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S501501501501505 विधानुशासन P50352551015121511
गरलं पूरक योगादमतं रेचकतो भवति विषमविषं पूरक के योग से बना हुआ रेचक से अमृत होकर नष्ट हो जाता है।
||२४०।।
ॐकों झौं श्री कंठ मंत्रेण तिर्ष हुंकार मा गां
जप्तत्वा सूर्या दृश्योलोक्यं भक्षयेत्पूरकात् तक्षः ॥२४१ ।। ॐ क्रों झौ इस श्री कंठ मंत्र से हुंकार के मध्य में विष को जपकर तथा सूर्य की दशा को देखकर पूरक से विष को खा जावे।
प्रति पक्षाय दातव्यं ध्यात्वा नीलनिभं विषं, मंत्रयित्वा ततोऽनेन हौं ये मंत्रेण मंत्रिणा
॥ २४२॥ ॐ क्रों ह्रीं श्रीं ठठः इस मंत्र से अपनी हथेली पर हु इस बीज के अंदर रखे हुए विष को पूरक योग से खा सकता है। ग्लौं ह्रौं घे घे इस मंत्र से विष को नील वर्ण का ध्यान करके शत्रु को विष भक्षण करने के लिये देये।
सं चित्य साक्ष्य हस्ते स्थ मिंदु संपुटित मनिल बीजेन,
शोषित व्यंभो दग्धं विषम मृतमिवा श्रु भुंजीत ॥२४३ ॥ गरूड़ के रूप में हाय अग्नि बीज रं के संपुट में चन्द्रमा को करके उससे जले हुए और जल से भुजे हुए विष को अमृत के समान तुरंत ही खा लेवे।
गुलिकाः श्रुनके न कृताः शकता वत्सस्य जात,
मात्रस्य जग्धाःशार्व इवांतु विष प्रभुः काल कूट मपि ॥ २४४ ॥ तुरन्त के पैदा हुए कुत्ते की विष्टा की गोली को खाकर शिव के समान कालकूट विष को भी खा सकता है।
अथ वासं भक्ष्य विषं मूलं भक्ष्यंत वंध्य कन्याटाः,
रजनी विषेण सहिता इंति विषं नात्र संदेहः !॥२४५॥ अथवा विष को खाकर वंध्या कर्कोटि (बांझ कंकोड़े) की जड़ को खा लेवे अथवा वंध्य कन्या विष के साथ हल्दी को मिलाकर खाने से विष स्वयं ही मर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
भक्षयतु तुरंग गंधा पश्चात् भक्ष्यंतु दुष्ट गरलानि, अथ विपरीतां भक्षय विष हरणं त्रिभुवने सारं
॥२४६ ॥ असगंध को खाकर पीछे चाहे जैसे दुष्ट गरलों को खाये तो भी कुछ भी प्रभाव नहीं होये अथवा विष खाकर पीछे असगंध को खावे यह विष को नष्ट करने वाला तीन लोक में सार रूप है।
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