________________
थेरवाद बौद्धदर्शन में निर्वाण की अवधारणा
"पदमच्चुतमच्चन्तं, असङ्घतमनुत्तरं ।
निब्बानमिति भासन्ति, वानमुत्ता महेसयो ।।' पालि साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र निर्वाण को अनेक संज्ञाओं एवं उपमाओं से अलङ्कृत किया गया है, कि निर्वाण यह है, यथा-अमृत पद, शान्तिपद, परमपद, परमसुख, चेतोविमुक्ति, मोक्ष, निरोध, परमक्षेम, विराग, संज्ञावेदियित निरोध, प्रभास्वर चित्त, विमुक्त, निवृत्त, गम्भीर, अप्रमेय, विनिर्मुक्त, विशुद्धि; क्षय, अनुत्पाद, शान्त, प्रणीत, तृष्णाक्षय, सुख, नित्य, अविपरिणामी, असंस्कृत, अनुत्तरयोगक्षेम, अतर्कावचर, ध्रुव, अजात, असमुत्पन्न; अशोक, विरजपद इत्यादि है। और भी अनेक जगह अनेक पर्यायवाची शब्द से परिभाषित किये गये हैं। यथा ‘संयुत्त निकाय' में यह राग, द्वेष एवं मोह का क्षय है। मैं तुमको अन्त, अनास्रव, सत्व, पार, निपुण, सुदुर्दर्श, अजर, ध्रुव, अनिदर्शन, निष्प्रपञ्च, सत, शिव, क्षेम, आश्चर्य, अद्भुत, विराग, शुद्धि, मुक्ति, अनालय, द्वीप, लेण, त्राण, परायण का निर्देश करुंगा, ऐसा कहा गया है ।
आचार्य नरेन्द्रदेव जी लिखते हैं, कि निर्वाण का त्रिविध आकार है, विरागधातु, प्रहाणधातु, निरोधधातु। आर्य निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, वह उसका साक्षात्कार करता है, वह उसका प्रतिलाभ करता है। मार्ग निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, यह उसकी प्राप्ति का उत्पाद करता है। निर्वाण सुख है, शान्त है, प्रणीत है। जो उसे दुःखवत देखता है, उसके लिए मोक्ष सम्भव नहीं हैं । निर्वाण बौद्धधर्म का लक्ष्य है, भगवान् कहते हैं, कि जिस प्रकार समुद्र
का रस एक मात्र लवण रस है, उसी प्रकार से मेरी शिक्षा का एक मात्र रस निर्वाण है।
निर्वाण अशेष साधना का लक्ष्य है, यह परमपद है, यही खोजने का विषय है, यही प्राप्तव्य है, यही साक्षात्कर्तव्य है, निर्वाण में सभी संस्कारों का उपशम हो जाता है, इसीलिए इसे 'शान्ति पद' कहते हैं और इस शान्ति को 'परम सुख' की संज्ञा से विभूषित करते हैं। निर्वाण में आश्रव; इच्छायें, राग, द्वेष, मोह, संयोजन, तृष्णा, कर्मभव, नाम एवं रुप, संस्कार, उपधि आदि
१. अ.सं. पृ. ७२८। २. संयुत्तनिकाय, असङ्घतवग्ग। ३. बौद्धधर्मदर्शन, पृ. २९७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org