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उसकी पृष्ठ-संख्या सहित दे दिए गये हैं, जिससे यदि कोई जिज्ञासु विस्तार से उनके बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहे तो उन ग्रन्थों की सहायता से उसे प्राप्त करने में समर्थ हो सके। ऐसे ग्रन्थों के सङ्केत-विवरण भी अलग स्वतन्त्र रूप से दे दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ का सम्पादन दो प्रकाशित ग्रन्थों को आधार बनाकर किया गया है—(१) सन् १९१८ में पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, के जर्नल में प्रकाशित रोमन संस्करण एवं बुद्धसासन समिति, बर्मा, द्वारा सन् १९६३ में बर्मी लिपि में प्रकाशित संस्करण। पाठ की दृष्टि से रोमन संस्करण की अपेक्षा यह बर्मी संस्करण अधिक समीचीन प्रतीत होता है, अत: इसके ही पाठ मूल में अधिक संख्या में विद्यमान हैं तथा रोमन संस्करण के पाठ पाद-टिप्पणियों में। कहीं-कहीं इन दोनों के आधार पर अपना पाठ भी देवनागरी लिपि में इसके प्रथम सम्पादक को बनाना पड़ा है, उदाहरणार्थ गाथा सं० २९६ का पाठ
"अहीरिकमनोत्तप्प-मोहुद्धच्चा च द्वादसे।
लोभो अट्ठसु चित्तेसु थीनमिद्धं तु पञ्चसु' ।। इन दोनों संस्करणों की पृष्ठ संख्या भी बर्मी लिपि में प्राप्त संस्करण के लिए [B] तथा रोमन संस्करण के लिए [R] के रूप में दे दी गयी है, और पाठभेद को व्यक्त करने के लिए 'रो' रोमन संस्करण तथा 'म' मरम्म अर्थात् बर्मी संस्करण का परिचायक है। ग्रन्थ के अन्त में गाथाओं के प्रथम पाद की अनुक्रमणिका भी प्रस्तुत कर दी गयी है।
. इस लघु ग्रन्थ सच्चसङ्केप का सम्पादक विशेष रूप से दो विद्वान् महानुभावों— श्रमण-विद्या संकायाध्यक्ष प्रो० डॉ० ब्रह्मदेवनारायणशर्मा तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रकाशन संस्थान के निदेशक डॉ० हरिश्चन्द्र मणि त्रिपाठी के प्रति विशेष आभार एवं कृतज्ञता व्यक्त करता है, क्योंकि इन्हीं की प्रेरणा तथा उत्साहित करने के कारण इसके सम्पादन को वह पूर्ण करने में समर्थ हो सका और अभिधर्मपिटक के बुद्धवचनत्व तथा सच्चसङ्केप ग्रन्थ के प्रणेता के सन्दर्भ में समालोचनात्मक सामग्री भूमिका में प्रस्तुत कर सका।
आशा है कि पाठभेदों, सम्बद्ध ग्रन्थों से टिप्पणियों एवं आलोचनात्मक विस्तृत भूमिका के साथ देवनागरी लिपि में प्रथम बार प्रकाशित सच्चसङ्केप ग्रन्थ
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