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CASICTERISODOISS विधानुशासन XSTORETORISTOTRIES
यक्षिणीनां च दातव्यं गंध पुष्पाक्ष तानपि यूपं दीपं च तांबूलमऽप्पयेत् पुष्टि कारक मंत्रेणाऽनेन यक्षिण्या ब्रह्म देवस्य पूजनं पूजायेतो विशषेण ग्रहस्य बलिं कर्मणि
|॥१५॥
॥१६॥
एवं सं पूजिता वेतो मुंचेत् तं बालकं तथा बलि प्रदान स्थानेषु ब्रह्म देयं च यक्षिणी
॥१७॥
॥१८॥
न विस्मरेत् शिशु मपि न मुंचऽत्यऽन्यथा ग्रहा: एतदा स्टयानमस्टोव पुरा विद्भिरुदीरितं देवल्दारा मुनीन्द्राव मंज़ानाभ्यस्य यत तत: तत्र स्थितान्समभ्यच्यंमत्रान्स्व वशमानयत्
॥१९॥
भवेत् अनेन विधिना सर्व ग्रह निवारणं पूजयेत् वलि कतरि वसनै दक्षिणादभिः
॥२०॥ इति प्रथम दिवसः फिर चैत्यों में रहने वाले को पिसे हुए चावलों के ला तथा ब्राह्मणों को खांड व पिसे हुये तिलों के लड़ इच्छानुकूल दें। यक्षिणी को चंदन पुष्प चायल धूप दीपक पान तथा पुष्टि करने वाले द्रव्य भेट में दे।यक्षिणी के उपरोक्त मंत्र से ही ब्रह्म देव का भी पूजन करें। क्योंकि ग्रहों के बलि कर्म में विशेष रूप से पूज्यहोता है। इसप्रकार उन दोनों को पूजने के पश्चात उस बालक को ब्रह्म देव और यक्षिणी को बलि प्रदान करने के स्थानों में छोड़ दें। इन सब क्रियाओं में बालक को कदापि न भूले अन्यथा उसकी ग्रही नहीं छोड़ती है। इस व्याख्यान का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने किया है। देवेन्द्रों और मुनीन्द्रों को मंत्रो का अभ्यास करके वहीं रगड़े हुओं की पूजा करके मंत्र से अपने वश में ले आयें। बलि के कार्य में भूल कभी नहीं करे और बालक को पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से स्नान करायें। इस विधि से सब ग्रहों का निवारण हो जाता है अंत में बलि कराने वासे आचार्य की वस्त्र दक्षिण आदि से पूजा करे।
दूसरा दिन
कुमारी भीषणीनाम द्वितीय दिवसे शिशु गृन्हाति शोपि न द्दशा उन्मीलयति पीडितः
॥१॥
ಇಡಗಣಣpಥಳದ ೪೪ ಚದಗಜ