________________ करनेवाले प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं / इन छेद सूत्रों में श्रमण जीवन की विविध चर्याएँ, आचार संहिताएँ तथा समय समय पर उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का विधान है। भाष्यकार ने छेद सूत्र को उत्तम श्रुत कहा है। क्योंकि इसमें दोषी श्रमण के लिए प्रायश्चित्त की विधि बताई है। प्रायश्चित्त ग्रहण करने से ही चारित्र की विशुद्धि होती है अतः यह सूत्र उत्तम श्रुत है। साथ ही छेद सूत्र रहस्य सूत्र भी है / बृहत्कल्प-चूर्णिकार कहते हैं छेद सूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्यों को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं / अपरिणामक (अयोग्य-अपक्व) आदि शिष्यों को छेद सूत्र की वाचना देने से वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में पानी या आम्लरसयुक्त घड़ें में दूध नष्ट हो जाता है। अगीतार्थबहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त अभिशय्या या नैषेधिकी में ही दी जाती है। क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाए / छेद सूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं / उनको ही आलोचना देने का अधिकार है / जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को जानता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। इससे स्पष्ट है कि मुनि जीवन में छेद सूत्र का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि ये छेदसूत्र पूर्वो से निर्दृढ हुए हैं। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन चार छेद सूत्रों का निर्वृहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार वस्तु से हुआ है ऐसा उल्लेख नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णि में मिलता है / दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्वृहण श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ने किया ऐसा कई स्थानों पर निर्दिष्ट है / इस दृष्टि से बृहत्कल्प सूत्र का छेद सूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान रहा है / बृहत्कल्पसूत्र : अन्य छेद सूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचार विषयक विधि-निषेधउत्सर्ग, अपवाद, तप, प्रायश्चित्त आदि विषयक विस्तृत विवेचना है। इसमें छ उद्देशक हैं, 81 अधिकार है और 206 सूत्र संख्या है / प्रथम उद्देशक में 50 सूत्र है / पहले के पाँच सूत्र तालप्रलम्ब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल-प्रलम्ब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व ताल-फल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित पक्व ताल प्रलम्ब लेना कल्प्य है, ऐसा कथन किया गया है / ग्राम, नगर, खेट, कर्बटक, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन और संकर आदि स्थानों का व्याख्या सहित वर्णन मिलता है / बड़े और एक दरवाजे वाले ग्राम नगर आदि में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है / जिस स्थान के आसपास में दुकानें हो या बड़े भीडवाले मार्ग हो वहाँ श्रमणियों को रहना योग्य नहीं / द्वार रहित स्थान में चिलिमिलिका-चिलमन-पर्दा लगाकर रहने का विधान है। नदी के किनारे या चित्रयुक्त उपाश्रय में साधु साध्वी को रहने का निषेध है इत्यादि / दूसरे उद्देश में कहा गया है कि जिस स्थान में शालि ब्रीहि मूंग आदि धान्य बिखरे पड़े हो अथवा