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भूमिका
न सम्भवः स्वभावस्य युक्तः प्रत्यय हेतुभिः ।
हेतु - प्रत्ययसम्भूतः स्वभावः कृतको भवेत् ।। १५/ १ । । स्वभावः कृतको नाम भविष्याति पुनः कथम् ।
अकृत्रिमः स्वभावो हि निरपेक्षः परत्र च ।।१५ / २ ।।
स्वभावसत्ता किसी की भी यदि होगी तो उसका अस्तित्व अन्यों पर अपेक्षित नहीं होगा। पदार्थों का अस्तित्व अन्यों पर अपेक्षित हैं । अतः पदार्थों की स्वभावसत्ता अर्थात् अपनी ओर से सत्ता नहीं होती हैं। सभी कल्पना द्वारा स्थापित मात्र हैं।
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व्यावहारिक सत्तावाद
सम्पूर्ण जगत् एवं जागतिक पदार्थों के निस्स्वभाव होने पर ही इन की व्यवहारिक या सांवृतिक सत्ता सुरक्षित हैं। निस्स्वभावत्व का अर्थ ऐसा कथमपि नहीं है कि सभी पदार्थ रज्जुसर्पवत् अलीक हैं, अपितु इसका अभिप्राय है कि सभी पदार्थ केवल कल्पित हैं। घटपटादि वस्तुऐं भी कल्पितमात्र हैं । परन्तु रज्जुसर्प तथा सर्प दोनों कल्पित होने पर भी रज्जुसर्प लोकव्यवहार से बाधित है, पर सर्प लोक व्यवहार से बाधित नहीं है। लोकव्यवहृत सत्ता या कल्पित सत्ता के आधार पर संसार तथा निर्वाण की व्यवस्था की जाती है। ऐसा कथमपि नहीं है कि संसार निस्स्वभाव हो, पर निर्वाण तथा तथागत की स्वभावसत्ता हो। स्वभावास्तित्व की दृष्टि से संसार एवं निर्वाण में कोई भेद नहीं है । शून्यता भी निस्स्वभाव है। अतः सभी पदार्थों के निस्स्वभावत्व होने पर भी शून्यता का स्वभावास्तित्व मानना तथा शून्यतावाद की वेदान्तदर्शन के साथ संमिश्रित करना माध्यमिक दर्शन के अत्यन्त विपरीत है। जिस युक्ति से घटादि पदार्थ निस्स्वभाव सिद्ध होते हैं, उसी युक्ति से निस्स्वभावता भी निस्स्वभाव सिद्ध होती हैं । अतः शून्यता का भी निस्स्वभावत्व सिद्ध होता हैं ।
सम्पूर्ण जगत् एवं जागतिक पदार्थ मायावत् एवं प्रतिबिम्बवत् मिथ्या एवं निस्स्वभाव हैं। परन्तु इस का अभिप्राय ऐसा नहीं है कि जगत् एवं जागतिक पदार्थ मिथ्या मात्र हो और उस मिथ्यात्व का अधिष्ठान शून्यता हो जैसा कि वेदान्त दर्शन के अनुसार दृश्य जगत मिथ्यामात्र है; इनका कोई आस्तित्व ही नही है । जगत् की कल्पना केवल भ्रान्तिस्वरूप है । भ्रान्ति का अधिष्ठान ब्रह्म है ।
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माध्यमिक के अनुसार संवृत्तिसत्य एवं परमार्थसत्य दोनों का स्वभावत्व नहीं है और दोनों का व्यावहारिक या प्रज्ञप्त आस्तित्व है। अतः वेदान्तदर्शन के ब्रह्म तथा नागार्जुन की शून्यता या निस्स्वभावत्व में किञ्चिद् भी सादृश्यता नहीं है ।
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