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क्रियासंग्रहः
कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ, जैसा आधुनिक विद्वानों को हो रहा है। ऐसी स्थिति में परम्परागत मान्यताओं से असहमत होने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। फलतः तन्त्रों की बुद्धवचनता असन्दिग्ध है।
आधुनिक काल और मध्य काल के अनेक पण्डितों ने तन्त्रों पर मिथ्याचार, आडम्बर एवं दुराचरण के पोषण का आरोप किया है। किन्तु गुरुपरम्परा से जिन्हें तन्त्रमार्गों की सही जानकारी है, ऐसे विद्वानों की दृष्टि में उपर्युक्त आरोप सर्वथा निराधार है और आरोप करने वाले लोगों के तन्त्रविषयक अज्ञान के परिचायक हैं। तन्त्र मार्ग के अपने विशिष्ट शील, समय और संवर होते हैं, जिनका उन्हें अनिवार्य रूप से पालन करना होता है तथा उनसे च्युत होने पर भयंकर नरकों में पतन अवश्यम्भावी होता है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक साधना परम्परा में कुछ अनधिकारी प्रवेश पा जाते हैं, किन्तु ऐसे लोगों की वजह से पूरी तन्त्रपरम्परा की अवहेलना और उपेक्षा उचित नहीं है।
तन्त्र के भेद क्रियातन्त्र, चर्यातन्त्र, योगतन्त्र और अनुत्तर तन्त्र—ये तन्त्र के चार भेद अत्यधिक प्रचलित हैं। जिस तन्त्र में देवयोग की साधना करते समय बाह्य कर्मों (स्नान, आसन आदि) पर अत्यधिक जोर दिया जाता है तथा आन्तरिक समाधि
और बाह्य क्रिया में बाह्य क्रिया ही प्रधान होती है, वह ‘क्रियातन्त्र' कहलाता है। जिस तन्त्र में बाह्य विधिविधान और आन्तरिक समाधि इन दोनों को समान महत्त्व दिया जाता है, किन्तु बाह्य कर्मों पर कुछ विशेष निर्भर रहा जाता है, वह 'चर्यातन्त्र' कहा जाता है। जिस तन्त्र में बाह्य विधानों और आन्तरिक समाधि इन दोनों में आन्तरिक समाधि पर अधिक बल दिया जाता है, फिर भी सीमित बाह्य कर्म अपेक्षित होते हैं, उसे 'योगतन्त्र' कहते हैं। जिस तन्त्र में बाह्य विधानों के लिए बिल्कुल स्थान नहीं होता, बल्कि आन्तरिक समाधि के अनुत्तर योग को अधिक महत्त्व दिया जाता है, उसे 'अनुत्तर तन्त्र' कहते हैं।
क्रियातन्त्र के प्रमुख ग्रन्थ गुह्यसामान्य तन्त्र, सुसिद्धिकरमहातन्त्र, सुबाहुपरिपृच्छातन्त्र, ध्यानोत्तरतन्त्र आदि क्रियातन्त्र की सम्पूर्ण मार्गफलव्यवस्था को दर्शाने वाले प्रमुख तन्त्र ग्रन्थ हैं।
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