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कारिका १७३
पृ० १४६ कारिका १७६
पृ० १०९ कारिका ६२
पृ० १४३ कारिका १६४-१६५
पृ० १४५ मणिसारमसाटीका में सच्चसझेप की गाथाओं की व्याख्या
विभाविनी में उद्धृत सच्चसङ्केप की इन कारिकाओं की व्याख्या अरियवंस द्वारा रचित इसकी व्याख्या मणिसारमञ्जूसा, भाग १, भाग २, बुद्धसासन समिति, बर्मा, द्वारा सन् १९६३ ई० एवं १९६४ ई० में क्रमश: प्रकाशित, में इस प्रकार से हैसच्चसङ्केप की कारिका सं० मणिसारमशंसा की भाग-सहित पृ० सं० कारिका सं० ७४
भाग १, पृ० ३७७ कारिका सं० १७१
भाग १, पृ० ४०७-४०८ कारिका सं०६०
भाग १, पृ० ४४२-४४३ कारिका सं० १७३
भाग १, पृ० ४५२ कारिका सं० १७६
भाग १, पृ० ४९१ कारिका सं० ६२
भाग २, पृ० ८४ कारिका सं० १६४-१६५ भाग २, पृ० ९४ (यहाँ पर बहुत
विस्तार से व्याख्या की गयी है)। इस प्रकार से अपने मत की पुष्टि तथा व्याख्यान में विभाविनी नामक टीका के प्रणेता सारिपुत्त के शिष्य सुमङ्गल स्वामी ने सच्चसङ्केप की उपर्युक्त कारिकाओं अथवा गाथाओं को उद्धृत किया है।
सच्चसङ्ग्रेप की विषय-वस्तु तथा इसके परिच्छेद
सच्चसङ्केप अभिधर्म-सम्बन्धी एक लघु ग्रन्थ है। इसके शीर्षक को सामान्य रूप से समझने में यही ज्ञात होता है कि इसमें चार आर्य-सत्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। किन्तु यहाँ पर आर्यसत्य व्याख्यायित नहीं है, अपितु सम्मुति (संवृति) एवं परमत्थ (परमार्थ) सत्यों के परिप्रेक्ष्य में आभिधार्मिक तत्त्व यहाँ पर निरूपित हैं।
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