Book Title: Shramanvidya Part 3
Author(s): Brahmadev Narayan Sharma
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 452
________________ भूमिका इस माध्यमिक सिद्धान्त का चरम उत्कर्ष शून्यतावाद से सम्पन्न होता हैं । शून्यतावाद का उद्भव शतसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता आदि सूत्रों से हुआ हैं । शाश्वतान्त अर्थात् स्वभावसत्ता एवं उच्छेदान्त अर्थात् व्यावहारिक असत्ता से रहित माध्यमिकवाद ही शून्यतावाद है । यही शून्यतावाद प्रज्ञापारमिता सूत्रों का साक्षात् प्रमुख विषय हैं। प्रज्ञापारमिता सूत्रों के दर्शनपक्ष के प्रवर्तक नागार्जुन एवं मार्गपक्ष के प्रवर्तक मैत्रेयनाथ हैं। प्रज्ञापारमिता सुत्रों के आधार पर नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन पक्ष की स्थापना की । शून्यतावाद का प्रारम्भ केवल बौद्ध दर्शन में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों में एक अभूतपूर्व घटना है, जिससे मानव चिंतन की दिशा प्रभावित हुई हैं। नागार्जुन की रचनाएँ प्रज्ञापारमितासूत्रों के दार्शनिकपक्ष का प्रतितपादन करते हुए नागार्जुन ने अत्यन्त महत्त्वपूण छ: माध्यमिक शास्त्रों की रचना की हैं जिन्हें ‘षड्विधमध्यमकशास्त्र' भी कहते हैं । (१) सर्वप्रथम मूलमाध्यमिक कारिका की रनचा की हैं, जिसमें २७ प्रकरण हैं। यह शास्त्र समस्त पुद्गल तथा धर्मों की स्वभावसत्ता का निषेध विस्तारपूर्वक करता हैं । दूसरे शब्दों में मूलमाध्यमिक कारिका समस्त जगत् तथा जीव की स्वभावसत्ता का निषेध करती हैं । मूलमाध्यमिक कारिका के प्रकरणों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। जिन प्रकरणों का सम्बन्ध पुद्गलात्म के निषेध से हैं, वे प्रथम भाग में तथा जिनका सम्बन्ध मुख्यतः धर्मात्मा के विषेध से हैं, वे द्वितीय भाग में लिए जा सकते है। कुछ प्रकरणों का सम्बन्ध उभय निषेध से भी है, वे उभय वर्ग में लिऐ जा सकते हैं । मूल माध्यमिककारिका के बाद नागार्जुन ने पाँच और ग्रन्थों की रचना की हैं। जो मूलमाध्यमिक कारिका के परिशिष्ट के रूप में लिखे गये थे । यथा— २. वैदल्यप्रकरण ३. विग्रहव्यावर्तनी ४. शून्यतासप्तती ५. युक्तिषष्ठिका ६. रत्नावली नागार्जुन के उक्त छः शास्त्रों में से प्रथम चार ग्रन्थ शून्तयता को मूख्यरूपेण प्रतिपादित करते हैं जो प्रतीत्यसमुत्पाद पर आद्धृत है । युक्तिषष्ठिका एवं रत्नावली शून्यता का आलम्बन करने वाले मार्गों का मुख्यरूपेण प्रतिपादित करते हैं जो मुक्ति का मार्ग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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