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विधानुशासन
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फिर हाथ को दो दो अंगुलियों के बंध से पंच परमेष्टि मुद्रा को बना कर शरीर से ममत्व को छोड़कर
पर्यकासन से बैठे।
नामोपोडश विद्या द्रष्टा परा मध्यगं
हकार बिंदु संयुक्तं रेफा क्रांतं प्रचिंतयेत
॥ ८ ॥
नाभि में एक सोलह दल कमल का ध्यान करे और उसकी कर्णिका में हैं का ध्यान करे उस कमल की प्रत्येक दल पंखडी पर एक एक स्वर (मात्रा) हो
हृट्टाष्ट कर्म निर्मूलं द्विचतुः पत्रमंबुजं मुकुल भूतमात्मानं मावृत्यावस्थितं स्मरेत
फिर हृदय में एक अष्टदल कमल का ध्यान करे और उसकी कर्णिका में आत्म स्वरूप का ध्यान करे इस कमल के प्रत्येक दल पर आठों कर्म हो यह कमल आधा खुला हो । कुंभकेन तदंभोज पत्राणि विकचप्य च निर्द्दन्नाभिपंकज बीज रकार: विन्दु शिखाग्निा
॥ १० ॥
फिर कुंभक स्वर से नाभि कमल के पत्रो को फैलाकर हैं बीज के रेफ की अग्नि से उन कर्मों को जलाये ।
॥ ९ ॥
रेचको ध्वर्द तत्तद्भस्मानि षिचेभिज मादरात् इवीं श्रीं हंसोलिका र्द्धन्दु श्रयद्धारा मृतैस्त्रिभिः
॥ ११ ॥
फिर रेचक के द्वारा उस कर्मों की भस्म को बाहर फेंक कर उस हैं के अर्द्ध चन्द्र से निकलने वाले तीन प्रकार के अमृत इवीं श्री हंसः से अपने को आदर पूर्वक सींचे।
ततः पूरक योगेन व्याप्राशेष जगत् त्रटां परमात्मानमात्मानं प्रातिहार्यैरलं कृतं
॥ १२ ॥
फिर पूरक प्राणायाम के योग से अपने आपको अष्ट प्राति हार्यो से अलंकृत तीनों लोकों में व्याप्त परमात्मा स्वरूप है ऐसा समझकर ध्यान करें।
शुद्ध स्फटिकसंकाशं स्फुरंतं ज्ञान तेज सा ध्यायेत स्वपाद युग्माव नम्र मूर्द्ध चराचरं
॥ १३ ॥
उस समय अपने आपको शुद्ध स्फटिक मणि के समान और ज्ञान के तेज से देदीप्यमाण सब चरा अचर को अपने दोनों चरणों में झुंक रहे हैं ऐसा ध्यान करे।
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