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SXSIDDIDISISTICIST विधानुशासन DISTRISTRIEDISORDER
नतथापि कर्म कार्य यथोचित क्षिप्र दष्टस्य,
सं स्तंभनं विष हरणं चापि भणित मगं मीह || १३०॥ इससे इसे हुए पुरुष के निर्विष कर्म को शीघ्र नहीं करना चाहिये क्योंकि इसके यहाँ पर स्तंभन और विष हरण के भी अंग कहे गये हैं। नोटः मूल ग्रन्थ में १२९ श्लोक से २१६ तक के श्लोक नहीं हैं।९३ पत्र से १०० पत्र तक और १४५ पत्र पर दूसरे ग्रन्थ से लिखा है। नोट:- ग्रथांतरे ९३ से १०० और १४५ पत्र पर लिखा है।
संग्रह मंगज्य रक्षा सलोभ व ताजमहं. स्तंभ, विष नासनं स चोचं फटिका फणि दशंनद वानं च
॥१३१ ॥
संग्रह दष्ट पुरुषस्य जीवनमस्ति नवेत्ति वा यत्परिज्ञानं संग्रहः अंगन्यास, दृष्ट्यस्य पुरुषस्य शरीरावर विन्यास रक्षा दष्टस्य रक्ष करणं स्तोभं च दष्टावेश कर च समुच्चये ॥१३२॥
वच्मि कथयामि स्तंभं दष्टस्य शरीरे विष प्रसारित रोटा स्तंभ विष नाशनं, विष निर्विषीकरणं सचौद्यं चोद्येन रह वर्तनी स्याद्य स्तंभं चौद्यं
||१३३॥
दष्टं पटादिच्छादनादि कौतुकं फटिका फणि दशन दशनं च लिरिवत,
सर्प दंत दशनस्राष्टांग गारुड़ महं वक्ष्येति संबंध ॥१३४॥ सर्प से काटे हुए पुरुष जीवेगा या नहीं इस ज्ञान को संग्रह कहते हैं। सर्प से काटे हुआ पुरुष के शरीर में बीजाक्षरों को स्थापित करें - यह अंग न्यास है। काटे हुये की यांचना यह रक्षा करना हैकाटे हुए के शरीर में विष का फैलना या चढ़ना को रोकना स्तंभ है। विष को नष्ट करना निर्विषीकरण है। सर्प से क्रीड़ा करने को चोद्य और खारिका के नाग में काटने की शक्ति भरने को दर्शन कहते है।
सम विषमाक्षर भाषिणि दूते शशि दिनकरो च वहमानौ,
दष्टस्य जीवितव्यं तदविपरीत मति दद्यान ॥१३५ ।। ಅಫಘಟಡ[೬೬3 YEDಚಣಪಡಿಸಲು