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जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत
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सीमा में प्रवेश न करें, सत्तारूप में ही हों। उदय की सीमा में प्रवेश हो जाने पर उत्कर्षण संभव नहीं होता।
६. संक्रमणकरण – 'परप्रकृतिरूप-परिणमनम् संक्रमणम्' अर्थात् पहले बंधी कर्म प्रकृति का अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना 'संक्रमण' है। संक्रमण चार प्रकार का होता है- प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण।
७. उदीरणाकरण - 'भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं' कर्मों के फल भोगने के काल को 'उदय' कहते हैं और भोगने के काल से पहले ही अपक्व कर्मों को पकाने का नाम 'उदीरणा' है। इनको 'प्रीमैच्योर रियलाइजेशन' अर्थात् अपरिपक्व प्रत्यक्षीकरण अथवा समय से पूर्व भोग में आना कहा है।
८. उपशमकरण - कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना 'उपशम' कहलाता है। कर्म की इस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होते। फिटकरी के डालने से जिस प्रकार मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और कुछ समय के लिए स्वच्छ जल ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार कर्मों की उपशमन अवस्था में परिणामों की विशुद्धि के कारण कर्मों की शक्ति अनुद्भूत हो जाती है। कर्मों की यह क्षणिक विश्रान्ति ही उपशम कहलाती है।
९. निधत्तकरण - इस विशेष अवस्था में आत्मा के साथ कर्म इस प्रकार संबंधित हो जाते हैं कि कर्मों में उत्कर्षण और अपकर्षण के अतिरिक्त उदय, उदीरणा संभव नहीं होते।
१०. निकाचितकरण - कर्म की अवस्था नाम 'निकाचना' है, जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थायें असंभव होती हैं। जैनसम्मत निकाचित कर्म को योग-सम्मत 'नियतविपाकी' कर्म के सदृश माना जा सकता है।
१. कर्मरहस्य, पृष्ठ १७४;
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४३८ । ३. प्राकृत पंचसंगहो, ३/१३, ४. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृष्ठ २६७। ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग१, पृष्ठ ४६४। ६. राजवार्तिक, पृष्ठ १००। ७. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४५०; ९. योगदर्शन भाष्य २/१३।।
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