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निरौपम्यस्तव एवं परमार्थस्तव
तुम सदा जगत के हित सम्पादन हेतु क्रियाशील हो । अनित्य इसलिए नहीं हो, क्योंकि तुम यावत् संसार जगत् हित के लिए विद्यमान रहते हो। इसलिए इन द्वैतों से परे तुम को नमस्कार है।
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तुम्हारे वास्तविक काय धर्मकाय का न तो लाल रंग है और न ही हरा, स्वर्ण, पीला, काला तथा सफेद रंग आदि होते है । वर्णविहीन तुम को नमस्कार हैं।
उसी प्रकार तुम्हारे धर्मधातुस्वरूप धर्मकाय में न तो महानता है और न ही अल्पत्व, दीर्घत्व एवं परिमण्डलत्व है। तुम तो अपरिमित गति को प्राप्त हो । अतः तुम जैसे अपरिमित को नमस्कार है।
उसी प्रकार तुम न तो दूर में स्थित हो और न ही समीप में, आकाश मे, पृथ्वी में, संसार में और निर्वाण मे स्थित हो, क्योंकि स्वभावतः तुम किसी भी स्थान में स्थित नहीं हो। अस्थान तुम को नमस्कार है।
हे महागम्भीर ! इस प्रकार तुम सभी धर्मों में स्थित नहीं हो अपितु धर्मधातुगति प्राप्त हो। तुमने परम गम्भीर धर्मकाय को प्राप्त किया । इसलिए तुम को नमस्कार है ।
इस पद्धति से स्तुति हो सकती है; इससे भिन्न किस प्रकार स्तुति की जा सकती है, अर्थात् नहीं की जा सकती है। क्योंकि सभी धर्म स्वभावत: शून्य है । इस स्थिति में कौन किस की स्तुति कर सकता हैं । अर्थात् स्भावत्व की दृष्टि से स्तुतिकर्ता एवं जिस की स्तुति की जा रही है, वे दोनों ही अनुपलब्ध हैं।
तुम तो स्वभावतः उत्पाद एवं विनाश वर्जित हो तथा जिसका अन्त और मध्य नहीं हो तो उसका ग्रहण और ग्राह्य भी नहीं हो सकता हैं। अतः कौन तुम्हारी स्तुति कर सकता है । अर्थात् स्वभावतः कोई भी किसी की स्तुति नहीं कर सकता हैं।
स्वभावतः गतागत एवं गति वर्जित सुगत की स्तुति करने से जो पुण्य होगा, उसी से इस लोक को सौगत गति प्राप्त हो ।
इस प्रकार व्यवहृत सत्ता एवं परमार्थसत्य दोनों का प्रतिपादन करते हुए त्रिकाय की स्तुति की गयी हैं ।
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