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प्रस्तुत परमत्थदीपनी नामक अट्ठकथा का प्रकाशन पालि टेक्सट सोसायटी, लन्दन, से काफी पहले हो चुका है।
__यद्यपि आचरिय धम्मपाल ने अपनी अट्ठकथाओं में बद्धघोषाचार्य की अट्ठसालिनी एवं धम्मपदादि अट्ठकथाओं से सामग्री ली है, किन्त व्याख्या के कार्य में अपनी रचनाओं में ये अत्यन्त मौलिक तथा सटीक हैं और उनमें स्थानस्थान पर इनकी विद्वत्ता स्पष्ट रूप से झलकती है। इससे इनका निखरा हुआ व्यक्तित्व साफ नजर आता है तथा इस सन्दर्भ में इनकी जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी ही होगी।
सच्चसङ्केप के रचयिता के विषय में एक महत्त्वपूर्ण बात यहाँ पर विशेषरूप से ध्यातव्य है कि गन्धवंस में चुल्लधम्मपाल के गुरु आनन्दाचरिय का नाम क्रम में इन धम्मपालाचरिय के पहले आया है और इसके बाद इनका"आनन्दो नामाचरियो सत्ताभिधम्मगन्धट्ठकथाय मूलटीकं नाम टीकं अकासि । क्या यह आनन्दाचरिय के पूर्ववर्ती होने का सङ्केत है? हम इसके आधार पर निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कह सकते, किन्तु यह विचारणीय विषय अवश्य है।
गन्धवंस तथा सासनवंस में कहीं भी यह उल्लेख नहीं प्राप्त होता कि धम्मपालाचरिय ने सच्चसङ्केप नामक ग्रन्थ की भी रचना की थी, किन्तु बाद के लोगों ने नाम-साम्य के कारण इन्हें ही सच्चसङ्केप का रचयिता मान लिया और इसके उद्धरणों को आचरिय धम्मपाल का कह दिया। सबसे विचित्र बात तो सच्चसङ्केप के रोमन संस्करण के प्रकाशन के सन्दर्भ में हुई। उसकी संक्षिप्त भूमिका में तो सच्चसङ्केप के रचयिता को चुल्लधम्मपाल स्पष्ट रूप से कहा गया, किन्तु ग्रन्थ के मूल के अन्त में आचरिय धम्मपाल से सम्बन्धित निगमन-वाक्य सम्पादक द्वारा दिया गया, पता नहीं किस मानसिकता अथवा तर्क के कारण । इस पर हम विशेष चर्चा चुल्लधम्मपाल पर विचार करते हुए आगे करेंगे।
चीनी यात्री युवान्-च्वाङ् ने अपने प्रसिद्ध यात्रा-विवरण में काञ्चीपुर की यात्रा के प्रसङ्ग में धर्मपालाचार्य का वर्णन प्रस्तुत किया है, इसको हम आगे प्रस्तुत करने जा रहे हैं। १. पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १८९२ से लेकर इसके आगे। २. गन्धवंस, पूर्वोक्त, पृ०६०।। ३. सच्चसङ्ग्रेप, पूर्वोक्त, पृ० २५। ४. रिकार्ड्स आफ दि वेस्टर्न कन्टरीज़, बुक १०, पृ० २२९-२३० रिप्रिन्ट, दिल्ली,
१९६९।
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