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श्रमणविद्या-३
प्रकार की उलझनों तथा समस्याओं से रहित आजीविका को अनाकुल कर्मान्त कहते हैं। अनाकुल कर्मान्त समाननिष्ठा, सम्यककर्म, उद्योगपरायणता तथा प्रातरुत्थान को जन्म देता है और अवध कर्मों से मुक्त रखता है। कृषि, गोरक्षा तथा वाणिज्य का सम्पादन यदि विवेक से अथवा पत्नी-बच्चों तथा परिचरों के सहयोग से किया जाता है, तो वह धनार्जन का मूल कारण बनता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जो अनुरूप कार्य करने वाला है, उत्साही तथा उद्योगपरायण एवं आरब्धवीर्य है, वह धन को प्राप्त करता है-'पतिरूपकारी धुरवा उट्ठाता विन्दते धनं (आलवक सुत्त)
सिगालोवाद सुत्त में भगवान् ने कहा है कि जो दिन में सोने वाला है, रात में उठने को बुरा मानता है, मद पीकर जो मदोन्मत्त रहने वाला है,वह घर-गृहस्थी नहीं चला सकता है। बहुत शीत है बहुत उष्ण है अब बहुत संध्या हो गयी है, इस तरह विचार करते हुए मनुष्य निर्धन हो जाते हैं किन्तु जो पुरुष काम करते हुए शीत उष्ण को तृण से अधिक नहीं मानते है, वह पुरुष कृत्यों को करने वाला कभी सुख से वञ्चित नहीं होते हैं।
न दिवासुप्प सीलेन रत्तिनुट्ठान दस्सिना ।
निञ्चं मत्तेन सोण्डेन सक्का आविसितुं घरं । अतिसीतं अतिउण्हं अतिसायमिदं अहु ।।
इति निस्सट्टकम्मन्ते अत्था अच्चेन्ति माणवे । यो च सीतं च उण्हञ्च तिणा भिय्यो न मञति करं पुरिसकिच्चानि सो सुखा न विहायतीति ।।
(दी.नि. सिंगाल सुत्त) भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जो निद्राशील है, सभाशील है, अनुद्यमी है, क्रोधी है, उस मनुष्य का पराभव होता है
निबासीली सभासीली अनुट्ठाता च यो नरो ।
अलसो कोधपजाणो तं पराभवतो मुखं ।। अन्यत्र भगवान् बुद्ध ने कहा है कि मधुमक्खी के समान भोगों का संचय करने वाला है, उसके भोग वल्मीक की तरह बढ़ते हैं
भोगे संहरमानस्स भमरस्सेव इरीयतो । भोगा सन्निचयं यन्ति वम्मीकोवूपचीयति ।। (दी. नि. सिंगालसुन्त)
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