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अरञ्जवासी सम्प्रदाय की स्थिति बारहवीं-तेरहवीं सदी तक बनी रही और इस समय एक दूसरे महास्थविर आनन्द विद्यमान थे, जो सारिपुत्त के शिष्य उदुम्बरगिरि मेधङ्कर के शिष्य थे। इन्हीं के शिष्य कच्चायन व्याकरण सम्प्रदाय के ग्रन्थ रूपसिद्धि के प्रणेता बुद्धप्पिय थे, जिन्होंने अपने गुरु आनन्द को ताम्रपर्णी-ध्वज की संज्ञा से अभिहित किया है । सामान्य रूप से इन्हीं आनन्द को नाम-साम्य के आधार पर अभिधम्ममूलटीका के रचयिता के रूप में मान लिया जाता है, किन्तु पहले यह प्रदर्शित किया जा चुका है कि अभिधम्ममूलटीका के रचनाकार सन् ११६५ की कस्सप थेर की संगीति के पूर्व ही अपने इस ग्रन्थ की रचना कर चुके थे एवं उनके शिष्य चुल्लधम्मपाल अथवा धम्मपाल, जो बारहवीं सदी के पूर्व में विद्यमान थे, इस पर टीका लिख चुके थे। सारिपुत्त के शिष्य सुमङ्गल स्वामी द्वारा अभिधम्ममूलटीका
एवं सच्चसङ्ग्रेप के प्रस्तुत उद्धरण सुमङ्गल स्वामी ने अभिधम्मत्थसङ्गह की टीका विभाविनी में अनेक स्थलों पर अभिधम्ममूलटीका के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें इसके रोमन संस्करण के आधार पर दर्शाया जा रहा है:(१) “अपरे पन कुसलादीनं कुसलादिभावसाधनं हेतुभावो ति वदन्ति (मूलटीका,
सिंहली संस्करण, भाग३, पृ० १६८) । (२) “मूलटीकाकारादयो पन अञथा पि तं साधेन्ति” (मूलटीका, सिंहली
संस्करण, भाग२, पृ०९५)। (३) “एवञ्च कत्वा वुत्तं आनन्दाचरियेन- 'पञ्चद्वारे च आपाथमागच्छन्तं पच्चुप्पन्नं
कम्मनिमित्तं आसन्नकप्पकम्मारम्मणसन्ततियं उप्पन्नं, तं सदिसं ति दट्ठब्बं"
(मूलटीका, सिंहली संस्करण, भाग२, पृ० १०५) । (४) “रूपलोके गन्धादीनं अभाववादिमतम्पि हि तत्थ तत्थ आचरियेहि
पटिक्खित्तमेव'' (मूलटीका, सिंहली संस्करण, भाग २, पृ० १०८-१०९) ।
१. वहीं, पृ० २११। २. विभाविनी, रोमन संस्करण, पृ० ९५, पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १९८९ । ३. वहीं, पृ० १४२। ४. वहीं, पृ० १४६। ५. वहीं, पृ० १५८
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