________________ निवेदन वि० सं० 2062 का चातुर्मास हम अहमदाबाद के ओपेरा-उपाश्रय में थे। पर्युषणापर्व के प्रवचन में श्रुतपूजा-अधिकार आया तो श्रुतयात्रा की प्रेरणा दी / संघ ने उसे स्वीकार की। और बाद में एक रविवार को कोई 500 लगभग लोगों को लेकर ला० द० विद्यामन्दिर को चल दिये / वहाँ श्रुततीर्थ की यात्रा की / उसी वक्त रूपेन्द्रकुमार पगारिया मिले, और बातबात में बात मिली कि कल्पचूर्णि का सम्पादन कार्य चल रहा है / उस कार्य में मुझे दिलचश्पी हुई। वहाँ ही संघ को प्रेरणा की, तो कोई दो लाख जितनी रकम के सहयोग का वचन मिल गया / प्रा० टे० सो० के नाम प्रकाशन हो तो अच्छा ऐसा भी सोचा गया / L.D. के डॉ० जे० बी० शाह से भी परामर्श किया गया, उन्होंने भी हाँ कही। बाद में, सं० 2063 का चातुर्मास हुआ देवकीनन्दन-उपाश्रय में / उस चातुर्मास के दौरान मैं और पगारियाजीने साथ में बैठकर यह पीठिका-विभाग का पठन व संशोधन किया। फिर उन्होंने इस सम्पादन में मेरा नाम भी जोड़ दिया / मैंने कहा कि आपका ही नाम भले रहे, मेरा नाम मत लिखो / पर वे नहि माने / तब मुझे लगा कि अगर आगम-सम्पादन के साथ मेरा नाम जुड़ता है, तो मेरी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है। मैंने कहा कि ऐसा ही करना हैं, तो मुझे एकबार यह पूरा विभाग, ताडपत्रों के साथ पुनः पढ़ना होगा / और मैंने ऐसा किया। तीन मुख्य ताडपत्र-प्रतियाँ-पू० 1, पू० 2 व पा० - लेकर मुद्रित प्रूफ साद्यन्त पढ़ा, मिलाया / दूसरी बार भी एक प्रति के साथ मिलाया / जब काम पूर्ण हुआ तब लगा कि अगर इस प्रकार पढ़ा न होता तो बहुत ही मुश्किलें होती। पढ़ने से काफी कुछ सम्मार्जन-संशोधन . हो सका / और यही कारण है कि पुस्तक प्रकाशित होने में काफी विलम्ब हुआ / मेरा यह प्रथम अनुभव है। बोध भी आगम-परिपाटी का व आगमों के सम्पादन की पद्धति का ज्यादा नहीं है / अतः इस सम्पादन में अगर क्षतियाँ व गलतियाँ रह गई हो तो बिल्कुल शक्य है। वे नजर में आएँ, तो उनके लिए मैं क्षमाप्रार्थी तो हूँ ही, उनके प्रति मेरा ध्यान आकर्षित करने की विज्ञप्ति भी सुज्ञजनों को मैं करता हूँ, ता कि आगे के विभागों के कार्य में मुझे मार्गदर्शन मिले / जब मैं, आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित बृहत्कल्पसूत्र-वृत्ति के