Book Title: Vidyanushasan
Author(s): Matisagar
Publisher: Digambar Jain Divyadhwani Prakashan

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Page 1092
________________ ASUNDOWNon läengatura YOPASNILIPS इन सब को पहले से ही विधिपूर्वक अक्षर (आकाश) ऊपर से ढ़कर मलकर सुर चापामि (इन्द्रधनुष) अर्थात् प्रातःकाल के समय बांये हाथ पर रख्खे । वष पलाशन्यांदी स्तदऽकाले पाश्र पातयति. विनिवारयितु स्तोत्पित्त मधो भूत वदनत्वं ॥४३॥ वृष (ऋषभक) पलाश (ठाक) आदर्दा के पत्तों को असमय में ही गिरा देता है (विनिवारित) पूरी तरह से रोक देता है। उत्पत्तिक को और (अधोवदनत्य) उनके अग्रभाग नीचे झुका देता है। नरहं पुष्प बीजानां चूर्णं भूत विमिश्रते:, न सिंचे दिग्ध सर्वाग पटोधारां क्षर नपि ॥४४॥ हपुष के बीजों के चूर्ण में भूत (नागरमोथा) मिलाकर (पयोधारा) दूध को धारा से सींचते हुए भी सब अंगों से जले हुए पुरुष को ठीक कर देता है। निर्मित सीतिः पुष्पेगहीतया वजतरु भत्या, भ्रमतो न पतेत् वृष्टिमहतीऽह हिमाननानीता ॥४५॥ पुष्य नक्षत्र में ली हुई वज़ तरु (वजयल्ली-थोहर) की भूति (भरम) की शीति (गोली) बनाकर मुख में रखने से वृष्टि नहीं होती है। नवनीतेन लिप्तांऽधिः श्रून्या कृष्ण रचेश्वरत, उपटापि समारुह्य काभाऽजिन पादुके ॥४६॥ अंघ्रि (पावों) को नवनीत (मकूवन) से पोतकर कृष्ण रंग की (शून्य) नली द्रव्य का लेप करभ (उंट) और अजिन (काले रंग के तेंदुए की खाल) की पादुका (खड़ाउ) पर चढ़कर बिना थके हुए चले। स्टोनाक बीज संचूर्ण स्वगर्मापादुक द्वयं, आरुह्य विचरत् दूरं महातल श्वांमऽसि ॥४७॥ स्योनाक (सोनापाढ़ा-अरलू) के बीजों के चूर्ण का लेप स्वर्गभा की दो पादुका (खड़ाऊँ) पर करके उस पर चढ़कर जल में भी पृथ्वी के समान बहुत दूर तक गमन कर सकता है। घ्यायनिज कम्मुर गेविट गात्र मदः कृतं, रुद्धं शश्वाभ्यासतः स्वासं प्लवते प्लवनं जले 5051251015015TRASIRTER०८६PISTOR501512350151235205 ॥४८॥

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