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PoPser SP विधानुशासन 959595
अथ गर्भोत्पत्ति विधान षष्टम समुदेश
वक्ष्ये गर्भस्य संभूतिं यां समारभ्य जन्मतः शात वस्ताद पायेभ्यो दीग्धयु भ॑वति ध्रुवं
॥ १ ॥
के ऐसे उपाकर्म किया जाता है जन्म से आरंभ करने से विघ्र नष्ट होकर
अब पुरुष निश्चय से दीर्घायु वाला होता है ।
दोषान वृष्यं रजो योनि श्रद्धि गर्भस्य रक्षणं सुख प्रसूति कृन्माद्दः संस्कारश्चापि वक्ष्यते
॥ २ ॥
इससे अतिरिक्त दोष पौष्टिक औषधि रज शुद्धि योनि संस्कार गर्भ रक्षा तथा सरलता से पुत्रोत्पत्ति करने वाले संस्कारों को भी कहेंगे ।
अष्टौ दोषास्तु नारीणां नवमं पुरुषस्यतु रक्तं पित्तं तथा वात श्लेष्मं च सन्निपात कं
ग्रह दोष विकारेण देवतानां च कोपतः अभिचार कृतैर्वापि पुरूष प्टय रेनसैः स्त्रीओ के आठ दोष और पुरुषों के नौ दोष होते हैं। स्त्री के आठ दोष यह है १-रक्त, २-पित्त, ३कफ, ४- वात, ५- सन्निपात, ६-ग्रह के दोष के विकार, ७- देवताओं का कोप और ८-अभिचार स्त्रीओं के दोष होते हैं। पुरुष का दोष केवल वीर्य संबंधी है।
पुष्पं तु लभते यस्याः फलं नस्यान्न संशयः तस्या दोष विकारंतु ज्ञात्वा कर्म समारभेत
॥ ३ ॥
चंद्राश्रुमणि नायद्वद्भास्करी कर तापतः नाग्निं जनयते सौवैचिकित्सां तद्वदाम्य हं
॥४॥
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जिन स्त्री का रज निकलता रहता है उसमें निसंदेह पुत्र रूपी फल नहीं होता है। अतएव उस स्त्री के दोषों के विकारों को जानकर ही कार्य आरंभ करें।
॥ ६॥
क्योंकि सूर्य के ताप को चंद्रकांत मणि में पहुंचाने पर उसमें से अग्नि नहीं निकलती अतएव में उस चिकित्सा का वर्णन करता हूँ।
CİSP595 105PSPS -·· PS0504
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