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मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में यह विवरण उल्लिखित है कि भगवान् बुद्ध की देशना अर्थात् उपदेश दो प्रकार के सत्यों को ध्यान में रख कर दिये गये हैं— संवृतिसत्य एवं परमार्थसत्य, अथवा सम्मुतिदेसना तथा परमत्थदेसना । सम्मुतिदेसना पुद्गल, सत्त्व, स्त्री, पुरुष, क्षत्रिय, ब्राह्मण, देव, मार आदि को व्यक्त करने वाली देसना है और अनित्य, दुःख, अनात्म, स्कन्ध, आयतन, स्मृत्युपस्थानादि परमत्थदेसना के अन्तर्गत व्याख्यायित होते हैं:
“बुद्धस्स भगवतो दुविधा देसना — सम्मुतिदेसना, परमत्थदेसना चा ति । तत्थ पुग्गलो, सत्तो, इत्थी, पुरिसो, खत्तियो, ब्राह्मणो, देवो मारो ति एवरूपा सम्मुतिदेसना, अनिच्चं, दुक्खं, अनत्ता, खन्धा, धातू, आयतनानि सतिपट्ठाना ति एवरूपा परमत्थदेसना । तत्थ भगवा ये सम्मुतिवसेन देसनं सुत्वा अत्यं पटिविज्झित्वा मोहं पहाय विसेसमधिगन्तुं समत्था, तेसं सम्मुतिदेसनं देसेति, ये पन परमत्थवसेन देसनं सुत्वा अत्थं पटिविज्झित्वा मोहं पहाय विसेसमधिगन्तुं समत्था तेसं परमत्थदेसनं देसेति" ।
इसी को उपसंहार रूप में वहीं कहा गया है "दुवे सच्चानि अक्खासि सम्बुद्धो वदतं वरो । सम्मुतिं परमत्थं च ततियं नूपलब्भति । । सङ्केतवचनं सच्चं लोकसम्मुतिकारणा । परमत्थवचनं सच्चं धम्मानं भूतकारणा । । तस्मा वोहारकुसलस्स लोकनाथस्स सत्थुनो। सम्मुतिं वोहरन्तस्स मुसावादो न जायती" ।। ति ।
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इन्हीं दो प्रकार के सत्यों अथवा देशनाओं की अभिव्यक्ति हेतु सच्चसङ्क्षेप ग्रन्थ की रचना आचरिय चुल्लधम्मपाल द्वारा की गयी है और मङ्गलगाथा के पश्चात् गाथा संख्या ३-४ में उन्होंने इसी ओर इंगित किया है । इस ग्रन्थ के गाथा सं० ५ से लेकर गाथा सं० ३६६ तक परमत्थसच्च का वर्णन किया गया है तथा गाथा सं० ३६७ से आगे सम्मुतिसच्च का। १. म०नि० अ० १, पृ० १७७, नालन्दा संस्करण, १९७५; अ०नि०अ०भा० १, पृ० १०७, नालन्दा संस्करण, १९७६, सारत्थदीपनीटीका, भा० १, पृ० ६७, स०सं०वि० संस्करण, १९९१ ।
२. वहीं क्रमशः, पृ० ७८, पृ० १०८; पृ० ६७।
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