Book Title: Shramanvidya Part 3
Author(s): Brahmadev Narayan Sharma
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 458
________________ भूमिका ११ तुम्हारे काय नित्य ध्रुव शिव एवं धर्ममय (धर्मकायस्वरूप) हैं और तम सर्व विजयी हो, फिर भी विनेयजनों को सन्मार्ग दिखाने के लिए तुमने अपनी निवृत्ति का प्रदर्शन किया अर्थात् तुमने निर्वाणगत होता दिखाया। तुम्हारी सभी क्रिया अनाभोगेन प्रवृत्त होती हैं विभिन्न लोकधातुओं में संसार से मुक्ति के इच्छुक श्रद्धावान् लोग तुम्हारा जन्म, निर्वाण, अभिसंबोधिप्राप्ति, धर्मचक्रप्रवर्तन आदि देखते हैं। हे नाथ! तुम्हारे पास न तो कोई चिन्ता है और न ही कोई कल्पना एवं कोई प्रकम्पन है, तथापि तुम जगत में बुद्ध के सभी चरित्र अनाभोगेन सम्पन्न करते हो। ___इस प्रकार अचिन्त्य एवं अप्रमेय सुगत को गुणों के पुष्पों से अलङ्कृत किया, इस से मुझे जो कुशल और पुण्य प्राप्त होगा, उसी से समस्त जीव एवं प्राणी अत्यन्त दुर्जेय, गम्भीर बुद्धधर्म के पात्र हों। परमार्थस्तव का सारांश ___ इस स्तव में केवल ११ कारिकाएं हैं। इस में परमार्थ या शून्यता के यथार्थ ज्ञाता होने की दृष्टि से बुद्ध की स्तुति की गयी हैं। बुद्ध का वास्तविक रूप धर्मकाय है और धर्मकाय परमार्थसत्य है तथा शून्यतास्वरूप है। उस धर्मकाय के साक्षात्कार की दृष्टि से बुद्ध की स्तुति करना इस स्तव का मुख्य विषय है। इस में भी भक्तिपूर्ण शब्दों में स्तुति है। यथा हे नाथ! धर्मकाय तो अनुपन्न है, अनालय है, लोक-उपमाओं से अतीत है तथा वाक् पथ से अतीत है, अर्थात् अनिर्वचनीय है, इसलिए यह समझ में नहीं आता कि तेरी स्तुति कैसे की जाय। तथापि तुम्हारा स्वरूप यथार्थ में जैसा भी हो लोकप्रज्ञाप्ति या लौकिकव्यवहृत समझ कर मैं तथता के ज्ञाता के रूप में बड़ी भक्ति से तुम्हारी स्तुति करूंगा। __हे नाथ! स्वभावतः अनुत्पन्न होने के कारण तुम्हारी कोई उत्पत्ति नहीं है। न तो तुम्हारी गति है और नही तुम्हारी आगति है, क्योंकि तुम नि:स्वभाव स्वरूप के हो, अत: तुम को नमस्कार है। तुम्हारा स्वरूप धर्मकाय है, अपितु न तो तुम भावस्वरूप हो और न ही अभावस्वरूप हो। तुम उच्छेदस्वरूप भी नहीं हो, क्योकिं तुम व्यवहारतः सत् हो और शाश्वत स्वरूप भी नहीं हो क्योंकि तुम स्वभावत: असत् हो। तुम न तो नित्य हो और न ही अनित्य हो। तुम नित्य इसलिए नहीं हो, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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