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ऊपर यह उल्लिखित किया जा चुका है कि चुल्लधम्मपाल अभिधम्ममूलटीकाकार वनरतन आनन्द के ज्येष्ठ शिष्य थे। इन्होंने इस मूलटीका पर अनुटीका का प्रणयन किया था। इस मूलटीका की रचना कस्सप की संगीति (११६५ ई०) के पूर्व निश्चित रूप से ही चुकी थी और चुल्लधम्मपाल ने, जो निश्चित रूप से बारहवीं सदी से पूर्व हो चुके थे, इस पर अनुटीका लिखी थी। अरञवासी अथवा वनवासी सम्प्रदाय की सूचना कलिंग-सम्राट अग्गबोधि के शासन-काल (५९८-६०८ई०) से ही प्राप्त होती है एवं उसी समय भिक्षुजीवन व्यतीत करने के लिए सीहल द्वीप में इनका आगमन हुआ; तथा महास्थविर जोतिपाल के संरक्षकत्व में बौद्ध संघ में ये प्रविष्ट हुए। रसवाहिनी ग्रन्थ के प्रणेता वेदेह ने अपने इस ग्रन्थ में वनवासी सम्प्रदाय के प्रारम्भ का विवरण दिया है, क्योंकि वे भी इसी सम्प्रदाय के थे। गन्धवंस द्वारा हमें यह सूचना आनन्दाचरिय के बारे में प्राप्त होती है कि वे भारत के ही निवासी थे और उनका काल सम्भवत: आठवीं अथवा नवीं शताब्दी था एवं उन्होंने बुद्धमित्त के अनुरोध पर अभिधम्ममूलटीका की रचना की, जिसे महास्थविर कस्सप और उनके सहयोगियों ने पुन: संशोधित किया था। इन्हें वनरतन आनन्द अथवा वनरतन तिस्स भी कहा जाता है, क्योंकि वनवासी सम्प्रदाय से उनका सम्बन्ध था ।
सारिपुत्त की मंडली के काल में सीहल द्वीप में वनवासी अथवा अरञ्जवासी सम्प्रदाय राजनीतिक उथल-पुथल से अप्रभावित रहते हुए अमने को महाविहार की परम्परा से सम्पृक्त रखे हुए था। महाविहार की परम्परा ही उनके धार्मिक जीवन में विद्यमान थी। पंडित पराक्रम की संगीति में भी उनका अपूर्व योगदान था । इसी से सारिपुत्त के शिष्य सुमङ्गल स्वामी ने अभिधम्मत्थसङ्गह की टीका विभाविनी में अपनी स्थापना को पुष्ट करने के लिए आनन्दाचरिय की अभिधम्ममूलटीका तथा चुल्लधम्मपाल के सच्चसङ्केप के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे। उन्होंने चुल्लधम्मपाल के उद्धरण धम्मपालाचरिय या पोराणा कह कर ही दिये हैं। लगता है कि चुल्लधम्मपाल का नाम धम्मपाल थेर ही था तथा उन्हें अट्ठकथाचरिय धम्मपाल से पृथक् करने के लिए उनके नाम में चुल्ल (छोटे) यह शब्द बाद में जोड़ा गया। १. दि पालि लिटरेचर आफ सीलोन, पूर्वोक्त, पृ० २११। २. वहीं, पृ० २१०-२१२ । ३. वहीं, पृ० २१०॥ ४. वहीं।
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