पवयण साणे, काया य भएण णासंते // 509 // "वच्छो भएण०" गाधा / कंठा / जो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमो उ उदग पुढवीए / जलट्ठिए, पुढवी य, दो वि दाराणि एगगाहापुव्वद्धेण भणति / 'जो चेव' पुव्वद्धं / 1. गाथेयं मु० टीका प्रतौ क्र० 508 रूपेण दृश्यते / 2. खुत्तिए पू० 1, पा० / 3. पू० 2, पा० नास्ति / 4 ०हिं गच्छति तं ठवावेत्ता ज० पू० 1-2 / 5. भणति पू० 2 / 6. दारे गाहद्धेणं भण० पा० 2 / 7. सोच्चेव पू० 2 / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५०६-५१५] 133 जधा हरिएसु प्ररित्तेसु सचित्तेसु मीसएसु त भंगा पच्छित्तं च भणितं, तधा एत्थ वि भाणियव्वं / . संपातिमा तसगणा, सामाए होइ चउभंगो // 510 // "संपातिमा साम''त्ति / के पुण ते संपातिमा न ज्ञायन्ते किं त्रसाः स्थावरा वेति ? १अत्रोच्यते-संपातिमा तसगणा न स्थावरा / तेसु संपातिमेसु पडतेसु जति गेण्हति चउलहुगा / "सामाए होति चउभंगो" त्ति / सामा रत्ती / तत्थ रत्तिं गेण्हेत्ता रत्तिं देति लेवं भाणस्स चउलहुगा / दोहिं वि गुरुगं / रत्तिं गेण्हित्ता दिवसतो देति चउलहुगा / तवगुरुगा काललहू। दिवसतो गेण्हित्ता रत्तिं देति चउलहुगा ह 4 / तवलहुगा कालगुरू / दिवसतो गेण्हित्ता दिवसतो देति सुद्धो / असुद्धे जेण असुद्धो तमावज्जति / 'महावाए महिताए अमिते य' एते दारे एगटे चेव गाहाए भणति वायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए / नाणुण्णायं गहणं, अमियस्स य मा विगिचणया // 511 // वायम्मि वायमाणे संपतमाणा य वा वि महिताए २धूमियाए त्ति भणियं होति / ण मितो अमितो / महावाते तस-थावराणं तदुद्धताणं वधो भवति / महावाते गेण्हति चउलहुगा / महिताए वि चउलहुगा / अमितुं गेण्हति मासलहुं / एतद्दोसविमुक्त, घेत्तुं छारेण अक्कमित्ताणं / चीरेण बंधिऊणं, गुरुमूल पडिक्कमाऽऽलोए // 512 // "एतद्दोस०' गाधा / जे एते हरितादयो दोसा भणिता, एतेहिं विमुक्कं ‘मा संपातिमाणं वधो भविस्सति' तेण छारेण अक्कमितव्वं / सेसं कंठं / दंसिय छंदिय गुरु सेसए य ओमत्थियस्स भाणस्स / काउं चीरं उवरिं, रूयं च छुभेज्ज तो लेवं // 513 // गुरु सेसएसु त्ति, आयरियं सेसे य साहुणो, छंदेतुं ति निमंतेडे, जस्स अट्ठो तस्स दाउं, पच्छा ओमंथितस्स / कंठं / अंगुट्ठ-पएसिणि-मज्झिमाहिं घेत्तुं घणं ततो चीरं। आलिंपिऊण भाणं, एक्कं दो तिण्णि वा घट्टे // 514 // अण्णोण्णे अंकम्मि उ अण्णं घट्टेति वारवारेणं / आणेति तमेव दिणे, दवं रएउं अभत्तट्ठी // 515 // 1. अत उच्यते पू० 2 / 2. भूमि० पू० 2 / 3. ओमत्थियस्स पू० 1-2, पा० / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 [पीठिका बृहत्कल्पचूर्णिः // अभतट्ठीणं दाउं, अण्णेसिं वा अहिंडमाणाणं / हिंडेज्ज असंथरणे असती घेत्तुं अरड्यं तु // 516 // ण तरिज्जा जति तिण्णि उ, हिंडावेउं तओ णु छारेणं / ओयत्तेउं हिंडति, अण्णे व दवं से गिण्हंति // 517 // लित्थारियाणि जाणि उ, घट्टगमाईणि तत्थ लेवेण / संजमभूतिणिमित्तं, ताइं भूईएँ लिंपिज्जा // 518 // एवं लेवग्गहणं, आणयणं लिंपणा य जयणा य / भणियाणि अतो वोच्छं, परिकम्मविहिं तु लित्तस्स // 519 // लित्ते छाणिय छारो, घणेण चीरेण बंधिउं उण्हे। उव्वत्तण परियत्तण, अंछिय धोवे पुणो लेवो // 520 // . काउं सरयत्ताणं, पत्ताबंधं अबंधगं कुज्जा। साणाइरक्खणट्ठा, पमज्ज छाउण्हसंकमणा // 521 // तद्दिवसं पडिलेहा, कुंभमुहाईण होइ कायव्वा / : छण्णे य निसिं कुज्जा, कयकज्जाणं विवेगो उ // 522 // अट्टगहेउं लेवाहियं तु सेसं सरूवगं पीसे / अधवा वि ण दायव्वो, सरूयगं छारे तो उज्झे // 523 // "अंगुट्ठ०" गाधाओ दस कंठाओ // पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्जित्ता / पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा // 524 // उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादि-साणरक्खट्ठा / वावारेति व अण्णे, गिलाणमादीसु कज्जेसु // 525 // एक्को य जहण्णेणं, बिय तिय चत्तारि पंच उक्कोसा / संजमहेउं लेवो, वज्जित्ता गारव विभूसं // 526 // अणवटुंते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। तज्जाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं तु जं धोवे // 527 // "पढम-चरिमाओ०" गाधा / सिसिरो''त्ति हेमंतो / तम्मि पढमाए पोरिसीए Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५१६-५३२] उग्घाडाए उण्हे दायव्वं भायणं / 'चरिमे 'त्ति चउत्थी, ताए अणोगाढाए पडिपवेसितव्वं / सेसं कंठं // अण्णो तज्जातलेवो, सो केरिसो ? / उच्यते-"तज्जात सचोप्पडगं घट्ट रएतुं तु जं धोवे"॥ तज्जाय-जुत्तिलेवो, दुचक्लेवो य होइ णायव्यो। मुद्दियणावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्ठो // 528 // तज्जातलेवो णाम जं लाउयादिपादं तेल्लादिणा २सचोप्पडं तत्थ य धूली बहुती लग्गिता, तं घट्टेत्ता रएत्ता कप्पे कए तज्जायलेवो भवति / आह-कतिविधो लेवो ? उच्यतेतिविहो / “तज्जातजुत्ति०" पुव्वद्धं / अस्स विभासा जुत्ती उ पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सण्णिही काउं॥ दय सुकुमाल असण्णिहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो // 529 // "जुत्ती उ०" गाधा / आदिग्गहणेणं सक्करा ३किट्टो केयारमट्टियादी / सव्वेसु एतेसु सगडलेवो सुंदरो / जेण तम्मि सुकुमालत्तणओ पाणजातीया दीसंति / तेसु दीसमाणेसु दया कीरति / एतेण कारणेणं सगडलेवो. सुंदरो / भिज्जेज्ज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे। मुद्दियणावाबंधे, ण तेण बंधेण बंधेज्जा // 530 // "भिज्जेज्ज०" पुव्वद्धं / "असतिए" त्ति, जं अण्णस्स पातस्स ताधे बंधणविधि भणति / "मुद्दिय०" पच्छद्धं / कंठं / आह-किं संजमणिमित्तं लेवो दिज्जति ? अह विभूसणनिमित्तं ? उच्यते संजमहेउं लेवो ण विभूसाए वयंति तित्थयरा / सति-असतीदिटुंतो, विभूसाए होंति चउगुरुगा // 531 // "संजम०" गाधा / संजमहेउं पुण लेवे दिज्जमाणे जति सोभा भवति तो वि संजमो चेव / जधा सतीए तुल्ले विभूसणे कुलायारणिमित्तं अदोसं / इयरीए जारतोसणणिमित्तं सदोसं। एवं जधा सति(ती)-असतीओ तहा साहू, जधा विभूसणं तहा लेवो / जधा कुलायारो तहा संजमो / जधा जारतोसणं तधा असंजमो / सेसं कंठं / खर अयसि-कसंभ सरिसव, कमेण उक्कोस मज्झिम जहण्णो। णवणीए सप्पि वसा, गुले य लोणे अलेवो उ॥५३२॥ 1. ततो धोवे पा० / धावे पू० 2 / 2. चोप्पडं पू० 2 / 3. कुट्टो पू० 2 / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तों परिहरति / आलोयायरियादी, आयरिओं विसोहिकारो से // 533 // खरसण्ह(ण्ण?)एण उक्कोसो, अतसि-कुसुंभेहिं मज्झिमो, सरिसवतेल्लेण जहण्णो, नवणीय-सप्पि-वसाहिउवग्गे' अलेवो / रेगुड-लोणभरिएसु सगडेसु खरसण्होवंगेसु वि अलेवो / ण घेत्तव्वो त्ति भणितं होति / सेस कंठं / लेवकप्पिओ समत्तो ॥छ।। इदाणि पिंडकप्पितो / चिरं आयारग्गपिंडेसणातो / इदाणि दसवेतालितपिंडेसणाओ / सुत्तं एतं अप्पत्ते अकहेत्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहिं गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा // 534 // पढिए य कहिय अहिगय, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। .. तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर णवगेण भेदेण // 535 // "अप्पत्ते०" गाधा / विभासितव्वा पिंडाहिगारेणं / "तिविधं" ति उग्गमअसुद्धं / उप्पादणअसुद्धं / एसणाअसुद्धं / एतं तिविहं तीहि मणेण ण गेण्हति ण गेण्हावेति गेण्हतं णाणुजाणति / एवं वायाए वि, काएण वि / एते तिण्णि तिया णव / एत्थ पिंडणिज्जुत्ती सव्वा विभासितव्वा / सा सट्ठाणे च्चेव विभासिज्जिहिति / इहं पुण• पच्छित्तं भण्णति उग्गमदोसाणं सोलसण्हं, सोलसण्ह य उप्पायणादोसाणं, दसण्ह य एसणादोसाणं / तत्थ ताव सोलसण्हं उग्गमदोसाणं भण्णति गुरुगा अहे य चरमतिग मीस बायर सपच्चवायहडे। कड पूइए य गुरुगो, अज्झोयरए य चरमदुगे // 536 // "गुरुगा०" गाधा / आधाकम्मं गेण्हति चउगुरुगा // 'चरिम तिय'त्ति, उद्देसियं दुविधं-ओहेण विभागेण य / विभागो बारसविधो / तं जधा-उद्देसितं, कडं, कम्मं / उद्देसितं चउव्विधं / तं जधा-उद्देसितं समुद्देसितं आदेसितं समादेसितं / कडं पि चतुव्विधं / तं जधाउद्देसकडं समुद्देसकडं आदेसकडं समादेसकडं ति / कम्मं पि चउव्विधं / तं जधा-उद्देसकम्म समुद्देसकम्मं आदेसकम्मं समाएसकम्मं ति / एते तिण्णि चउक्कया बारस / एतेसु पुण जं जावंतियं तं उद्देसं भण्णति / जं पासंडाणं तं समुद्देसं भण्णति / जं समणाणं तं आदेसं भण्णति। जं ३णिग्गंथाणं उद्दिस्स कीरति तं समादेसितं भण्णति / एतम्मि बारसविधे विभागुद्देसिए जं चरिमं तिगं समुद्देसकम्मं आदेसकम्मं समादेसकम्मं, एतम्मि चउगुरुगा तवकालविसेसिया ह्वा / ह्वा / ह्वा / ' 'मीस'त्ति, मीसजातं / तं तिविधं / जावंतियमीसं, 1. उवम्मि अले० पू० 1 / ०हि उवंगिते अ० पा० / ०हि उवंजे पू० 2 / 2. गुल० पू० 2 / 3. निग्गंथे पा० / 4. 4.44 पू० 2 / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५३३-५३८] 137 पासंडियमीसं, सघरमीसं / एत्थ पासंडिमीसजाते सघरमीसजाते गुरुगा / 'बादर'त्ति, पाहुडिता दुविधा-सुहुमा बादरा य / एत्थ बादराए गुरुगा ह्वा / 'सपच्चवाताहडे' त्ति / अभिहडे जत्थ जत्थ सपच्चवायाभिहडं तत्थ तत्थ चउगुरुगा / एते ताव जेसु जेसु गुरुगा ते ते उग्गमभेदा भणिता / इदाणिं जेसु जेसु मासगुरुं ते ते भणति / कडे चउव्विधे वि मासगुरू तवकाल विसेसितं : / : / : / : / 'पूतिए यत्ति, भावपूतियं दुविधं-सुहुमं बादरं च / सुहुमे णत्थि पच्छित्तं / बादरं दुविधं-उवकरणे भत्ते य / एत्थ भत्त-पाणपूतीए मासगुरुं / अज्झोवरए य चरिमदुए त्ति / अज्झोयरयं तिविधं-जावंतियअज्झोयरयं पासंडअज्झोयरयं सघर-अज्झोयरयं / एत्थ पासंडअज्झोयरए सघरअज्झोयरए य मासगुरुं : / : / एते ताव गुरुगा पच्छित्ता गता / इदाणि लहुगपच्छित्ता जत्थ जत्थ तं भण्णति ओह-विभागुद्देसे, चिरठविए पागडे य उवगरणे। लोगुत्तर पामिच्चे, परियट्टिय कीय परभावे // 537 // सग्गामभिहडि गंठी, जहण्ण जावंति ओयरे लहुओ। इत्तरठविए सुहमा, पणगं लहुगा य सेसेसु // 538 // "ओह-विभागु०" गाधाद्वयम् / ओहुद्देसिए मासलहुं / विभागुद्देसिए उद्देसिए समुद्देसिए आदेसिए समादेसिए य मासलहुं, तवकालविसेसियं / मासलहुं : / : / : / : / ठवितं दुविधं-चिरठवितं, इत्तरठवितं च / एत्थ चिरठविए मासलहुं / पागडकरणं दुविधंपागडकरणं, पगासकरणं च / तत्थ पागडकरणे मासलहुं / उवगरणपूतीए मासलहुं / पामिच्चं दुविधं-लोइयं लोगुत्तरं च / तत्थ लोउत्तरियपामिच्चे मासलहुं / परियट्टियमवि दुविहं-लोइयं लोउत्तरं च / तत्थ लोउत्तरपरियट्टिए मासलहुं / कीतं पि दुविधं-दव्वकीतं भावकीतं च / दव्वकीतं दुविधं आतदव्वकीतं परदव्वकीतं च / एवं भावे वि / एत्थ परभावकीते मासलहुं / 'सग्गाम अभिहडे' त्ति, सग्गामाभिहडे मासलहुं / 'गंठि' त्ति पिहिदुब्भिण्णं-जत्थ गुलघतादिभायणस्स पोत्तेण वा चम्मेण वा ओहाडेत्ता दोरेणं गंठी दिण्णेल्लिया गंठिमुद्दा वा / एत्थ मासलहुं / मालोहडं दुविधं-जहण्णयं उक्कोसयं च / एत्थ जहण्णमालोहडे मासलहुं, जावंतिएअज्झोवरए मासलहुं / एतं ताव जत्थ जत्थ मासलहुं तं तं भणितं / इदाणिं जत्थ जत्थ पंचरातिदिया तं तं भण्णति-इत्तरठविते पंचरातिदिया / 'सुहमे 'त्ति सुहुमपाहुडियाए पंचरातिदिया / "लहुगा य सेसेसु" त्ति, जे अण्णे उग्गमदोसा तेसु सव्वेसु 1. 4 0 पू० 2 / 2. ठविकं पू० 2 / 3. पादोकरणं पा० / पाओकरणं पू० 1-2 / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका चउलहुगा / तं जधा–१ उद्देसियकम्मे 2 जावंतियमीसजाए 3 पगासकरणे 4 आतदव्वकीते 5 परदव्वकीते 6 आतभावकीते 7 पामिच्चे लोतिए, 8 परियट्टिते लोतिए 9 परगाममभिहडे णिप्पच्चवाए 10 पिहिओभिण्णे 11 कवाडुब्भिण्णे 12 उक्कोसमालोहडे 13 अच्छिज्जे 14 अणिसिटे / एतेसु सव्वेसु चउलहुगा / उग्गमो समत्तो / छ / इदाणि उप्पादणादोसेसु सोलससु पच्छित्तं भण्णति दुविह णिमित्ते लोभे, गुरुगा मायाएँ मासियं गुरुयं / सुहुमे वयणे लहुओ, सेसे लहुगा य मूलं च // 539 // "दुविह णिमित्ते०" गाधा / निमित्तं तिविधं-तीयं, पडुप्पण्णं, अणागतं च / एत्थ पडुप्पण्णे अणागते य निमित्ते लोभे य चउगुरुगा / मायाए मासगुरुं / 'सुहुमे' त्ति सुहुमतेगिच्छे वयणसंथवे य मासलहुँ / जे अण्णे उप्पायणदोसा तेसु चउलहुगा / णवरं मूलकम्मे मूलं. / इदाणि दससु एसणादोसेसु पच्छित्तं भण्णति / संकिए पणुवीसाए दोसाणं जं संकइ तमावज्जति / मक्खिते' ससिणिद्धे, पणगं लहुगा दुगुंछ संसत्ते / उक्कुट्टऽणते गुरुगो, सेसे सव्वेसु मासलहू // 540 // "मक्खिते ससि०" गाधा / तत्थ ताव पुढविकाइयसंसरक्खमक्खितेणं हत्थेणं मत्तेण वा गेण्हति पंचरातिदिया / आउक्काएणं ससिणिद्धेणं हत्थेणं गेण्हति पंचरातिदिया / अचित्तमक्खितेणं विष्ठा-मूत्र-मद्य-मांस-लसुन-पलंडुमादीहिं दुगुंछिएहिं मक्खिएणं गेहति चउलहुगा। अचित्तेहिं गुल-घय-तेल्लादीहिं कीडियासंसत्तेहिं मक्खितेणं हत्थेणं ३मत्तेण वा गेहति चउलहुगा / पुरेकम्म-पच्छकम्मेहिं चउलहुं / उक्कुट्टकतेण अणंतेणं मासगुरू / एवं सण्णिरे वि अणंते मासगुरू / 'सेसेसु' त्ति, परित्तउक्कुट्ट-सण्णिरेसु मासलहुं / मीसएणं सव्वत्थ मासलहुँ। "परित्तेणं अणंतेणं मासगुरुं / सव्वेसु मासलहुं ति मट्टियालित्तहत्थाणं जत्तिया भेदा सेडियादि तेसु सव्वेसु मासलहुं / णिक्खित्ते इमा गाधा चउलहुगा चउगुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुगं / छसु परितऽणंत मीसे, बीए य अणंतर परे य // 541 // चउलहुगा० गाहा / परित्तसचित्तअणंतरपतिट्ठियं गेण्हति ह्र / परंपरपतिट्ठितं गेण्हति 01, मीसते अणंतरे 0 / , परंपरे पंचरातिदिया लहुगा, अणंते एते च्चेव पच्छित्ता गुरुगा। बीएसु परित्तेसुं अणंतरे परंपरे वा पंचरातिदिया लहुगा / अणंतेसु गुरुगा / तसकाए अणंतरपतिट्ठिसे ह्र। ___ 1. अणिसटे पू० 2. / 2. ससरक्खे ससि० वृत्त्याम् / 3. पू० 2 न / 4. परित्ते अ० पू० 2 / 5. ०परिट्ठियं पू० 2 / - मिश्रे परीत्ते सर्वत्र मासलघु, अनन्ते मासगुरु बृ० क० वृत्तौ / पृ० 156 // Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५३९-५४४] परंपरपतिट्टिते. 0 / अण्णे भणंति-सचित्तअणंतरपतिट्ठियाओ गेण्हति चउलहुगा / परंपरे वि चउलहुगा / एवं परित्ते अणंते अणंतराओ वा परंपराओ वा गेण्हति चउगुरुगा। जत्थ मीसए पतिट्ठियं तत्थ परित्ते मास 0|, अणंते 'मासगुरू / एवं परंपरे वि / बीएसु तहेव। पिहियसाहरणाणि दो वि एगगाहापुव्वद्धेण भण्णति एमेव य पिहियम्मी, लहगा दव्वम्मि चेव अपरिणए। . वीसुम्मीसे पणगं, अणंतबीए य पणग गुरू // 542 // "एमेव०" पुव्वद्धं / जधा णिक्खित्ते पच्छित्तं भणितं एवं जेणं दव्वेणं सचित्ताचित्तमीसएणं पिहितं, तधा एत्थ वि पच्छित्तं / णवरि अचित्तेण गुरुगेण २पिहिते चतु गुरुगा / साहरणं णाम जेण मत्तेण भिक्खं दातुकामो तत्थ जति किंचि छूढयं, तं अण्णत्थ साहरित्ता तेण देति / एत्थ जं दव्वं साहरिज्जति तं जं अपरिणतं तम्मि तं चेव (ह्व) पच्छित्तं, कायनिप्फण्णं वा / गुरुगे अचित्ते ते चेव चउगुरुगा / आयविराधणत्ति काउं दायए पगलिते णपुंसगे य चउगुरुगा / उम्मीसे सचित्तअणंतमीसे ह्र / मीसुम्मीसे मासो त्ति अणंते चेव // सचित्तपरित्तमीसे ह्र / परित्त-मीसुम्मीसे / / 0 // बीयुम्मीसे पणगं, परित्ते अणंतबीए य पणगं गुरुं / पुढविकातियादीहिं तिहिं उम्मीसे जधा णिक्खित्ते पच्छित्तं / २दव्वापरिणए कायनिप्फण्णं, भावापरिणते वि तं चेव / “दोण्हं तु भुंजमाणाणं एगो तत्थ णिमंतए" (दश० अ० 5 गा० 37) एत्थ लित्ते तिसु भंगेसु सट्ठाणपच्छित्तं / चरिमभंगे अणेसणाए चउगुरुगा। छड्डिए तिसु भंगेसु सट्ठाणपच्छित्तं, चरिमे अणाइण्णं ति चउलहुगा / संजोग सइंगाले, अणंतमीसे वि चउगुरू होंति / वीसुम्मीसे मासो, सेस लघुका उ सव्वेसु // 543 // संजोयंणाए अंतो बाहिं च चउगुरुगा / अधवा बाहिं ह्र / पमाणातिरित्तं आहारेति ह। सइंगाले ह्वा / सधूमे ह्वा / णिक्कारणे आहारेति ||0 / 'सेसे लहुगा उ सव्वेसु' त्ति गहणेसणाए घासेसणाए च इत्यर्थः / पिंडकप्पिओ गतो ॥छ।। ___इदाणि सेज्जाकप्पितो / एत्थ वि 'अप्पत्ते अकज्जे(हे)त्ता' सुत्तं / ओहणिज्जुत्तीए केसिं चि णत्थि, तीए / सा य दुविहा [य] होति सेज्जा, दव्वे भावे य दव्व खायाती। साहूहिँ परिग्गहिया, ते च्चेव उ भावओ सेज्जा // 544 // "दुविहा [य] होति सेज्जा०" गाधा / कंठा / तीए भावसेज्जाए / 1. मास // 0 // पू० 2 / 2. पिहितेण पू० 2 विना। 3. दव्वादप० पू० 2 / 4-5. हवंति पू० 2 विना। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका रक्खण गहणे तु तहा, सेज्जाकप्पो उ होइ दुविहो उ / सुण्णे बाल गिलाणे, अव्वत्ताऽऽरोवणा भणिया // 545 // "रक्खण." गाधा / सेज्जाकप्पिओ दुविहो-रक्खणे गहणे य / तत्थ रक्खणं ति वसधी रक्खितव्वा / भिक्खादीणं गच्छंतेहिं जइ सुण्णं करेंति, बालं वा गिलाणं वा अव्वत्तं' वा ठवेंति वसहीपालं तो, आरोवण त्ति पच्छित्तं / तं च इमं पढमम्मि य चउलहुया, सेसेसुं मासियं मुणेयव्वं / दोहि गुरू इक्केणं, चउथपए दोहि वी लहुयं // 546 // "पढमम्मि" गाधा / 'पढमं' ति सुत्तकमपामण्णातो 'सुण्णं भण्णति / सुण्णं जति वसधि करेंति चउलहुगा / दोहिं वि गुरुगा / बालं ठवेंति मासलहुं / तवगुरु काललहुँ / गिलाणं ठवेंति मासलहुं / तवलहुं कालगुरु / 'अव्वत्तो' त्ति अगीतत्थो / तं जइ ठवेंति मासलहुँ। दोहि वि लहुगं, एतं ताव पच्छित्तं भणियं / / इदाणि एतेसिं चेव दोसे भणति / तत्थ पढमं ताव सुण्णे दोसा भण्णंतिमिच्छत्त बडुग चारण भडाण मरणं तिरिक्ख-मणुयाणं / आदेस वाल निक्केयणे य सुण्णे भवे दोसा // 547 // "मिच्छत्त बडुग०" दारगाधा / 'मिच्छत्त'त्ति / अस्स विभासासोच्चा पत्तिमपत्तिय, अकयण्णु अदक्खिणा दुविह छेदो। भरियभरागमणिच्छुभ, गरिहा ण लभंति वऽण्णत्थ // 548 // भेदो य मासकप्पे, जदलंभ विहारादि पावते अण्णं / बहिभुत्त णिसागमणे, गरिह विणासा य सविसेसा // 549 // "सोच्चा पत्ति०" गाधाद्वयम् / ते साधू सुण्णं वसधि काउं गता सव्वभंडगमाताए / सागारिएणं सुण्णा वसधी दिट्ठा / सो पुच्छति-कहिं साधू ? घरेल्लिया भणंति-अवस्स गता। तेसिं सोच्चा जति तस्स पत्तियं भवति जधा-जति गता णाम, तो चउलहुगा / अध से अपत्तियं भवति यथा-'अकृतज्ञा'स्ते निस्नेहा, तो अणापुच्छाए गता / अथवा अदाक्षिण्यास्ते एवं उवयारं चेव ण याणंति जधा आपुच्छितव्वयं, तो चउगुरुगा / दुविधच्छेदो नाम-सो पदुट्ठो तेसिं अण्णेसिं वा साधूणं तद्दव्व-अण्णदव्व-वोच्छेदं वा करेज्जा / ताधे भरिएहिं भाणेहिं आगता सेज्जातरो ण देति ठाउं कसाइतओ, दिया णिछुब्भति ह्र / तेहिं भाणेहिं भरिएहिं ओगलंत 1. असुत्तं वा पू० 1 / 2. पू० 2 प्रतौ न / 3. सुण्णा पू० 1-2 / 4. एवं पा० / 5. दोसा भण्णंति पा० / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५४५-५५२] 141 गलंतेहिं अण्णं वसधि मग्गमाणा आगाढादिपरितावणानिप्फण्णं, ह्र / गरहिज्जंति य, किं 'तुब्भेहि भुज्जएहिं कम्मेहिं णिच्छूढा ? / ताधे अण्णत्थ वि ण लब्भंति। ताधे वसधि अलभमाणा अण्णत्थ वच्चंति / एवं मासकप्पभेदो भवति / तत्थ जा विराधणा तण्णिप्फण्णं / अण्णे य साधू विहारादिणिग्गता, तत्थ य अण्णा वसधी णत्थि / सो य सागारिओ तेसिंचएणं अण्णेसि पि न देति / तत्थ जं ते सावय-तेणादीहिं पावंति तण्णिप्फण्णं / एते ताव भिक्खं हिंडितमेत्ताणं दोसा / अध बाहिं चेव भोत्तुं रत्तिं आगता ण लभंति ह्र / सविसेसतरा य दोसा गरहादिणो, विणासो सावयादीहिं / अधवा सो सम्मदिट्ठीभूतओ पच्छा 'अणापुच्छा गत'त्ति मिच्छत्तं जाएज्जा / इदाणि बडुय त्ति दारं सुण्णं दटुं बडुगा, उभासिते ठाह जइ गया समणा / आगम पवेसऽसंखड, सागरि दिण्णं ति य दियाणं // 550 // संभिच्चेण व अच्छह, अलियं न करेमऽहं तु अप्पाणं / उड्डंचग अहिगरणं, उभयपयोसं च णिच्छूढा // 551 // सागरिय-संजयाणं, णिच्छूढा तेण-अगणिमाईहिं। जं काहिति पदुट्ठा, उभयस्स वि ते तमावज्जे // 552 // "सुण्णं दटुं०" गाधात्रयम् / बडुएहिं सुण्णं वसहिं दटुं सागारितो मग्गितो, भणतिसमणा ठित त्ति / तेहिं २सिटुं-गता ते / सो इतरो भणति-ठाह, जति गता ते समणा / साधू य आगता। आढत्ता पविसिउं जाव रुद्धया / तत्थ असंखडं होज्जा / बडुगा भणंति-अम्हं वसंधी सामिणा दिण्णा / इयरे वि भणंति-अम्हं दिण्ण त्ति / ताधे साधू सागारियसगासं गता। सो भणति-तुब्भे अणापुच्छाए सुण्णं च काउं गता / मए णातं-गता तुब्भे, जेण सुण्णा कता। मए बडुगाणं दिण्णा / 'दिय'त्ति-बडुगा / तो संभिच्चेणं अच्छध एगट्ठा, णाहं अलियं अप्पाणं करेमि / तत्थ जति संभिच्चेणं अच्छंति तो पढंतपडिलेहेन्ताणं संजयभासाहिं य उड्डूंचए करेंति / तत्थ 'अधिकरण' त्ति असंखडं होज्जा / अधवा सो सेज्जातरो भद्दओ ते बडुए णिच्छुब्भेज्जा। ताधे अधिकरणं संजतपओगेणं, "तहेवासंजतं धीरो आस" सिलोगो (दशवै० 7 / 47) / उभयपदोसं ति णिच्छूढा समाणा सागारितस्स संजताणं य जं कार्हिति तेणागणिमादीहिं, 'ते' त्ति संजता जे सुण्णं करेंति तमावज्जति / इदाणि चारण-भडे दो दारे एगटे चेव भणति / - 1. तुब्भे गुत्ते एहि कम्मेहिं णि० पा० / तुब्भेहिं भुग्गएहि क० पू० 1 / 2. ते भणंति पू० 1, पा० / 3. ०पदोसोति पू० 2 / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका एमेव चारण-भडे, चारण उडुंचगा उ अहिगतरा / णिच्छूढा व पदोसं, तेणाऽगणिमाइ जह बडुया // 553 // "एमेव चा०" गाधा / 'एमेव' त्ति बडुएहिं जे दोसा ते चारण-भडेहिं वि / णवरं चारणेसु इमे अहिययरा दोसा, ते पवंचहेडं संजएहितो उडुंचए मग्गंति चेव, तेण ते चियत्ते ण चेव एगतओ अच्छेज्जा / सेसं कंठं / इदाणिं मरणं च तिरिय-मणुयाणं च आएसा य, एते दारे एगढे भणति छड्डणे काउड्डाहो, घाणारिस सुत्तऽवण्ण अच्छंते / इति उभयमरणदोसा, आएस जहा बडुगमाई // 554 // "छड्डुणे काउ०" गाधा / सुण्णं वसहिं पासित्ता तिरिओ गोण-सुणगादी अणाहमणूसो वा पविसित्ता मरेज्जा / तं जति असंजतेणं छड्डावेंति तो छज्जीवणिकायविराधणा / अह अप्पणा छड्डेति तो उड्डाहो / कोति जाणेज्जा एतेहिं चेव मारिओ त्ति / दुगुंछा वा भवेज्जा'असुइणो'त्ति / अह एतेसिं दोसाणं भीता णवि छडेति, णावि छडावेंति, तो रुहिरगंधेणं णासाऽरिसाओ जायंति संजयाणं / अहवा वि असज्झातियं ति काउं सुत्तपोरुसिं ण करेंति ह। अत्थपोरुसिं न करेंति ह / सुत्त-अत्थपोरुसिं अकरेंताणं सुत्तं णासति ह्व / 4, अत्थो नासति / / 4, अवण्णो य भवति-'सुसाणे अच्छंति' त्ति, 'इति' उपप्रदर्शनार्थे / एते अच्छंते य छड्डिज्जंते य दोसा भवंति / 'उभय' तिरिय-मणुयमरणे / “आएस''त्ति पाहुणता, तेसु जे बडुग-चारणभडाणं दोसा ते, मरणं च तिरिय-मणुयाणं / आदेस त्ति य गतं / . इदाणिं वाल-णिकेयणे य दो दारा एगट्ठा भण्णंति अधिगरण मारणाऽणीणियम्मि अच्छंते वालि आतवहो / तिरितीय जहा वाले, सूतिमणुस्सीऍ उड्डाहो // 555 // "अधिगरण०" गाधा / वालो नाम सप्पो / सुण्णं दटुं सो पविट्ठो होज्जा, ताधे आगता समणा / जति णीणेति तो अधिकरणं / कधं ? हरितादीणं मझेणं जाति, सुण्णे वा गिहे पविट्ठो डसेज्जा तप्पयोगेणं / अधवा मारिज्जेज्जा / अध एअदोसभीतारे न णीणेति तो खतिए आतविराधणाऽणागाढादि तण्णिप्फण्णं पच्छित्तं / एते ताव वाले दोसा / अध णिक्केयणे-जति तिरिक्खी णिक्केतिज्जति सा, णियमादितो जे वाले दोसा, अधिकरणं, ३बिल्लगमारणा आतविराधणा भवति / अध "मणुस्सी" सूतित्ति पसूता, तो एतेसिं चेव एतं ति काउं उड्डाहो, णिक्कालिज्जं 1. // 0 // पू० 2 / 2. अध एयभीया पा० / 3. चिक्खल्लगसारणत्ति आयवि० पू० 1 / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 भाष्यगाथा-५५३-५५९] तीए य अधिकरणं / लोगो वा भणेज्जा निरणुकंपा / चेडरूवं वा मरेज्जा छायाघातं वा पदुट्ठा देज्जा ॥छ। छड्डेऊण व जइ गया, उज्झमणुझंति होति दोसा उ। एवं ता सुण्णाए, बाले ठविते इमे दोसा // 556 // "छड्डेऊण व०" गाधा / अधवा सा तत्थ विताइत्ता तं चेडरूवं छड्वेत्ता गच्छेज्जा, तं जति उज्झंति णिरणुकंप त्ति, अध ण उज्झंति उड्डाहो / एते ताव सुण्णाए दोसा / जति पुण एतेसि दोसाणं भीया 'असुण्णं करेमो'त्ति बालं ठवेन्ति, तो इमे दोसा बलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणि भंगे, मालव-तेणा य णाती य // 557 // "बलिधम्म०" दारगाधा / 'बलि' त्ति ते साधुणो कारणे सपाहुडियाए सेज्जाए ठिता होज्जा / ताधे साभाविता तण्णीसाएँ, आगया भंडगं अवहरंति / णीणेमि त्ति व बाहिं, जा पविसइ ता हरंतऽण्णे // 558 // "साभाविता०" गाधा। जे ते बलिकारया एन्ति ते साभावेण वा एज्जा, कइतवेण वा एज्जा। एतेण उवाएण उवगरणं हरामो'त्ति काउं एन्ति / एत्थ जे सभावेण चेव बलिकारया आगता ण वि उवगरणहरणणिमित्तं तेसिं बलिं करेमाणाणं बालं विरहं पासित्ता हरणबुद्धी जाता होज्जा, ताधे हरति / अधवा बलीए उवकरणं लेवाडिज्जति ताधे बालो भणति-बाहिं णीणेमि। ताधे सो णिग्गओ ताव अब्भंतरे उवहिं हरिज्जा / 'साभाविय'त्ति गतं / एमेव कइयवा ते, णिच्छढं तं हरंति से उवहिं। बाहिं च तुमं अच्छसु, अवणेहुवहिं व जा कुणिमो // 559 // - "एमेव०" गाधा / अण्णे पुण धुत्ता उवहिं हरितुकामा भणंति-खुड्डया ! एस बली एति तो तुमं बाहिं णिग्गच्छ / एवं णिच्छोढुं तेरे हरंति से उर्वहिं / अधवा भणंति-अम्हे बलिं करेमो, तो तुमं ताव बाहिं चिट्ठ, मा कूरेण भरिज्जिहिसि / ताधे ते तं उवधि हरति / अधवा भणंतिअवणेहि उवधि अभितरातो, जा अम्हे बलिं कुणिमो / सो य बालो तं कज्जं अयाणमाणो बहुं च उवगरणं अचएमाणो एक्कसराते णीणेतुं, थेवं घेत्तुं णिग्गंतुं ठवेतुं, जाव अण्णस्स पविसति ताव से तं तेहिं धुत्तेहिं अवहरितं / एवं ताव 'बलि'त्ति गयं / इदाणि 'धम्मकध'त्ति दारं / 1. छोभतं वा पू० 1-2, पा० विना / 2. तं पू० 2 / 3. उवकरणं पा० / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका कतिएण सभावेण व, कहापमत्ते हरंति से अण्णे। किड्डा सयं व रिंखा, पासति व तहेव किड्डदुगं // 560 // एत्थं पि कइतवेण वा ते एज्जा सभावेण वा, 'धम्मं सुणिमो'त्ति / "कतितवेण सभावेण व" पुव्वद्धं कंठं / 'धम्मकध'त्ति गतं / इदाणि 'किड्ड' त्ति दारं / किड्डति सयं वा रिखाओ वा करेति, पासति वा कोउगेण किड्डूंते / तधेव किड्डदुर्ग ति। जधा-बलीए सभावेण वा कतितवेण वा ते एंति, तहेव किड्डाणिमित्तमवि सभावेण वा कइतवेण वा एन्ति / एतं दुगं / रिंखाओ त्ति, कयाइ खुड्डुओ भणेज्जा–ण वट्टए अम्हं किड्डिउं, तो खाइं तुमं रिखाओ करेहि जो अम्हं जत्तिए वारे जिज्जति / शेषं उक्तार्थं / तत्थ वक्खित्तस्स हरंति / 'किड्ड'त्ति दारं गतं / इदाणि पमज्जणा-आवरिसणा य दो वि दारे गाहद्धेणं भणति जो चेव बली' गमो, पमज्जणाऽऽवरिसणे वि सो चेव / "जो चेव०" कंठं / इदाणि 'पाहुडिया' पाहुडियं वा गेण्हसु, परिसाडणियं व जा कुणिमो // 561 // "पाहुडिय०" पच्छद्धं / तं पि कइतवेण वा सभावेण वा भणेज्जा-'भिक्खं ५गेण्हह खुड्डया ! दारे वा णिग्गतओ होहि, जाव वयं 'परिसाडणिय'त्ति अच्चणियं करेमो / एत्थ जाव सो भिक्खस्स जाति णिक्कलति वा ताव हरति / भिक्खा वि पाहुडिता भण्णति अच्चणिया वि। तेन सादृश्यादुभयग्रहणं कृतं / 'पाहुडिय'त्ति दारं गतं / इयाणि खंधावार-अगणी य दो वि दारे एगढे भणति खंधारभए णासति, एस व एइ त्ति कइयवे णस्स। अगणिभया व पलायति, णस्ससु अगणी व एति त्ति // 562 // "खंधारभए०" गाधा / तं पुण कतितवेण वा सभावेण वा भणेज्जा जधा-एस सरायओ खंधावारो एति त्ति / तत्थ जति सभावेणं तो णसति / नस्संतो सो बालो तेणेहि हीरेज्जा / कइतवेणं भणेज्जा-एस एति खंधावारो खुड्डया ! णस्स, ताधे सो णस्सति / इयरे उवहिं हरति / अगणीए सभावेणं भणेज्जा-एस अगणी एति / अप्पणा वा सो खुड्डुओ पासेज्जा अगणि, ताधे नासति / अध कइतवेणं भणेज्जा-मंदभग्गा ! णस्ससु, अगणी एस __1. कतिएण पू० 2, पा० / 2. किड्डूंतो पू० 2 / 3. पू० 2 नास्ति / 4. गिण्ह पू० 2 / 5. जिप्पति पू० 1 / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५६०-५६६] 145 एति त्ति / एवं सभावेण वा अग्गिउट्ठाणे कतिवएण वा भणिते को दोसो बालस्स ? उच्यते उवहीलोभ भया वा, ण णीति ण य तत्थ किंचि णीणेइ / गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उ जा हाणी // 563 // "उवहीलोभ०" गाधा / कंठा / 'गुत्तो 'त्ति सण्णद्धो / खंधावार अगणी य दारा गता। इदाणि 'मालवतेण 'त्ति दारंमालवतेणा पडिया, इयरे वा णासती जणेण समं / ण य गेण्हइ सारुवहि, तप्पडिबद्धो व हीरेज्जा // 564 // "मालव-तेणा" गाधा / मालवा एव तेणा मालवतेणा / 'इतरे'त्ति अण्णे तेणा उवधितेणा इत्यर्थः / एत्थ वि सभाव-कतितवं वक्तव्यम् / 'णासति जणेण समं'ति कइतवकते भंगे। पच्छा इतरे उवहिं हरति / साभाविते भंगे 'ण य गे० पच्छद्धं / कंठं / 'मालवतेण'त्ति दारं गतं / इदाणिं 'शाति' त्ति दारं / तं पि सभावेण वा कइयवेण वा। सण्णायगेहि णीतें, एंति व णीय त्ति णढें जं उवहिं / कहिँ णीय त्ति कइयवे, कहिए अण्णस्स सो कहए // 565 // चिंधेहिँ आगमेउं, सो वि य साहेइ तुह णिया पत्ता। णेमो उवहिग्गहणं, तेहिँ व हं पेसितो हरइ // 566 // "सण्णात०" गाधाद्वयम् / सण्णातएहिं आगंतुं एक्कओ दिट्ठो, ताधे णीओ / ते अण्णे उवहिं हरेज्जा, तण्णिप्फण्णं / अधवा अण्णेण केणति ते एंतता दिट्ठा, तेण से कधितं-'खुड्डय ! तव णियया आगच्छंति, ताधे सो पलाएज्जा / णटे जं जघण्णाइ उवधि हरंति तेणा, तण्णिप्फण्णं / एवं ताव सहावेणं / अध कइतवेणं वि / कधं? कोति धुत्तो भणेज्जा-'खुड्डया ! कधि ते णीय त्ति ? अमुगत्थ त्ति कहिते, सो वि अण्णस्स कधेति 'मा अप्पणा भणंतो उड्डज्झिहिति' / ताधे जस्स तेण कधितं अण्णस्स सो धुत्तो तेसिं सण्णाताणं चिंधे णामे य आगमेत्ता तस्स खुड्डयस्स सगासं गंतुं भणति-तुमं सो अमुगिच्चयाणं णियल्लओ / खुड्डुल्लओ भणति-कतो तुमं जाणसि ? त्ति / इयरो भणति, किं ण जाणामि ? मातुं ते अमुगी णाम, पितुं ते अमुगं, एरिसा वण्णरूवेणं ति / एवं संवातिते सो वि खुड्डगो भणति-सच्चयं, अहं तेसिं णिएल्लओ / ताधे सो धुत्तो भणेज्जा,-ते आगता तव कतेणं अमुगत्थ मए दिट्ठ त्ति, एत्ताहे पविसंति / ताधे सो पलाति, इतरे उवहिं हरंति / अधवा भणेज्जा-तेहिं अहं तव उदंतवाहओ पेसवितो / ताधे सो वीसंभं गच्छति / वीसत्थस्स उवहिं हरेज्जा / अधवा भणेज्जा तव चेव आणणाणिमित्तं पेसवितो हं, ताधे पलाणे उवहिं हरति / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका एते पदे ण रक्खति, बाल गिलाणे तहेव अव्वत्ते। णिद्दा-कहापमत्ते, वत्ते वि य जे भवे भिक्खू // 567 // __'एते पदे ण रक्खति बालो'। 'एते 'त्ति बलिमादिणो 'पदे' त्ति ठाणे 'ण रक्खति' त्ति साभाविय-कइतवे अयाणंतो छलिज्जति इत्यर्थः / 'बाले 'त्ति गतं / इदाणिं गिलाण-अव्वत्ता एगट्ठा भण्णन्तिएमेव गिलाणे वी, सयकिड्ड-कहा-पलायणे मोत्तुं / अव्वत्तो उ अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ॥५६८॥ "एमेव गि०" गाधा / 'एमेव 'त्ति, जे बाले दोसा ते गिलाणे वि / णवरं जो तस्स आतसमुत्थो किड्डादोसो कहादोसो पलायणदोसो य भएणं सो णत्थि, किंतु सो असमत्थो वारेतव्वस्स, न वा कोति तं गणेति गिलाणं ति(णत्ति?) काउं / सो य तत्थ परिकूजतो अच्छति। लोगो भणति-अहो णिरणुकंपा छड्डेडं हिंडंति / अप्पछंदा वा अकप्पितं पडिसेवेज्जा / 'अव्वत्तो 'त्ति अगीतो। सो विधि ण याणेति, बलिधम्मकधादीहिं साभाविय-कतितवेसुं कधं उवगरणं रक्खितव्वं ? कधं वा अगणिमादीसु साभाविएसु अप्पा णित्थारेयव्वो? उवगरणं वा ? ___ "एते पदे ण रक्खति०" (567) गाहा / बलिधम्मकहादीणि पदाणि / वत्तो नाम वएण गीतत्थत्तणेण य / सो वि जति णिद्दा-कहादि३–पमायं करेति तो एते पए ण रक्खति / कथाः तरंगवत्याद्याः / जम्हा एते दोसा बालादीणं तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य / कप्पड़ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो // 569 // "तम्हा खलु" गाधा / धितिमं जो तण्हाए छुहाए वा परितावितो वि वसहिं सुण्णं काउं ण भत्त-पाणट्ठाए णिग्गच्छति / 'वीरियसंपण्णो' बलवानित्यर्थः / सो तेण प्रमर्दमाणे निलंभितुं समर्थः / अगणिमादिसंभवेसु य उवधि अप्पाणयं च नित्थारयति / ते पुण केत्तिलया वसधिपाला ठवेयव्वा ? उच्यते सति लंभम्मि अणियया, पणगं जा ताव होति अच्छित्ती। जहणेण गुरू चिट्ठइ, तस्संदिट्ठो विमा जयणा // 570 // "सति लंभम्मि" गाधा / विज्जमाणे लंभे भिक्खस्स जत्थ संघाडओ तिण्हं चउण्हं वा अण्णेसि अप्पणो य पज्जत्तं भिक्खं आणेति, तत्थ जत्तिएहिं अच्छंतेहिं वि गच्छस्स पज्जत्तं भवति तत्तिया अच्छंति / अधवा पंचयं आयरियादीयं जेण गच्छो संगहितो सो अच्छति / अधवा जो णज्जति एस गहण-धारणसमत्थो सुत्तत्थाणं अव्वोच्छित्ति काधिति सो आयरियस्स सहाओ 1. ०कूवंतो पू० 2 / 2. पू० 2 नास्ति / 3. कहाहिं पू० 2 / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५६७-५७३] 147 अच्छति / अध न संथरंति तो आयरिओ एक्कओ अच्छति / सेसा सव्वे हिंडंति / अध आयरियस्स कुलादिकज्जेहिं णिग्गमणं होज्जा, ताधे जो आयरिएणं संदिट्ठओ 'मए णिग्गए अमुतस्स सव्वं आलोयणादि करेज्जाध' सो अच्छति / ताधे जत्थ ते बलिमादिणो पदा सभावेण वा कतितवेण वा पत्ता भवंति, ताधे वसहिपालेण इमा जतणा कातव्वा / बलीए ताव कारण सपाहुडि ठिया, वासे वि करेंति एगमायोगं / सण्णाविय दिट्ठा वा, भणाइ जा सारवेमुवहिं // 571 // "कारण सपा०" गाधा / ते साधुणो कारणेणं केणति सपाहुडियाए सेज्जाए ठिता होज्जा / तत्थ साधूणं सामायारी-उडुबद्धे बद्धओ उवधी अच्छति, वासासु अबद्धओ / तत्थ पुण सपाहुडियाए वासासु वि एगायोगं भंडयं करेंति / ताधे जति बलिकारा होज्जा, ते कहं नायव्वा 'होउकाम' त्ति ? उच्यते अपुव्वमतिहिकरणे, गाहा ण य अण्णभंडगं छिविमो। भणइ व अठायमाणे, जं णासइ तुज्झ तं उवरिं // 572 // "अपुव्वमति०" गाधा / अप्पुव्वे दटुं जे अपुव्वा ते तेणा, जे वा अतिहिम्मि बलिं करेंति, ते जदि भणेज्जा ‘णीध, बलिं करेमो' / ताधे गाधा वत्तव्वा १ण वि लोणं लोणिज्जइ, ण वि तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा / किह नाम लोगडंभग ! वट्टम्मि ठविज्जए वट्टो ? // अण्णं भंडेहि वणं, वणकुट्टग ! जत्थ ते वहइ चंचू / भंगुरवणवुग्गाहित ! इमे हु खदिरा बइरसारा // ताधे ते जाणंति 'अम्हे पच्चभिण्णाय'त्ति ठंति / अधवा भणंति-जेसिं एतं उवगरणं ते भिक्खस्स गता / अम्हे पराततं उवगरणं ण छिवामो / ताधे जति ण ठाइंति तो भणति–'सुणेध, मम वारिता ण ठातंति / जं एत्थं णासति तं तुब्भं उवरिं, जति ण ठातह' / अध साभावितं चेव बलिं करेंति, दिद्वेल्लया य अण्णइता वि करेंतया वि, विस्ससति, ताधे भणति, जाव सारवेमिरे .. ताव पडिक्खह / ताहे उव्वरए कोणे वा, काऊण भणाति मा हुलेवाडे। बहु पेल्लणऽसारविए, तहेव जंणासती तुझं // 573 // "उव्वरए०" गाधा / जइ अत्थि कोइ उव्वरओ तत्थ संच्छुभंति / अध णत्थि ताधे एगम्मि कोणे थलीकरेति / भणति य-सणियं करेध, जधा ण णित्थारेह उवगरणं / अध ते बहवे अगारा उम्मत्तसामला सहस त्ति पेल्लणएण पविट्ठा होज्जा, ण चेव सारविज्जंति उवहिं . 1. न वि लोणं लोणिज्जति० गाहा / ताधे ते० पू० 1-2, पा० / 2. सारवेमि पू० 2 / 3. संबुज्झति पा० / 4. उम्मत्ता सामला पा० / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका पडिक्खेज्जा, ताधे भणति-जं एत्थं णासति तं तुझं उवरिं / जत्थ धम्मकधा तत्थ इमं भणति णत्थि कहालद्धी मे, पुव्वं दिढे व बेति गेलण्णं / दाणादि असंकाण व, आउज्जंतो परिकहेइ // 574 // "णत्थि कहालद्धी०" गाधा / 'पुट्वि दिट्ठो' त्ति धम्म कधितओ / जाधे ते भणेज्जा,-ताधे भणियव्वं-दुक्खति मे सीसं गलओ वा / अध ते दाणसड्डा, आदिग्गहणेणं ' अभिगमसम्मत्तादिणो, तो दारमूले ठाउं उवगरणे उवओगं देंतो कधेति-मा खणेणं कोति 'हरेहिति / किड्डाए इमं भणति दहें पिणे न लब्भामों, मा किडह मा हरिज्जिहं को वि। संमज्जणाऽऽवरिसणे, पाहुडिया चेव बलिसरिसा // 575 // .. "दलू पिणे०" गाधा / कंठा / २संमज्जणा-आवरिसीयण–पाहुडियासु जधा बलीए जतणा तधा कायव्वा / जत्थ भिक्खाए णिमंतिज्जति तत्थ भणति खमणं णिमंतिते ऊ, खंधारे कइयवे इमं भणति / किं णे णिरागसाणं, गुत्तिकरो काहिई राया // 576 // खमणं ममं अज्ज / खंधावारे कइतवे / कंठं / जत्थ साभावियं चेव खंधावारो एति तत्थ पभु अणुपभु [णो व] णिवेयणं तु पेल्लंति जाव णीणेमि / तह वि य अठायमाणे, पासे जं वा तरति णेउं // 577 // . "पभु०" गाधा / 'पभु' त्ति राया, अणुपभु सेणावतिमादि, तें धम्मलाभिज्जंति / जधा-पइरित्तं करेध / ताधे ते मणूसं देंति / पेलेते जाव णीणेमि त्ति / कयाति सो खंधावारो ण चेव वच्चेज्जा / एवं चेव ओयातेल्लउ, तत्थ य कोति वसधि ठाणणिमित्तं पेल्लेज्जा / एत्थ वि-पभु-अणुपभुणो णिवेदणं कातव्वं / जति वारेंति जाव णीणेमि, तधवि य अट्ठातमाणे त्ति जति पभु-अणुपभुणो ण वारेंति, असाधीणा वा, तो भणति-जाव उवगरणं णीणेमि ताव पडिक्खध / ताधे उवगरणं कप्पं पत्थरेत्ता सव्वं बंधित्ता णीणेति / अह ण चएति, बहुं च उवगरणं, ताधे तिसु चउसु वा कप्पेसु बंधित्ता कोल्लुगपरंपरएणं णीणेति / 'कोल्लग'त्ति कोल्लगचक्कं मरहट्ठविसए / अध ण टुंति हरंति य, ताधे जं से पासे सारभंडं अक्खाती जत्तियं वा तरति णीणेउं तं णीणेति / जत्थ अग्गी साभाविओ तत्थ 1. हाहिति पू० 1-2 / 2. पमज्जणा पू० 2 / 3. अढितेल्लउ पू० 1-2, पा० विना / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५७४-५८२] कोल्लुगपरंपर संकलि, आगासं णेइ वायपडिलोमं / अच्छुल्लूढा जलणे, अक्खाई सारभंडं तु // 578 // "कोल्लुगपरंपर०" गाहा / कंठा / संकली नाम ते पोट्टलए दोरेणं एगटेणं बंधति / मालवतेणेसु असरीरतेणेसु य भंगे य असरीरतेणभंगे, पवलाए जणे उ जं तरति णेउं। '"असरीर०" पुव्वद्धं / कंठं / एतं साभाविए / जत्थ कतितवेण २अगणितेणे दुविधे भंगा वा धुत्ता भणेज्जा / तत्थ ते वत्तव्वा / ण वि धूमो न वि बोलो, न दवति जणो कइयवेसुं // 579 // "ण वि धूमो०" पच्छद्धं / कंठं / जत्थ सण्णायगो एज्जा तत्थ अण्णकुल-गोत्तकहणं, पत्तेसु वि भीयपरिस पेल्लेइ / पुव्वं अभीयपरिसे, भणाति लज्जाएँ न भणामि // 580 // जा ताव ठवेमि वए, पत्ते कुड्डादिछेय संगारो / मा सिं हीरे उवहिं, अच्छह जा सिं णिवेएमि // 581 // ... "अण्णकुल०" गाधाद्वयम् / अण्णो सो तुब्भं णीतो / अहं अमुगणामगोत्त ति / जत्थ पुण ते च्चेव संजाणंतया आगया, तत्थ जति भीतपरिसो सो आसि तो ते पेल्लेति अंबाडेतिएरिसया तारिसया बंधावेमि भे राउलेणं / अध अभीतपरिसो आसी तो णं भणति-'मम वि चियत्तं चेव उण्णिक्खमितव्वं / किं पुण ? अहं लज्जाए ण सक्केमि तुब्भे भणिउं जधाउण्णिक्खमामि त्ति / ण वा सक्केमि लज्जाए चेव आगंतुं तुब्भं सगासं, तो सुंदरं भे कतं जं आगता / किं पुण अच्छध ? जाव साधुणो एंति तेसिं सगासे वते णिक्खिवामि / मा वा तेसिं भट्टारगाणं उवगरणं हीरिहिति सुण्णए उवस्सए, एतेण उवाएणं ताव अच्छावेति जाव साहुणो पत्ता भवंति / ताधे उवस्सयस्स कु९ च्छेत्तुं णासति, संगारं च करेति-अमुगत्थ मए गवेसेज्जह मिलेज्जह वा / खंधारादी णाउं, इयरे वि तहिं दुयं समभिएंति / अप्पाहेई तेसिं, अमुगं कज्जं दुयं एह // 582 // "खंधारादी०" गाधा / कंठा / 'रक्खण'त्ति दारं गतं / इदाणिं गहणकप्पं भणति१. एवं पू० 1 पा० / 2. अगणिं तेणदुविधभंगा वा पा० / अगणिं तेणे दुविहे भंगे वा पू० 2 / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका दुविहकरणोवघाया, संसत्ता पच्चवाय सिज्जविही / जो जाणति परिहरिउं, सो गहणे कप्पितो होति // 583 // "दुविहकरण०" गाधा / 'दुविधकरणोवघात' त्ति, दुविधं करणं वसधीए / मूलकरणं च उत्तरकरणं च / एतेण दुविधेण करणेणं उवहता वसधी भवति / 'अकप्पिय'त्ति भणितं होति / सत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसु / संसत्तम्मि य छक्कं, लहु-गुरु-लहुगा चरम जाव // 584 // "सत्तेव य०" पुव्वद्धं / मूलगुणकरणं सत्तविधं, सोहेतव्वं साहुणा वसहीए / उत्तरगुणकरणं पि सत्तविधं / / पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो। मूलगुणेहिँ उवहया, जा सा आहाकडा वसही // 585 // "पट्टीवंसो०" गाधा / एते मूलगुणा / एतेहिं उवहता वसधी आधाकम्मा भवति / साधुमाधाय एभिः कृतरित्यर्थः / उत्तरगुणकरणं सत्तविहं वंसग कडणोक्कंचण, छावण लेवण दुवार भूमी य / सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु // 586 // / "वंसग०" गाधा / वंसग त्ति जं ओडंडइज्जति, कडणं कडगादीहिं पासाणि छातिज्जंति, उक्वंचणं' ओलवणे 'छावणं' दब्भादीहिं छयणं, 'लेवणं' चिक्खल्लेणं लिंपणं कुड्डाणं कज्जए संजतट्ठाए, अण्णओ दुवारकरणं संजतट्ठाए भूमिकम्मकरणं / एते उत्तरगुणा वसधीए / 'मूल'त्ति, अविसोधिकोडी / पुण अण्णे वि इमे उत्तरगुणा वसहीए / विसोहिकोडी पुण दूमिय धूविय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ता य। सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही // 587 // "दूमित" गाधा / दूमितं नाम सुकुमालियालेवेणं सुकुमालीकतं कुटुं उल्लातितं वा / धूवितं ३अगुलुमादीहि धूविता वसही / वासिता पडवासकुसुमादीहिं / उज्जोविता अगणिकाएणं अंधकारे उज्जोतो कतो / बलिकडा नाम संजतढाए बली कडा / अवत्ता णाम उवलित्ता भूमी / सित्ता संजतट्ठाए आवरिसीकरणं / सम्मट्ठा णाम वोहारिया संजतट्ठाए वसही। 1. ओकंपणं पू० 2 पा० / ओकंचणं पू० 1 / 2. ओचलणं पा० / 3. गुगलु० पा० / 4. अव्वत्ता पू० 1, पा० / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 भाष्यगाथा-५८३-५९२] विसोधिकोडी / अप्फासुएण देसे, सव्वे वा दूमियादि चउलहुगा / अप्फासु धूमजोती, देसम्मि वि चउलहू होंति // 588 // "अप्फासुएण०" गाधा / जत्थ अप्फासुएणं दूमिज्जइ / आदिग्गहणेणं सव्वे पता गहिता / तेसु देसे वा सव्वे वा चउलहुगा / जत्थ धूमिज्जति उज्जोविज्जति वा तत्थ णियमा अगणी सचित्तो अप्फासुतो त्ति काउं देसे वि चउलहुगा / किमुत सव्वे ? / सेसेसु फासुएणं, देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा / सम्मज्जण साह-कुसादि छिण्णमेत्तं तु सच्चित्तं // 589 // "सेसेसु०" गाधा / 'सेसेसु'त्ति धूवितं उज्जोवितं च मोत्तुं दूमित-वासित-बलिकडअवत्त-सित्त-सम्मट्ठ एतेसु फासुएणं देसे मासलहुं / सव्वे चउलहुं / जं सम्मज्जिज्जति तत्थ अफासुगं, साहा दब्भा वा छिण्णमेत्तया / एतेसु वि देसे सव्वे वा चउलहुँ। मूलुत्तरचउभंगो, पढमे बीए य गुरुग सविसेसा / तइयम्मि होइ भयणा, अत्तट्ठकडो चरम सुद्धो // 590 // "मूलुत्तर०" माधा / मूलगुणा जे पट्टीवंसादिणो ते संजतट्ठाए, उत्तरगुणा जे वंसादिणो अविसोधिकोडीए ते वि संजतट्ठाए, एत्थ चउगुरुगा, दोहिं वि गुरुगा / मूलगुणा संजतट्ठाए उत्तरंगुणा स-अट्ठाए / एत्थ वि चउगुरुगा / तवगुरुगा काललहू / 2 'तइयम्मि होति भयण'त्ति / मूलगुणा स-अट्ठाए, उत्तरगुणा संजतट्ठाए / एस ततिओ / एत्थ जे उत्तरगुणा ते जति अविसोहिकोडीए तो चउगुरुगा / तव-कालगुरू / अह विसोहीकोडीए ते उत्तरगुणा तो अफासुएणं देसे सव्वे वा चउलहुगा / फासुएणं देसे मासलहुं / सव्वे चउलहुं / चरिमो सुद्धो त्ति, आतट्ठाए मूलगुणा, आतढाए उत्तरगुणा / एत्थ ठायंतो सुद्धो / इदाणि संसत्तं ति द्वारं / “संसत्तम्मि य छक्कं / रेलहु-गुरु लहुगा चरिम जाव" (गा० 584) / सा पुण केण संसत्ता होज्जा ? उच्यते-'छक्केणं'ति छहिं काएहिं / तं जधा पुढवि दग अगणि हरियग, तसपाण सागारियादि संसत्ता। बंभवय आदि-दसणविराहिगा पच्चवाया उ॥५९१॥ "पुढवि-दग०" पुव्वद्धं / अस्स विभासाकाएसु उ संसत्ते, सचित्त-मीसेसु होइ सट्ठाणं / सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ // 592 // 1. एस वसही वि० पू० 2 विना / 2. वि देसे वि चउ० पू० 2 / 3. चउगुरु-लहुगा० पू० 2 / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "काएसु तु संसत्ते, सचित्त-मीसेसु होति सट्ठाणं" / काएसु पुढविमादीहिं संसत्ताए ठाति ह्र / हरितेहिं अणंतेहिं ह्वा / बीएहिं परित्तेहिं तृ / अणंतेहिं ना / मीसेसु पुढवीमादीसुं // 0 // , अणंतहरितेहिं / / तसेसु ह्व / एवं ठायंतस्स पच्छित्तं, ठितो संघट्टणादि जति करेति तो 'लहुगुरुलहुगा चरिम जाव'त्ति / अस्स विभासा "छक्काय चउसु लहुगा" गाधा अणुसज्झियव्वा / 'सागारिय' पच्छद्धं / निग्गंथाणं पुरिससंसत्ते 4 / इत्थिसंसत्ते 4 // निग्गंथीणं थीसंसत्ते 4 / पुरिससंसत्ते 4 / आणादिणो दोसा / इदाणि 'पच्चवात'त्ति दारं / 'बंभव्वय' (गा० 591) पच्छद्धं / एतेसिं जा विराधणा भवति सा सपच्चवाता सेज्जा / तत्थ पच्छित्तं भण्णतिरे / गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा। आणादिणो विराहण, भवंति एक्कक्कगपदातो // 593 // "गुरुगा०" गाधा / बंभावायं गेण्हमाणस्स 4, ३आयाए चेव 4 / 'एक्केक्कगपदातो 'त्ति / दुविधकरणोवघातादिसु सव्वपएसु / सेसं कंठं / इयाणि न ज्ञायते केरिसता बंभवतपच्चवाता, आयपच्चवाता, दंसणपच्चवाता वा? / अत उच्यते तिरिय-मणुइत्थियातो, बंभावातो उतिविह पडिमातो। अहिबिल-चलंतकुड्डादि एवमादी उ आयाए // 594 // आगाढमिच्छदिट्ठी, सव्वातिहि मरुग बहुजणट्ठाणा। पासंडा य बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया // 595 // "तिरिय०" गाधाद्वयम् / कंठं / तिविधपडिमाओ य / जत्थ त्ति वाक्यशेषः / 'सव्वातिधित्ति सत्रम् / 'मरुग'त्ति चट्टसाला / बहुजणट्ठाणं आगंतुकाणं / इदाणि सेज्जाविधि त्ति दारं / विधिविधानं भेदः प्रकार:-इत्यनर्थान्तरम् / सा सेज्जा णवविधा / कालातिकंतोवट्ठाण अभिकंत अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्ज महऽप्पकिरिया य // 596 // "कालातिकंत०" गाधा / एतासिं पच्छित्तं भण्णति 1. छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साधरणे / संघट्टण परितावण, लहु-गुरु अतिवायणे मूलं // [निशी० 117] 2. भवति पू० 2 / 3. आए पू० 2 / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-५९३-६०१] 153 'कालाइक्कंते लहु, चउरो लहुगा य चतुसु ठाणेसु / गुरुगा तिसु जमलपदा, अप्पकिरियाते सुद्धो उ // 597 // "कालाइक्कंते ल०" गाधा / कालातिवंतं अच्छति 0 / मासलहुं / वासावासे अतिरेगं गच्छति 4 / उवट्ठाणाए 4 / अभिकंताए 4 / अणभिक्कंताए / वज्जाए 4 / एतासु चतुसु वि जति ठाति चउलहुगा 4 / / महावज्जाए सावज्जाए महासावज्जाए, एतासु तिसु वि चउगुरुगा तवकालविसेसिता / 'जमलपदं' ति तवकालाणं सण्णा / / इदाणि एतेसिं वक्खाणं भण्णति-जा जारिसाउडु-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेज्जा। सच्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता // 598 // "उडुवासा" गाधा / ३उडुबद्ध वासावासे वा जत्थ ठिता तीए मासे पुण्णे चाउम्मासिए वा जं अच्छंति सा कालातिक्ता भवति / ‘स च्चेव' पच्छद्धं / ‘स च्चेव' त्ति, जा कालमज्जाता भणिता-उडुबद्धे मासो, वासासु चत्तारि मासा, एवं दुगुणा दुगुणं अपरिहरंता जत्थ पुणो एति सा उवट्ठाणसेज्जा भवति / यदुक्तम्-""उउबद्धे दो मासे वासासु अट्ठमासे अवज्जेत्ता एति / " अण्णे भणंति-जत्थ वासावासं ठिता तीए दो वासारत्ते अण्णत्थ काउं जति एंति तो उवट्ठाणा न भवंतिः / जावंतिया उसेज्जा, अण्णेहिँ णिसेविया अभिक्कंता / अण्णेहिँ अपरिभुत्ता, अणभिक्कंता उ पविसंते // 599 // "जावंतिया०" गाधा / जा जावंतिया सेज्जा आचाण्डालेभ्यः सा जाधे अन्नेहि चरगादीहिं पासंडत्थेहि घरत्थेहिं वा णिसेविता पच्छा संजया ठायंति एस अभिक्कंता / सच्चेव अण्णेहिं०' पच्छद्धं / कंठं / __ अत्तटुकडं दाउं, जतीण अण्णं करेंति वज्जा उ। जम्हा तं पुव्वकयं, वज्जति ततो भवे वज्जा // 600 // "अत्तट्ठ०" गाधा / वज्जा णाम पच्छाकम्मं 'अण्णं करेंति' सअट्ठाए इति वाक्यशेषः / 'वज्जंति'ते गृहस्था इत्यर्थः / पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावज्जा / समणट्ठा सावज्जा, महसावज्जा उसाहूणं // 601 // "पासंडिया०" गाधा / 'महावज्जा'-बहूणं समणमाहणाणं अट्ठाए कता / सावज्जा - 1. कालातीते लहुगो मु०वृ० / 2. अच्छति पू० 2 / 3-4. ओबद्धे पू० 2 / 5. एति पू० 2 / 6. भवंति पा० / पू० 1+2 / भणति पा० / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका पंचण्डं समणाणं अट्ठाए कया / महासावज्जा जा इमेसिं चेव समणाणं कता / जा खलु जहुत्तदोसेहिँ वज्जिया कारिया सअट्ठाए। परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥६०२॥ "जा खलु०" गाधा / कंठा / इदाणि जयणं दरिसेउकामो इमं आहहेट्ठिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया ण उलभंति पाहण्णं / पुव्वाणुण्णाऽभिणवं, च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा // 603 // "हेडिल्ला०" गाधा / अप्पकिरिया कालातीया उवट्ठाणा अभिक्कंता अणभिकंता जाव महासावज्जा / अप्पकिरिया णिद्दोस त्ति कातुं आदीए ठविज्जति / ततो कालादीयादयो जाव महासावज्ज त्ति / तत्थ हेट्ठिल्ला अप्पकिरिया भवति / तत्थ जति अतिरित्तं कालं अच्छंति, ततो सा कालातिकंताए बाधिया भवति / कालातिकंतं जति दुगुणा दुगुणं अपरिहरित्ता उवागच्छति ततो सा उवट्ठाणाए बाधिता भवति / एवं जधासंभवं णेतव्वं / 'पुव्वाणुण्ण'त्ति, पुव्वा अप्पकिरिया तीसे अणुण्णा जं भणितं सा अणुण्णाता पढमं / तीसे अभावे सेसाणं पुव्वा कालातीता तीसे अणुण्णा / तीसे अभावे सेसाणं पुव्वं उवट्ठाणा, तीसे अणुण्णा / एवं जा जा पुव्वा तीसे तीसे अणुण्णा जाव सावज्ज-महासावज्जाणं पुव्वा सावज्जा तीसे अणुण्णा। एवं पुव्वाए पुव्वाए अभावे पराए वि अणुण्णा भवति / 'अभिणवं च चउसु भय'त्ति, अभिणवो त्ति दोसो अभिसंबज्झति / कालातीतोवट्ठाणाभिक्तासु पुव्वपरिभुत्तत्तणातो अभिणवदोसो ण भवति / सेसासु अणभिक्कंत-वज्ज-महावज्ज-सावज्जासु चउसु कयमेत्तासु अभिणवदोसो भवति / चिरकयासु अभिणवदोसो न भवति / तेण 'अभिणवं च' / च शब्दात् अणभिनवं च। चउसु भय, भयत्ति वियारेहिं जं भणियं होति / अणभिक्कंताए अपरिभुत्त त्ति काउं चिरकयाए वि अभिणवदोसो भवति / वज्जादिसु जाओ परिभुत्ताओ तासु अभिणवदोसो ण होज्जा / एस विचारणा / 'पच्छिमे( मा? )ऽभिणव'त्ति, पच्छिमो महासावज्जोवस्सओ तम्मि अभिणवकए वा, चिरकते वा, परिभुत्ते वा, अपरिभुत्ते वा अभिणवदोसा चेव भवंति एगपक्खणिद्धारणातो / एतेहिं मूलगुणादीहिं दोसेहिं जो जाणति परिहरिउं सो गहणे कप्पिओ होति / तं पुण कधं जो जाणति परिहरिउं ? उच्यते उग्गम-उप्पायण-एसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहिं। तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर णवगेण भेदेणं // 604 // "उग्गम०" गाधा / उग्गमेण सुद्धं / उप्पादणाए सुद्धं / एसणाए सुद्धं / गवेसए त्ति वसधिं, अट्ठ भंगा / एवं जो जाणति असुद्धं सत्तसु उवरिमभंगेसु परिहरिउं सो गहणे कप्पितो होति / तिविधं ति, खातादी / तीहिं ति मणादीहिं / खातादिता तिण्णि वसधीतो उग्गमादि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 भाष्यगाथा-६०२-६०७] असुद्धातो मणेण परिहरति, पूर्ववत् नवको भेदः / विसुद्धं ति भावतो, न परानुवृत्त्या / पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तौं परिहरति / आलोयणमायरिये, आयरिओं विसोहिकारो से // 605 // "पढिय०" गाधा / पूर्वोक्ता / सेज्जाए कप्पितो त्ति दारं गतं ॥छ।। इदाणि 'वत्थकप्पितो 'त्ति दारं / अप्पत्ते अकहेत्ता सुत्तं, वत्थेसणा / शेषं पूर्ववत् / तं च वत्थं चउव्विधं णामं ठवणा वत्थं, दव्वे भावे य होइ णायव्वं / एसो खलु वत्थस्स उ, णिक्खेवो चउव्विहो होइ // 606 // "णामं ठवणा" गाधा / णाम-ठवणाओ गताओ / दव्ववत्थं दव्वे तिविहं एगिंदि-विगल-पंचेंदियेहिं णिप्फण्णं / सीलंगाइँ भावे, दव्वे पगयं तदट्ठाए // 607 // "दव्वे" गाधा / एगेंदियनिप्फण्णं कप्पासादि / विगलिंदियनिष्फण्णं कोसेज्जयादी / पंचिंदियणिप्फण्णं उण्णिय-उट्टियादी / भाववत्थं-अट्ठारससीलंगसहस्साइं / कयरे पुण ते :: अट्ठारस सीलंगसहस्सा ? / तत्थिमा गाहा__करणे जोगे सण्णा, इंदिय भोमादि समणधम्मे य। सीलंगसहस्साणं, एत्तो उ भवे समुप्पत्ती // करणं तिविधं-करणं करावणं अणुमोयणंति / जोगो वि तिविधो-मणजोगो वतिजोगो कायजोगो / सण्णा चत्तारि-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेधुणसण्णा, परिग्गहसण्णा। इंदियाणि पंच-सोइंदियादीणि / 'भोमादि'त्ति-पुढविकायसमारंभो आउक्कायसमारंभो तेउ-कायसमारंभो वाउकायसमारंभो वणस्सइकायसमारंभो, बेइंदियसमारंभो, तेइंदियसमारंभो, चउरिंदियसमारंभो, पंचेंदियसमारंभो, अजीवकायसमारंभो / समणधम्मो-खंती, मद्दवे, अज्जवे, मुत्ती, तवे, संजमे, सच्चं, सोयं, आकिंचणया, बंभचेरे / एतेहिं ठाणेहिं णिप्फत्ती सीलंगाणं भवति / तं जधा ण करेति मणेणं आहारसण्णोवयुत्तो, सोइंदियसंवुडे, पुढविकायसमारंभवज्जए, खंतिसमायुत्ते, एस एगो / ण करेति मणेणं आहारसण्णोवउत्ते, सोइंदियसंवुडे, पुढविकायसमारंभवज्जए, मद्दवसंपयुत्ते, मुत्तिसंपयुत्ते, एवं जाव बंभचेरसंपउत्ते / एवं आउक्कायसमारंभवज्जए जाव अज्जीवकायसमारंभवज्जए / एवं सोइंदिएण सतं / सेसेहिं वि इंदिएहिं सतं सतं / एवं इंदियेसु पंचसता। एते आहारसण्णोवउत्तेणं पंच सता / एवं सेसाहिं वि तिहिं सण्णाहिं पंच पंच सता / एते दो सहस्सा चउहि सण्णाहिं ण करेति एतेण लद्धा / ण कारवेति 1. कारणं पू० 2 / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका एतेण वि दो सहस्सा। करंतं णाणुजाणति एतेण वि दो सहस्सा / एते मणजोगेण छ स्सहस्सा। वइजोगेण वि छ स्सहस्सा / कायजोगेण वि छ स्सहस्सा / तिण्णि छक्का अट्ठारस / एतेहि अट्ठारसहिं सीलंगसहस्सेहिं पाउता साहुणो णिच्चपाउता चेव भवंति / दविए पगयं तदट्ठाए त्ति / एत्थ दव्ववत्थेण अधीगारो / जम्हा भाववत्थस्स उवग्गहं करेति अतोऽर्थम् / पुणरवि दव्वे तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं / एक्ककं तत्थ तिहा, अहाकडऽप्पं-सपरिकम्मं // 608 // "पुणरवि०" गाधा / जं दव्ववत्थं एगिदियादिणिप्फण्णं तिविधं भणितं / तं पुणो तिधा भिज्जति–जहण्णयं मज्झिमयं उक्कोसं ति / जहण्णयं मुहणंतगादि, मज्झिमं पडलादि, उक्कोसं वासकप्पादि / एतेसिं एक्केक्कं तिविधं-अधाकडं अप्पपरिकम्मं सपरिकम्मं च / चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मझे य पंच य जहण्णे। .. वोच्चत्थगहण-करणे, तत्थ वि सट्ठाणपच्छित्तं // 609 // "चातुम्मासु०" गाधा / अस्स विभासा / जोगमकाउमहागडें, जो गिण्हइ दोण्णि तेसु वा चरिमं / लहुगा उ तिण्णि मज्झम्मि मासिआ अंतिमे पंच // 610 // "जोगमकातु०" गाधा / उक्कोसयस्स वत्थस्स अधाकडस्स णिग्गतो, तस्स जोगमकाउं अप्पपरिकम्मं उक्कोसयं गेण्हति 4 / अह उक्कोसयं चेव सपरिकम्मं गेण्हति 4 / जदा अधाकडं ण लब्भति तदा अप्पपरिकम्मं मग्गियव्वं / तस्स णिग्गओ, तस्स जोगमकाउं सपरिकम्मं उक्कोसयं चेव गेण्हति 4 / मज्झिमस्स अधाकडस्स णिग्गतो, तस्स जोगमकाउं अप्पपरिकम्मं मज्झिमयं गेण्हइ / 0 / / अह सपरिकम्मं मज्झिमं चेव गेण्हति / / / / जता अहाकडं न लब्भति तया अप्पपरिकम्मं मज्झिमं चेव मग्गियव्वं / तस्स णिग्गतो, तस्स जोगमकाउं सपरिकम्मं मज्झिमयं चेव गेण्हति / 0, जहण्णयस्स अहागडस्स णिग्गओ, तस्स जोगमकाउं अप्पपरिकम्मं जहण्णयं गेण्हइ / / / अह सपरिकम्मं मज्झिमयं चेव गेण्हति ना / जता अहाकडं न लब्भति तया अप्पपरिकम्मं मग्गियव्वं / तस्स णिग्गतो, तस्स जोगमकाउं सपरिकम्म जहण्णयं चेव गेण्हति / ना / अर्थात् प्राप्तम् / अधाकडस्स निग्गतो जोगे कए अलब्भमाणे अप्पपरिकम्मं गेण्हमाणो सुद्धो / अप्पपरिकम्मस्स वा णिग्गतो जोगे कते अलब्भमाणे सपरिकम्मं गेण्हमाणो सुद्धो // वोच्चत्थगहणे त्ति / अस्स विभासा एगयरणिग्गओ वा, अण्णं गेण्हिज्ज तत्थ सट्ठाणं / छेत्तूण सिव्विऊण व, जं कुणइ तगं ण जं छिंदे // 611 // . “एगयर०" पुव्वद्धं / उक्कोसणिग्गतो मज्झिमयं गेण्हति // 0 // [मासिकं]; जहण्णयं Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 भाष्यगाथा-६०८-६१४] गेहति / ना [पंचकं] / मज्झिमयस्स णिग्गओ उक्कोसं चेव गेण्हति 4 [चतुर्लघु] / जहण्णयं चेव गेण्हइ // ना [पंचकं] / जहण्णयस्स निग्गओ उक्कोसं गेण्हति 4 [चतुर्लघु] / मज्झिमयं गेण्हइ 0 / [मासलहु] / आणादी दोसा / तं कज्जं तेण चेव न पडिपूरति, अइरेगदोसा य / वोच्चत्थगहणे त्ति गतं / इयाणिं करणं___"छेत्तूण सिव्विऊण." पच्छद्धं / उक्कोसं छिदित्ता सिव्वित्ता वा मज्झिमयं करेति / / [मासलघु] जहण्णयं करेति ना[पंचकं] / जहण्णयं छिदित्ता सिव्वित्ता वा उक्कोसयं करेति 4 / [चतुर्लघु] जहण्णयं करेति ना [पंचकं] / जहण्णयं छिदित्ता सिव्वित्ता वा उक्कोसयं करेति 4 / [चतुर्लघु] / मज्झिमयं करेति / / [मासिकं] / जं कीरति तस्स जं पच्छित्तं तं भवति, न वि जं छिज्जति / आणादी / संजमे छप्पदियविराहणा, आताए हत्थोवघातो पलिमंथो य सुत्तत्थाणं / तम्हा पायच्छित्तं परियाणामि / आणा. अणवत्था मिच्छत्तविराहणा य परिहरिता भवति / ण कप्पति णिक्कारणे, दप्पेण वा / वोच्चत्थकरणं गयं / तं च वत्थं इमाहिं चउहिं पडिमाहिं गवेसितव्वं / तं जधा उद्दिसिय पेह अंतर, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ। चउपडिमा गच्छ जिणे, दोण्हऽग्गहऽभिग्गहऽण्णयरा // 612 // "उद्दिसिय०" गाधा / 'अत्र तिसृणां व्याख्याउद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ट एरिसं भणइ / अण्ण णियत्थऽत्थुरिए, इतरज्वर्णितो उ तइयाए // 613 // __ "उद्दिट्ट ति०" गाधा / 'उद्दिसिय'त्ति अदटुं ओभासति-देहि मे तिण्हं वत्थाणं जहण्णयादीणं एगिदियादिणिप्फण्णाण वा / एगतर त्ति अमुगं / पेहा णाम वत्थं दट्ठणं भणति-हे सावया ! एरिसं मे वत्थं देहि, जारिसं एयं दीसति / तं हत्थेणं दाएति, अंतरिज्जयं उत्तरिज्जयं वा / अंतरिज्जयं नाम णियंसणियं, उत्तरिज्जयं पाउरणं / अधवा अंतरिज्जयं जं सेज्जाए हेट्ठिल्लयं पोतं / उत्तरिज्जयं उवरिल्लयं / तं अंतरिज्जयं वा, उत्तरिज्जयं वा, अण्णं णियंसेउं पाउणितुं वा इतरं ठवेतुकामं अंतरा जातति / एसा ततिया पडिमा भवति / इताणिं उज्झितधम्मिया चउत्था पडिमा / तं भणति दव्वाइ उज्झियं दव्वओ उ थूलं मए ण घेतव्वं / दोहि वि भावणिसिटुं तमुज्झिओभट्ठऽणोभट्ठ // 614 // "दव्वादि०" गाधा / आदिग्गहणेणं चउव्विधं भवति / तं जधा-दव्युज्झितं, खेत्तुज्झितं, कालुज्झितं, भावुज्झितं / जस्स अगारस्स एवं पतिण्णा भवति / जधा-'मए थूलं न घेत्तव्वं ण परिभोत्तव्वं / ' तं च से केणति उवणीतं तं च तेण पडिसेहितं 'अलं मम 1. ०णिप्फण्णेण पू० 2 / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका एतेणं'ति / इतरो भणति-'ममं पि अलं, दिण्णं मए तुज्झं / ' एतम्मि देसकाले जं लब्भति ओभटुं अणोभटुं वा, एरिसं वत्थं दव्युज्झियं भवति / खेत्तुज्झियं- . अमुगिच्चगं ण भुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स। जं वुज्झे कप्पडिया, सदेस बहुवत्थदेसे वा // 615 // "अमुगिच्चगं" गाधा / जधा-'लाडविसतिच्चयं वत्थं मए ण घेतव्वं न परिभोत्तव्वं / ' अधवा खेत्तुज्झियं तं जं कप्पडिता उज्झंति सदेसं गता देसंतरं वा संकमंता 'किं चोराणं कते वहामो' त्ति / बहुवत्थदेसे वा अण्णं चोक्खतरयं लद्धं इयरं छड्डेति / कालुज्झियं कासातिमाति जं पुव्वकालजोग्गं तदण्णहिं उज्झे। . होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे // 616 // "कासातिमाति०" गाधा / कसाएण रत्ता कासातीतं / गिम्हे कइयं वासासु अजोग्गं परिभोगस्स त्ति काउं छड्डेज्जा कोति अड्डओ, आदिग्गहणेणं अकसायं पि / अधवा अणागए चेव कासाति-अजोग्गकाले अण्णं चोक्खतरं कासाइतं लद्धं छड्डेति इतरं / भावुज्झितंलभ्रूण अण्ण वत्थे, पोराणे सो उ देइ अण्णस्स। . सो वि अणिच्छइ ताई, भावुज्झियमेवमाईयं // 617 // "लद्धण०" गाधा / कंठा / 'चउपडिमा गच्छत्ति (गा० 612) / एताहिं चउहिं वि पडिमाहिं गच्छवासिणो गेण्हंति / जिणे दोण्ह गहभिग्गहण्णयरं ति / जिणकप्पियाणं उवरिल्लाणं दोण्हं आग्रहो / आङ् मर्यादायां, ग्रह उपादाने, मर्यादया ग्रहः आग्रहः / उपरिमाभ्यामेव द्वाभ्यां ग्रहणं नाऽऽदिमाभ्यामित्यर्थः / ताभ्यामपि अभिग्गहो अण्णतरियाए, न युगपद् द्वाभ्यामपीत्यर्थः / किं तर्हि ? अन्यतरया ग्रहणं / तत्थ गच्छवासीणं विधी जं जस्स णत्थि वत्थं, सो उणिवेएइ तं पवित्तिस्स / सो वि गुरूणं साहइ, णिवेइ वावारए वा वि // 618 // "जं जस्स०" गाधा / जं जस्स साधुणो वासकप्पं अंतरकप्पादी वत्थं णत्थि, सो तं पवित्तिणो साहति / जधा-मम अमुगं नाम वत्थं णत्थि / ताधे सो पवत्ती गुरूणं ति आयरियाणं साहेति / जधा-खमासमणो ! अमुगस्स साधुस्स अमुगं वत्थं णत्थि / गच्छे य सामायारी चेव 1. लाडविसयोब्भवं पू० 1-2, पा० विना / 2. गिम्हे गतेति जं वासा० पू० 1-2 / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६१५-६२२] 159 एसा जं आभिग्गहिया भवंति–अम्हेहिं वत्थाणि वा पाताणि वा आणेतव्वाणि अण्णेण वा जेण पओयणं साधूणं ? ताधे सो आयरिओ तेसिं आभिग्गहियाणं णिवेदेति / जधा-अज्जो ! अमुगस्स साधुस्स अमुगं वत्थं णत्थि / अध दुविधाए असतीए णत्थि आभिग्गहिया / जति सो असमत्थो अप्पणा वत्थं उप्पादेउं, तो जो अण्णो साधू समत्थो तं वावारेति / जधा-वत्थाणि मग्गसु त्ति / जो सो आभिग्गहितो, जो वा सो वावारितो, ते काए विधीए उप्पाएंति ? उच्यते भिक्खं चिय हिंडंता, उप्पायंतऽसइ बिइअ पढमासु / एवं पि अलब्भंते, संघाडेक्क्क वावारे // 619 // एवं पि अलब्भंते, मुत्तूंण गणिं तु सेसगा हिंडे। गुरुगमणे गुरुग ओहामऽभियोगो सेहहीला य // 620 // "भिक्खं चिय०" गाथाद्वयम् / सुत्तपोरुसिं अत्थपोरुसिं च काउं भिक्खं चिय हिंडंता उप्पादेति / अध भिक्खं हिंडतेहिं ण लभेज्जा, ताधे बितियं ति अत्थपोरुसीए उप्पा-ति / असति सुत्तपोरुसीए, दोहि वा पोरुसीहि उप्पाएंति / जति एक्को ण लभेज्जा, संघाडओ बहूणं वा उप्पातेतव्वं / ताधे एक्कक्कयं संघाडगं वावारेति गुरू / ते वि तधेव मग्गंति / भिक्खं चिय हिंडंता इत्यादि / अध तध वि ण लभेज्जा ताधे 'वृन्दसाध्यानि कार्याणि' इति कृत्वा पिंडएणं सव्वे उतॄति, आयरियं एक्कं मोत्तूणं / आयरिया जति अप्पणा हिंडंति, चउगुरुगा, ओभावणादोसा / आयरिओ होंतओ अप्पणा हिंडति त्ति नूणं एतस्स आयरियत्तणं पि एरिसयं चेव, जो चीराणं पि णाढाति / कमणिज्जरूवं वा दटुं काति इत्थिया आभिओएज्जा / अण्णउत्थिया वा विसं देज्जा / ओभासिए वा अलद्धे सेहाणं हीलणिज्जो होज्जा-आयरियाणं दिटुं माहप्पं / जम्हा एते दोसा तम्हा आयरिओ ण हिंडावेतव्यो / तं मोत्तूणं जे अण्णे सेसा तेहिं सव्वेहिं हिंडितव्वं / ते पुण सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहण्ण एक्कु गीयत्थो / इक्कस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एक्कं // 621 // "सव्वे वा०" गाधा / कंठा / असति एक्कं कप्पियं करेंति जो पडू पगब्भो / तत्थ आयरिया वत्थेसणं सउस्सग्गाऽववातं कहेंति / आवाससोहि अखलंत समग उस्सग्ग दंडग ण भूमी। पुच्छा देवयलंभे, ण किं पमाणं धुवं दाहि // 622 // "आवास०" गाधा / तेहिं य साधूहि अणागतं चेव काइयसण्णाओ आणक्खे 1. अप्पणो पू० 1 / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका तव्वाओ, चीराणं गताणं होज्जा ण व त्ति / एस आवाससोही / उठेंतेहिं ण खलितव्वं पक्खुलितव्वं वा / अधवा अक्खलंतत्ति अविकूडेंतेहिं य उद्वैतव्वं / सव्वेहिं १य 'समगं' उद्वैतव्वं, ण वि अण्णे उट्टितया पडिक्खंति अण्णे उवेट्ठता / अधवा समगं काउस्सग्गो कायव्वो उवओगस्स / दंडया काउस्संग्गमादि करेत्ता जाव न पडुप्पज्जतिरे वत्थाणि ताव भूमीए न पइट्ठावेतव्वा / केइ भणंति-जाव पडिआगया, 'पुच्छ' त्ति सीसो पुच्छति-किंणिमित्तं काउसग्गं करेंति ? किं देवताराहणणिमित्तं जा वत्थाणि उप्पाएति आराधिया समाणी ? उदाहु लंभो भविस्सति ? त्ति / आयरिओ भणति-ण होइ देवताराधणणिमित्तं लाभणिमित्तं वा, किंतु उवओगणिमित्तं काउस्सग्गो कीरति / किं पमाणं घेत्तव्वं ? उक्कोसं मज्झिमं जहण्णं वा / 'धुवं दाहि' त्ति को वा पढमं ओभासिओ अवस्सं दाहिति ? / जो णज्जइ 'एस अवस्सं दाहिति' सो पढमं ओभासितव्वो / काउसग्गे कते केण पढमं उस्सारेतव्वं ? किं रातिणिएणं ओमरातिणिएणं? / उच्यते रातिणिओ उस्सारे, तस्सऽसतोमो वि गीतो लद्धीओ। अग्गीतो वि सलद्धी, मग्गइ इअरे परिच्छंति // 623 // "रातिणिओ०" गाधा / जो रातिणियो सो त जति सलद्धीओ तो तेण उस्सारेतव्वं / 'तस्स असति' त्ति, अह तस्स रातिणियस्स असइ, लद्धी णत्थि त्ति भणितं होति, अगीतत्थो वा सो, तो ओमरातिणिओ वि जो गीतत्थो सलद्धीओ सो उस्सरिति / अध अलद्धीओ, ताधे जो अगीतत्थो वि सलद्धीओ सो उस्सारेति ओभासति य, २पाकड्डित्तणं च करेति / 'इयरे'त्ति जे गीतत्था ते परिच्छंति जा वत्थस्स विही भणिता ताए, कप्पति ण वा ? / इयाणि पच्छित्तं भण्णति उस्सग्गाई वितह, खलंत अण्णोण्णओ अ लहुओ उ।. उग्गम विप्परिणामो, ओभावण सावगं ण तओ // 624 // दाउं व उड्डुरुस्से, फासुव्वरियं तु सो सयं देइ / भावियकुलओभासण, णीणिइ कस्सेअ किं आसी // 625 // "उस्सग्गाइ०" गाधाद्वयम् / काउस्सग्गमादी काउं सव्वेसु पदेसु / काउसग्गं ण करेंति 0 / आवासयं न सोधिति 0 / खलंति 0 / समयं वा ण करेंति 0 / दंडए भूमी छिवावेंति 0 / पादं वा 0 / अण्णण्णओ जंति ण वि पिंडएणं काउस्सग्गं काउं संदिसावेंति, अण्णो वि जुयओ संदिसावेंति, अण्णो वि जुयओ चेव 0 / संदिसध त्ति ण भणंति, 0 / आयरिया लाभोत्ति ण भणंति, 0 / किध गिण्हामो त्ति न भणंति, 0 / आवस्सिया जधा संदितुल्लयं ति ण भणंति 0 / आवस्सियं ण करेंति ना / जस्स य जोगं ण भणंति 0 / एवं करेत्ता णिग्गता.जति सावयं 1. वि पा० / 2. पडुपज्जंति पू० 1, पा० / 3. प्राकषिकत्वं-अग्रणीत्वमित्यर्थः / 4. लाहए पू० 1 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६२३-६२९] 161 १ओभासंति / उग्गमदोसा-तेण २मंतक्खेण सव्वाणि दिण्णाणि, ताधे अण्णाणि करेज्जा / विप्परिणामो-सो णवधम्मो ताहे चिंतेज्जा-जो एतेसिं सावओ भवति, तं चढेति / ओभावणा तस्स कयाति ण होज्जा ताधे मिच्छादिट्ठिणो भणेज्जा-'अहो खरंटो ! एते से देवता तो वि ण देति / लोगो वा भणेज्जा-एतेसिं सावगा वि ण देंति, अण्णो को दाहिति ? / उड्डुरुस्सेज्जा वा लोगलज्जाए दातुं / जम्हा एते दोसा तम्हा सावतो ण भासितव्वो / सावगस्स मज्जाया चेवजं फासुयं तेण जइणो णिमंतेयव्वा / एवं सो देति चेव, किं तेण ओभासितेणं ? / तम्हा जे अण्णे भाविता कुला तेसु ओभासितव्वं / कधं ? गंतुं / जो पभूतं धम्मलाभेउं भणति-सावता ! साधुणो तव सगासं आगता / एतेसिं चीरेहिं कज्जं / ओहासणता उच्छाह दाणफलं गुणवयणं वा न कड्डियव्वं, अध कडंति 0 / [मासलहुं] / मग्गिते सो भणेज्जा-'अणुग्गहो। ताधे णीणिते भाणितव्वं-कस्सेतं ? किं आसि ? किं होहिति ? कत्थासि? / कस्सेयं ? ति जइ न भणंति 0 / [ मासिकं] / को दोषः ? उच्यते कासत्तऽपुच्छियम्मी, उग्गम-पक्खेवगाइणो दोसा। कि आसऽपुच्छियम्मी, पच्छाकम्मं पवहणं व // 626 // "कासत्त०' गाधा / उग्गमदोसा ताव कहं होज्जा ? उच्यते-कस्सेतं ति पुच्छितो समाणो भणेज्जा कीस ण णाहिह तुब्भे, तुब्भट्ट कयं व कीय-धोयाई। ___ अमुएण व तुब्भट्ठा, ठवियं गेहे ण गिण्हह से // 627 // "कीस ण." गाहार्द्धम् / कंठं / "तुब्भट्ठा कतं ति" मूलगुणेहिं उत्तरगुणेहिं वा कतं ? / अनयोविभागार्थमिदमुच्यतेतण विणण संजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पज्जणया। गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो // 628 // "तण विणण०" गाधा / 'ततं विततं च संजतट्ठा, पज्जितं पि संजतट्ठा / एवं चउभंगो / अस्य प्रायश्चित्तं-गुरुगा पच्छद्धं / कंठं / पक्खेवगदोसा। कधं ? उच्यते-'अमुगेण' पच्छद्धं / कंठं / तं पुण केण ठवितेल्लतं होज्जा ? उच्यते समणे समणी सावग, साविग संबंधि इति मामाए / राया तेणे पक्खेवए अणिक्खेवगं जाणे // 629 // "समणे०" गाधा / समणेण वा, समणीए वा, सावए वा, सावियाए वा, संबंधिएण 1. भासंति पू० 2 / 2. मन्दाक्षेण-लज्जया / 3. एरिसेहिं पू० 1-2 / 4. कित्तितव्वं पू० 1-2, पा० विना / 5. कित्तीति पू० 1-2, पा० विना / 6. [] एतदन्तर्गतं मु० वृत्तौ दृश्यते / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका वा, 'संबंधियाए वा, इड्डिमंतेण वा, मामाएण वा, रायाएण वा, तेणएण वा / पक्खेवय त्ति एतेहिं पक्खित्तयं होज्जा / एस पक्खेवओ भवति / णिक्खेवयं जाणेत्ति, णिक्खेवओ वि एतेसु चेव ठाणेसु भवति / एतेसिं पदाणं इमाओ विभासगाधाओ / जेण कारणेणं ते अण्णत्थ पक्खिवंति। लिंगत्थेसु अकप्पं, सावग-णीएसु उग्गमासंका। इड्डि अपवेस साविग, इड्डिस्स व उग्गमासंका // 630 // एमेव मामगस्स वि, सड्डी भज्जा उ अण्णहिं ठवए / निव तप्पिडविवज्जी, मा होज्ज तदाहडं तेणे // 631 // एए उ अघिप्पंते, अण्णहिँ सण्णिक्खिवंति समणट्ठा। .. णिक्खेवओ वि एवं, छिण्णमछिण्णो उ कालेण // 632 // अमुगं कालमणागएँ, दिज्जह समणाण कप्पई छिण्णे। पुण्ण समकाल कप्पइ, ठवियगदोसा अईअम्मि // 633 // असिवाइकारणेहिँ पुण्णाईए मणुण्णणिक्खेवे। परिभुंजंति ठविंति व, छ९िति व ते गए णाउं // 634 // _ "लिंगत्थेसु" गाधापंचकं / तत्थ जे ते समणा वा समणीतो वा ते लिंगत्थया होज्जा। तेसिं हत्थातो ण कप्पति घेत्तूणं / ते उग्गमादीहिं असुद्धाणि वत्थाणि गेण्हंति, सयं च समुच्छावेंति / ते लिंगतो वि पवयणतो वि साहम्मिय त्ति काउं ण वट्टति तेसिं हत्थाओ घेत्तुं / ताधे 'अम्हं न गेण्हंति' त्ति अण्णत्थ पक्खिवंति एते। 'जाधे साधुणो तुब्भे चीराणि मग्गेज्जा ताधे इमाणि देज्जह' त्ति सावओ साविया वा णीओ वा कोति / साधूणं एतेसिं तिण्ह वि उग्गमादिसु संकाए साहुणो 'अम्हं ते ण गेहंति' त्ति अणत्थ पक्खिवंति / इड्डिमंतस्स साविता भज्जा तत्थ पवेसो ण लब्भति ताधे सा अण्णत्थ पक्खिवति / अधवा इड्डिमंतो को वि पासंडाण चीराणि देति तस्स य ण घेप्पंति, तेण सो पक्खेवयं करेज्जा / इड्डिमंतो त्ति ईसरो। मामओ णाम ण कस्स वि घरे पवेसं देति, ३पंतत्ताए वा इस्सालुयाए वा / तस्स भज्जा साविता। सा अण्णत्थ पक्खिवेज्जा / कीत-कडं वा काउं अविदिण्णदोसं ति वा ण घेप्पति / णिवो णाम राया, तस्स पिंडो न कप्पति / ताधे सो जधा तधा 'लाभं लभामि'त्ति अण्णत्थ पक्खिवेज्जा / तेणयस्स वि य ण कप्पति घेत्तुं, मा 'तेणाहडं' होज्ज त्ति / सो वि 'मम ण गेण्हंति' त्ति अण्णत्थ पक्खिवति / एवं ताव पक्खेवओ, एवं चेव णिक्खेवओ वि / णवरं सो छिण्णो अच्छिण्णो य / 'छिण्णो' णाम ते णिक्खिवित्ता जति भणंति'अमुगं कालं जइ अम्हे ण एज्जामो तो तुब्भे समणाणं देज्जह / ' एवं जइ छिंदंति तो कप्पति / सो 1. पू० 2 नास्ति / 2. निक्खेवयं पू० 2 / 3. पण्णताए पू० 2 / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६३०-६३९] 163 पुण्णकालसमयमेव कप्पति, अतीते ण कप्पति 'ठवियग'दोस त्ति काउं / जे पुण साधू संभोइया तेहिं जं णिक्खित्तं असिवादिकारणेहिं देसंतरं वच्चंतेहिं पडिबंधट्ठिताणं सकासे तं ते पडिबंधट्ठिता पुण्णे वा काले अतीते वा गेण्हंति / जति चीरासती तेसिं ताधे परिभुंजंति / अध णत्थि असती ताधे ठवेंति, तेसिं चेव दाहामो त्ति काउं। अह जाणंति ते ततो वि अण्णं विसयं गता अप्पणो य २असती नत्थि ताधे छड्डेति / दमए दूभगे भट्ठे, समणच्छण्णे अ तेणए / ण य णाम ण वत्तव्वं, पुढे रुढे जहावयणं // 635 // "दमए०" गाधा / अधवा सो कस्सेतं ति पुच्छिओ भणेज्जाकिं दमओ हं भंते ! दमगस्स वि किं में चीवरा णत्थी। दमएण वि कायव्वो, धम्मो मा एरिसं पावे // 636 // "किं दमओ" गाधा / कंठा / तो मं पुच्छध, कस्सेतं ति ? दमए त्ति गतं / इदाणि दूभए ति दारं, दूभए त्ति कस्सेतं ति पुच्छिओ भणेज्जा, अहं / जति रण्णो भज्जाए, व दूभगो दूभगा व जइ पइणो / किं दूभगो मि तुब्भ वि, वत्था वि ण दूभगा कि मे // 637 // "जति रण्णो०" गाधा कंठा / 'दूभए 'त्ति गतं / 'भट्टे'त्ति-रज्जाओ भट्ठो भणेज्ज / / जति रज्जाओ भट्ठो, किं चीरेहिं पि पिच्छहेयाणि / अस्थि महं साभरगा, मा हीरेज्ज त्ति पव्वइओ // 638 // "जति रज्जाओ०" गाधा / कंठा / 'एताणि'त्ति इमाणि पासध / णाहं चीराणं३ ४णाहामि, 'समणच्छण्णे य' त्ति, कोइ इड्रिमंतो समणत्तणेण छण्णो अच्छति / सो भणेज्जाअत्थि ममं 'साभरग' त्ति / केवतिता ते ? मा हीरेज्ज त्ति तो पव्वइतो / सक्क-तावसगेरुय-आजीवगा समणा-एतेहिं छण्णो अच्छति / इदाणि 'तेणय' त्ति दारं / सो भणेज्जा अत्थि में घरे वि वत्था, णाहं वत्थाइँ साहु ! चोरेमि / सुटु मुणिअं च तुब्भे, किं पुच्छह किं व हं तेणो // 639 // "अत्थि मे०" गाधा / कंठा / 'ण य नाम ण वत्तव्वं / पुढे रुटे जहा वयणं' (गा० 635) ति / स्पृ(प)ष्टे साधुभिः कस्यैतदिति ? रुषिते तस्मिन् दायके किं द्रमकोऽहमिति ? 1. चीरासंतो पू० 2 / 2. सती पू० 2 / 3. चीराणि पू० 2 / 4. ण होमि त्ति पा० / 5. साभरग त्ति देशीवचनात् रूपकाः / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका इत्यादि ब्रुवन् / रुषितेन न वक्तव्यं / यथार्हवचनं वक्तव्यमित्यर्थः / नाम शब्दो अवधारणे / किं च तद्यथार्हवचनं यद्वक्तव्यं रुषिते ? उच्यते-न वि अम्हे पुच्छामो जधा-तुमं दूहओरे ? त्ति / अम्हे पुच्छामो-मा एतं तव णीयस्स परियणस्स वा होज्जा, तेसिं च अण्णं नत्थि(ण) होज्जा / ताधे ते अण्णं संमुच्छावेज्जा / एवं सव्वे वि दूभगादिणो वि पदा विभासितव्वा / अंतेऽभिहितं प्रतिपदमुपतिष्ठतीति कृत्वा / "समणे समणी वा" [गाथा० 629] गाहा / एसा विभासितव्वा जधासंभवं / अधवा इमं तं वयणं जधारिहं जं वत्तव्वं इत्थी पुरिस णपुंसग, धाई सुण्हा य होइ बोधव्वा / बाले अवुड्डयुगले, तालायर सेवए तेणे // 640 // "इत्थी-पुरिस०" गाधा / 'इत्थि 'त्ति / अस्स विभासातिविहित्थि तत्थ थेरिं, भणंति मा होज्ज तुज्झ जायाणं। मज्झिम मा पइ-देवर, कण्णं मा थेर-भाईणं // 641 // "तिविधित्थि०" गाधा / कयाति अविरतिया देंतिया होज्जा / सा तिविधा-थेरी मज्झिमा तरुणी / ए(त)त्थ थेरं भणंति / कंठं। इयाणि पुरिस-णपुंसग-धाई-सुण्हाणं व्याख्या- .. एमेव य पुरिसाण वि, पंडगऽपडिसेवि मा णिआणं ते / सामियकुलस्स धाई, सुण्हं जह मज्झिमा इत्थी // 642 // "एमेव०" गाधा / कंठा / जधासंभवं थेरो भण्णति-'मा होज्ज तुज्झ जाताणं' / मज्झिमो-'मा ते महिलाए' / तरुणो-'मा ते पिउणो माऊए भातीण वा"। नपुंसओ जो ण पडिसेवावेति तस्स घेप्पति, तस्स य जधासंभवं जधारिहं वयणं वत्तव्वं / जो पुण पडिसेवावेति तस्स जति गेण्हति ह / आणादी / जा धाती सा भण्णति 'मा ते सामिकुलस्स होज्जा' / जा सुण्हा सा जधा मज्झिमा इत्थी तधा भण्णति / बालजुयलं-बालो बाली वा / वुड्डजुयलं-वुड्डो वुड्डी वा / एतेसिं दोण्हं पि अ जुयलाणं, जहारियं पुच्छिऊण जइ पहुणो। गेण्हंति तओ तेसिं, पुच्छासुद्धे अणुण्णायं // 643 // "दोण्हं पि०" गाधा / जति पभुणो एते जुयलया तो घेप्पति / अपभूणं पभुअणुण्णाताणं पुच्छिउं घेप्पति / 'तालायर'त्ति, [640] जति तालायरो देति सो तूरपती वा 1. ब्रुवति पू० 1 / 2. दमगो पा० / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६४०-६४८] 165 कुशीलओ वा / ते इमं भण्णंति. तूरपइ दिति मा ते, कुशीलवे तेसु तूरिए मा ते / एमेव भोगि सेवग, तेणो उचउव्विहो इणमो // 644 // "तूरपइ०" गाधा / कंठा / 'एमेव 'त्ति सेवओ जइ देति तो भण्णति-मा भोइयस्स होज्जा / भोइओ मा सेवगस्स ते होज्जा / तेणो, इमो चउव्विहो सग्गाम परग्गामे, सदेस परदेसे होइ उड्डाहो / मूलं छेओ छम्मासमेव गुरुगा य चत्तारि // 645 // "सग्गाम०" गाधा / कंठा / यथासंख्यं ‘उड्डाहो 'त्ति 'तेणो कस्स' त्ति गतं / एवं पुच्छासुद्धे, किं आसि इमं तु जंतु परिभुत्तं / किं होहिइ त्ति अहतं, कत्थाऽऽसि अपुच्छणे लहुगा // 646 // "एवं पुच्छा०" गाधा / जत्थ दोसा णत्थि पुच्छिते समणादतो, एवं पुच्छाए सुद्धं / जं परिभुत्तेल्लयं तं भणंति-किं एतं आसि ? जं एवं ण पुच्छति तो किं आस ? अपुच्छितम्मि पच्छाकम्मं पवहणं वा भवतीति वाक्यशेषः / जं पुण 'अहयं' ण ताव परिभुज्जति तं भणतिकिं एवं होहिति ? भण्णति यं-कत्थ एतं आसि ? २पेल्लाए कोठ्ठियातो वा उब्भिदित्ता वा मालोहडं होज्जा। चउसु वि चउलहुगं पच्छित्तं / णिच्चणियंसण मज्जण, छणूसवे रायदारिए चेव / सुत्तत्थजाणएणं, चउपरियट्टे तओ गहणं // 647 // णिच्चणियंसणियं ति य अण्णासइ पच्छकम्म-वहणाई। अस्थि वहंते घिप्पइ, इयरय फुस-धोय-पगयाई // 648 // "णिच्चणितंसणितं" गाधा / जं परिभुत्तं तं किं आसि त्ति पुच्छिते ते गिहत्था भणेज्जा-णिच्चणियंसणियं आसि / अधवा 'मज्जणियं' अधवा छणूसवियं अधवा रायद्दारियं / णिच्चणि'० पुव्वद्धं / जति भणेज्जा णिच्चणियंसणियं, ताधे जति तस्स णिच्चणियंसणियं अण्णं णत्थि तो न घेप्पति / को दोसो? उच्यते-पच्छाकम्मं करेज्जा / अण्णं समुच्छावेज्ज इत्यर्थः / किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा / चउपरियट्टे ततो गहणं ति / चउण्हं पि णिच्चणियंसणियादीणं परियट्टयाणं जं देति परियट्टणं तस्स जइ अण्णो परियट्टओ अत्थि वहति य, तो घेप्पति / अध अत्थि अण्णो तं ण ताव "पवाहेइ, तो ण घेप्पति / इयरे त्ति अवहंते उप्फोसेज्ज वा धोवेज्ज वा एगंतं वा करेज्जा। आदिग्गहणेणं धूवेज्जा वा, अप्पणा य पहाएज्जा 1. भण्णति पू० 1-2 / 2. पेलाए पू० 2 / 3. परियट्टियं पा० / 4. वाहेति पा० / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका णवयं णियंसेमित्ति काउं / होहिइ व णियंसणियं, अण्णासइ गहण पच्छकम्माई। अस्थि णवे वि उ गिण्हइ, तहिँ तुल्ल पवाहणादोसा // 649 // "होहिति व०" गाधा / अध कतादि तं अहतं होज्जा ताधे किं होहिति त्ति ? पुच्छिते से गिही भणेज्जा-णिच्चणियंसणियं एतं होहिति / ताधे जति अण्णं णत्थि, ण कप्पति। एत्थ वि ते चेव पच्छाकम्मादिणो दोसा / एत्थ वि जति अण्णो परियट्टओ अस्थि तो कप्पति / अध एगतरं देति, न परियट्टयं, तो जति अण्णं तण्णिभं अत्थि तो कप्पति / किंनिमित्तं? तुल्ला तत्थ पवाहणादयो दोसा / तुल्ला णाम जति गेण्हति जति य न गेण्हति तहा वि सो अप्पप्पयोगेण चेव अण्णं पवाधेउकामो काहिति पवाहणादयो दोसा एगस्स वा बितियस्स वा वत्थस्स / एमेव मज्जणाई, पुच्छासुद्धं तु सव्वओ पेहे। मणिमाई दाइंति व, असिढे मा सेहुवादाणं // 650 // "एमेव०" गाधा / जधा णिच्चणियंसणियं भणितं-कप्पति वा ण वा ? तधामज्जणिय-छणूसविय-रायद्दारियाणि वि वत्तव्वाणि / एताणि वि चत्तारि वि जाधे पुच्छासुद्धाणि कप्पणिज्जाइं णिद्धारिउं, ताधे अंतेसु दोसु घेत्तूणं, सव्वतो समंता जोएतव्वं / मा तत्थ गिहत्थाणं मणी वा हिरण्णं वा तंबं वा अण्णं वा किंचि उवणिबद्ध होज्जा / ताधे ते गिहत्था भण्णंति-जोएह 'सव्वं सव्वओ समंता / जति तेहिं गिहत्थेहिं दिटुं, दिलृ णाम / अध ण पेच्छेज्जा, ताधे साधुणो दाएंति, एतं फेडेह त्ति / आह-कहं पुण कहियं नवि तं अहिकरणं भवति ? उच्यते-थोवतरो से दोसो, अकधिते पुण से सेहोवादाणं होज्जा / सो तं घेत्तुं उप्पव्वएज्जा। गिहत्थाणि वा उड्डाहं करेज्जा 'पोत्तेण समं मम समणेहि हडं'ति / एवं तु गविट्ठेसुं, आयरिया दिति जस्स जं णत्थि।। समभागेसु कएसु व, जहरायणिया भवे बीओ // 651 // "एवं तु०" गाधा / कंठा / 'बितिउ' त्ति दानप्रकार: / वत्थकप्पिओ त्ति दारं गतं / ॥छ। इदाणि 'पातकप्पितो' त्ति दारम् / एत्थ वि अप्पत्ते अकहेत्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा // 652 // "अप्पत्ते अक०" गाधा / पादेसणासुत्तं / तं च पादं चउव्विहं णामं ठवणा दविए, भावम्मि चउव्विहं भवे पायं / एसो खलु पायस्सा, णिक्खेवों चउव्विहो होइ // 653 // ... 1. सव्वे पू० 2 / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६४९-६५६] 167 "णामं ठवणा०" गाधा / कंठा / नाम-स्थापने पूर्ववत् / दव्वे तिविहं एगिदि-विगल-पंचिंदिएहिं णिप्फण्णं / भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो // 654 // "दव्वे तिविहं०" गाधा / एगिदियणिप्फण्णं लाउगादि / विगलिंदियणिप्फण्णं सुत्तिसंखमादी / पंचिंदियणिप्फण्णं कुतुव-दंतय-संगपादादी / “भावे०" पच्छद्धं / कंठं / एत्थ दव्वपादेण अधिकारो, तं तिविधं लाउय दारुय मट्टिय, तिविहं उक्कोस मज्झिम जहण्णं / एकेक पुण तिविहं, अहागड-ऽप्पं-सपरिकम्मं // 655 // "लाउय०" गाहा / एक्केक्कं तिविधं-उक्कोसादि / उक्कोसं पडिग्गहो, मज्झिमं मत्तओ, जहण्णं 'उल्लुकगादि / पुणो एक्केक्कं तिविधं-अधागडं अप्पपरिकम्मं सपरिकम्मं / वोच्चत्थे चउलहुगा, आणाइ विराहणा य दुविहा उ। छेयण-भेयणकरणे, जा जहिँ आरोवणा भणिया // 656 // "वोच्चत्थे०" गाधा 1 वोच्चत्थे गहणे करणे वा चउलहुगा उक्कोसो / इयरेसु दोसु ना। 'आणादि 'त्ति आणा अणवत्थं मिच्छत्तं / विराहणा य दुविधा-आताए२ संजमे य / एतासिं दोण्हं विराधणाणं छेदण-भेदणकरणे जा जहिं आरोवणा भणित त्ति / आताए छिदंतस्स भिदंतस्स वा परिताव महादुक्खे, मुच्छामुच्छे य किच्छपाणगते / किच्छुस्सासे य तहा, समुघाए चेव कालगते // [ 1899 // ] "परिताव महादुक्खे०" गाधा / जधासंखंचउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य / छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची // [ 1993 // ] "चउरो लहुगा गुरुगा" गाधा / अणागाढादि संजमे घुणादि / छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं // [465 "छक्काय चउसु" गाधा / तंपि चउहिं चेव पडिमाहिं गवेसितव्वं / तं जहा 1. ओलंकादि पू० 1 / उलंकगादि पू० 2 / 2. आता य संजमेण य पू० 1-2, पा० विना / 3. बृ०क०म०वृ० विभाग 2 पृ० 554 / 4. विभाग 2 पृ० 579 / 5. पृ० 122 गा० 465, अत्रैव पुस्तके / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका उद्दिसिय पेह संगय, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ / सव्वे जहण्ण एक्को, उस्सग्गाई जयं पुच्छे // 657 // "उद्दिसिय०" गाहा। उद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ठ एरिसं भणइ / "उद्दिढ०" पुव्वद्धं / कंठं / "अहावरा तच्चा पडिमा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा, तं जहा-संगइयं वा वेजयंतियं वा" (आचारा० 2 / 6 / 1) / किमुक्तं भवति ? उच्यते ___दोण्हेगयरं संगइ, वाहयई वारएणं तु // 658 // "दोण्हेगयरं०" पच्छद्धं / जस्स गिहत्थस्स दो पादाणि सो दिणे दिणे तेसिं वारएणं एगतरं वाहेति / जत्थ जं वाहिज्जति तं संगतियं / जं धरिज्जति तं वेजयंतियं / एरिसं कोइ साधू मग्गेज्जा अभिग्गहविसेसेण उज्झितं दव्वाइ दव्व हीणाहियं तु अमुगं च मे ण घेत्तव्वं / दोहि वि भावणिसिलु, तमुज्झिओ भट्ठऽणोभटुं // 659 // अमुइच्चगं ण धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स / जं वुज्झे भरहाई, सदेस बहुपायदेसे वा // 660 // दगदोद्धिगाइ जं पुव्वकाल जुग्गं तदण्णहिं उज्झे / होहिइ व एस्सकाले, अजोग्गयमणागयं उज्झे // 661 // लखूण अण्णपाए, पोराणे सो उ देइ अण्णस्स / सो वि अणिच्छइ ताई, भावुज्झिय एवमाईयं // 662 // ओभासणा य पुच्छा, दिडे रिक्के मुहे वहंते य / संसटे उक्खित्ते, सुक्के अ पगासे दणं // 663 // "दव्वादि" गाधा / कासइ गिहिणो दव्वाभिग्गहो। जधा-इमातो पमाणातो हीणं अधियं वा मए ण घेत्तव्वं / अधवा अमुगं ति चड्डओ ओलंबियापडिग्गहो वा मए ण घेतव्वो, तं च उवणीयं, वस्त्रवच्चर्चा, जाव भावुज्झितमेवमादीयं / एत्थ वि चउपडिमा / 'गच्छ–जिणे दोण्हग्गहभिग्गहणंतरा' इत्याद्यारभ्य / तहेव गच्छवासीणं 'जं जस्स नत्थि पादं' एत्तो आरब्भ जधा वत्थं, जाव सव्वे त्ति गीतत्था / जहण्णेणं एगो गीयत्थो अवस्स भवति जो परिच्छति। उस्सग्गादि 1. जं अच्छति तं पू० 1-2 / 2. पडिमातो ही० पू० 2 / 3. घेत्तव्वं पू० 2 / / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६५७-६६७] त्ति / आवाससोधि अखलंत तधेव से पायच्छित्तं / जतं ति / सावएसु पुणो न ओभासणा / कि तहि ? भावितकुलओभासणा / एतदुक्तं भवति 'ओभासणा य / पुच्छे ति। णीणीते कस्सेतं? किं वाऽऽसि? एत्तो आरब्भ / सेसं जधा वत्थे भणितं, तधा पादे वि वत्तव्वं जधासंभवं, जाव "एवं तु गविढेसु आयरिया देंति जस्स जं णत्थि / समभागेसु कतेसु वि जहरातिणिता भवे बितिओ // [651] // " "पुच्छा दिढे रिक्के मुहे" दारगाधा-(६६३) / पुच्छा-दिढे त्ति / दिट्ठमदिटे दिटुं, खमतरमियरेण दिस्सए काया / दहिमाईहि अरिक्कं, वरंतु इयरे सिया पाणा // 664 // 'दिट्टमदिडे', सीसो पुच्छति-दिट्ठमदिट्ठाणं कतरं खमतरं जं घेप्पति ? आयरिओ भणति-दिटुं खमतरं इतरे ण दिस्सते काया / दृष्टादृष्टयोदृष्टं क्षमतरं भवति, वरतरं ति वा, जोग्गतरं ति वा एगटुं / कस्मात् कारणात् ? उच्यते-'इतरे ण दीसए काय' त्ति / इतरं णाम अदिटुं / तम्मि च्छक्काया ण दीसंति / किं रिक्कं घेप्पतु अरिकं ? उच्यते-जं दधिमादीहिं अरिक्वं तं घेप्पतु / इतरं ति रिक्कं, आउक्कायादीहिं य जं रिक्कं तं वरं / किं कतमुहं घेप्पतु अकयमुहं ?, वहंतयं घेप्पतु अवहंतयं ? उच्यते___अकयमुहे दुप्पस्सा, बीयाई छेयणाइ दोसा वा। कुंथूमादवहंते, फासुवहंतं अओ धण्णं // 665 // "अकयमुह०" गाधा / कंठा / एतेण कारणेणं जं फासुएणं वहंतयं तं चोक्खयं / ण वि जं आउक्कायादिणा / किं संसढे घेप्पतु, असंसर्ट ?, णिक्खित्तं गेण्हतु, उक्खित्तं ?, सुक्खं गेण्हतु उल्लं ?, पगासमुहं गेण्हतु अप्पगासमुहं ? एवं पुच्छिते आयरिओ आह एमेव य संसटुं, फासुय अप्फासुएण पडिकुटुं। उक्खित्तं च खमतरं, जं चोल्लं फासुदव्वेण // 666 // जं होइ पगासमहं, जोग्गयरं तं तु अप्पगासाओ। तस-बीयाइ अदटुं, इमं तु जयणं पुणो कुणइ // 667 // “एमेव०" गाहाद्वयम् / 'एमेव'त्ति, पुच्छिते समाणे जं फासुयदव्वेणं संसटुं तं चोक्खं / अफासुतेण जं तं पडिकुटुं ति ण वट्टति, जं च असंसटुं / सेसं कंठं / 'द?णं' ति, [गा० 663] एवं दिट्ठादीहिं सुद्धं समाणं घेत्तुं चक्खुणा पडिलेहिउं ति भणितं होति / जतिरे किंचि न पेच्छति तसादिं ताधे 'तस-बीयादिं अटुं इमं तु जतणं पुणो कुणति' / . 1. बहवे पू० 2 / 2. जं पू० 2 / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य / तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमाईसु // 668 // "ओमंथ०" गाधा / 'ओमंथ'त्ति अस्स विभासादाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे। खोडेइ तिण्णि वारे, तिण्णि तले तिण्णि भूमीए // 669 // "दाहिणकरेण०" गाधा। कंठा। पाणमादित्ति [665] अस्स विभासा। खोडिते समाणे। तस-बीतादि व दिटे, ण गेण्हई गेण्हई उ अद्दिढे / गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पइ दिदेहि वि बहूहि // 670 // "तस-बीतादि व दिवे०" गाधा / वा ग्रहणं खोडिते समाणे दिटुं वा होज्जा ण दिटुं वा / जति दिटुं, ण गेण्हति / अध ण दिटुं, तो गेण्हति / गहणे परिसुद्धे पच्छा जति बीयादी दिट्ठा होज्जा ताधे वि गेण्हति चेव ण परिढुवेति वा, पडिअल्लीवेइ वा सणियं जयणाए फेडेति जत्थ न उद्दाइयंति / पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य [665] त्ति / सीसो पुच्छति–पादस्स के मूलगुणा के उत्तरगुणा ? / उच्यते मुहकरणं मूलगुणा, पाए णिक्कोरणं च इअरे उ। गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो // 671 // "मुहकरणं०" गाधा / संजतट्ठाए मुहं कतं, संजयट्ठाए णिक्कोरितं, एत्थ चउगुरुगा। दोहि वि गुरुगा। संजयट्ठाए मुहं कतं आयट्ठाए णिक्कोरितं चउगुरुगा, तवगुरुगा काललहू / आतट्ठाए मुहं कतं संजयट्ठाए णिक्कोरितं चउलहुगा, तवलहु कालगुरु / चउत्थो सुद्धो / मुहकरणं मूलगुणा, णिक्कोरणं उत्तरगुणा / विसोधिकोडी य तिट्ठाणे तिक्खुत्तो त्ति [665] जं दाहिणकरेण कोणे घेत्तुं वामहत्थमणिबंधे तिण्णि वारे खोडेति, तिण्णि तले, ताधे तिण्णि भूमीए / एतेसु तिसु ठाणेसु एक्कक्के तिक्खुत्तो खोडेति / जं एतदुक्तं भवति–'तिट्ठाणे तिक्खुत्तो'त्ति / एवं कते पच्छा सुद्धो ससिणिद्धमादीसु / जत्थ आउक्कायवहंतयं अहुणोवणीय-आउक्कायससिणिद्धं होज्जा / तं च न णेण विभावितं तिट्ठाणादिविधि करेंतेणं / तत्थ य सुयणाणपमाणतो सुद्धो। आदिग्गहणेणं बीयादिसु सुद्धो। पादकप्पितो त्ति गतं ॥छ। इदाणि उग्गहकप्पितो त्ति दारं / एत्थ वि अप्पत्ते अकहित्ता [गा० 475] सुत्तं / उग्गहपडिमा देविंद-राय-गहवइ-उग्गहों सागारिए असाहम्मी। पंचविहम्मि परूविएँ, णायव्वो जो जहिं कमइ // 672 // . 1. पडियल्लेति पा० / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 भाष्यगाथा-६६८-६७५] "देविंदराय०" गाधा। एस पंचविहो उग्गहो। तत्थ देविंदोग्गहो' णाम जत्तियस्स सक्को ईसाणो वा पभवति / राओग्गहो चक्कवट्टिमादिणो रायाणो जत्तियस्स पभवंति / एवं सेसा वि। हेछिल्ला उवरिल्लेहिँ बाहिया ण उ लहंति पाहण्णं / पुव्वाणुण्णाऽभिणवं च चउसु भय पच्छिमेऽभिणवा // 673 // "हेछिल्ला०" गाधा / हेट्ठिल्लो देविंदोग्गहो / तस्स उवरिल्लो राओग्गहो / सो देविंदोग्गहं बाहति, तेण देविंदोग्गहो बाधितो पाधण्णं ण लब्भति / जं भणितं होति-राउग्गहे राया चेव पभवति ण देविंदो / तेण तत्थ राया चेव अणुजाणावेतव्वो / तं पि गाधापतिउग्गहो बाहति / तं पि सागारिओग्गहो बाधति / तं पि साहम्मिओग्गहो बाधति / 'पुव्वाणुण्णा' णाम जो अण्णेहिं २पुव्वएहिं साहूहिं उग्गहो अणुजाणावितो पच्छा अण्णेहिं परिभुज्जति सा पुव्वाणुण्णा भवति / जधा पुरा साधूहि देविंदो अणुजाणावितो संपयं पि सा चेव पुव्वाणुण्णा अणुसज्जति / अभिणवा अणुण्णा णाम जता अण्णो देविंदो उववण्णो भवति, तदा सो अणुजाणाविज्जति / सा तेसिं चेव साधूणं अभिणवा अणुण्णा भवति। अण्णेसिं पुव्वाणुण्णा चेव। एवं रायादीणं पि। पुव्वाणुण्णाभिनवं च चउसु भय त्ति गतं / 'पच्छिमेऽभिणव'त्ति / पच्छिमो साधम्मिउग्गहो / तत्थ अभिणवाणुण्णा चेव भवति, २ण पुव्वाणुण्णा / जेणं जो जं जाधे उवसंपज्जति साधम्मिओ साहम्मियं सो तं ताधे चेव अणुजाणावेति / जं पुण पुव्वाणुण्णा तं साधुणो साधू वत्थाति परिभुंजति तत्रात्मीयोपचार एव भवति / तेण सा पुव्वाणुंण्णा भवतीति, पंचविधम्मि परूविए / कधं ? उच्यते दव्वादी एक्केको, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहण्णे / ___ तत्थेव य जे दव्वा, कालो भावो असामित्ते // 674 // "दव्वादी०" गाधा / देविंदोग्गहो चउव्विहो / तं जधा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ / एवं सेसा वि दव्वादीया चउव्विधा भाणितव्वा / एत्थ पढमं खेत्तोवग्गहो परूविज्जति / किंनिमित्तं ? उच्यते क्षेत्रं प्राधान्ये वर्तते / अस्मिन्नेव क्षेत्रे यतो यद् द्रव्यं कालो भावश्च आधेयः अतस्तदाधारभूतं स्वामित्वे वर्तते द्रव्यादीनां क्षेत्रं / तस्मिंश्च प्रथमं प्ररूपिते द्रव्यादयः प्ररूपिता एव भवन्ति / अतः क्षेत्रमेव प्रथमं प्ररूप्यते / आह-पेशलमपदिष्टं, स प्ररूप्यतां क्षेत्रावग्रह: इदानीम् / ५श्रूयतां, ब्रूमः पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि / जा कुणइ दुहा लोगं, दाहिण तह उत्तरद्धं च // 675 // ... 1. जतिल्लयस्स पू० 1 / 2. पुव्वसाहूहिं पा० / 3. जधा पुव्वा० पू० 2 / 4. एव इत्यतः क्षेत्र० पू० 2 / 5. उच्यते पू० 1-2 / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका साधारण आवलिया, मज्झम्मि अबद्धचंदकप्पाणं / अद्धं च परक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते // 676 // "पुव्वावर०" गाधा / जा इमा लोगस्स मज्झे मंदरस्स पव्वयस्स उप्पि सेढी एगपएसा ताए लोगो दुधा कतो / दाहिणटुं च उत्तरद्धं च / तत्थ दाहिणड्डस्स सक्को वसायति / उत्तरड्डस्स ईसाणो / ताए मज्झिमसेढीए जा विमाणावलिता ठिता सा तेसिं दुण्ह वि देविंदाणं साधारणा / मज्झम्मि अबड्डचंदकप्पाणं ति, या मध्ये स्थिता अर्द्धचन्द्राकृतयो: कल्पयोः सौधर्मेशानयोरित्यर्थः, सा साधारणा / कथं ? जे वट्टविमाणा ता एते सक्कस्स, तंस-चउरंसाणं २एगंतरं ईसाणस्स / ते य जे ताए आवलियाए विमाणा तेसिं अद्धं सखेत्ते पतिट्ठियं, अद्धं परखेत्ते / तत्थ सेढीए दाहिणेणं, जा लोगो उड्डमो सकविमाणा। हेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स // 677 // "सेढीए०" गाधा / कंठा / एतस्स सव्वस्स सक्को पभवति / एस देविंदोग्गहो / इदाणि राओग्गहो सरगोयरो अ तिरियं, बावत्तरि जोयणाइँ उठें तु / अहलोगगाम-अघमाइ हेटुओ चक्किणो खित्तं // 678 // "सरगोयरो०" गाधा / तिरियं जाव चक्कवट्टिस्स सरो वच्चति मागहादिसु / उढे जाव सरो चेव चुल्लहिमवंतकुमारस्स मेराए वच्चति चउसट्ठी जोयणाणि, सुत्तादेसेण वा बावत्तरि / अधे जाव अधोलोइया गामा, अधवा अघ त्ति अघा णाम गड्डाओ / आदिशब्दाद् अगडादयः एवतियस्स खेत्तस्स चक्कवट्टी श्वसयति / राओग्गहो गतो / इदाणिं गाधावतिउग्गहोगहवइणो आहारो, चउद्दिसिं सारियस्स घरवगडा। हेट्ठा अघाऽगडाई, उर्दु गिरि-गेह धय-रुक्खा // 679 // "५गाधावतिणो०" गाधा / आधारो णाम विसओ जत्तिओ जस्स स गहवतिउग्गहो उक्कोसओ / सागारियस्स घरवगड त्ति / सागारियउग्गहो उक्कोसतो जाव घरस्स वगडा / वगडा णाम पलिहतं वतिपरिक्खेव इत्यनान्तरं / एस ताव तिरियं भणितो / इदाणि दोण्ह वि अधे उड्डे च भणति / हेठ्ठा अघागडादि / अघा गड्डा दहो वा, अगडो 1. वसयति पू० 2 / 2. एगतरं पू० 1-2, पा० विना / 3. वसायति पू० 1, पा० / 4-5. गहवति० पू० 2 / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६७६-६८३] 173 कूवो / आदिशब्दात् वाविमादि / उड्ढे पव्वया जोयणियादी / घरोवरिं वा चढितव्वयं होज्जा झया वा, जधा-हत्थिज्झयो इत्यादि / रुक्खे वा तम्मि चढियव्वयं होज्जा / एस सागारियगहवतीणं' होज्जा / एस उक्कोसतो भणितो। अजहण्णमणक्कोसो, पढमो जो आवि चक्कवठ्ठीणं / सेसणिव रोहगाइसु, जहण्णओ गहवईणं च // 680 // णगराइ णिरुद्ध घरे, जा याऽणुण्णा उ दुचरिम जहण्णो। उक्कोसो उ अणियओ, अचक्किमाई चउण्हं पि // 681 // "अजहण्णमणु०" गाधा / पढमो णाम देविंदोग्गहो, राओग्गहो य जो चक्कवट्टिस्स / एतेसिं दोण्ह वि जहण्णयं उक्कोसयं वा णत्थि / णियमा एते अजहण्णुक्कोसया / सेसणिव त्ति, चक्कवट्टि मोत्तुं जे अण्णे निवा तेसिं जहण्णओ उग्गहो भवति / 'णगरादि णिरुद्ध०' जत्थ णगरं णिरोहितं अण्णेण रण्णा / आदिशब्दात् खेडादि / तत्थ णगरमज्जाता जहण्णओ उग्गहो भवति। गहवतिउग्गहो वि जहण्णओ णगररोहए चेव भवति / जत्तियं से ३अपेल्लियं लोएणं रण्णा वा बलवाहणेणं अमायमाणे घरे जाताणुण्णाओ / 'दुचरिम जहण्णो 'त्ति दो चरिमा उग्गहा दुचरिमा सागारियउग्गहो, साहम्मिउग्गहो य। एते णगरादिरोहए जाहे घरं पेल्लितं भवति लोएणं, ताधे जा अणुण्णा ‘एतं तुब्भं इमं अम्हं' ति / जेहिं य समणेहिं जा घरे त्ति उवस्सए मेरा कता, एस जहण्णओ सागारिउग्गहो, साहम्मिउग्गहो य भवति / "उक्कोस.''त्ति पच्छद्धं / जो चक्कवट्टी ण भवति राया तस्स गहवतिउग्गहो सागारिउग्गहो साहम्मिउग्गहो एतेसिं उक्कोसओ उग्गहो अणियतो / जं भणितं होति अण्णस्स बहुओ अण्णस्स थोवओ / अणुण्णाए वि सव्वम्मी, उग्गहे घरसामिणा / तहा वि सीमं छिंदंति, साहू तप्पियकारिणो // 682 // झाणट्ठया भायणधोवणाई, दोण्हऽट्ठया अच्छणहेउगं च / मिउग्गहं चेव अहिट्ठयंते मा सो व अण्णो व करेज्ज मण्णुं // 683 // "अणुण्णाए०" सिलोगो / जति वि सागारिएणं सव्वं अणुण्णातं / तं जधा-जत्थ जत्थ रुच्चति तत्थ तत्थ अच्छध, भायणे धोवेध, वोसिरध कायियादि / सज्झायं वा करेध / तध वि मा सबाल-वुड्डाकुलेणं गच्छेणं अतिबहुए अकंते काइयादिणा भग्गे मा 'मण्णु' ति दुक्खं करेहिति / वरं च चिंतेंतो एत्तिया साधू तह वि णज्जति-एत्थ कोइ ण वसति, ताधे तस्य प्रियोत्पादननिमित्तं मेरं थावेति / हे सावत ! एत्थं अम्हे झाणं झाइस्सामो, एत्तो परं ण वि, एत्थ भायणे धोविस्सामो, एत्थ ण वि / दोण्हट्ठय त्ति उच्चारस्स य पासवणस्स य / एत्थ उच्चारं 1. ०गाधावतीण पा० / 2. अजह० पू० 2 / 3. अप्पेल्लिययं पू० 1-2 विना / 4. जाव पू० 1-2 / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका जति नाम कस्सइ रत्तिं होज्जा / एत्थ पासवणं, अण्णत्थ ण वि / एत्थ अच्छीहामो काएइ वेलाए लिहंता वा, रंगेंता वा भाणे / एवं ठविते मितोग्गहं चेव अधिट्ठितं / ते जा कता मेरा तं चेव अधिट्ठयंति / अकए पुण अण्णे वि जे तं ओगासं भंजंति सण्णादीहि तं पि समणाणं चेव उवरिएणं 'एति / 'सो' त्ति सागारिओ, अण्णो णाम जो तस्स णिएल्लओ। एस खेत्तोग्गहो गओ। इदाणि दव्वोग्गहो चेयणमचित्त मीसग, दव्वा खलु उग्गहेसु एएसु। जो जेण परिग्गहिओ, सो दव्वे उग्गहो होइ // 684 // "चेयणमचित्त०" गाधा / कंठा / 'एतेसु'त्ति देविंदोग्गहादिसु / इदाणि कालोग्गहो। दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्त सय पुव्व चुलसीई। सेसणिवम्मि मुहुत्तं, जहण्णमुक्कोसए भयणा // 685 // "दो सागरा०" गाधा / पढमो णाम देविंदोग्गहो / चक्कवट्टिउग्गहो जहण्णेणं सत्तवाससता बंभदत्तस्स / उक्कोसेणं चउरासीतिं पुव्वसतसहस्साई भरहस्स / 'सेसणिव'त्ति चक्कवट्टि मोत्तुं जे अण्णे रायाणो तेसिं जहण्णओ कालोग्गहो अंतोमुहत्तं, एत्तियं से आउयं होज्जा। अधवा एत्तिएणं कालेणं फेडितो होज्जा / 'उक्कोसए भयण'त्ति / अंतोमुहत्तओ परेणं समयाधियातो ठितीतो जाव चउरासीति पुव्वसयसहस्साइं / एत्थंतरे जेणं रण्णा जं आउयं णिव्वत्तितं, जो वा जत्तियं कालं रज्जाधिवच्चं करेति, तस्स तस्स सो उक्कोसओ कालोग्गहो भवति / एतेण कारणेणं भयणा भवति / एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहण्णओ मासो। उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उकज्जम्मि // 686 // "एवं०" गाधा / एवं गहवइ-सागारियाण वि कालोग्गहो जहण्णओ उक्कोसओ य जहा सेसनृपस्येति / चरिमो नाम साहम्मिओग्गहो सो जहण्णेणं एक्को मासो उडुबद्ध मासकप्पेणं वसमाणाणं / चत्तारि मासा वासासुरे वसमाणाणं / दोसु वि भयणा ओ कज्जम्मि त्ति जहण्णए य उक्कोसए य / साहम्मिउग्गहे असिवादीहिं कारणेहिं कयाइ मासो चउमासो वा ण चेव पूरिज्जेज्जा, अइरित्तो वा होज्जा / गओ कालोग्गहो / इयाणि भावोग्गहो। 1. ०एणं ति पू० 2 / 2. वासावासेसु पू० 1 / / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 भाष्यगाथा-६८४-६९२] चउरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ / मणसीकरणमणुण्णं, च जाण जं जत्थ ऊ कमइ // 687 // "चउरो०" गाहा / चत्तारि आदिल्ला उग्गहा ओदइए भावे वटुंति / साधम्मिउग्गहो खओवसमिते भावे वट्टति / जं तं दारगाधाए भणितं-"पंचविहम्मि परूविए, णातव्वं जो जहिं कमति" (गा० 672) एस सो पंचविधो परूवितो / एतम्मि पंचविधे परूविते किं ज्ञातव्यं "जं जहिं कमइ"? उच्यते-"मणसीकरणमणुण्णं च जाण जं जत्थ ऊ कमति" जाणित्ता कस्सेसो उग्गहो, देविंदस्स रण्णो गहवइस्स वा सागारियस्स साहम्मियस्स वा ? ताधे देविंदरायाणो मणसा चेव भणति–'अणुजाणतु जस्स उग्गहो'त्ति / सेसे अणुण्णवेति / देविंद-राईसु मणसीकरणं कमति / सेसेसु अणुण्णा कमति। भावोग्गहाँ अहव दुहा, मइ-गहणे अत्थ-वंजणे उ मई। गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसीकर' अकरणे तिविहं // 688 // "भावोग्गहो०" गाधा / कंठा / तिविधं ति पच्छित्तं उक्कोसादिसु सचित्तादिसु वा 3 / पंचविधम्मि परूविएँ, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्यो / अण्णाए उग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं // 689 // "पंचविधम्मि०" गाधा / जो एस हेट्ठा परूवितो एतस्सि पंचविधे परूविते, जो जाणओ उग्गहस्स सो गेण्हति / 'अण्णाते'त्ति जो अजाणओ सो मणसीकरणमणुण्णाणविधि न याणति अतो ण गेण्हति, जति ओगेण्हति तो पायच्छित्तं इमं तिविधं इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु / कट्ठ-कलिचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु // 690 // "इक्कड०" गाधा / कंठा / 'कढिणो'त्ति सरो / उग्गहो त्ति दारं गतं / इदाणि विहारकप्पिओ / सो विहारो दुविधोगीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थणिस्सिओ भणिओ। इत्तो तइय विहारो, नाणुण्णाओ जिणवरेहिं // 691 // "गीयत्थो य०" गाधा / आह, किमुक्तं भवति गीतार्थः इति ? उच्यतेगीतं मुणितेगटुं विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं / गीएण य अत्थेण, गीयत्थो वा सुयं गीयं // 692 // 1. एतस्स पू० 2 / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "गीतं मुणिते." गाधा / पच्छद्धस्स 'व्याख्यागीतेण होड़ गीई, अत्थी अत्थेण होइ णायव्वो। गीतेण य अत्थेण य, गीयत्थं तं विजाणाहि // 693 // "गीतेण०" गाधा / कंठा / आह, को गीतत्थो ? उच्यतेजिणकप्पिओं गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो / गीयत्थे इड्दिदुगं, सेसा गीयत्थणीसाए // 694 // "जिणकप्पिओ०" गाधा / अपि शब्दात् प्रतिमाप्रतिपन्नको अधालंदिकश्च गीतार्थ एव / एते गीतार्था भवन्ति / इड्डिदुगं च गीतार्थम् / आह, किमिड्डिदुगं ? उच्यते आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होंति तण्णीसा। गच्छगय णिग्गया वा, थाणणिउत्ताऽणिउत्ता वा // 695 // "आयरिय०" गाहा / कंठा / के य ते सेसा ? उच्यते-गच्छगता णिग्गता त गच्छातो असिवादीहिं, २उल्मुकदृष्टान्तात् / अधवा सेस त्ति, थाणणिउत्ता य थाणअणिउत्ता य, ठाणणिउत्ता पवित्तिमादी / तव्वतिरित्ता अणिउत्ता / आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा। तण्णीसाएँ विहारो, सबाल-वुड्डस्स गच्छस्स // 696 // "आयारपकप्प०" गाधा / आयारपकप्पधरो जहण्णओ गीतत्थो / चोद्दसपुव्वी उक्कोसओ, मज्झे मज्झिमओ / सेसं कंठं / एते गीयत्थे मोत्तुं एतण्णिस्सं च, सेसस्स न वट्टति / जो पुण एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपण्णो मंदो, होहिइ वोसट्टतिट्ठाणो // 697 // "एगविहारी०" गाधा / जो एगागी विहरति सो एगविहारी / सो पुण जातकप्पिओ वा होज्जा, अजातकप्पिओ वा / जातकप्पिओ णाम गीतत्थो, अजातकप्पिओ अगीतत्थो / चवणकप्पो नाम पासत्थादिविहारो / एतेर्सि इमं पच्छित्तं मोत्तूणं गच्छणिग्गत, गीयस्स वि एक्कगस्स मासो उ। अविगीए चउगुरुगा, चवणे लहुगा य भंगट्ठा // 698 // "मोत्तूण" गाधा / गच्छणिग्गते जिणकप्पियादिणो मोत्तुं जो अण्णो गीतत्थो वि 1. वक्खाणिज्जइ पू० 1-2, पा० विना / 2. उलुमुक० पू० 2 / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-६९३-७०२] 177 एगल्लओ विहरति तस्स मासलहू / अगीतत्थो जो एगागी विहरइ तस्स 4 // चवणकप्पेणं विहरति चउलहुगा / मनसा इत्यर्थः / च शब्दाद् यच्चापद्यते / 'भंगट्ठ'त्ति / एगविहारी अजातकप्पिओ चवणकप्पेणं विहरति / अण्णो एगविहारी अजातकप्पिओ वि णो चवणकप्पेण। एवं अट्ठ भंगा कातव्वा' / सव्वत्थ संजोगपच्छित्तं / चरिमो सुद्धो / एस सत्तविहो / उवसंपण्णो त्ति / एगागित्तमणट्ठा-उवसंपज्जइ चुओ व जो कप्पा / सो खलु सोच्चो मंदो, मंदो पुण दव्व-भावेणं // 699 // "एगागित्त०" गाधा / कल्पादिति संविग्नकल्पात् प्रच्युतः, शोचनीयः-शोच्यः मंदश्चासौ / मंदो दुविधो-दव्वमंदो भावमंदो य / एक्केको पुण उवचय-अवचय भावे उ अवचए पगयं / तलिना बुद्धी सेट्ठा, उभयमओ केइ इच्छन्ति // 700 // "एक्केको०" गाधा / दव्वमंदो दुविधो-उवचए अवचए य / भावमंदो वि दुविधो उवचए अवचए य / एत्थ पुण भावावचयमंदेणं पगतं / सेसा विगोवणनिमित्तं उच्चारियसरिस त्ति काउं परूविया / तत्थ दव्वमंदो उपचए जो थूलसरीरो, अवचए जो किससरीसो / उवचए भावमंदो जो बुद्धिमंतो / अवचए जो रेणिब्बुद्धी / अधवा 'तलिना' बुद्धिः, श्रेष्ठा इति कृत्वा, सा यस्य स एवोपचयमंदो भवति, यस्य स्थूला सो अवचयमंदो भवति / अतः उभयथाप्यपचयमंदं केचिदाचार्याः इच्छन्ति / वोसट्ठाणि तिण्णि ठाणाणि जेण सो वोसट्ठतिहाणो (गा० 697) / कयराणि पुनस्तानि त्रीणि स्थानानि यानि तेन व्युत्सृष्टानि ? उच्यते- . णाणादी तिट्ठाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च / सुत्तऽत्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा // 701 // "णाणादी०" गाधा / कंठा / वा शब्दादेषणा य / कथं पुनरसौ ज्ञानं व्युत्सृजते ? उच्यते-एगागिस्स / अप्पुव्वस्स अगहणं, ण य संकिय पुच्छणा ण सारणया / गुणयंते अ अटुं, सीदइ एगस्स उच्छाहो // 702 // 1. अष्टौ भंगा:-१. एकाकी अजातकल्पिक श्च्यवनकल्पिकः 2. एकाकी अजातकल्पिको न च्यवनकल्पिक: 3. एकाकी जातकल्पिकश्च्यवनकल्पिकः 4. एकाकी जातकल्पिको न च्यवनकल्पिकः / एकमेकाकिपदेन चत्वारो भगा लब्धाः, अनेकाकिपदेनापि चत्वारो भंगा लभ्यन्ते / सर्वसंख्यया अष्टौ भंगाः / (बृ०वृ०१ पृ० 209) / 2. विकोवण० पू० 2 / 3. अबुद्धी पा० / 4. तालिका पू० 2 / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "अप्पुव्वस्स०" गाधा / कंठा / दसणे चरणे य / चरगाई वुग्गाहण, ण य वच्छल्लाइ दंसणे संका। थी सोहि अणुज्जमया, णिप्पग्गहया य चरणम्मि // 703 // "चरगाई०" गाहा / कंठा / स्त्रीप्रसंग: स्यात् / 'सोही'णाम पच्छित्तं / तं से खलियस्स को देउ ? अणुज्जमंतस्स सारणं को करेउ ? "णिप्पग्गहता य" त्ति, ण कस्स वि संकितव्वं, ताधे जं से रुच्चति तं करेइ / किञ्च सामण्णाजोगाणं, बज्झो गिहिसण्णसंथुओ होइ। दंसण-णाण-चरित्ताण मइलणं पावई एक्को // 704 // "सामण्ण" गाधा / श्रमणभावे ये योगा वैयावृत्त्यादयः, तेषां बाह्यः-अनाभागी भवतीत्यर्थः / गिहिसण्णसंथुतो कधं होति ? उच्यते कतमकते गिहिकज्जे, संतप्पइ पुच्छई तहिं वसइ। . संथव-सिणेहदोसा, भासा हिय णट्ट सोगो अ॥७०५॥ "कतमकते०" गाधा / कंठा / 'भास'त्ति सावज्जा / दंसणमइलणा चरगादीहिं / णाणमइलणा पावसुताणुरागतो उम्मग्गपण्णवणाए वा / चरणं एगणितस्स विद्दाति चेव / विहार इति वर्तते / गच्छो त णियमा विहरति, तस्स य आतरियो अधिपती / तो इच्छामो णाउं केरिसस्स गच्छो दिज्जति ? / अणरिहस्स य देतो, अणरिहो त धरेमाणो, एते किं पच्छित्तं पावंति ? एतेण अभिसम्बन्धेण इमा गाधा अबहुस्सुए अगीयत्थे णिसिरए वा वि धारए व गणं / तद्देवसियं तस्सा, मासा चत्तारि भारिया // 706 // "अबहुस्सुते'" बहुस्सुत-अबहुस्सुत गीत-मगीता पुव्वं भणिता / अबहुस्सुते अगीतत्थे निसिरए वा वि / अस्स विभासा अबहुस्सुअस्स देइ व, जो वा अबहुस्सुओ गणं धरए / भंगतिगम्मि वि गुरुगा, चरिमे भंगे अणुण्णाओ // 707 // अबहुस्सुतस्स देति / अबहुस्सुतस्स अगीतत्थस्स जो देति 4] / अबहुस्सुतस्स गीतत्थस्स देति जो तस्स वि 4 / एतस्स आचारपगप्पो सुत्तओ नट्ठो, अत्थं संभरति / अधवा आणाधारणाहिं गीतत्थो, बहुस्सुतस्स अगीतत्थस्स देति 4 / बहुस्सुतस्स गीतत्थस्स देति एत्थ सुद्धो / अबहुस्सुते अगीतत्थे धारए व गणं / अस्स विभासा / जो वा अबहुस्सुतो तु गणं धरए / 1. श्रामणभवा पू० 2 / 2. णटुं पू० 2 / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७०३-७०९] 179 अबहुस्सुतो अगीतत्थो जति दिण्णं गणं धरेइ 4 / अबहुस्सुतो गीतत्थो धरेइ 4 / बहुस्सुओऽगीतत्थो धरेइ 4 / बहुस्सुओ गीतत्थो धरेइ एत्थ सुद्धो। चरिमे भंगे अणुण्णाओ त्ति / जो बहुस्सुतस्स गीतत्थस्स देति, एतं अणुण्णातं / जो य एतेण दिण्णं बहुस्सुतो गीतत्थो धरेति, एस वि अणुण्णातो। आह, जं एतं देंतय-धरैताणं तिसु भंगेसु चउगुरुगं पच्छित्तं भणितं एत्तिएण गतं? उच्यते-ण वि 'तद्देवसितं' (गा० 706) पच्छद्धं / अस्स विभासा सत्तरत्तं तवो होति, तओ छेओ पहावई। छेएणऽच्छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं // 708 // "सत्तरत्तं तवो होति" / अस्यापि व्याख्या एक्ककं सत्त दिणे, दाऊण अइच्छियम्मि उ तवम्मि / पंचाइ होइ छेदो, केसिंचि जहा कडो तत्तो // 709 // "एक्केकं सत्त दिणे" पुव्वद्धं / सत्त दिवसे' चउगुरुगं 2 पच्छित्तं भवति / ताधे जति एत्तिए अपुणक्कारेण ठिता तो एत्तियं चेव पच्छित्तं / अध ण ठायंति तो अण्णे सत्तदिवसे दिणे दिणे छल्लहुगं दिज्जति / जति द्विता सुंदरं, अह ण उवसमंति तो अण्णे सत्तदिवसे दिवसेरे छगुरुगं 2 दिज्जति / जति उवरता, ठितं पच्छित्तं ति / अह ण उवरमंति ताधे छेदो पधावति / सो पुण च्छेदो केई भणंति-पंचरातिदियातो आढवेति / अण्णे भणंति-जतो तवो कडो त्ति आरद्धो, तओ छेओ वि आढवेति चउगुरुगादित्यर्थः / जधा छेदस्स पंचराइंदिया आढवणाए चउगुरुगा आढवणाए एते दो आदेसा दिट्ठा तधा लहु गुरुए वि दो आदेसा / केइ भणंतिलहुएहितो पंचराइंदिएहितो आढवेति / केई भणंति-गुरुएहितो पंचरातिदिएहितो आढवेति / तत्थ लहुआढवणा सत्तदिवसाणि, पणगलहुओ 2 छेओ / तओ अन्नाणि ३सत्त पणगगुरुओ छेओ, तओ अण्णाणि सत्त दसलहुओ छेदो, ततो अण्णाणि सत्त दिणाणि दसगुरुगो छेदो, "ततो अण्णाणि सत्त पण्णरसलहुगो छेदो, ततो अण्णाणि सत्त पण्णरसगुरुगो छेदो, तओ अण्णाणि सत्तवीसलहुओ छेओ, तओ अण्णाणि सत्तवीसगुरुगो छेओ, ततो अण्णाणि सत्त पंचवीसलहुओ छेदो / ततो अण्णाणि सत्त पंचवीसगुरुगो छेदो। ततो मासा Iol, ततो मासा |10|, ततो ह्व। तओ अण्णाणि सत्त 4ii छेदो, ततो अण्णाणि सत्त 6 छेदो। ततो अण्णाणि सत्त 6. छेदो। गुरुआढवणा इमा। छग्गुरुगातो तवातो उवरि अण्णाणि सत्तदिवसाणि ५पणगगुरुओ छेदो / ततो अण्णाणि सत्त दसलहुतो छेदो / ततो अण्णाणि सत्त दसगुरुओ छेदो। एवं जाव ततो अण्णाणि सत्त पंचवीसलहुओ छेदो, ततो अण्णाणि सत्त पणुवीसगुरुओ छेदो / तओ 1. सत्तदिवसे 2 चउगुरुगं प० पू० 2 / 2. दिवसे 2 छगुरुगं दि० पू० 2 / 3. सत्तदिणे गु० पू० 4. अबहुस्सुए ततो पू० 2 / 5. पंच पा० / 6. एवं जाव ततो अनाणि सत्त छलहु छेदो, ततो अन्नाणि सत्त छगुरुओ छेदो / जति एत्तिएणं० पा० / / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका अण्णाणि सत्त मासलहुओ छेदो, तओ अण्णाणि सत्त मासगुरुओ छेदो, ततो अण्णाणि सत्त ह्व छेदो, ततो अण्णाणि सत्त ही छेदो, तओ अण्णाणि सत्त 6 छेदो। ततो अण्णाणि सत्त ही छेदो। जइ एत्तिएणं छिण्णो परियायो भवति, गतं चेव। एत्तो परं जति वि देसूणा पुव्वकोडी परियातो सेसा सव्वा 'एगतराए छिज्जति, एतं मूलं छेदेणं छिण्णपरियाए त्ति / एत्थ अकारलोपो द्रष्टव्यः / यदुक्तं भवति-छेदेन यदा न छिद्यते पर्यायस्तदा मूलं भवति / दुगं नाम ततो परं एगदिवसं अणवठप्पो, बितितदिवसं पारंचिओ / एत्थ च तुल्ला चेव उठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि। पणगाइ पणगवुड्डी, दोण्ह वि छम्मास णिट्ठवणा // 710 // "तुल्ला चेव०" गाधा / तव–छेदाणं तुल्ला चेव ठाणा भवंति / जत्तिया तवाणं ठाणा तत्तिया छताणं वि / ततो पंचरातिदिओ लहुओ, तओ गुरुओ, तओ दसरातिदिओ लहुओ, . ततो गुरुगो / एवं च पंच पंच विलइंतो जाव मासिओ तवो लहुओ / ततो गुरुओ / ततो ह्व। ततो 4 // ततो 6 / ततो 6 / / छेदो वि एतेहिं चेव ठाणेहि- . पढिय सुय गुणिय धारिय, करणे उवउत्तो छहिं वि ठाणेहिं / छट्ठाणसंपउत्तो, गणपरियट्टी अणुण्णाओ // 711 // "पढिय सुय०" गाधा / पढितं णा(णे?)॥२, पढित्ता अत्थो सुतो, सुणेत्ता सव्वोऽणेणं३ सुगुणितो कतो। धरेति य तं सव्वं / तस्स य सुतस्स आणं करेति / उवउत्तो णाम ण पमादं करेति णिच्चोवउत्तो / कुत्र? उच्यते-छहिं ठाणेहि महव्वएहिं ति भणितं होति / एतेहिं पढितादीहिं छहिं ठाणेहिं संपउत्तो, समण्णागतो त्ति भणितं होति / सो गणपरियट्टी अणुण्णातो तित्थगरेहिं / सत्तऽट्ठ णवग दसगं, परिहरई जो विहारकप्पी सो। . तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर णवएण भेएण // 712 // "सत्त-टुणवग०" गाधा / अधवा सत्तविधं वा अट्ठविधं वा णवविधं वा दसविधं वा पच्छित्तं परिहरति जो। कधं ? उच्यते-तिविधं ति दाणपच्छित्तं, तवपच्छित्तं, कालपच्छित्तं / मणेण परिहरइ / णवगो भेदो पूर्ववत् / जोगे पडिसेवणाए तिविधं पच्छित्तं भवति, ताए परिहरिताए तिविधं पच्छित्तं परिहरितं चेव भवतीत्येषोऽर्थः / स्यान्मतिः, कधं सत्तविधं पच्छित्तं भवति ? उच्यते-१ आलोयणारिहं, 2 पडिक्कमणारिहं 3 तदुभयारिहं 4 विवेगारिहं 5 विउसग्गारिहं, 6 तवारिहं, 7 छेदारिहं, एयं सत्तविहं / आह, मूलाणवठ्ठचरिमा कहिं पविट्ठा ? / उच्यते दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ। मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त // 713 // . 1. एगसा( स )रा चेव पा० / 2. पढियं तेणं प० पू० 1 / 3. सत्तोणेणं पू० 1 / / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७१०-७१८] 181 "दुविहो अ०" गाधा / सो सत्तमतो छेदो दुविधो भवति / तं जधा-देसछेदो य सव्वछेदो य / देसं परियागस्स छिंदतीति देसच्छेदो, पणगादी जाव छम्मासा, एस देसछेदो। सव्वच्छेदो जति वि देसूणा पुव्वकोडी परियागस्स तं सव्वं एगसराए च्चेव छिंदति / सो पुण मूलाणवठ्ठपारंचिया तिण्णि वि एक्को च्चेव सव्वछेदो भवति / एतेण कारणेणं सत्तविधं पच्छित्तं / अट्ठविधं कधं भवति ? छेदो सत्तमओ, अट्ठमयं मूलं / छिज्जंते वि ण पावेज्ज कोइ मूलं अओ भवे अट्ठ। चिरघाई वा छेदो, मूलं पुण सज्जघाई उ // 714 // "छिज्जंते०" गाधा / देसछेदेणं जाधे छिज्जंते वि परियाए चिरपव्वाइत्तणेणं मूलं ण चेव पावति, ताधे मूलं से दिज्जति अट्ठमयं / आह, तो वि विसेसो णत्थि / 'सव्वछेदे चेव मूलं पडति / उच्यते-देसच्छेदो चिरेणं छिंदति, इतरो खिप्पं छिंदति, एस विसेसो / णवविधं कधं ? एतं च अट्ठविधं, णवमं अणवठ्ठारिहं / वूढे पायच्छित्ते, ठविज्जई जेण तेण णव होति / जं वसइ खित्तबाहिं, चरिमं तम्हा दस हवंति // 715 // "वूढे०" पुव्वद्धं / कुन्न स्थाप्यते ? व्रतेषु / एवं णवविधं / दसविधं कधं ? एय हेट्ठिल्ला णव, दसमं पारंचियं / एत्थ गाहार्द्धं "जं वसति०" / कंठं / चरिमं णाम सर्वप्रायश्चित्तानामन्ते वर्तत इति चरिमं भवति / एयं दुवालसविहं, जिणोवइट्रं जहोवएसेणं / जो जाणिऊण कप्पं, सद्दहणाऽऽयरणयं कुणइ // 716 // ... “एयं दुवालस०" गाधा / दुवालसविधं णाम दुवालस एते दारा सुत्ते अत्थे तदुभय जाव विहारकप्पे य त्ति / ज्ञात्वा किं करोति ? उच्यते-जति सद्दहति ‘एवमेयं, नान्यथावादिनो जिनाः', सद्दहित्ता जति आयरति / किं भवति ? उच्यते सो भविय सुलभबोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो / अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धि धुयकिलेसो // 717 // "सो भविय०" गाधा / कंठा / कप्पिओ त्ति दारं, दुवालसविधं गतं भवति / चोयग पुच्छा उस्सारकप्पिओ णत्थि तस्स किह णामं / उस्सारे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा // 718 // "चोयग पुच्छा०" गाधा / एतस्मिन् द्वादशप्रकारे कल्पिकद्वारे अपदिष्टे अवसर 1. सव्वछेदेण मूलं पू० 2 / 2. णवमं से अ० पा० / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका प्राप्तमाह चोदक:-भगवं ! उस्सारकप्पिओ अत्थि ? आयरिओ भणइ, णत्थि / आह-तो तस्स कतो णामं ? आयरिओ भणति–जो उस्सारेति तस्स ह्वा / आणादीया दोसा / आदिग्गहणेणं आणाऽणवत्थ मिच्छा विराहणा संजमे य जोगे य। अप्पा परो पवयणं, जीवणिकाया परिच्चत्ता // 719 // "आणा-ऽणवत्था०" गाधा / आणा सामिणो ण कता, अणवत्था तं पासित्ता अण्णे वि उस्सारेहिंति उस्सारावेहिति य / मिच्छत्तं कधं ? उच्यते 'पुटिव मलिया उस्सारवायए आगए पडिमिलिंति। पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहुजण ओभावणा तित्थे // 720 // "२पुवि मलिया०" गाधा / केयि वायगा / सावगगामं गता विहरंता / तत्थ तेहिं. अण्णउत्थिता णीसटुं चमढिया / ते य ततो वायगा विहरंता अण्णत्थ कत्थ वि गता / तेसु गए वायगेसु ते अण्णउत्थिया ते सावए वायं मग्गेति / सावएहिं भणितं-जाव वायगा एंति गणिणो वा / अध अण्णया उस्सारकप्पियवायगो आगतो सीसपरिवारो अत्तसमुक्कसेण फुट्टमाणो / ताधे ते सावगा ते अण्णउत्थिए गंतुं भणंति-तुब्भेहिं तदा वादो मग्गितो / अम्हेहि य भणितं-जाव वायगा एंति / ते आगता, करेह वादं / ताधे तेधि अण्णउत्थिएहिं एगो पडिलेहगो पत्थवितो / किं पडू वायगो ण व त्ति ? तेण आगंतु वायगो भण्णति-परमाणुपोग्गलस्स कति इंदियाणि ? ताधे वायगो चितेति-जो लोगचरिमंताओ लोगचरिमंतं एगसमएणं गच्छति अवस्स सो पंचिंदियो त्ति / भणति-पंच इंदियाणि / तेण गंतुं कधितं तेसिं अण्णउत्थियाणं / ताधे तेहिं आगंतुं णीसटुं बहुजणमज्झे चमढितो / एवं तित्थोभावणा भवति। तत्थ णवधम्माणं विकप्पो उप्पज्जति–जति वायओ तेसिं सव्वबहुस्सुओ वि ण सक्केति उत्तरं पयच्छिउं, नूणं एतेसिं तित्थगरेण चेव ण णातं / एवं मिच्छत्तं भवति / संजमस्स जोगस्स य कधं विराधणा भवति? / उच्यते जीवा-ऽजीवे ण मुणइ, अलियभया साहए दग-मिताई। करणे अविवच्चासं, करेइ आगाढऽणागाढे // 721 // तुरियं णाहिज्जंते, णेव चिरंजोगजंतिता होति / लद्धो महंतसद्दो त्ति केइ पासाइँ गेहंति // 722 // कमजोगं ण वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि / अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो // 723 // 1-2. पुव्वं पू० 2 / 3. जे पू० 2 विना / 4. गच्छंति पू० 2 विना / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७१९-७२६] 183 "जीवाजीवे०" गाथात्रयं / कंठं प्रायशः / करणे त्ति / चरणे उस्सग्गाववाते अयाणंतो आगाढे अणागाढं करेंति, अणागाढे य आगाढं करेति, पडिसेवति त्ति भणितं होति णिप्फण्णं / 'कमजोगं'ति / जधा-एत्तिया आयंबिला विसज्जिजंति, २एवं वा उद्देससमुद्देसा कीरंति३ / 'विगतीओ का य कत्थ जोगम्मित्ति / जधा कप्पिताऽकप्पियणिसीधादीणं विगतीओ ण विसज्जिज्जंति, पण्णत्तीए ओगाहिमगविगती विसज्जिज्जति, दिट्ठीवाते मोदको / घंटदिद्रुतो इमो उच्छकरणो व कोटगपडणं घंटा सियालणासणया। विगमाई पुच्छ परंपराएँ, णासंति जा सीहो // 724 // पडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य / इय कइवयाइँ जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी // 725 // किं पि त्ति अण्णपुट्ठो, पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव // 726 // "उच्छुकरणोव" गाधाद्वयम् / एगस्स उच्छुकरणं ति उच्छुवाडं सियाला "पइसरंति / ताधे तेण उच्छुकरणसामिएण सियालगहणनिमित्तं ओवओ कओ / तम्मि य ओवए कए कोट्ठग त्ति सियालो पडितो / सो वरागो गिण्हित्ता दीवियचम्मेण वेढित्ता घंटे ५आविधित्ता विसज्जितो / सो णासंतो सियालेहिं दिट्ठो दूरतो / ते सियाला 'अण्णारिसो' त्ति काउं भएण पलाया / ते विरूएहिं दिट्ठा / पुच्छिता-किं नासह ? त्ति / तेहिं कधितं-अपुव्वं सरं करेमाणं किंपि अपुव्वं भूतं एति / ते वि भएण पलायंता वरक्खूहि दिट्ठा, पुच्छिता / तेहिं कधितं-किंपि किर एति, सिग्धं णासध / ते पलायंता चित्तएहिं दिट्ठा, पुच्छिता / कधितं-किंपि किर एति, तुरियं पलायध / ते वि पलायंता सीहेहिं पुच्छिता / कधितं तेहिं / सीहो चिंतेति-मा पाणियसद्देण उवाहणाओ मुयामि, गवेसामि ताव / तेण सणियं पडियरित्ता “सियालो' त्ति हतो घंटासियालो 'कीस आउलीकया मो?' त्ति रोसेणं / ते अणेणं सियालादयो मिया आसासिता-मा भायह, हतो सो वराओ मए दीवियचम्मोणद्धो घंटासियालो / केण वि अवराहे घेत्तुं तधा कतो / एस दिटुंतो / अयमत्थोवणओ-जस्स तं उस्सारिज्जति सो जावतिएहिं दिवसेहिं जोगो समप्पति 'तावतिएहि दिवसेहिं कतिवयाणं आलावगाणं किंचि वि सुत्तफासियं सिक्खित्ता पच्चंतं गंतूणं गच्छपागड्डित्तणं करेति, अण्णेसिं च उस्सारेति / ते वि उस्सारावेत्ता पत्तेयं पत्तेयं गच्छपागड्डित्तणेणं ठाएत्ता सिस्साणं पडिच्छयाण य उस्सारकप्पं 1. विभज्जि० पा० / 2. पदं वा पा० / 3. ०द्देसो कीरइ पू० 1-2 / 4. खायंति पा० / 5. आविद्धिता पा० / 'आबंधित्ता' इति स्यात् / 6. एहिं पू० 2 / 7. सिग्धं नासध पू० 1-2, पा० विना / 8. तावतिए दिवसे पू० 1-2 / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका करेंति-अम्हे किर सुत्तत्थाणं अव्वोच्छित्तिं करेमो / तत्थ जो सो पढमिल्लुगउस्सारी सो जहा ते सियाला, तस्स य घंटासियालस्स आकिति घंटासदं च जाणंति, ण पुण णिच्छएणं जाणंतिको एस ? / किं वा एयस्स गलए ? कस्स वा एस सद्दो ? / एवं सो पढमिल्लुगुस्सारी किंचि जाणति ण सव्वं सब्भावं / जो एयस्स पासे उस्सारकप्पं करेति, सो कति वि आलावए जाणेति न पुण अत्थं / सो सिस्सेणं पुच्छितो भणति-किं पि केरिसो वि अत्थि एयस्स अत्थो / सेसा कतिवए वि आलावए ण कटुंति / ते सिस्सेहिं पुच्छिज्जंता भणंति-न याणामो / अत्थि पुण किं पि एतं तस्स तुब्भे जोगं वहह / एवं ते अप्पाणं च परं च णासेंता विहरंति / अह अण्णया कयाइ गीतत्था आयरिया आगता, तेहिं ते उवालद्धा / गच्छा य अच्छिण्णा / गच्छेस् य पवेसिया सव्वे / जम्हा एते दोसा तम्हा न उस्सारेयव्वं / केत्तिया ते भविस्संति, जे एवं निहोडेहिंति ? / एवं संजमस्स जोगस्स य विराधणा भवति / अप्पा परो य कधं चत्तो भवति? उच्यते अप्पत्ताण उदितेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। सो वि अ हु तेण चत्तो, जं ण पढइ तेण गव्वेणं // 727 // "अप्पत्ताण०" गाधा / कंठा / अपात्राणामित्यर्थः / पवयणं कधं परिच्चत्तं ? / सो भण्णति वायओ / ताधे केयि पडुणो पुरिसा एंति–पुच्छामो वायगं, सिद्धतं / पुच्छिओ ण किंचि जाणति / ताधे ते जाणंति–णूणं सव्वं पवयणं णिस्सारं जत्थेरिसो आयरिओ वायगो। तत्थ केयि देसविरतिं सव्वविरतिं वा पडिवज्जितुकामा विप्परिणमंति / एवं पवयणं परिच्चत्तं / किञ्च अज्जस्स हीलणा लज्जणा य गारविअकारणमणज्जे। आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स // 728 // "अज्जस्स" गाधा / यो ह्यार्यो जनो भवत्यसौ हि 'वाचक' इत्यपदिश्यमानो लज्जते'हीलेयं मम यदहं नाम वाचको वाचकेति अपदिश्या(शा)मि' / अथवा अन्यैः पृष्टः 'कथमयमालापक' इति, भृशं लज्जापरो भवत्यव्याकुर्वाण:२ / अनार्यस्य पुनस्तदेव गारवकारणं भवति / यथा "ऽहं 'वाचक' इति अपदिश्ये इति कोऽन्यो मया तुल्यः ?" / आयरियपरिवादो कथं भवति ? ___ 'केणेरिसो अज्झाविओ ? हया से वायगत्तणस्स कारगा' / सो य बहुस्सुयस्स आयरियस्स 'पासातो गतो उस्सारितूणं / अण्णेहिं पुच्छितो-'कधं एस आलावगो ? किंचि वा वागरणं ? / ' जाव ण किंचि जाणति, ताधे ते भणंति-"नूणं सो वि एरिसो चेव आयरिओ, 1. अपदिश्य इति पा० / 2. भवत्यव्याकरयमाणः पू० 2 / 3. अपदिश्यामि पू० 2 / अपदिश्यामः पू० 1 / 4. हतासेण वायगत्तणस्स कारको पा० / 5. पासाणागतो पू० 2 / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७२७-७३२] 185 जारिसो चेव सो गामो।" गाहा (?) / णामट्टयं' पुस्सालंबं सुत्तवोच्छेदो / सो अण्णस्स उस्सारेति, सो वि अण्णस्स। एवं अपढिज्जंतं सुत्तं वोच्छिज्जति / सुत्तवोच्छेदेणं तित्थमवि वोच्छिज्जति / तं च पवयणं / एवं सो पवयणवोच्छेए वट्टमाणो जिणवयणबाहिरमईओ। बंधइ कम्मरय-मलं, जरमरणमणंतयं घोरं // 729 // "पवयणवोच्छे०" गाधा / कंठा / जम्हा एते दोसा तम्हा ण उस्सारेतव्वं / कमेणं पढंतस्स एते दोसा न संभवंति / इमे य से गुणा भवंति आणा विकोवणा बुज्झणा य उवओग णिज्जरा गहणं / गुरुवास जोग सुस्सूसणा य कमसो अहिज्जंते // 730 // "आणा." गाधा / आणा तित्थगराणं कता भवति / विकोविज्जति पढंतो गच्छे सामायारीए जोगे वा / गच्छे य अवस्समेव अत्थपोरुसी भवति, तेण संबुज्झति / पढंतस्स य णिच्चकालं सुतोवयोगो भवति / सुतोवउत्तस्स य महती णिज्जरा भवति / उक्तं च "बारसविहम्मि वि तवे" गाहा२ / णिच्चोवउत्तो य लहुं गेण्हति / गुरुकुलवासो य अज्झवसितो भवति / उक्तं च- ' "णाणस्स होति०" गाहारे / आयरियादीण य सुस्सूसा कता भवति / इति दोस-गुणे णाउं, उक्कम-कमओ अहिज्जमाणाणं। उभयविसेसविहण्णू, को वंचणमब्भुवेज्जाहि // 731 // "इति दोस०" गाहा / कंठा / एवमपदिष्टे आचार्येण चोदक आह जइ. णत्थि कओ णामं, असइ हु अत्थे ण होइ अभिहाणं / तम्हा तस्स पसिद्धी, अभिहाणपसिद्धिओ सिद्धा // 732 // "जइ णत्थि०" गाधा / यदि उत्सारकल्पिको न विद्यते, कुत इदमायातं नाम उत्सारकल्पिक इति ? / कथम् ? इह हि सत्यर्थेऽभिधानं भवति, न ह्यसति / यतश्चैवमतः उत्सारकल्पिक इति अभिधानमस्तीति कृत्वाऽर्थे प्रसिद्धिरिष्टा / एवमपदिष्टे चोदकेन, आह सूरिः 1. नाम उट्टयं पू० 1-2, पा० विना / णामड्वयं पू० 2 / 2. बारसविहम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिटे / न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं // [ भा० 1169] . 3. णाणस्स होति भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य / धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति // [ भा० 5713] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका जति सव्वं चिय णामं, सअत्थगं होज्ज तो भवे दोसो। जम्हा सअत्थगत्ते, भजियं तम्हा अणेगंतो // 733 // "जति सव्वं०" गाधा / यदि सर्वमेव नाम सार्थकं स्यात्, स्यादयं दोषः उत्सारकल्पिको अस्ति इति / यस्माच्चाऽभिधानस्य सार्थकत्वे निरर्थकत्वे वा अस्तु आत्मादि खरविषाणा-ऽऽकाशपुष्प-कूर्मरोम-वन्ध्यापुत्रादीन् भावान् प्रतीत्य भजना भवति / स्यात् सार्थकं, स्यात् निरर्थकमिति / तस्माद् अनेकान्तोऽयं यथा-सत्यर्थेऽभिधानं भवति नहि असति इति / आह-पेशलमपदिष्टं, निश्चय उच्यताम्-किं सार्थकमेतदभिधानमुत निरर्थकमिति ? उच्यते णिक्कारणम्मि णाम, पि णिच्छिमो इच्छिमो अ कज्जम्मि / उस्सारकप्पियस्स उ, चोयग ! सुण कारणं तं तु // 734 // "णिक्कारणम्मि०" गाधा / अविद्यमाने कारणे नामापि नेच्छामः, कुतः तॉर्थं ? कारणे तु प्राप्ते इच्छामो वयं 'उत्सारकल्पिक' इति / पुनरप्याह रुषितः शिष्यः-'किं निरर्थकं कारणं यन्नोच्यते ? / उच्यतां यदि किञ्चित् कारणमस्तीति / ' उच्यते-तिष्ठतु तावत्कारणं, उत्सारकं तावद् ब्रूमः आयार-दिट्ठिवायत्थजाणए पुरिस-कारणविहिण्णू / संविग्गमपरितंते, अरिहइ उस्सारणं काउं // 735 // "आयारदिदि०" गाधा / जो उस्सारेति सो जति पंचविधस्स आयारस्स अत्थं जाणति दिट्ठिवातस्स य / जति य पुरिसं जाणति–'किं एसो अरहति उस्सारकप्पं ण व' त्ति / कारणं च जो जाणति-जारिसे कारणा(णे) उस्सारिज्जति / सो य जति संविग्गो उस्सारेंतओ अपरितंतो य। जति सो गाहेस्सति ३रति विरतिं / जस्स तं उस्सारिज्जति सो जति इमेहिं गुणेहिं उववेतो भवति अभिगते पडिबद्धे, संविग्गे असलद्धिए। अवट्ठिए अ मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए // 736 // "अभिगते०" गाधा / अस्स विभासासम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओ वा वि अब्भुवगओ वा / सज्झाए पडिबद्धो, गुरूसुणीएल्लएसुं वा // 737 // "सम्मत्तम्मि०" गाधा / अभिगओ णाम सम्मत्ते थिरो / जो य जीवाजीवादिपदत्थ 1. यस्मात्त्वभि० पू० 2 / 2. अम्वा (स्वा ?) दि पू० 2 / 3. रत्तिविरतिं पू० 2 / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७३३-७४२] 187 जाणओ सो अभिगओ भवति / जो वा अब्भुवगतो आयरियाणं १अमुयी इत्यर्थः / पडिबद्धो सज्झाए गुरूहि वा, णिएल्लगा वा से पव्वतियगा, तेसु पडिबद्धो / संविग्गे य सलद्धिए [गा० 736] त्ति। अनयोर्व्याख्या संविग्गो दव्व मिओ, भावे मूलुत्तरेसु उ जयंतो। लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य // 738 // "संविग्गो०" गाधा / कंठा / अवट्ठिते य [736] पच्छद्धस्स विभासालिंग विहारेऽवट्ठिओं मेरामेहावि गहणओ भइओ। पडिबुज्झइ जं कत्थई, कुणइ अ जोगं तदढुस्स // 739 // "लिंग विहारे०" गाधा / अवद्वितो णाम जो लिंगे विहारे य अवस्थितो नाऽनवस्थितः स्थिर इत्यर्थः / मेधावी दुविधो-मेरामेधावी य, गहणमेधावी य / मेरामेधाविस्स उस्सारिज्जति / सो पुण गहणमेधावी वा होज्जा इतरो वा, एस भयणा / दुविधस्स वि एतस्स उस्सारिज्जति कारणे / पडिबुज्झी नाम जं से कहिज्जति तं सव्वं परियच्छति / जोगकारओ नाम तस्मिन्नेव सूत्रार्थे गृहीतव्ये जोगं करेति ण वि पमादेति / इमा अण्णपरिवाडिए गाधारे - "पुव्वभणितं तु जं भणति" कारग गाहा / अभिगय गाधा [736] (?) / अभिगय थिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव। ... दुम्मेहसलद्धीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए // 740 // "अभिगय०" गाधा / जो वा दुम्मेहो वि सलद्धितो परिणओ वएण परिणामओ वा तस्स उस्सारिज्जति / आयरियवण्णवादी, अणुकूले धम्मसड्डिए चेव / एतारिसे महाभागे, उस्सारं काउमरिहइ // 741 // "आयरिय०" गाधा / आयरियाणं वण्णं वयति / अणुकूलो य आयरियाणं चेव। जे वा पूयणिज्जा / सेसं कंठं / एरिसाणं उस्सारेतव्वं / अणभिगतमाइआणं, उस्सारितस्स चउगुरू होति / उग्गहणम्मि वि गुरुगाऽकालमसज्झायऽवक्खेवे // 742 // "अणभिगत०" गाधा / आदिग्गहणेणं सव्वे पदा गहिता / तं जधा-अणभिगए अप्पडिबद्धे असंविग्गे अलद्धिते य अणवट्ठिए अमेधावी अपडिबुज्झी अजोगकारए अपरिणते अविणीए आयरियाणं अवण्णं वदति अणणुकूले णवि धम्मसद्धीए / एतारिसाणं जो उस्सारेति 1. सम्मत पा० / 2. गाधा / अभिगय गाधा / पुव्वभणितं० पा० / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका तस्स 4 / 'ओग्गहणम्मि वि गुरुग'त्ति / जति उग्गहणसमत्थस्स वि मेधाविस्स णिक्कारणे उस्सारेति तो वि 4 / किं कारणं ? सो मेधावी आणुपुव्वीए चेव पढिहिति / अहवा 'उग्गहणम्मि वि गुरुग' त्ति जस्स जोग्गस्स कारणे उस्सारिज्जति सो जति वि उस्सारकप्पे समयं सुत्तं अत्थं च ओगिण्हति / अपि शब्दात् जति वि ण ओगिण्हति दुम्मेहत्तणेण, तो वि अकालो असज्झाइयं वक्खेवो वा ण कातव्वो / जति करेति 4 / 'उकालमसज्झाय ऽवक्खेवे 'त्ति , तं उवरिं भण्णिहिति / अधवा 'उग्गहणम्मि वि गुरुग'त्ति, जो ओग्गहणसमत्थो उत्तममेधावी, अपिः पदार्थसम्भावने / जावतियं उद्दिसति तं सव्वं सुत्तं समं अत्थेण उट्ठवेति, पदाणुसारी वा बहुविधमवि अणुसरति, तस्स उस्सारेतव्वं / जति ण उस्सारेति 4] / जं तं पुव्वभणितं तं चिट्ठतु कारणं / तं इदाणि भण्णति गच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चेव अणहियासा य। .. गिहिणो अ मंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उवहिं // 743 // "गच्छो०" गाधा / गच्छो अलद्धीतो आहारोवहि-सेज्जासु, ओमाणं च सपक्खपरपक्खओ, ते य साहुणो ण सकेंति सीतं छुहादीणि वा अधियासित्तए / गिहत्था य मंद-धम्मा अपण्णविता ण देंति / सुद्धो य उवही गवेसियव्वो / एरिसे वि कज्जे हिंडतु गीयसहाओ, सलद्धि अह ते हणंति से लद्धि / तो एक्कओ वि हिंडति, आयारुस्सारियसुअत्थो // 744 // "हिंडतु०" गाधा / 'ते' त्ति गीतत्था जति तस्स लद्धि उवहणंति तो उस्सारितसुत्तत्थो एक्कओ हिंडति / आह-तो किं कोइ अण्णस्स पुण्णे उवहणति ? उच्यते-आमं / किं ते ण सुओ पंचसतभिक्खू ? भिक्खु विह तण्ह वद्दल, अभागधेज्जो जहिं तहिं ण पडे। दुग-तिगमाईभेदे, पडइ तहिं जत्थ सो णत्थि // 745 // "भिक्खु" गाधा / कोइ किर पंचसतिओ सत्थो अडविं पवण्णो / तत्थ य एगो रत्तपडो पंचण्ह वि सयाणं भग्गे उवहणति / सो य सत्थो तहाए परद्धो। दूरे य अब्भवद्दलयं वासति, तेसिं उवरिं ण पडति / ते दुधा भिण्णा / इतरेसिं पुव्विल्लाणं मज्झे मिलिओ। सव्वत्थ पडति, जत्थ सो तत्थ ण पडति / जाव णिव्वेडितो एक्कओ जाओ / जत्थ सो तत्थ ण पडति। एवं परस्स भग्गे उवहणंति / सो पुण कधं उप्पाएति ? / उच्यते भिक्खं वा वि अडतो, बिईय पढमाएँ अहव सव्वासु। सहिओ व असहिओ वा, उप्पाए वा पभावे वा // 746 // 1. मिलिया पू० 2 / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७४३-७४९] 189 "भिक्खं०" गाधा / भिक्खं हिंडंतो उप्पाएति / वा विभाषायाम्। जति ण सक्केति भिक्खं हिंडिउं, चीराणि वि मग्गेउं, उस्सूरो वा जायति भिक्खस्स, न वा लब्भति भिक्खं हिंडंतेहि, ताधे बीतियाए पोरुसीए हिंडिउं चीराणं अत्थपोरिसिं परिहावेउं२ मा य सुत्तपोरिसिं / अध न संभाइज्जेज्जा बहुगा हिंडी, ताधे पढमाए वि पोरिसीए हिंडउ / अह बहू पेच्छितव्वया, दुक्खं च लब्भति, ताधे दोहि वि पोरिसीहिं सव्वाहि वा मग्गति / सो पुण जति से लद्धी ण उवहम्मति, तो सबितिओ हिंडति / पभावेति वा दाणधम्म-'एरिसो वा साहूणं धम्मो' / ताधे णिज्जरावेति / अह से हणंति लद्धि ४असहिए वि उप्पाएउ वा पभावेउ वा / एवं ताव वत्थाईणं कप्पिओ भवतु त्ति / जेणेव कप्पिओ भवति तं उस्सारिज्जति / आयार इत्यर्थः / दिट्ठिवातो केण कारणेणं उस्सारिज्जइ ? / उच्यते कालियसुआणुओगम्मि, गंडियाणं समोयरणहेउं / उस्सारिति सुविहिया, भूयावायं ण अण्णेणं // 747 // "कालियसुआ०" गाधा / जो दिट्ठिवातं अपत्तो पढिउं धम्मकधालद्धिसंप्पण्णो पुण, तस्स कालियाणुओगेण धम्मं कहेंतस्स गंडियाओ उवयुजंति त्ति काउं, तासिं समोतरणणिमित्तं अपढिते अणुद्दिढे य ण वटुंति ताओ अज्झातिउं / एतेण कारणेणं दिट्ठिवातो उस्सारिज्जति, ण वि 'वरं वायगो होतो' त्ति / इदाणि जं तं हेट्ठा भणितं-"ऽकालं असज्झायऽवक्खेवे [गा० 742] एतं उवरि भणीहामि" त्ति, तं एत्ताहे भण्णति सज्झायमसज्झाए, सुद्धासुद्धे व उद्दिसे काले / दो दो अ अणोएसुं, ओएसु उ अंतिमं एवं // 748 // एंगतरमायंबिल, विगईए मक्खियं पि वज्जेति / जावइअंच अहिज्जइ, तावइयं उद्दिसे केइ // 749 // "सज्झायमस०" गाधाद्वयम् / कंठं / किंचि वि भणामि / 'दो दो अ अणोएसुंति / अणोया णाम समा उद्देसया जधा कप्पस्स / तस्स दिणे दिणे दो दो उद्देसया उद्दिस्संति / पढम पोरिसीए एगो उद्दिवो य समुद्दिट्ठो य, ताधे बितियं उद्दिसति / बितियपोरुसीए / एतेसिं चेव सअत्थो कधिज्जति / चरिमपोरुसीए तं पढमं अणुजाणित्ता बितियं समुद्दिसति, अणुजाणति य। ओया णाम विसमा / जधा 'सत्थपरिणाए' / तीए दो दो उदिसित्ता तिहिं दिवसेहि, चउत्थे दिवसे एगो चेव / तं पढमपोरिसीए उद्दिट्ठसमुद्दिटुं करेत्ता चरमाए अणुयाणति / केई . 1. अद्धपोरिसिं पू० 1 / 2. परिहवेउ पा० / पहावेउ पू० 2 / 3. पट्ठावेति पू० 2 / 4. असहिओ पा० / तो असहिए पू० 1 / 5. कालियाणुगओ गणहरधम्मं पू० 1 / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका भणंति-जावतियं अधिज्जति तावतियं उद्दिसति / जति वि अज्झयणाणि दो तिण्णि चत्तारि परेण वा उट्ठवेति तो वि उद्दिसिज्जेज्जा / 'उकाल-असज्झायं' ति गयं / इदाणि 1 अवक्खेवे' त्ति / तं भण्णति आहारे उवगरणे, पडिलेहण लेव खेत्तपडिलेहा / अप्पाहारो परिहार मोअ जह अप्पणिद्दो अ // 750 // "आहारे०" गाधा / आहारे त्ति, अस्स विभासाहिंडाविति ण वा णं, अहवा अण्णट्ठया ण सो अडइ। पेहिति व से उवहिं, पेहेइ व सो ण अण्णेसि // 751 // "हिंडाविति०" पुव्वद्धं / जति असंथरणं तो अण्णेसिं २ण आणेति / सो अप्पणा जं भुंजति तत्तियमेत्तं अडति / उवगरणे पडिलेहगेत्ति / 'पहिति' पच्छद्धं / कंठं / लेव त्ति / अस्सं विभासा एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो ण अण्णस्स / खेत्तं च ण पेहावे, ण यावि तेसोवहिं पेहे // 752 // "एमेव०" पुव्वद्धं / कंठं / 'खेत्तं च' पच्छद्धं / कंठं / तेसिं ति खेत्तपडिलेहगाणं / : अप्पाहारो त्ति देंति पणीयाहारंण य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं / मोआइणिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज्ज पलिमंथो // 753 // देंति पणीया० पुव्वद्धं / कंठं / परिहारेत्ति सण्णा, मोयत्ति काइयं / मोयादि पच्छद्धं / कंठं / जध अप्पणिद्दो य होति पणीताहारादिणा तधा कातव्वं / एवं उस्सारिते जं तं कज्जं तं कारविज्जति। एवं द्वादशप्रकारे कल्पिकद्वारे अपदिष्टे तदनुषंगाच्च चोदकेन चोइए उस्सारकप्पिए त्ति गतं / 'कप्पिए' त्ति दारं गतं / / इदाणि अचंचले य त्ति दारं / चंचलो जो सो णारिहति अणुओगं सोउं / सो चंचलो चउव्विहो / तं जहा गति-ठाण-भास-भावे, लहुओ मासो उ होइ एक्कक्के / आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए // 754 // "गति-ठाण" गाधा / चउण्ह वि मासलहुं पच्छित्तं / आणादी / संजमविराधणा / 1. अव्वक्खेवे० पा० / 2. पा० प्रतौ नास्ति / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७५०-७५९] 191 गतिचंचलस्स दवद्दवाए वच्चंतस्स आतविराधणा-पडेज्जा / देवता वा छलेज्जा। पडिचोयणातो वा असंखडे अट्ठिभंगादी / एवं सेसेसु वि आत-संजमाणं विराधणा वत्तव्वा / गति-ठाणचंचलाणं इमा विभासादावद्दविओ गइचंचलो उठाणचवलो इमो तिविहो / कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छुभइ // 55 // "दावद्दविओ०" गाधा / कंठा / भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि / असभाजोग्गमसब्भं, अणूहिउं तं तु असमिक्खं // 756 // "भासाचपलो" गाधा / १भासाचवलो चतुद्धा / तं जधा-असप्पलावी, असब्भप्पलावी, असमिक्खियप्पलावी, अदेसकालप्पलावी / आदिल्लाणं तिण्हं विभासा-अस त्तीत्यादि, गाधा-कंठा / ऊहितं जं पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, तओ वक्कमुदाहरे। अचक्खुओ व्व णेयारं, बुद्धिमण्णेउ ते गिरा // 1 // एतवतिरित्तं अणूहितं, तं असमिक्खं पलविउं सीलं जस्स सो असमिक्खिय-पलावी। अदेसकालप्पलावी इमो कज्जविवत्तिं दर्दू, भणाइ पुट्वि मए उविण्णायं / एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ॥७५७॥ "कज्जविवत्ति०" गाधा / कंठा / भावचवलो इमोजं जं सुयमत्थो वा, उद्दिढ़ तस्स पारमप्पत्तो / अण्णण्णसुयदुमाणं, पल्लवगाही उ भावचलो // 758 // "जं जं सुय०" गाधा / कंठा / भवे कारणं चंचलत्तणं पि करेज्जातेणे सावय ओसह, खित्ताई वाइ सेहवोसिरणे / आयरिय-बालमाई, तदुभयछेए य बिइयपयं // 759 // "तेणे०" गाधा / तेण-भएणं सावय-भएणं वा दवद्दवाए गच्छेज्जा ओसहहेउं वा / ण य पच्छित्तं / २ठाणचंचलत्तणं पि करेज्जा खित्तचित्तो, आदिग्गहणेणं दित्तचित्तो जक्खाइट्ठो उम्मायपत्तो वा / न य पच्छित्तं / भासाचंचलत्तणं पि करेज्जा / वातिस्स बुद्धि परिभूय अस त्ति अलियंपि भणेज्जा / सेहो वा पंडगादि वोसिरियव्वो। सो असभाजोग्गादिणा खरफरुसेहिं य 1. भासाचंचलो पा० / 2. ठाणे चं० पू० 1 / ठाणं चं० पा० / 3. सो असब्भवातिजोगादिणा पू० 1 / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका णिब्भच्छिज्जति, वरं णासंतो। आयरिया वा दोसेसु ण उवरमंति / पच्छा अदेसकालपलावित्तणं पि करेज्जा / जहा-अमुगो अमुगो अमुगं भणति तुब्भं, तेणं तो मए तुब्भं कहितं जहा-अयसो होहिति / पच्छा ते तेण भएण उवरमंति / बालो वा ण ठाति वारिज्जंतो, ताधे अणूहिउँ खरेहिं पि भासिज्जति / आदिग्गहणेणं पडिणीओ व समणादिसु भावचंचलत्तणं पि करेज्जा / किंचि सुत्तं अत्थो वा वोच्छिज्जति ताधे अण्णं अद्धपढियं मोत्तुं तं गेण्हेज्जा / इदाणि 'अवट्टिते य' त्ति दारं / अवट्ठितो जो सो अणुयोगं सोउं अरिहति, अणवट्ठितस्स ण दातव्वं / सो दुविधो लिंग विहारे, एक्केक्को चेव होइ दुविहो उ। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा // 760 // गिहिलिंग अण्णलिंगं, जो उ करेई स लिंगओ दुविहो।। चरणे गणे अ अथिरो, विहारअणवट्ठिओ एस // 761 // "दुविधो लिंग०" गाधा / सो दुविधो लिंगे विहारे य / एक्केको चेव होति दुविधो उ त्ति। तत्थ लिंगाणवढिओ दुविधो इमो-कंदप्पेण वि / 'गिहिलिंगं' पुव्वद्धं / गिहिलिंगं वा करेइ परलिंगं वा करेइ मूलं / चउरो य अणुग्घात त्ति / चोलपट्टयं बंधति 4 / गरुलपक्खियं करेइ 4 / अद्धंसकडाए 4 / संजतिपाउरणे 4 / सीसदुवारे गोपुच्छए य / / / एवं लिंगे / विहाराणवट्ठिओ इमो दुविधो / 'चरणे' पच्छद्धं / 'चरणाणवट्ठितों पुणो पुणो चरणाओ पडति / एरिसस्स सुत्तं देति ह्व / अत्थं देति ह्वा / गणाणवट्ठिओ गाणंगणिओ / सो उवरिं सपच्छित्तो भण्णिहित्ति / तम्हा एतद्दोसविमुक्कस्स अवट्ठितस्स दायव्वं / ण देइ, तं चेव पच्छित्तं / अवट्ठिते त्ति दारं गतं / इदाणि मेहावि त्ति दारं / जो मेहावी तस्स दायव्वं / सो तिविहो उग्गहण धारणाए, मेराए चेव होइ मेधावी। तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तों मेहावी // 762 // "उग्गहण" गाधा / एत्थ अट्ठ भंगा / जत्थ जत्थ मेरामेहावी ण भवति तत्थ तत्थ ण दायव्वं / जइ देइ ६पासत्थादीणं 4 / अहाछंदे 4 / सेसाण य अदाणे सुत्तस्स 4 / अत्थस्स ह्या। को पुण मेरामेहावी ? उच्यते-मेरासंजुत्तो / मेरा सीमा मर्यादा चारित्रमित्यनर्थान्तरं / त्रिविधेनाप्यधिकारो दाने चादाने च / इयाणि अपरिस्सावी य त्ति, दारं / अपरिस्सावियस्स दायव्वं परिस्सावियस्स न वि। 1. भणंतेण पा० / 2. हाविज्जति पा० / 3. लिंगाणव० पू० 1-2 / 4. चरणेऽण० पू० 1 / 5. ग्रहणमेधावी धारणामेधावी मर्यादामेधावी, ग्रहणमेधावी धारणामेधावी अमर्यादामेधावी इत्यादिभिस्त्रिभिः पदैरष्टौ भेदाः / टी० / 6. पासत्थाणं पू० 1 / 7-8. ०स्साइ० पू० 2 / / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७६०-७६४] पंरिसाइ अपरिसाई, दव्वे भावे य लोग उत्तरिए / एक्केको वि य दुविहो, अमच्च बडुईऍ दिटुंतो // 763 // __ "परिसाइ अपरिसा०" गाधा / सो परिस्साई अपरिस्साई य दुविधो-दव्वे य भावे य। १दव्वे परिस्साई घडादिणो / अपरिस्साई दोद्धियादीणि / भावे वि परिस्साई य अपरिस्साई य दुविधा-लोइया लोउत्तरिया य / एक्केको वि य दुविध त्ति / लोइया परिस्साई य अपरिस्साई य, एवं लोगुत्तरिया वि / तत्थ लोइए परिस्साइम्मि इमो अमच्चदिटुंतो एगो राया / तस्स कन्ना गद्दभस्स जारिसा / सो णिच्चं खोलाए अमुक्कियाए अच्छति। सो अमच्चेण पुच्छिओ-कि तुब्भे भट्टारयपादा णिच्चं खोलाए आविद्धियाए अच्छध ? ण. २कस्सइ सीसं कण्णा य दरिसेध ? / रण्णा सिटुं / रहस्सभेदो न कातव्वो / तेण अणहियासमाणेणं अडवि गंतुं रुक्खढोड्डरेरे मुहं छोणं भणितं-गद्दभकण्णो राया गद्दभकण्णो राया। तं रुक्खं अण्णेण छेत्तुं वादिन कतं / संपत्तीए य रण्णो पुरतो पढमं पवाइतं / तं वज्जंतं भणतिगद्दभकण्णो राया, गद्दभकण्णो राया। रण्णा अमच्चो पुच्छितो-तुमे परं एयं रहस्सं णायं, कस्स ते कधितं ? / अमच्चेण सब्भावं सिटुं / एस लोइओ परिस्साई। ___ लोउत्तरिओ जो अणधियासेमाणे पुच्छितो वा अपुच्छितो वा अपरिणताणं अववादपदाणि कधेति / एरिसस्स सुत्तं देइ ह्र / अत्थं देति 4 / इमं लोइए अपरिस्साइम्मि उदाहरणं राया सेट्टी अमच्चो आरक्खिओ मूलदेवो य एगाए पुरोहियभज्जाए बडुइणीए अज्झोववन्ना। ताए सव्वेसिं संकेतओ दिण्णो / ते आगता / दारे ठिता। ताए भण्णंति-जति महिलारहस्सं जाणध तो पविसह / ते भणंति-ण याणामो / मूलदेवेण भणितं-अहं जाणामि। ताए भणितं-पविसह त्ति / पविट्ठो / पुच्छितो-किं महिलारहस्सं? तेण भणितं-मारिज्जतेहिं वि अण्णस्स न कधेतव्वं / त्वं विदग्धः कामुकः / तुट्ठाए सव्वरत्तिं रामितो। कल्ले रण्णा पुच्छितो मूलदेवो-किं तं महिलारहस्सं? मूलदेवो भणति-अहं एतं उल्लावं पि ण याणामि / 'अवलवति'त्ति वज्झो आणत्तो, तध वि ण कधेति / धिज्जातिणीए आगंतुं रण्णो कधितं जधा-एतं चेव महिलारहस्सं, जं सरीरच्चाए वि ण कस्सई सीसति / एस लोइओ अपरिस्साई। - लोउत्तरिओ सुणेत्ता उद्रुितं संतं जइ कोइ पुच्छति-कि एतं रहस्सितं कहिज्जति ? / भणति-चरणकरणं साधूणं वण्णिज्जति / एरिसो अपरिस्सावी / एतस्स सुत्तं ण देति 4 / अत्थं ण देति 4 / अपरिस्साई त्ति दारं गतम् / जे विदु त्ति विदु जाणए विणीए, उववाए जो उ वट्टए गुरूणं / तव्विवरीयऽविणीए, अदित दिते अलहु-गुरुगा // 764 // .. 1. दव्वपरि० पू० 1-2 / 2. कासइ पू० 2 / 3. ०ढोडरमुहं पू० / 4. वईए पू० 2 / 5. कहिज्जइ पू० 2 / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका "विदु जाण०" गाधा। विदू नाम जाणओ। विणयस्स जाणित्ता य जो विणीतो / को विणीतो ? उच्यते-१"उववाए'त्ति णिद्देसे जो उवचिट्ठति गुरूणं एतस्स सुत्त-अत्थ-अदाणे ह्व, ह्वा / अविदू णाम 'तव्विवरीतो' त्ति / जो विणयं ण जाणति, जाणित्ता वा अविणीतो / एतस्स सुत्त-अत्थदाणे ह्व, ह्र / 'जे विदु'त्ति गतं / इदाणि 'पत्ते य' त्ति दारं / पात्रस्य प्राप्तस्य व्यक्तस्य च दातव्वं / एयपडिपक्खाणं ण दातव्वं / तत्राऽपात्रा: तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अ दुब्बलचरित्ते / आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य // 765 // "तितिणिए" गाहा / अप्राप्ता अव्यक्ताश्च / आदीअदिट्ठभावे, अकडसमायारि तरुणधम्मे य। गव्विय पइण्ण णिण्हइ, छेअसुए वज्जए अत्थं // 766 // "आदी अदिट्ठ भावे०" गाधा / अंतिमा तिण्णि अपात्रा एव / तितिणिओ दुविहोदव्वतितिणो भावर्तितिणो य / / डझंतं तिंबुरुदारुयं व दिवसं पि जो तिडितिडे / अह दव्वतितिणो भावओ उ आहारुवहि-सेज्जा // 767 // "डझंतं०" गाधा / तत्थ दव्वतितिणो जधा-२तिंबुरुगकटुं अग्गिम्मि छूढं ३तिडितिडतं अच्छति / एवं जो किंचि भणितो समाणो दिवसमपि कडु रडतो अच्छति / एस दव्वतिंतिणो भणितो / भावर्तितिणो तिविधो-आहारे उवधिम्मि सेज्जाए य / एक्केक्को दुविधोअंतो बाहिं च / तत्थ आहारे ताव * अंतो-बहिसंजोअण, आहार बाहि खीर-दधिमाई। अंतो उ होइ तिविहा, भायण हत्थे मुहे चेव // 768 // "अंतो०" गाधा / संजोयणा णामं भिक्खायरियाए च्चेव गततो खीरं पलभ्रूणं शाल्योदनं मग्गति / शाल्योदनं लभ्रूणं दधिमादीणि मग्गति / एसा बाहिं संजोयणा / अंतोसंजोयणा णाम पडिस्सए आगतो समाणो करेति / सा तिविधा-भायणे हत्थे मुहे / तत्थ भायणे मज्जियं करेति / अधवा खीरं जावेति / हत्थे चिब्भिडादीणि उगाहिमगेणं वेढेत्ता वदणे च्छुभति / मुहे ओगाहिमगं छोढुं कुसणगंडूसं करेति / एस ताव आहारे। 1. उवातित्ति पा० / उवाउत्ति पू० 1 / 2. तेंडुरुग० पू० 2 / 3. अतिभणिएणं दिवसमवि तिडि० पू० 2 / 4. रुडुरुडेंतो पू० 2 / 5. दुगुणं पा० / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७६५-७७३] -एमेव उवहि सेज्जा, गुणोवगारी उ जस्स जं होइ। सो तेण जोययंतो, तदभावे तिंतिणो होइ // 769 // "एमेव०" गाधा / 'एमेव'त्ति उवधि-सेज्जासंजोयणा वि एवं चेव दुविधा-अंतो बाहिं च / उवधीए बाहिं संजोयणा-अंतरकप्पं सुंदरं लद्धं अणुरूवं से उण्णियं कप्पं मग्गति / अंतोसंजोयणा-कृष्णकंबलीए पंडरे सरडे देति / सेज्जाए बाहिं संजोयणा-सुंदरं पडिस्सयं लभेत्ता मीरं(?सीरं?) मग्गति वरं ताए अड्डितियाए सोभंतो उवस्सयो / अंतोसंजोयणा-लिंपइ, सेडियाए य उल्लाएति / संथारयं पि लभित्ता सुंदरं तयणुरूवं अत्थुरणयं मग्गति / एस बाहिं संजोयणा। अंतोसंजोयणा-सुंदरं पत्थरेति, सोभति त्ति काउं / एरिसं जति आहारादी ण लब्भति, ताधे तिडतिडेति–हा ! णत्थि, इत्यादि / तितिणिए त्ति गतं / इदाणि चलचित्ते त्ति दारं / चलचित्तो भावचलो, उस्सग्गऽववायतो उजो पुट्वि / भणितो सो चेव इहं, गाणंगणियं अतो वोच्छं // 770 // "चलचित्तो०" गाधा / कंठा / इदाणि गाणंगणिए त्ति दारं / छम्मास अपूरित्ता, गुरुगा बारससमासु चउलहुगा / . तेण परं मासलहू, गाणंगणि कारणे भइतो // 771 // .. "छम्मास०" गाधा / छम्मासे अपूरेत्ता गणातो गणं संकमति 4 / परेणं छण्हं मासाणं, जाव बारसवासाणि, एत्थंतरे संकमति चउलहुगा / परेणं बारसण्हं वासाणं णिक्कारणं संकमइ / / गाणंगणि कारणे भतितो त्ति सेवितो साधुणा / जं भणियं कारणे अंतोछण्हं 'वासाणं परेण वा * गणातो गणं संकमति अपायच्छित्ती भवति / इदाणि दुब्बलचरित्ते त्ति दारं / मूलगुण उत्तरगुणे, पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं / धिति-वीरियपरिहीणो, दुब्बलचरणो अणट्ठाए // 772 // "मूलगुण" गाधा / कंठा / को दोषः ईदृशस्य रेदाने ? / उच्यतेपंचमहव्वयभेदो, छक्कायवहो अतेणऽणुण्णाओ। सुहसील-ऽवियत्ताणं, कहेइ जो पवयणरहस्सं // 773 // "पंचमहव्वय०" गाधा / सुखं शीलं भजतीति सुखशीलं, कांक्षतीत्यर्थः / न व्यक्तोऽव्यक्तः / श्रुतेन वयसा चेत्यर्थः / कधं पुनस्तेन पञ्चमहाव्रतभेदः षट्कायवधश्चानुज्ञातो 1. मासाणं पू० 1 विना / 2. दीपयंते पू० 1-2 / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका भवति ? / उच्यते णिस्साणपदं पीहइ, अणिस्साणविहारयं ण रोएइ। तं जाण मंदधम्मं, इहलोगगवेसगं समणं // 774 // "णिस्साण०" गाधा / सो सुहसीलो एरिसो मंदधम्मो भवति / 'दुब्बलचरित्तेत्ति गतं / इदाणि 'आयरियपारिभासित्ति दारं / डहरो अकुलीणो त्ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति / अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरियं // 775 // "डहरो" गाधा / अपि शब्दात् कदाचित् स आचार्यः डहरो वा सिया, अकुलीणो वा, दुम्मेधो वा, दमगो वा, मंदबुद्धी वा, अप्पलद्धी वा, अलद्धी वा / ताधे सो सीसो एतेहिं कारणेहिं परिभवति तं आयरियं, ण बहुमाणीकरेति / 'सीसो 'त्ति / अस्य व्याख्या सो वि य सीसो दुविहो, पव्वावियगो अ सिक्खओ चेव / सो सिक्खओ अतिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य // 776 // "सो वि य०" गाधा / कंठा / आयरियपारिभासि त्ति दारं गतं / इदाणि 'वामावट्टे'त्ति दारं / एहि भणिओ उ वच्चइ, वच्चसु भणिओ दुतं समल्लियइ / जं जह भण्णति तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ // 777 // "एहि भणिओ०" गाधा / कंठा / पिसुणे य त्ति दारं- . पीतीसुण्णण पिसुणो, गुरुगाइ चउण्ह जाव लहुओ उ / अहव असंतासंते, लहुगा लहुगो गिही गुरुगा // 778 // "पीतीसुण्णण०" गाधा / प्रीति शून्यां करोतीति पिशुनः / आयरियस्स जति करेति तो ह्वा / वसभस्स ह्व। भिक्खुस्स / / खुड्डगस्स 0 / अथवा अन्यो विकल्पः / संजतस्स असंतेणं पीति सुन्नीकरेति 4 / संतेण 0 / गिहत्थस्स असंतेण 4 / संतेण 0 / एतं जो करेति तस्स पच्छित्तं / एरिसस्स जो सुत्तत्थे देइ तस्स उवरिं पच्छित्तं भण्णिहिति / 'पिसुणे 'त्ति गतं / इदाणि आदिमदिट्ठभावे त्ति दारं आवासगमाईया, सूयगडा जाव आइमा भावा / ते उण दिट्ठा जेणं, अदिट्ठभावो हवइ एसो // 779 // 1. आदी आदिट्ठ० पू० 2 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 भाष्यगाथा-७७४-७८३] "आवास" गाधा / कंठा / इदाणिं अकडसामायारी दुविधा सामायारी, उवसंपद मंडली' बोधव्वा / अणालोइयम्मि गुरुगा, मंडलिमेरं अतो वोच्छं // 780 // सुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ। अत्थम्मि उ जावइया, सुणेति थेवेसु अण्णे वि // 781 // "दुविधा सामायारी०" गाधाद्वयम् / अकडसामायारी दुविधा / उवसंपदसामायारीए उवसंपण्णं जो अणालोइयगुणदोसं. परि जति तस्स 4 / 'सुत्तम्मि होइ भयणा / सुत्त पोरिसीए णिसज्जा कज्जेज्ज वा ण वा / कधं ? जति तरुणो णीरोगो आयरिओ अप्पणो य से पडिभाति तो अप्पणिज्जयाए रयहरणणिसेज्जाए उवेट्ठओ सुत्तं 'वाएतु / अहवा कारवेति, थेरो वा, रोगी वा जस्स तस्स साधुस्स कप्पे, पमाणतो यावि त्ति, एगम्मि वा दोसु वा, जत्तिएहिं वा कप्पेहिं २उवे?ओ सुहं वायणं देति, तत्तिएहिं कप्पेहि णिसेज्जा कीरति, एस भयणा। अत्थमंडलीए पुण जावतिया सुणेति तेहिं सव्वेहिं एकेक्को कप्पो दातव्वो / अध थोवा चेव सुणेति तो अण्णे वि कप्पे देंति असुणेतगा, जत्तिएहि णिसज्जा भवति / मज्जण णिसिज्ज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग वंदणग जेटे। परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ॥७८२॥ "मज्जण" गाधा / “मज्जणं"ति मंडलीभूमी ण पमज्जंति 0 / णिसेज्जातो दो ण करेंति ह / अखे ण पमज्जति ह / कितिकम्मं न करेंति गुरुणो / 0 / सम्मं पट्ठवणकाउसग्गं न करेंति / 0 / खेलमत्तयं ण ढोएंति / 0 / वंदणग जेटे त्ति / णंदीए कड्डियाए जेट्ठस्स पणामं ण करेंति / / आह-किं जो परियायेण जेट्ठो सो जेट्ठो, अध जो जातीए, अध बहुसुयत्तणेणं, अध जस्स बहुगीओ परिवाडीओ गताओ? / आयरिओ भणति-एतेसिं एगो वि ण भवति / जो समत्ते३ वक्खाणे उट्ठिताणं अणुभासति सो जेट्ठो / अवितधकरणे सुद्धो, वितह करेंतस्स मासियं लहुगं / अक्ख णिसज्जा लहुगा, सेसेसु वि मासियं लहुगं // 783 // "अवितध०" गाधा / एतेहिं सव्वेहिं पमज्जणादीहिं पदेहिं अवितधं करेंतो सुद्धो। वितहं करेंतस्स त्ति, कंठं / 'अकडसामायारित्ति गतं / इदाणि 'तरुणधम्मे 'त्ति दारं / / 1. वायतु पू० 2 / 2. उवट्ठिओ पा० / 3. त्ते प्रपाठके उ० पू० 2 / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका तिण्हाऽऽरेण समाणं, होइ पकप्पम्मि तरुणधम्मो उ। पंचण्ह दसाकप्पे, जस्स व जो जत्तिओ कालो // 784 // "तिण्हाऽऽरेण" गाधा / आयारपकप्पस्स तिवरिस-परियागस्स आरतो तरुणधम्मो भवति / कप्प-ववहार-दसाणं पंचण्हं संवच्छराणं आरतो तरुणधम्मो भवति / 'तरुणधम्मे 'ति गतं / इदाणि 'गव्विगे' त्ति दारं / पुरिसम्मि दुव्विणीए, विणयविहाणं ण किंचि आइक्खे। ण वि दिज्जइ आभरणं, पलियत्तियकण्ण-हत्थस्स // 785 // "पुरिसम्मि०" गाधा / अविणीतत्तणेणं दूसितो विणतो जस्स स भवति दुव्विणीतो। सो गव्वेणं णेच्छति अत्थमंडलीए सोउं 'कधमहं एतस्स णीयतरए उवविसिस्सामि ?' जो वा सुणेत्ता अविणीतो भविस्सति, तस्स वि ण वट्टति कधेतुं / 'विणयविधाणं'ति, सुतणाण१विणयभेदं / किं कारणमिति चेदुच्यते-जहा हत्थ-कण्णच्छिण्णगस्स आभरणं णाविज्झति, ण सोभति त्ति काउं एवं / मद्दवकरणं णाणं, तेणेव उजे मदं समवहति / ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेसिं // 786 // "मद्दवकरण०" गाधा / जधा चुल्लुच्छुलेति जं होति ऊणयं / एवं जे किंचिमवि जाणित्ता गव्वायंति ते अपात्रा / ण कप्पंति सुणावेतुं, तेसिं अगदो विषायते-विषतया परिणमतीत्यर्थः / 'गव्विए'त्ति गतं / इदाणि 'पइण्ण'त्ति दारं / सो दुविधो पतिण्णपण्हो य पतिण्णविज्जो य / सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं / एस उ पइण्णपण्णो, पइण्णविज्जो उ सव्वं पि // 787 // "सोउं अणभिगताण." गाधा / तत्थ मंडलीए सुणेत्ता उद्वितो अणभिगताणं अयोग्यानामित्यर्थः, पुच्छितो अपुच्छितो वा कधेति-एयं एत्थ कधिज्जति / जधापुढवीकायादी वि छक्काया कप्पंति / पंचमहव्वयाई वितधं करेज्जा / ‘एस पतिण्णपण्हो' / पइण्णविज्जो णाम जो सव्वं चेव विज्जं ति सुत्तं उस्सग्गाववादेहिं अपात्राणां अप्राप्तानां अव्यक्तानां च कधेति / को पुण दोसो दुविधस्स वि पइण्णस्स ? / उच्यते 1. ०णाणं विणयहेउं पू० 2 / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 भाष्यगाथा-७८४-७९२] अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव / दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा // 788 // "अप्पच्चओ०" गाधा / अप्पच्चयो-पुव्वावरविरुद्धं, ण कप्पति त्ति भणित्ता पच्छा कप्पति त्ति अणुण्णातं / जधा एतं अलियं तधा सव्वं चेव जिणवयणं / ते विपरिणता समाणा अकित्ति त्ति अवण्णं तित्थगराणं भासंति-'कतो तेसिं सव्वण्णुत्तणं जेहिं एरिसं भासितं ?' / 'ओधाए'त्ति एवं ते विपरिणता उप्पव्वएज्जा / मइलण त्ति / तस्याप्रायोग्यस्यापवाद सोतुं अपरिणामगत्तणेणं अतिपरिणामगत्तणेण वा संकितस्स णाणादीणि मइलियाणि भवंति / सेसं कंठं / इदाणि णिण्हग त्ति सुत्तऽत्थ-तदुभयाइं, जो घेत्तुं णिण्हवे तमायरियं / लहुयां गुरुया अत्थे, गेरुयणायं अबोही य // 789 // "सुत्तत्थ०" गाधा / जस्स सगासे सुत्तत्थाणि गहिताणि तं णिण्हवेति अपलवतीत्यर्थः / अण्णं वड्यरं आयरियं उद्दिसति / अधवा भणति-मए सयं चेव 'उक्केल्लियं / णवरं तेहिं दिसा दिण्णा / सुत्तायरियं णिण्हवति ह्व / अत्थायरियं णिण्हवइ 4ii / एरिसस्स ण कधेतव्वं / किं कारणं ? / उच्यते उवहयमइ-विण्णाणे, ण कहेयव्वं सुयं व अत्थो वा। ण मणी सयसाहस्सो, आविज्झइ कोत्थु भासस्स // 790 // "उवहय-मइ विण्णाणे" गाधा / कधं सो उवहतमति-विण्णाणो ? / जेण गिहिणो वि ताव मिच्छदिट्ठीहोतया इहलोगणिमित्तं जस्स सगासे सिक्खिता तं जावज्जीवं गुरुं मंण्णमाणा सलाहंति / किमंग पुण धम्मं जाणंतेणं वायणारिओ अवलवितव्वो? / एवं जस्स उवहता मती विण्णाणे तस्स ण कधेतव्वं / जधा २कोत्थुभमणी भासस्स अजोगो त्ति काउं णाविज्झति / 'भासो' मीढसउणतो३ / एवं सो वि सुतरतणस्स अजोग्गो / इदाणिं एतेसिं चेव दाराणं पच्छित्तं भण्णति अव्वत्ते अ अपत्ते, लहुगा लहुगा य होंति अप्पत्ते / लहुगा य दव्वतितिणि, रसतितिणि होति चतुगुरुगा // 791 // अंतो बहिं च गुरुगा, आयरिय-गिलाण-बाल बिइअपयं / आयरियपारिभासिस्स होंति चउरो अणुग्घाया // 792 // "अव्वत्ते०" गाधाद्वयम् / अव्वत्तो नाम तरुणधम्मो, तस्स देति ह्र / अपात्रा णाम 1. उक्को० पू० 1 / 2. गोत्थुभ० पू० 1-2 / 3. शकुन्तपक्षिणः / मीढसडेतो पू० 1-2 / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका चलचित्त-गाणंगणिय-दुब्बलचरित्त-वामावट्ट-पिसुण-गव्वित-पइण्ण-णिण्हग-अकडसामायारिया, एतेर्सि देति ह / अप्पत्तो णाम आदीअदिट्ठभावो तस्स देति ह्व / दव्वतितिणस्स देति ह्व / रसतिंतिणो त्ति भावर्तितिणो तस्स देति 4 / तितिणियत्तकरणे एतं / जं पुण अंतो बाहिं वा संजोएति तत्थ 4 / आयरिय-गिलाण-बालमादीणं अट्ठाए संजोईतो विसुद्धो / आयरिअपारिभासिस्स 4 / जम्हा पच्छित्तं परिजाणामि तम्हा ण कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं / खेत्तं कालं पुरिसं, णाऊण पगासए गुज्झं // 793 // "तम्हा ण कहेयव्वं आयरिएण०" गाधा / खेत्तं अद्धाणं पवज्जितुकामेणं अद्धाणकप्पो कहेतव्वो। ताधे ते पुव्वं कहितेणं पलंबगहणं सद्दहिस्संति / एतं दव्वं खेत्तं च गतं / काले वि दुब्भिक्खे आधाकम्मादिग्गहणं / पुरिसो जति परिणामओ तस्स कधिज्जति चेव अववातो। .. इयाणि जं तं हेट्ठा सूतियं आयरिय-गिलाण-बालाण बितियपदं, तं वित्थरेण भण्णतिदव्वतितिणियत्तं पि करेज्जा / आयरियस्स सीसा आणं न करेंति, ते चोएमाणा भावर्तितिणिअत्तं पि करेज्जा / आयरितो खीरेणं वोसिराविज्जति ताधे संजोएज्जा / एवं अण्णो वि साधू / उवधिम्मि य आयरियस्स अंतरकप्पाणुरूवा सामली मेलेज्जेज्जा / संथारओ य से अत्थुरेज्जा। गिलाणो वा दव्वतितिणियत्तं करेज्जा / २भेसयनिमित्तं दव्वाणि वा संजोएज्जा। एतेहिं कारणेहिं वट्टमाणाणं कधिज्जति / एवं पत्तेय त्ति दारं गतं / इदाणि अणुण्णाए त्ति दारं चउभंगों अणुण्णाए, अणणुण्णाए अ पढमतो सुद्धो। सेसाणं मासलहू, अविणयमाई भवे दोसा // 794 // "चउभंगो०" गाधा / कोइ पाडिच्छिओ आगतो सुत्तत्थणिमित्तं, उवसंपण्णो / आयरिएहि अणुण्णाओ-उवज्झायस्स सगासे पढाहि / उवज्झाएणं आयरिओ पुच्छियव्वो'पाढेमि खमासमणो ! ?' आमं ति भणिते पाढेतो सुद्धो / एस अणुण्णातो अणुण्णातस्स / इदाणि बितिओ-अणुण्णातं अणणुण्णातो वाएति / आयरिएहिं भणितो-उवज्झायस्स सगासे पढाहि। उवट्ठिए जति उवज्झाओ आयरियं अपुच्छिउं पाढेति मासलहुँ / ततितो-अणणुण्णातं अणुण्णातो वातेति / तस्स समक्खं आयरिएहिं उवज्झातो भणितो-'पाढेज्जासि' / इतरो असंदिट्ठो / उवज्झायस्स उवट्ठितो / उवज्झाएणं पुच्छियव्वो–'तुमं खमासमणेणं संदिट्ठतो ण व त्ति ?' / भणति–'मए सुयं खमासमणेहिं तुब्भे संदिट्ठा जधा मए पाढेज्जाह' / जति पाढेति / 1. तम्हा ण कहे० पू० 1, पा० / 2. तेयनि० पू० 1-2, पा० / 3. सुत्तणिमित्तं पू० 1 / 4. संदिट्ठिता पू० 2 / संट्ठिया पू० 1 / संदिट्ठाय पा० / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा-७९३-७९९] 201 दोण्ह वि जणाणं। अध ण पाढेति तो उवज्झाओ सुद्धो / चउत्थो-अणणुण्णातं अणणुण्णातो वाएति / दोण्ह वि मासलहुं / अविणयो भवति / आदिग्गहणेणं अणवत्थादओ दोसा / अणुण्णाए त्ति दारं गतं / इदाणि भावतो परिणामए त्ति दारं / भावग्रहणात् शेषग्रहणं / परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए। अंबाईदिटुंतो, कहणा य इमेहिँ ठाणेहिं // 795 // "परिणाम अपरिणामे" गाधा / परिणामग्रहणात् परिणामए अपरिणामए अतिपरिणामए तिण्णि पुरिसा परूविजंति / तत्थ परिणामओ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं / तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साधुं // 796 // "जो दव्वखेत्त०" गाधा / जो दव्वकतं खेत्तकतं कालकतं भावकतं जं जेण प्रकारेण जिणेहिं कधितं तं सद्दहति सो परिणामगो णातव्वो / दव्वतो सचित्ताचित्त-मीसए दव्वे सद्दहति / जारिसे कज्जे कप्पंति वा ण वा?। खेत्ततो-अद्धाणे जणवते वा आयरियव्वं तं सद्दहति / कालओदुब्भिक्ख-सुभिक्खेसु जो कप्पो.। भावतो-गिलाणस्स आगाढाणागाढेसु जो कप्पो तं सद्दहति / एरिसो जो सो परिणामतो भवति णातव्वो य / ... इमो अपरिणामओ जो दव्व-खेत्त-कय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं / ते तह असद्दहंतं, जाण अपरिणामयं साहुं // 797 // "जो दव्व०" गाधा / एते चेव दव्व-खेत्त-काल-भावे जहा भणिए जो ण सद्दहति, . सो अपरिणामओ / इमो अइपरिणामओ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहिं जया काले / तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणामं वियाणाहि // 798 // ___"जो दव्व" गाहा / एतेसु चेव पुव्वपरूवितेसु दव्वादिसु जो तल्लेस्सो-अच्छति / पेच्छामि ताव एत्थ किंचि णिस्साणपदं तो तं धणितमवलंबिस्सामि / उस्सुत्तमती णाम अववातसुत्तातो अतिरेगा मती जस्स सो उस्सुत्तमती / अपरितुस्समाणो आयरिओ पुणो लक्खणगाधं पढति परिणमति जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कज्जेसु / बिइए ण उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ // 799 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका "परिणमति०" गाहा / कंठा / अधवा इमो अण्णो पगारोदोसु वि परिणमइ मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स / बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स // 800 // "दोसु वि" गाधा / जो परिणामओ भवति तस्स उस्सग्गे पत्ते उस्सग्गे परिणमति मई। अववादे पत्ते अववादे. परिणमति मती / जत्थुस्सग्गो बलिओ तत्थ उस्सग्गं आचरति / जत्थ अववातो बलिओ तत्थाववातं चेव गेण्हति / बितिओ नाम अपरिणामओ / तस्स. उस्सग्गे चेव एगम्मि परिणमति मती / अववादं ण सद्दहति / ततिओ णाम अतिपरिणामओ। तस्स अतिअपवादे परिणमति मती / सो दव्वादिसु अणुण्णं सुणेत्ता ण किंचि परिहरति / चितेति-अतिचिरस्स सुतं, वंचिया मो पुव्वं / पडिसेह चरिमदुगे, (गा० 795) त्ति पडिसेधो छेयसुत्तदाणस्स अपरिणामग-अतिपरिणामगदुगस्स / अंबादी दिटुंतो त्ति / एतेसिं तिण्ह वि जाणणानिमित्तं आयरिया सीसे भणंति-अंबेहिं अज्जो ! कज्जं ति / तत्थ जो परिणामओ सो भणति चेयणमचेयण भाविय, केहह छिण्णे अ केत्तिया वा वि। लद्धा पुणो व वोच्छं, वीमंसत्थं व वुत्तो सि // 801 // "चेयणमचे०" गाधा / किं सचित्ताणि अचित्ताणि सुत्तादीहिं वा भाविताणि ? / 'केद्दह' त्ति किं वड्डलयाणि खुड्डलयाणि प्रमाणेन ? / छिण्णंति किं पुव्वछिण्णाणि आणेमि छिदित्ता इदाणि ? / अधवा किं गंडियाओ कतयं, उत सगलं ? / केत्तिया वा ? / वा विभाषायाम् / किं बद्धट्ठियाणि आणेमि अबद्धट्ठिताणि ? / तरुणं जरढं वेति ? / एवं उक्ते शिष्येण आचार्येण वक्तव्यं-अलाहि लद्धाणि / अधवा भुज्जो' भणीहामि जारिसाणि आणेतव्वाणि / अधवा किं अंबेहिं ममं ? विण्णासणा(वीमंसणा?)णिमित्तं मए वुत्तोऽसि-किं तुमं परिणामओ ण वा, विणीतो ण व त्ति वा ? / जो अपरिणामओ सो भणति किं ते पित्तपलावो, मा बीयं एरिसाइं जंपाहि / मा णं परो वि सोच्छिहि, कहं पि णेच्छामों एयस्स // 802 // "किं ते पित्त०" गाधा / सो णातव्वो अपरिणामओ / जो अतिपरिणामओ सो भणति कालो सिं अइवत्तइ, अम्ह वि इच्छा ण भाणिउं तरिमो। किं एच्चिरस्स वुत्तं, अण्णाणि वि किं व आणेमि // 803 // "कालो सिं०" गाधा / एत्ताहे चेव आणेमि, अण्णेहिं दिवसेहिं जरठीभवंति / 1. वा पुणो भ० पू० 1-2 / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 भाष्यगाथा-८००-८०६] 'अण्णाणि वि' त्ति माउलिंगादीणि आणेमि // एतेसिं अपरिणामग-अतिपरिणामगाणं आयरिएणं इमं उत्तरं दातव्वं णाभिप्पायं गेण्हसि, असमत्ते चेव भाससी वयणे। सुक्कंबिल-लोणकए भिण्णे अहवा वि दोच्चंगे // 804 // "णाभिप्पायं०" गाधा / न त्वयाऽभिप्रायो मम गृहीत इति / यावन्न तावन् मे वाणी समाप्यते तावदेव त्वया ईदृशं समयविरुद्धं निघृणं वचनं उक्तम् / मए भणितं-सुत्तभाविताणि लोणभाविताणि वा दव्वतो भावतो य भिण्णाणि दोच्चंगाणि वा आम्ब्राणि आणेहि / मए भणितं, आदिग्गहणेणं भणिता-रुक्खेहिं अज्जो ! कज्ज, बीएहिं वा / एत्थ वि तधेव अपरिणामग-अतिपरिणामगेहिं भणिए, आयरिएणं ५भणितव्वं णिप्फाव-कोद्दवाईणि बेमि रुक्खाणि ण हरिएँ रुक्खे। अंबिल विद्धत्थाणि अ, भणामिण विरोहणसमत्थे // 805 // "णिप्फाव०" गाधा / णिप्फाव-कोद्दवा णिज्जीवा जे रुक्खा ते मए भणिता, ण वि हरिया रुक्खा / बीयणि अंबिलबीयाणि विद्धत्थाणि वा मए भणिताणि ण वि रोहणसमत्थाणि। एस अंबादी दिलुतो गतो / कहणा य इमेहिं ठाणेहिं ति (गा० 795) / जं एयं आयरिएणं पडिभणितं एसा कधणा, उत्तरं ति भणितं होति / अधवा कधणा य अत्थस्स इमेहिं ठाणेहिं वटुंतस्स इत्यर्थः / तद्यथा णिद्दा-विगहापरिवज्जिएण, गुत्तिदिएण पंजलिणा। भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं // 806 // .."णिद्दा-विगहा" गाधा / ण णिद्दाइतव्वं सुणितेणं / णिद्दायतो ण किंचि गेण्हति / विकहाहिं वाघातो भवति / गुत्तिदिएण सोतव्वं / श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां स्वं स्वं अर्थं प्राप्य निग्रहः करणीयः / अत्थपोरुसीए निच्चमेव अंजली कया अच्छति / भत्तीए बहुमाणेण य सुणेयव्वं / भक्तिर्नाम सेवा, इतिकर्तव्ये आचार्यस्य बाहिरा चेष्टा, बहुमानस्तु भावाभिष्वंगः / यस्य बहुमानस्तस्य भक्तिः स्याद् वा न वा / यस्यापि भक्तिः तस्यापि बहुमानः स्याद् वा न वा / एत्थ भत्तीए बहुमाणेण य इमं उदाहरणं / एगस्स गिरिस्स णिज्झरे वाणमंतरं / तत्थ सिवस्स पडिमा / तं एगो धम्मितो सुस्सूसति / भत्तीए पत्तामोडं गुग्गुलुं च देति / आवरिसणोवलेवणं च / अण्णो य एगो पुलिंदओ / सो जे जम्मि उदुम्मि सुंदरा पुप्फा ते आणेत्ता गल्लोदएणं ण्हाणेत्ता अच्चेतुं सुतुट्ठो . 1. आणेति पू० 1 / 2. न त्वभि० पू० 2 / 3. गृहीतस्ते पू० 1-2 / 4. अंबाणि पा० / आम्राणि पू० 1-2 / 5. वत्तव्वं पू० 1 / 6. पत्तामोदं गु० पू० 2 / 7. आवरिसणा लेवणं पू० 1-2 / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका णच्चति / णच्चित्ता य गच्छति / अण्णता सो वाणमंतरो पुलिंदेण समं बोल्लेति / धम्मितो य आगतो / रुट्ठो चिंतेति-अहं सुइएण अच्चणं करेमि, एस असुइणा, तह वि एस जहण्णो एतेण समं बोल्लेति / णूणं एस वि असूइओ चेव / वाणमंतरेण भणितं-सच्चं, तुमं ममं सेवसि। जारिसो उण एतस्स ममोवरि बहमाणो तारिसो तुधं णत्थि / कधं? कल्ले पेच्छाहि। पभाताए रतणीए वाणमंतरेणं एवं अप्पणो अच्छि णिद्दारितं / पुलिदेण दिटुं / रुट्ठो 'केणं?' ति / ताधे चिंतेति-मम सामिस्स एगं अच्छि, मम दोण्णि, ण जुत्तं / अप्पणयंऽणेण अच्छि ३णिड्डारित्ता लातियं / वाणमंतरेण धम्मिओ भण्णति-किध ? पेच्छसि एतस्स बहुमाणं ? ताधे णेण पडिलाइयं पुलिंदस्स / धम्मितस्स भत्ती, पुलिंदस्स बहुमाणो / एस भत्ति-बहुमाणाणं विसेसो। दोसु वि एत्थ अधिकारो / भत्तिबहुमाणे ण करेति ह्व। उवउत्तो अणण्णमणसो सो उग्गिण्हति / किं चान्यत् अभिकंखंतेण सुभासियाइँ वयणाइँ अत्थमहुराई। विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणंतेण // 807 // "अभिकंखंतेण०" गाधा / केरिसाणि सुभासिताणि ? / उच्यते-वयणाणि अत्थ महुराणि / एतेण उवदेसेण सुणमाणस्स विम्हय-हरिसा जायंति / ते य तस्स सोतारस्स णयणमुहेसु पासति कधओ, तं च पासित्ता आयरियस्स हरिसो जायति / एरिसगुणजुत्तस्स सीसस्स आधारित सुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स। . सुपरिच्छित्ता य सुणिच्छियस्स इच्छागए पच्छा // 808 // "आधारित" गाधा / जो जेहिं आयरिएहिं आधारितो / सविसेसो णाम सापवादो। सुट्ठ परिच्छित्ता सापवादो सूत्रस्य अर्थो दीयते / सुणिच्छितस्स त्ति सुत्तत्थे घेत्तव्वे भद्रबाहोरपि। णाणादीणं च अविराधणाए सुट्ट णिच्छितो जो, तस्स सविसेसो दातव्यो / 'इच्छागए पच्छ' त्ति। अपरिणामग-अतिपरिणामगदुगस्स पुण ४जता सा अप्पणिता 'इच्छागत' त्ति नट्ठा भवति, तदा छेदसुत्ताणि दिज्जंति / 'परिसा य'त्ति दारं गतं / एवं णिक्खेवाणुओगद्दारस्स लक्खण-तदरिहपरिस त्ति तिण्णि पसंगदाराणि समत्ताणि / से तं णिक्खेवत्ति / कल्पचूां पीठिका परिसमाप्ता / 1. तव पू० 1-2 / 2. ०च्छि निड्डोरितं पू० 1 / णिड्डोलितं पू० 2 / 3. णिड्डोरेत्ता पू० 1-2 / 4. अत्थसाराणि पू० 1 / 5. जाता या० पा० / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका // (तैयार करनार: मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय) (नोंध : प्रथम गाथा- आदि-चरण आपवामां आव्युं छे. पछी चूर्णिपुस्तकगत-गाथा-क्रमाङ्क छे; त्यारबाद प्रस्तुत पुस्तकनो पृष्ठाङ्क छे; छेल्ले बृ.क. वृत्तिना मुद्रित पीठिका (प्रथम) विभागमा स्वीकारवामां आवेल गाथाक्रमाङ्क आपेल छे. जे गाथा बे पैकी जेमां न होय ते स्थले - आम लीटी करेल छे.) गाथा चूर्णिक्रमाङ्कः वृत्तिक्रमाङ्कः 665 662 12 292 290 42 42 330 225 31 3 अकयमुहे दुप्पस्सा अक्खरतिगरूवणया अक्खरपयाइएहिं अक्खरसण्णीसम्म अक्खेवो सुत्तदोसा अग्गी बाल गिलाणे अच्चंतमणुवलद्धा अच्चंता सामण्णा अच्चित्तेण अचित्तं अच्चित्तेणं मीसं अच्चित्तेण सचित्तं अजहण्णमणुक्कोसो अज्जक्कालिय लेवं अज्जस्स हीलणा ल० अज्जुयलिया अतुरिया अट्टगहेउं लेवा अणभिगतमाइआणं अणवटुंते तह वि उ अणावातमसंलोए अणावायमसंलोए अणिउत्तो अणिउत्ता अणुओगम्मि य पुच्छा अणुणा जोगो अणुयोगो 420 472 473 680 113 124 124 173 125 184 117 476 33 46 418 468 469 677 472 725 441 520 739 524 419 443 234 250 190 728 446 523 742 527 421 134 187 به س ه 448 235 ه م 251 190 سه Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 682 173 209 58 53 189 187 580 52 149 679 208 189 187 577 126 512 353 439 133 131 515 355 444 600 98 117 153 17 193 54 331 अणुण्णाए वि सव्वम्मी अणुपुव्वी परिवाडी अणु बादरे य उंडिय अणुयोगो य णियोगो अण्णकुलगोत्तकहणं अण्णाण मती मिच्छे अण्णोण्णे अंकम्मि अण्णो दुज्झिहि कलं अतिरेगगहणमुग्गा अत्तट्टकडं दाउं अत्तागमप्पमाणेण अत्ताभिप्पायकया अत्थं भासति अरहा अत्थवसा हवति पदं अत्थस्स उग्गहम्मि वि अत्थस्स कप्पितो खलु अत्थस्स दरिसणम्मि वि अत्थस्स वि उवलंभे अत्याभिवंजगं वं० अत्थाणंतरचार अत्तित्ते संबद्धा अस्थि मे घरे वि वत्था अत्थेसु दोसु तीसु व अद्दारगं अनगरं अधभावेण पसरिया अधवा अणिच्छमाण अधवा आयारादिसु अधवा मुच्छित मत्ते अधिगरण मारणाऽणी० अधिगो जोगो निओगो अपमज्जणा अपडि० अपरायत्तं णाणं अपुव्वमतिहिकरणे अपुव्वेण तिपुंजं अप्पक्खरमसंदिद्धं अप्पग्गंथ महत्थं अप्पच्चओ अकित्ती orrow. orwmww, 4. 163 639 288 259 78 101 239 168 83 142 555 195 459 636 286 257 100 238 168 82 552 194 454 29 568 108 285 277 785 121 12 147 29 572 109 287 77 279 75 788 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 63 184 111 112 125 136 166 177 151 236 724 411 415 471 531 649 699 585 704 703 513 804 733 737 331 430 178 178 134 204 186 187 92 435 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका अप्पण्या य गोणी 237 अप्पत्ताण उदितेण 727 अप्पत्ते अकधेत्ता 413 अप्पत्ते अकहेत्ता 417 अप्पत्ते अकहेत्ता 475 अप्पत्ते अकहेत्ता 534 अप्पत्ते अकहेत्ता 652 अप्पुव्वस्स अगहणं 702 अप्फासुएण देसे 588 अबहुस्सुअस्स देइ व 707 अबहुस्सुए अगीय० 706 अभतट्ठीणं दाउं अभिकंखंतेण सुभा० 807 अभिगते पडिबद्ध 736 अभिगय थिर संविग्गे 740 अभिणवणगरणिवेसे अमणुण्णेतरगमणे अमुइच्चगं ण धारे अमुगं कालमणागए अमुगिच्चगं न भुंजे अलियमुवघायजणयं 280 अवि गोपयम्मि वि पिबे 351 अवितधकरणे सुद्धो 783 अविभागेहिं अणंतेहिं 73 'अव्वत्तमक्खरं पुण 76 अव्वत्ते अ अपत्ते 791 अव्वोच्छित्तिनयट्ठा 135 असरीरतेणभंगे 579 असिवाइकारणेहिँ 634 अहवा वि विभूसाए 493 अहीणक्खरं अणहिय० 290 अंगाणंगपविटुं 89 अंगुट्ठपएसिणि मज्झि० 514 अंतिमकोडाकोडी अंतो बहिं च गुरुगा 792 अंतो बर्हि संजोअण 768 अंबत्तणेण जीहाइ 349 115 168 657 660 633 615 162 630 612 278 158 75 97 197 349 780 22 75 23 199 34 149 162 128 78 788 135 576 631 490 288 26 / 133 94 27 199 194 789 765 347 96 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 27 12 93 361 176 595 266 719 71 359 176 592 264 716 727 432 182 730 185 115 119 446 437 451 477 255 766 125 68 473 254 763 805 194 204 808 170 170 90 339 26 89 93 337 692 आ| आउयवज्जा उ ठिई आगंतु वाधिखोभो आगमतो सुतणाणी आगाढमिच्छदिट्ठी आगारिंगितकुसलं आणाणवत्थ मिच्छा आणा विकोवणा बुज्झ० आत पर तदुभए वा आता पवयण संजम आता पवयण संजम आदिल्लाणं दुण्ह वि आदीअदिटुभावे आधारितसुत्तत्थो आधारो आधेयं आभिणिबोहमवायं आयरिए सुत्तम्मि य आयरिय गणी इड्डी आयरियत्तणतुरितो आयरियवण्णवादी आयारदिट्ठिवाय० आयारपकप्पधरा आयसमुत्था तिरिए आलंबणमलहंती आलोयणं पउंजइ आलोयणं पउंजति आलोयणं पउंजति आलोयणं पउंजति आवातदोस तइए आवासगमाईया आवासगमादी या आवाससोहि अखलं० आलोएउ य दिसा आलोगं पि य तिविहं आसण्णपतीभत्तं आसादेउं व गुलं आहणणादी दित्ते 373 176 103 187 186 375 741 735 696 441 119 738 732 693 176 116 436 120 397 395 392 394 396 107 107 107 108 116 394 397 437 776 384 619 442 779 386 622 447 196 105 159 442 460 388 386 121 128 433 438 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका आहारे उवगरणे.. 750 190 747 690 731 175 185 687 728 67 21 इक्कडकढिणे मासो इति दोसगुणे णाउं इति पोग्गलकायम्मी इत्थं पुण अहिगारो इत्थिणपुंसावाए इत्थिणपुंसावाते इत्थी पुरिस णपुंसग 148 453 148 458 471 640 120 124 164 467 637 604 154 192 . 183 762 724 321 598 481 323 89 153 601 759 721 319 595 477 321 126 462 उग्गमउप्यायणए. उग्गहणधारणाए उच्छुकरणो व कोट्ठग० उज्जयसग्गुस्सग्गो उडुवासा समतीता . उड्डादीणि उ विरसम्मि - उण्णतमविक्ख णिण्णस्स उत्तरगुणणिप्कण्णा उत्तर पुव्वा पुज्जा उत्तरिए जध दुमादी उद्दिढ तिगेगयरं उद्दिढ तिगेगयरं उद्दिसिय पेह अंतर . उद्दिसिय पेह संगय उय वइकारो ह चि य उल्लेऊण न सक्का उवगरणं वामग० उवदेसेण सयं वा उवमाइ अलंकारो उवमारूवगदोसो उवयार अणि?रया उवयोगं च अभिक्खं उवयोग सरपयत्ता उवलद्धी अगुरुलहू उववाएण व सायं उवसमसम्मा पडमा० 121 85 157 168 157 310 613 658 612 657 289 337 457 307 610 655 609 654 287 168 78 93 335 464 1 459 28 98 286 284 281 316 80 283 318 525 141 134 522 72 117 120 124 127 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 बृहत्कल्पचूर्णिः // [ पीठिका 91 90 113 118 787 790 199 145 560 उवसामग सासाणं उवसामगसेढिगयस्स उवहयमइविण्णाणे उवहीलोभ भया वा उव्वरए कोणे वा उस्सग्गाई वितहं उस्सण्णं सव्वसुयं उस्सण्णेणं असण्णी उंडिय भूमी पेढिय 147 570 563 573 624 271 54 160 621 73 .269 332 330 S 30 उसरदेसं दड्डे० ऊससियं णीससियं 632 274 709 162 73 177 700 198 526 749 192 . 629 272 706 60 73 697 197 523 746 192 51 55 134 189 एए उ अघिप्पंते एक्वेक्वं तं चउहा एक्कक्कं सत्त दिणे एक्केक्कमक्खरस्स उ एक्केको जियदेसो एक्कक्को पुण उवचय० एक्केणं एक्कदलं एक्को य जहण्णेणं एगंतरमायंबिल एग वा अत्थपदं एगत्थे उवलद्धे एगदुतीचउपंचग एगपदे दुतिगादी एगम्मि अणेगेसु व एगयरणिग्गओ वा एगविहारी अ अजाय० एगागित्तमणट्ठा एगेण विसति बीएण एतद्दोसविमुक्वं एते पदे ण रक्खति एमेव अजीवस्स वि '54 17 450 . 118 445 199 198 611 156 176 608 694 699 177 696 346 133 512 567 155 344 509 564 155 146. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका 211 60 218 62 766 195 143 146 556 101 219 62 769 559 568 365 553 650 631 542 642 666 752 142 166 162 139 565 363 550 647 628 539 639 663 749 713 107 164 716 108 एमेव अधाउं उज्झि० एमेव असंता विउ एमेव उवहि सेज्जा एमेव कइयवा ते एमेव गिलाणे वी एमेव गोणि भेरी एमेव चारण भडे एमेव मज्जणाई एमेव मामगस्स वि एमेव य पिहियम्मी एमेव य पुरिसाण वि एमेव य संसटुं एमेव लेवगहणं एयं दुवालसविहं एवं अप्पडिवडिए एवं खओवसमिए एवं खु थूलबुद्धी एवं गहवइसागा० एवं तु अणंतेहिं एवं तु गविढेसुं एवं पि अलब्भंते एवं पि भाणभेदो एवं पि हु उवघातो एवं पुच्छासुद्धे एवं मणविसप्तीणं एवं लेवग्गहणं एवं संसारीणं एवमेग तूभयतो वी एसुस्सग्गठियप्पा एसेव य दिटुंतो एहि भणिओ उ वुच्चइ 87 227 686 71 651 226 683 70 648 166 620 617 488 490 646 159 127 128 165 484 487 643 85 134 519 105 516 104 - 248 194 249 24 81 82 ওওও 774 660 ओभासणा य पुच्छा ओमंथपाणमाई ओहविभागुद्देसे ओहि मणपज्जवे या 168 170 137 668 537 665 534 30 12 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 754 184 493 757 184 496 705 560 257 129 . 178 144 702 557 445 117 182 723 281 440 720 279 435 75 440 116 222 कज्जविवत्तिं दृटुं कडकरणं दव्वे सा० कतकितिकम्मो छंदेण कतमकते गिहिकज्जे कतिएण सभावेण व कप्पव्ववहाराणं कप्पेऊणं पाए कमजोगं ण वि जाणइ कमभिण्ण वयणभिण्णं कलुस दवे असती य कंकडए को दोसो काउं सरयत्ताणं काऊण णमोक्कारं काएसु उ संसत्ते कारकगतो चउत्थे कारणजिसेवि लहुसग कारणे सपाहुडि ठिया कालजइच्छविदोसो कालमकाले सण्णा कालम्मि बितितपोरिसि कालस्स समयरूवण कालाइक्वंते लहु० 521 134 1 2 592 1 329 379 571 75 282 443 164 164 163 597 594 152 189 कालातिवंतोवट्ठाण कालियसुआणुओगम्मि कालेणुवक्कमेण व कालो सिं अइवत्तइ कास तऽपुच्छियम्मी कासातिमाति जं पुव्व० किंचिम्मत्तग्गाही किं ते पित्तपलावो / किं दमओ हं भंते ! किं दोमि त्ति णरवई किं पि त्ति अण्णपुट्ठो कीस ण णाहिह तुब्भे कुप्पवयणओसण्णेहि 596 747 111 803 626 616 371 802 636 501 726 104 147 569 280 116. . 438 40 40 163 153 .(कालातीते लहुगो)। 593 744 30 110 202 800 161 623 158 613 102 369 202 799 163 130 * 498 183 161 624 94 341 723 627 343 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका 213 105 383 385 70 26 26 कुविया तोसेतन्वा केण हवेज्ज णिरोहो केसिंचि इंदियाई को कल्लाणं णेच्छति को दोसो एरंडे कोमुदिया संगामिया कोल्लुगपरंपर संकं० 66 248 217 358 578 59 247 216 356 575 149 92 334 576 532 299 332 573 529 297 299 479 559 579 148 135 82 83 126 144 301 * 483 562 582 80 149 79 खणणं कोट्टण ठवणं खमणं णिमंतिते ऊ खर अयसिकुसंभ सरिसव खलिते पत्थरसीया खलिय मिलिय वाइद्धं खंडम्मि मग्गियम्मी खंधारभए णासति खंधारादी णाउं खंधेऽणंतपएसे खित्तम्मि उ जावतिए खीणम्मि उदिण्णम्मि तु खीरमिउपोग्गलेहि खीरमिव रायहंसा खुड्डो धावण झुसिरे खुरअग्गिमोयगोच्चा० खेत्तम्मि उ अणुयोगो खेत्ते भरहेरवए खेत्तेहिँ बहू दीवे or 114 m 229 368 . 460 121 34 121 228 366 455 58 162 140 161 18 162 40 140 188 70 गच्छो अ अलद्धीओ गणधरथेरकयं वा गणिया मरुगीऽमच्चे गतिठाणभासभावे गमणागमणे गहणे गहवइणो आहारो गंतुं दुचक्कमूलं गिरिसरियपत्थरेहि गिहवासे अत्थसत्थेहिं 743 144 264 754 479 679 190 740 144 262 751 475 676 497 125 172 130 28 500 97 98 390 106 388 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 761 692 693 498 गिहिलिंग अण्णलिंग गीतं मुणितेगटुं गीतेण होइ गीई गीयत्थ परिग्गहिते गीयत्यो य विहारो गुणदोसविसेसण्णू गुणसुट्टितस्स वयणं गुरुगा अहे य चरमति० गुरुगा बंभावाए गेण्हंतगाहगाणं 192 175 176 129 175 101 691 758 689 690 495 688 365 245 533 590 233 66 367 246 536 593 234 136 152 घडसद्दे घडकारा 63 200 138 794 687 505 541 258 703 770 175 131 138 68 178 195 132 चउदसपुव्वी मणुओ चउभंगो अणुण्णाए चउरो ओदइअम्मी चउरो लहुगा गुरुगा चउलहुगा चउगुरुगा चत्तारि दुवाराई चरगाई वुग्गाहण चलचित्तो भावचलो चलजुत्तवच्छमहिया चंदगुत्तपपुत्तो तु चाउम्मासुक्कोसे चिंधेहिँ आगमेउं चिरपव्वतितो तिविधो चेयणमचित्त मीसग चेयणमचेयण भाविय चेयण्णस्स उ जीवा चोदेति रागदोसे चोद्दस दस य अभिण्णे चोयग पुच्छा उस्सा० चोयगवयणं गंतूण 138 791 684 502 538 256 700 767 508 294 606 563 403 681 798 18 506 296 609 156 145 109 405 684 801 174 202 18 9 221 211 132 32 132 718 181 127 715 483 487 461 छक्काय चउसु लहुगा छड्डणे काउड्डाहो 465 554 122 . . 142 551 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 97 143 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका छड्डेउं भूमीए. 353 छड्डेऊण व जइ गया 556 छण्णालयम्मि काऊण 376 छत्तंतियाए पगतं 401 छम्मास अपूरित्ता 771 छव्विह सत्तविहे या 276 छायाए णालियाइ व 263 छिज्जते विण पावेज्ज 714 103 108 195 74 70 351 553 374 399 768 274 261 711 732 729 485 22 22 305 308 252 489 247 128 251 486 246 74 635 م س 163 638 637 145 163 634 37 207 जइ णत्थि कओ णामं जइ वा हत्थुवघाओ जइ वि य तिट्ठाण कयं जति एव सुत्तसोवीर० जति कप्पादणुयोगो जति णेवं तो पुणरवि जति पवयणस्स सारो जति पुण सो वि वरिज्जेज्ज जति रज्जाओ भट्ठो जति रणो भज्जाए जति वि य भूतावादे जति वि य वत्थू हीणा जति सव्वं चिय णामं जत्थ मती ओगाहति जत्थऽम्हे पासामो जध अरणी णिम्मवितो जध सव्वजणवएसुं जमिदं पगयं इंदो जम्हा उ मोयगे अभि० जह इंदो त्ति य एत्थं जह ठवणिंदो थुव्वइ जह मयणकोद्दवा ऊ जह वा तिण्णि मणूसा जं अब्भुविच्च की जं जं सुयमत्थो वा जं जस्स णत्थि वत्थं जं तं दुसत्तगविधं जं तु निरंतरदाणं 733 232 439 57 186 61 116 145 206 730 232 434 225 205 17 226 206 17 59 11 9 29 110 103 183 758 618 177 302 102 183 755 191 158 615 40 177 300 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 218 217 160 160 667 602 40 169 154 599 16 27 366 101 364 581 578 599 324 90 176 694 243 416 112 182 11 135 60 721 25 529 596 322 * 691 242 412 718 25 526 222 368 जं पि य दारूं जोग्गं जंबुद्दीवपमाणं जं होइ पगासमुहं जा खलु जहुत्तदोसे० जा गंठी ता पढमं जाणंतिया अजाणं० जाणति य पिहुजणो वि हु जा ताव ठवेमि वए जा मंगल त्ति ठवणा जावंतिया उ सेज्जा जावतिया उस्सग्गा जिणकप्पिओ गीयत्थो जितपरिसो जितणिद्दो जीवाजीवाभिगमो जीवाजीवे ण मुणइ जीवो अक्खो तं पड़ जुत्ति उ पत्थरायी जे उ अलक्खणजुत्ता जे खलु अभाविता कुस्सु० जे चित्तभित्तिविहिया जे जम्मि उउम्मि कया जे जम्मि जुगे पवरा जेण उ सिद्धं अत्थं जेण विसिस्सति रूवं जे पुण अभाविता ते जे रायसत्थकुसला जे लोगवेदसमए० जेसि पवित्तिणिवित्ती जे होति पगतिमुद्धा जे उ उदिण्णे खीणे जो उत्तमेहिँ पहओ जो खलु सतंतसिद्धो जोगमकाउमहागडे जो चरिमपोग्गले पुण जो चेव बली' गमो जो चेव य हरिएसुं जो जधा वट्टए कालो 223 370 453 201 179 261 344 384 383 448 201 179 259 342 382 381 86 369 122 367 129 249 181 607 250 181 610 123 561 510 130 156 32 144 132 558 506 297 . 295 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 60 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका जो जह कहेइ सुमिणं 224 जो जेण पगारेणं 265 जो जेण विणा अत्थो जो दव्वखेत्तकयका० 796 जो दव्वखेत्तकयका० 797 जो दव्वखेत्तकयका० 798 जो पुण जहत्थजुत्तो 21 223 263 21 793 794 795 201 201 201 15 173 .झाणट्ठया भायण झीमीभवंति उदया 683 116 680 123 30 194 डझंतं तिंबुरुदा० - डहरो अकलीणो त्तिय 767 775 764 772 97 27 681 517 574 373 173 134 148 102 96 678 514 571 371 11 ه ه ه ه ه णइ पह जर वत्थ जले णगराइ णिरुद्ध घरे ण तरिज्जा जति तिण्णि उ णत्थि कहालद्धी मे ण य कत्थइ णिम्मातो ण वि इंदियाइँ उवल० ण वि य हु होयऽणवत्था ण हि जो घडं वियाणइ णंतपएसाणं पि य णंदी चतुक्क दव्वे णंदी मंगलहेडं णंदी य मंगलट्ठा णाऊण किंचि अण्णस्स णाणं तु अक्खरं जेण णाणदंसणसंपण्णा णाणादी तिट्ठाणा णाणेण दंसणेण य णाभिप्पायं गेण्हसि णामं ठवणा दविए णामं ठवणा दविए णामं ठवणा दविए णामं ठवणा वत्थं سه 372 102 22 .107 74 398 701 400 804 370 72 396 698 398 801 177 108 203 5 151 653 606 166 155 151 650 603 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 327 256 275 205 262 233 236 62 325 255 273 204 260 230 235 240 731 202 149 150 271 431 241 734 186 218 णाम णिवाउवसग्गं णामसुय ठवणसुयं णामे छव्विध कप्पो णायज्झयणाहरणा णावाति उवक्कमणं णिउणे णिउणं अत्थं णिउत्ता अणिउत्ताणं णिउत्तो उभयकालं णिक्कारणम्मि णामं णिक्खेवा य णिरुत्ता० णिक्खेवेगट्ठ णिरुत्त णिक्खेवो णासो त्तिय णिक्खेवो होइ तिहा णिग्गंथाणं पढमं णिच्चणियंसण मज्जण णिच्चणियंसणियं ति य णिच्छयतो सव्वगुरुं णिच्छियमुत्त निरुत्तं णिहाविगहापरिवज्जि० णिद्दोसं सारवंतं च णिप्फाव कोद्दवाईणि णियमा सुयं तु जीवो णिरवयवो ण हु सक्को णिस्साणपदं पीहइ णीहम्मियम्मि पूरति णेगंतियं अणच्चं० णेरुत्तियाइँ तस्स उ णेहि जितो मित्ति अहं 38 115 165 644 645 0 203 149 150 273 436 647 648 65 188 806 284 805 139 214 774 382 188 m 803 203 77 , 203 282 802 35 139 213 771 196 , 104 6 380 10 311 358 314 360 135 161 525 625 466 तज्जाय जुत्तिलेवो तण विणण संजयट्ठा तत्तो इत्थिणपुंसा तत्तो य वग्गणाओ तत्थावायं दुविहं तत्थेगो उ नियत्तो तदभावे न दुमु त्तिय तदुभयकप्पिय जुत्तो 528 628 470 68 422 104 311 124 21 113 420 103 308 409 411 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 519 253 67 146 130 200 84 499 790 301 667 389 170 106 56 35 Mm 291 78 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका तद्दिवसं पडिलेहा 522 तम्हा उ णिक्खिविस्सं 254 तम्ही खलु अब्बाले 569 तम्हा दुचक्क पतिणा 502 तम्हा न कहेयव्वं 793 तवकाले आसज्ज व 303 तसबीतादि व दिढे 670 तं पुण चेतियणासे 391 तं पुण जहत्थणियतं 56 तं मणपज्जवणाणं तावसखउरकढिणयं 347 तिट्टि त्ति णंदगोवस्स 78 तिण्हारेण समाणं 784 तित्तकडुओसहाई तिपयं जह ओवम्मे 307 तिरिएसु वि एवं चिय 433 तिरियमणुइत्थियातो 594 तिविधो बहुस्सुतो खलु 404 तिविहं च होइ करणं तिविहित्थि तत्थ थेरिं 741 तितिणिए चलचित्ते तुच्छा गारवबहुला . 146 तुरियं णाहिज्जंते 722 तुल्ला चेव उ ठाणा 710 तुल्ले च्छेयणभावे तूरपइ दिति मा ते 644 तेगिच्छमते पुच्छा ते गुरुलहुपज्जाया ते चेव विवढुंता 230 ते च्चिय लहु कालगुरु 431 तेण परं आवातं 469 तेण परं पुरिसाणं 468 तेणे सावय ओसह 759 ' 85 115 152 108 345 77 781 289 304 428 591 402 94 638 762 146 95 27 765 164 194 37 182 719 180 707 83 165 378 103 641 376 68 9 114 123 123 465 464 756 दगदोद्धिगाइ जं पुव्व० दृटुं पिणे न लब्धामो 661 575 168 148 658 572 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 106 635 185 175 153 105 632 185 175 153 611 136 656 157 614 157 34 168 136 659 157 186 52 186 38 171 119 42 38 155 167 . दृट्टण जिणवराणं दमए दूभगे भट्टे दव्ववती दव्वाई दव्वसुतं पत्तगपुत्थ० दव्वस्स उ अणुओगो दव्वाइ उज्झियं दव्व० दव्वाइचउक्कं वा दव्वाइ दव्व हीणा० दव्वाणं अणुयोगो दव्वाण दव्वभूतो दव्वादिकसिणविसयं दव्वादी एक्वेक्को दव्वासण्णं भवणा० दव्वे णियमा भावो दव्वेणेगं दव्वं दव्वे तिविहं एगिदि दव्वे तिविहं एगिदि० दव्वे नाणापुरिसे दव्वे पुण तल्लद्धी दब्वे भावे य चलं दंडिय असोव तिच्चिय दंसणमोग्गह ईहा दसणमोहे खीणे दंसिय छंदिय गुरु से दाउं व उड्डरुस्से दारुं धातुं वाही दावद्दविओ गइ चं० दाहिणकरेण कोणं दिटुंतो घडकारो दिट्ठमदिट्टे दिटुं दित्तमदित्ता तिरिया दिसपवणगामसूरिय दुरधितविज्जो पच्चं० दुविधा सामायारी दुविधो लिंग विहारे दुविहकरणोवघाया 38 671 450 169 154 604 651 142 2 ل Mr. 674 455 169 154 607 654 142 14 507 432 133 124 513 625 216 755 669 309 664 426 461 374 780 760 583 لن mr 622 215 752 666 306 661 424 170 85 169 114 121 102 197 192 372 777 757 150 580 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 138 491 128 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका दुविह णिमित्ते लोभे 539 दुविहा य होंति पाता दुविही य होति सेज्जा 544 दुविहो अ होइ छेदो 713 दूमिय धूविय वासिय 587 देंति पणीयाहारं 753 देविंदरायगहवइ० 672 देसकुलजाइरूवी 242 देहे अभिवडते 228. दोण्हं अणाणुपुव्वी 268 दोण्हं पि अ जुयलाणं 643 दोसा खलु अलियादी 285 दो सागरा उ पढमो / 685 दोसाणं परिहारो दोसु वि परिणमइ मई 800 139 180 150 190 170 536 488 541 710 584 750 669 241 227 61 W0 266 164 77 174 126 202 640 283 682 476 797 480 . N धावंतो उव्वाओ धितिसंघयणे तुल्ला धूमनिमित्तं णाणं 322 204 28 11 318 320 ... 39 Pok 102 101 268 . 72 150 183 55 पगरणतो पुण सुत्तं पच्चक्ख परोक्खं वा पच्चोरुहणट्ठा खा० पज्जव पुव्वुद्दिट्टा . पट्टीवंसो दो धा० पडियरिठं सीहेणं पडिसद्दगस्स सरिसं पढमचरिमाउ सिसिरे पढमम्मि य चउलया पढमासति वाघाए पढमिल्लुगस्स असती पढिए य कहिय अहिगय पढितसुतगुणियमगुणिय पढिते य कहिय अहिगय पढिते.य कहिय अहिगय पढियसुयगुणियधारिय 270 585 725 197 524 546 467 466 535 474 414 134 140 123 122 136 124 111 113 582 722 196 521 543 463 462 532 470 414 416 708 418 711 180 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 136 155 530 602 34 137 40 533 605 137 159 403 277 577 272 424 108 74 148 73 159 401 275 574 270 422 796 792 760 114 799 795 201 201 193 763 729 726 185 126 482 415 111 37 पढियसुयगुणियमगुणिय पढियसुयगुणियमगुणिय पणगं खलु पडिवाए पण्णत्ति जंबुदीवे पत्ते य अणुण्णाते पत्तो वि न णिक्खिप्पड़ पभु अणुपभुणो व निवे० परपक्खं दूसित्ता परपक्खे वि य दुविहं परिणमति जहत्थेणं परिणामअपरिणामे परिसाइ अपरिसाई पवयणवोच्छेए वट्ट० पवयणोवघाता अण्णे पव्वावण मुंडावण पंकसलिले पसाओ पंचमहव्वयभेदो पंचविधं पुण दव्वे पंचविधम्मि परूविए पंचविधे आयारे पंथम्मि य आलोए पाउं थोवं थोवं पागइयऽसोयवादी पागयकोडुंबिय दं० पाडलऽसोग कुणाले पाडिच्छगसेहाणं पातग्गहणम्मि उ दे० पासंडकारणा खळु पासुत्तसमं सुत्तं पीतीसुण्णण पिसुणो पुढवि दग अगणि हरियग पुढवीइ तरुगिरिया पुणरवि दव्वे तिविहं पुरिमेहिं जति वि हीणा पुरिसम्मि दुव्विणीए पुरिसावायं तिविहं पुव्वं पच्छा जेहिं 773 178 689 244 457 195 50 175 478 413 . 37 330 178 686 243 452 352 65.. 120 97 354 430 114 429 114 427 292 294 79 492 489 485 481 598 312 601 313 778 591 33 128 127 153 86 196 151 12 156 775 588 32 608 605 .207 198 208 785 425 389 114 .. 782 423 387 106 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 223 182 717 191 410 412 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका पुव्वं पि अणुवलद्धो पुव्वं मलिया उस्सा० 720 पुव्वं सुत्तं पच्छा 191 पुव्वभवे वि अहीयं पुव्वण्हे लेपगहणं 495 पुव्वण्हे लेवगमं 494 पुव्वावरायया खलु 675 पूतलियलग्ग अगणी 484 पूरंतिया महाणो 381 पूरंती छत्तंतिय 380 492 491 53 110 129 129 171 126 104 104 672 480 379 378 फलएणेक्को गहाय / 202 200 557 406 402 बलि धम्मकहा किड्डा बहुसुत चिरपव्वइओ बहुस्सुते चिरपव्वतिते बंधट्ठिती पमाणं बंधाणुलोमता खलु बीए वि णत्थि खीरं बीयमबीयं णाउं 143 109 108 27 554 404 400 91 92 173 173 238 221 M0 237 220 115 429 143 132 504 166 339 265 भद्द तिरी पासंडे. भंगगणियादि गमियं भावचलगंतुकामं भावस्सेगतरस्स उ भाविय इयरे य कुडा भावे उवक्कम वा भावेण संगहादी० भावोग्गहो अहव दुहा भासाचपलो चउहा भिक्खं चिय हिंडंता भिक्खं वा वि अडतो भिक्खु विह तण्ह वद्दल भिज्जेज्ज लिप्पमाणं भेदा सोहि अवाया भेदो य मासकप्पे 434 143 508 166 341 267 167 688 756 619 746 745 530 175 685 753 191 159 188 188 135 113 743 742 528 417 546 419 549 140 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 99 138 100 540 213 782 427 428 41 786 197 114 114 212 779 425 426 41 352 97 100 मइल दरसुद्ध सुद्धं मक्खित्ते ससिणिद्धे मच्छरता अविमुत्ती मज्जण णिसिज्ज अक्खा मणुयतिरिएसु लहुगा मणुयतिरियपुंसेसुं मतिविसयं मतिणाणं मद्दवकरणं णाणं मसगो व्व तुदं जच्चा मा णिण्हव इय दाउं मा णे हुज्ज अवण्णो मालवतेणा पडिया मिच्छत्त बडुग चारण मिच्छत्तम्मि अखीणे मिच्छत्ताओ अहवा मिच्छत्ताओ मीसे मिच्छत्ता संकंती मुक्कं तया अगहिते मुरियाण अप्पडिहया मुहकरणं मूलगुणा मूतं हुंकारं वा मूलगुणउत्तरगुणे मूलुत्तरचउभंगो मोत्तूणं गच्छणिग्गते मोत्तूण पढमबीए 363 356 564 547 783 350 361 . 354 561 544 117 113 32 112 33 114 100 360 293 126 125 127 362 295 671 211 772 590 698 300 170 668 195 151 210 769 587 695 298 176 82 140 125 542 474 रक्खण गहणे तु तहा रधपडण उत्तमंगा० रवितु त्ति ठितो मेहो रातिणिओ उस्सारे रूवे होउवलद्धी 545 478 338 623 81 93 336 160 24 80 लक्खणतो खलु सिद्धी लभ्रूण अण्णपाए लक्ष्ण अण्ण वत्थे 278 662 617 74 168 158 .. . 276 659 614 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका 225 लाउय दारुय मट्टिय लित्ते छाणिय छारी लिथारियाणि जाणि उ लिंगत्थेसु अकप्पं लिंगविहारेश्वढिओ लोइय वेइय सामा० 655 520 518 630 739 167 134 134 652 517 515 627 736 385 187 105 387 m و ده mmm م و 496 171 195 505 158 340 333 165 583 507 119 سه 499 171 196 509 158 342 335 165 586 511 118 20 298 449 293 392 764 130 395 150 133 31 WW. Mor N वच्चंतेण य दिटुं वच्छग गोणी खुज्जा वच्छणियोगे खीरं वच्छो भएण णासति वत्तीए अक्खेण व वम्मा य अवम्मा वि य वय इट्टगठवण णिभा वयणेणायरियादी वंसग कडणोक्कंचण वायम्मि वायमाणे . ' वाही असव्वछिण्णो विग्योवसमो सद्धा विच्चामेलण अण्णुण्ण विच्छिण्णे दूरमोगाढे विज्जाहररायगिहे वितधं ववहरमाणं विदु जाणए विणीए विब्भंगी उ परिणमं विरहम्मि दिसाभिग्गह विवरीयवेसधारी विसम पल्लोट्टणे आ० वुढे वि दोणमेहे वूढे पायच्छित्ते वोच्चत्थे चउलहुगा 20 296 118 79 106 193 33 107 444 291 390 761 125 393 32 12 31 447 452 340 715 93 338 712 181 656 653 359 98 357 सक्कतपागतवयणा सक्कपसंसा गुणगा० सक्यपाययभासा० सग्गाम परग्गामे 57 18 165 645 642 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 137 189 538 260 748 325 317 565 306 712 708 584 13 258 745 323 315 562 87 145 84 303 180 179 150 709 705 581 13 626 * 156 629 39 33 . 116 734 156 129 737 107 350 678 393 186 29 106 348 सग्गामभिहडि गंठी सच्चित्तादी तिविहो सज्झायमसज्झाए सटाणे सट्टाणे सण्णाय कारगे पक० सण्णायगेहि णीते सण्णिकरिसो परो हो० सत्तट्ठ णवग दसगं सत्तरत्तं तवो होति सत्तेव य मूलगुणे सब्भावमसब्भावे समणे समणी सावग समयाइ ठिति असंखा सम्मत्तपोग्गलाणं सम्मत्तम्मि अभिगओ सम्मत्ते पुण लद्धे सयमवि ण पितति महिसो सरगोयरो अ तिरियं सल्लुद्धरणे समणस्स सव्वज्झयणा णामे सव्वण्णुप्पमाणाओ सव्वण्णुप्पामण्णा सव्वे वा गीयत्था ससमयपरसमयविऊ ससरक्खे ससिणिद्धे संघिया य पयं चेव संजमहेउं लेवो संजाणणेण सण्णी संजुत्तासंजुत्तं संजोग सइंगाले संठाणमगारांई संति पमाणाति पमे० संति लंभम्मि अणियया संथरतो सट्ठाणं संभिच्चेण व अच्छह संविग्गमसंविग्गा संविग्गो दव्व मिओ 675 96 172 106 72 88 391 269 319 348 96 159 mm Fr Sm3 267 317 346 618 244 537 302 527 84 135 543 139 540 44 180 567 50 180 570 326 551 P0 324 141 423 113 548 421 735 738 187 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 122 141 63 458 549 239 673 172 143 558 555 178 701 199 1 D NU 4 152 50 172 103 147 बृहत्कल्पसूत्र-चूर्णि-पीठिकाविभागसत्क-गाथानां अनुक्रमणिका संसत्तग्गहणी पुण 463 सागरियसंजयाणं सागारियअप्पाहण 240 साधारण आवलिया 676 साभाविता तण्णीसा० सामण्ण विसेसेण य 45 सामण्णा जोगाणं 704 सामाइयस्स अत्थं 240 सामित्तकरणअहिगर० 152 सारिक्ख विवक्खेहि य 50 सावगभज्जा सत्तव० सिद्धत्थए वि गिण्हति 231 सीसा पडिच्छगाणं 357 सीसा वि य तूरंती 377 सुणेतीति सुयं तेणं सुण्णं दड़े बडुगा 550 सुत सुत्त गंथ सिद्धत 174 सुत्तं कुणति परिजितं 409 सुत्तं तु सुत्तमेव उ . 312 सुत्तं पदं पयत्थो 304 सुत्तत्थतदुभयाइं 789 सुत्तत्थे कधयंतो 215 सुत्तत्थो खलु पढमो सुत्तम्मि होइ भयणा 781 सुत्तस्स कप्पितो खलु सुत्ते अत्थे तदुभय 407 सुयखंधो अज्झयणा 253 सुहसज्झो जत्तेणं 220 सूइज्जति सुत्तेणं 315 सूरमणी जलकंतो 316 सेढीए दाहिणेणं 677 सेलकुडछिद्दचालिणि 364 सेलघणकुडगचालिणि 336 सेले य छिद्द चालिणि 345 सेसे वि पुच्छिऊणं 497 सेसेसु फासुएणं 589 सो अधिकरणो जधियं 182 37 141 49 109 86 84 199 172 231 355 375 147 547 174 407 310 309 786 214 209 778 406 405 252 219 313 314 674 210 408 197 109 109 67 60 87 87 172 100 362 334 343 494 586 182 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका 198 140 सोउं अणभिगताणं सोच्चा पत्तिमपत्तिय सोच्चा व अभिसमेच्च व सोतूणं अहिसमेच्च सो भविय सुलभबोही सो वि य सीसो दुविहो 787 548 134 112 717 776 784 545 134 111 714 30 181 196 773 454 449 486 119 127 130 482 503 500 504 131 501 128 744 188 741 हत्थायामं चउरस हत्थोवघाय गंतूण हरिते बीए चले जुत्ते हरिते बीएसु तहा हायंते परिणामे हिंडतु गीयसहाओ हिंडाविति ण वा णं हेट्ठिल्ला उवरिल्ला० हेट्ठिल्ला उवरिल्ले० होति असीला णारी होति पदत्थो चउहा होहिइ व णियंसणियं होति बिले दो दोसा 751 603 673 87 190 154 171 748 600 670 328 649 166 120 .. 326 646 451 456 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पचूणि जन संस्कृति में साधना का स्थान साच्च है। श्रगण साधना के RMAHAR प्रतिपादक छेदसूत्र एवं उन पर के व्याख्यासाहित्य का प्रत्येक पृष्ठ साधना के उज्ज्वल-समुज्वल आलोक से आलोकित है। साधक अपने जीवन को त्याग, तप, स्वाध्याय और ध्यान रूप सरिता के निर्मल जल से आत्या को विशुद्ध कर भव सागर को पार करता है / जैन साधना के दो पथ है। एक असर्ग और दूसरा अपवाद / उत्सर्ग शब्द का अर्थ है मुख्य और अपवाद शब्द का अर्थ है गौण / उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, शुद्धि और अभिवृद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान और अपवाद का अर्थ है आन्तरिक जीवन की रक्षा के लिए उसकी शुद्धिवृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान / उत्सर्ग और अपवाद दोनों का एक ही लक्ष्य है संयम की विशुद्धि / एकान्त उत्सर्ग मार्ग का विधान या अपवाद मार्ग का विधान कभी कभी संयमी के लिए घातक भी हो सकते है अत: ये सापेक्ष हैं / मानव की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता को ध्यान में रखकर ही गीतार्थ आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण किया है।