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परिचिति
मागघी भाषा में परिवर्तन कर सकोगे, तभी में तुम्हें क्षमा करूँगा अन्यथा नहीं। बुद्धघोष ने कहा कि यदि आपकी यही इच्छा है तो मै लंका जाना चाहता हूँ। पर मेरे माता-पिता मिथ्यादृष्टि से युक्त हैं। मैं उनको मिथ्यादृष्टि से मुक्त करना चाहता हूँ। ऐसा कहकर आचार्य से आज्ञा लेकर वे अपने घर आये। उनको देखकर उनके माता-पिता प्रसन्न हुए और कहने लगे कि पुत्र गृहस्थ होगा क्योंकि उसका मुख प्रसन्न है। यह भिक्षु बनकर घूम घामकर लौट आया है। बुद्धघोष उनकी बातों को सुनकर चुप रहे और अपने वासस्थान में ईटों की दो गर्भ कुटी बनवाया और उसमें से एक में अन्दर और बाहर अर्गला लगाकर वहाँ खाने पीने का सारा सामान रखकर अपने माता-पिता को अन्दर प्रवेश कराकर बाहर किवाड़ बन्द कर दिया। केसी ब्राह्मण ने पूछा- तात्! मैं तुम्हारा पिता हूँ। तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हो? तब बुद्धघोष ने कहा कि आप मेरे माता-पिता अवश्य हैं लेकिन आप मिथ्यादृष्टि से सम्पन्न है क्योंकि बुद्धशासन के प्रति अप्रसन्न तथा अश्रद्धावान् हैं। इसलिए यह 'दण्ड' मैनें किया है। उसके माता-पिता ने कहा- मैं मिथ्यादृष्टि से सम्पन्न होकर कोई काम नही करता हूँ, इसलिए द्वार खोल दो। बुद्धघोष ने कहा कि यदि आप मिथ्यादृष्टि से सम्पन्न होकर कार्य नही करते हैं तो आप बुद्धगुणों का वाचन करें तभी में आपका द्वार खोलूँगा। उन्होंने कहा कि मिथ्यादृष्टि सम्पन्न कर्म अवीची नरक में ले जाता है। इस प्रकार नरक-भय की तर्जना से उसके माता-पिता मिथ्यादृष्टि को छोड़कर बुद्ध, धर्म तथा संघ के शरण में चले गये तथा बुद्धगुणों को स्मरण करते हए ‘सोतापत्ति फल' को प्राप्त किये। इस पर बुद्धघोष बहुत प्रसन्न हुए और साधु-साधु कहकर अनुमोदन किया।
चतुर्थ परिच्छेद चतुर्थ परिच्छेद में बुद्धघोष के लंका-गमन का वर्णन है। बुद्धघोष ने अपने माता-पिता को श्रोतापत्ति फल में प्रतिस्ठापित कर अपने दोष के लिए क्षमा माँगकर उनसे पूछकर उपाध्याय के निकट पहुंचे और उपाध्याय से आज्ञा लेकर लंका द्वीप जाने के लिए महावणिक् के साथ बन्दरगाह पर जाकर नाव पर चढ़कर लंका के लिए प्रस्थान किया। उनके नाव पर सवार होने के दिन ही बुद्धदत्त महास्थविर भी लंका द्वीप से भारतवर्ष आने के लिए वणिक के साथ नाव पर चढ़कर आ रहे थे। महासमुद्र में घूमते हुए बुद्धदत्त से उनकी भेंट हो गई। बुद्धघोष के पूछने पर उस वणिक ने यह बुद्धदत्त महास्थविर हैं' ऐसा
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