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भूमिका
का विनाश किया। अपितु संसार एवं निर्वाण आदि की समानरूप से निस्स्वभावता के दर्शन से ही अनुत्तर पद या बुद्धपद (बुद्धत्व) प्राप्त किया।
हे नाथ! तुम स्वभावत: संसार के अपकर्षण (प्रहाण) से निवार्ण की प्राप्ति को नहीं मानते, अपितु तुम ने संसार की अनुपलब्धि अर्थात् संसार की निस्स्भावता से शान्ति (निर्वाण) को प्राप्त किया है।
तुम संक्लेश (संसार) तथा व्यवदान (निर्वाण) दोनों की एकरसता को जानते हो तथा धर्मधातु (निस्स्वभावत्व) में अभेदता के कारण तुम सर्वत: विशुद्ध हो।
__ हे विभु! तुम ने स्वभावत: एक भी अक्षर विनेयजनों को नहीं बताया; फिर भी समस्त विनेयजनों को धर्मोपदेश की वर्षा से संतृप्त किया, अर्थात् निस्स्वभाव की देशना से सभी को सन्तुष्टी प्रदान की।
इसका कारण यह है कि तुम न तो स्कन्धों में आसक्त हो और न ही धातुओं में और आयतनों में आसक्त हो। अत: सभी धर्मों की प्रति समचित्त तुम्हारा है। अर्थात् सभी धर्म को तुम समानरूप से निस्स्वभाव जानते हो।
हे नाथ! तुम में सत्त्वसंज्ञा (सत्त्व-स्वभावास्त्वि संज्ञा) कभी भी प्रवृत नहीं होती, तथापि दुःखित सत्त्वों के प्रति अत्यधिक करुणावान हो।
हे प्रभु! सुख, दुःख, आत्मा, नैरात्म्य, नित्य और अनित्य आदि की नानाविध विकल्पक बुद्धि तुम्हारी नहीं होती हैं क्योंकि तुमने सम्पूर्ण कल्पना जाल को काट दिया हैं।
__धर्मों की न तो कोई स्वभावत: गति होती है और न ही कोई स्वभावत: आगति होती हैं। उसी प्रकार तेरी भी कोई स्वभावत: गति नहीं हैं। न तो कहिं पर राशिभाव से कोई धर्म स्वभावत: स्थित होता है। इस तथ्य को तुम सम्यक् रूप से जानते हो, इस लिए तुम परमार्थविद हो।
___सर्वत्र सब के अनुगत होते हुए भी स्वभावत: तुम्हारा उत्पाद कहीं पर भी नही होता तथापि व्यवहारत: तुम्हारा जन्म, धर्मोपदेशना एवं काय-रचना आदि होती है। है महामुनि! तेरा यह स्वरूप अचिन्तनीय है। ____ तुम इस जगत को एकत्व एवं अनेकत्व से रहित तथा प्रतिश्रुति की भाँति निस्स्वभाव जानते हो तथा तुम यह भी जानते हो कि स्वभावत: किसी की संक्रान्ति तथा किसी का विनाश नहीं होता है। इसलिए तुम अनिन्दित एवं अद्भूत हो।
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