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9595951961 विधानुशासन 959595959595
पिष्टैराज जलेन हंति रचितावर्तिः समस्तान ग्रहान, स्नानोद्वर्त्तन पानलेपन विधौधूपे च संयोजितं
॥ ७६ ॥
मंजीठ दोनों हल्दी, कुचंदन (लाल चंदन) वच, हींग, प्रयंगु (फूळ प्रियंगु का वृक्ष) व्योष (सोंठ मिरच पीपल) आरग्वध (अमलतास) सफेद सरसों, रवि (आक) वरा (त्रिफला) अस्म (शिलाजीत ) अंड (एरंड की इडोली) करंज की गुठली, अजजल (बकरी का मूत्र) के साथ पीसकर बनायी हुयी बत्ति सब ग्रहों को नष्ट कर देती है । इसको त्रान उबटना पीने तथा लेप औप धूप के द्रव्यों में भी मिलाना चाहिये ।
सहज कुलजो पदेशिका भेदास्त्रि विद्या भवंति शाकिन्याः,
सहजाः स्वभाव जाताः कुल संतत्वा गतः कुलजाः ॥७७॥
शाकिनी तीन प्रकार की होती है- सहजा, कुलजा उपदेशिका स्वभाव से ही होने वाली को सहजा कुल संतति आती हुयी को कुलजा कहते हैं।
सिद्धोपदेशिका इति तथैव मंत्रोपदेशिका प्रतिताः, द्विविधा स्तत्रेक्षणिका प्रथमाया वचनतः सिद्धिः
।। ७८ ।। ।
उपदेशिका शाकिनी सिद्धोपदेशिका और मंत्रोपदेशिका के भेद से दो प्रकार की होती हैं। इनमें से पहली को इक्षणिका भी कहते हैं। उसकी केवल वचन ही से सिद्धि हो जाती है।
साधन विधिना सम्यक् तर मूले मातृकार्चनं कृत्वा, कृष्ण चतुर्दस्य निशि कथयत्युपदेशितं मंत्र
॥ ७९ ॥
वृक्ष की जड़ में अच्छी विधि से मातृका देवी की साधन विधि से पूजन करने से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात को उपदेश दिये हुए मंत्र को कहती है।
दूर श्रवणं दूरालोवकनं दूर भूमियानमपि सहज, कुलजे क्षणिका नां सद्भावो जायते तांसां
॥ ८० ॥
दूर से सुनने दूर से देख ने और दूर के स्थान पर चलने को भी सहजा, कुलजा और इक्षणिका समान रूप से जानती है। इसी से इनकी परस्पर सद्भाव रूप समानता है। असृग्यांसमेदः प्रियाक्षुद्रबोधाः सदा मातृका पूजनारंभः चित्ताः ललाट त्रिशूलानो नेत्राः स्वरूपं भवेत् इद्धशां शाकिनीनां
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शाकिनी का स्वरूप यह है कि वह रक्त मांस और चरबी को पसंद करने वाली, कम ज्ञान वाली, सदा देवी के पूजन आरंभ में चित्त रखने वाली और मस्तक पर त्रिशूल वाले शिवजी के अग्रि रूप वाले नेत्र के समान नेत्र वाली होती हैं।
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