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धनु
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उस सर्प से काटे हुए पुरुष को अमृत बरसाते हुए वारुणी बीज (घ) से घिरा हुआ ध्यान करे फिर उसके स्तनों के ऊपर ढ़के हुए वस्त्र को हल्के से उठा देवे ।
न्यस्येच पटस्योपऽमृत श्रवदिंदुबिंब मध्य गतं, जातं सभ्य मुरखेषु च निर्गलदऽमृतं विद्यो बिंबं
॥ १०८ ॥
फिर कपड़े के ऊपर अमृत चुआते हुए चंद्रमा के मंडल का ध्यान करे उस चंद्रमा का निकलता हुआ अमृत उस पुरुष के मुँह में भी टपकता रहे।
द्विष्टेत्यऽन्यतमं सभ्यानां पाठयन् पठन मंत्री, आकई दुस्तिष्टेऽदृष्टो विष वेग निमुक्त :
॥ १०९ ॥
फिर मंत्री द्विमुष्टि आदि आगे लिखे हुए मंत्र को पढ़ता हुआ इसे हुए पुरुष के विष के वेग को नष्ट कर देता है ।
ॐ नमो भगवते पक्षि रूद्राय विष सुरप्तमुत्था पय दष्टं कंपय-कपंटय जल्पाजल्पय काल दष्ट मुत्थापय-मुत्थापय चल-चल मोचटा-मोटा पातय- पातय वर रूद्र-रूद्र गच्छ गच्छ वंद्य वंद्य चट-चट उडु उड्डु तोलय-तोलय मुष्टिना संहर विषे ठःठः ।।
शिरिव मुद्रेण स्मरता मंत्रम मुं ग्राम नगर दाहाद्या:, बता कथा स्तदाच्छादन पटमाकृष्य दष्ट उत्थाप्यः
॥ ११० ॥
शिखमुद्र से ध्यान करता हुआ मंत्र पढ़ता हुआ ग्राम नगर आदि के जलाने की कथा कहता हुआ रहे फिर ओढ़ने के कपड़े को उठाने से इसा हुवा पुरूष उठ जाता है।
तारंवरूण धरित्रीपुर मध्यगतं विचिंतये द्वदने, दष्टस्य पुनः कथयेत्कथा वृताब्ज स्त्रगऽमरेद्र
॥ १११ ॥
पुरुष श्रेष्ठ मंत्री कमल की माला पहने हुए उस सर्प से काटे हुए के मुँह में ॐ कार जल मंडल और पृथ्वी मंडल का ध्यान करता हुआ फिर कथा कहने लगे ।
दुर्मनस विमना भोजैः क्षीरां बुधिं तरति तद ध्वज गतः सित वपुर्निरीक्षतः केन शाक इति, अनयागत विष वेगः कथया दृष्टो मया संश्रितभंगिन दष्टः कथयन सत्व मुत्तिष्टेन्नेत्र कर्णेन
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