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श्रमणविद्या- ३
महत्ता के सम्बन्ध में प्रो. हर्टेल ने अपनी पुस्तक “आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बर आफ गुजरात" " में विस्तार से विवेचन किया है और स्पष्ट किया है कि जैनों का बहुमूल्य कथासाहित्य पाया जाता है, जिनमें कथाओं के माध्यम से अपने सिद्धान्तों को जनसाधारण तक पहुँचाया है।
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जैन प्राकृत कथासाहित्य के विषयों का वर्गीकरण करके यदि अध्ययन किया जाये तो लगता है जीवन के किसी भी पक्ष को अछूता नहीं किया गया। सामान्य जीवन के अनेक पक्षों- जैसे ऋतुएँ, वन, पर्वत, नदी, उद्यान, जलक्रीडा, सूर्योदय, चंन्द्रोदय, नगर, राजा, सैनिक, युद्ध, महोत्सव, स्वयंवर, हस्ती, रथ, स्त्रीहरण, साधु-उपदेश, धर्म, दर्शन, अंधविश्वास, लोक, परम्पराएँ आदि समस्त पक्षों को उजागर किया गया है। युग के समाज का स्पष्ट रूप इन कथाग्रन्थो में दिखाई देता है। अतः प्राकृत कथासाहित्य का धर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति, समाज, राजनीति, आर्थिक आदि दृष्टि से स्वतंत्र विधा के रूप में अध्ययन किया जाना चाहिए ।
प्राकृत कथा - साहित्य का प्रणयन ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से लेकर १७-१८ वीं शताब्दी तक अनवरत रूप से किया जाता रहा है। तत्पश्चात् भी प्राकृत कथाएँ लिखी जाती रहीं, जिसका प्रचलन आज भी श्रमणवर्ग में दिखाई देता है। अभी तक प्राप्त प्राकृत कथा - साहित्य में तरंगवई कहा, वसुदेव हिंडी, समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, कुवलयमालाकहा, लीलावईकहा, निर्वाण लीलावती, कथाकोश, प्रकरण संवेगरंगशाला, नागपंचमीकहा, कहारयणकोस, नम्मयासुन्दरीकहा, कुमारपालप्रतिबोध, आख्यानमणिकोश, जिनदत्ताख्यान आदि प्रमुख कथाग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त और भी शताधिक रचनाएँ गिनाई जा सकती हैं । किन्तु ऐसी हजारों रचनाएँ अभी भी ग्रंथ भण्डारों में पड़ी हुई हैं। जो अभी प्रकाश में नहीं आ सकीं। इन सब कथाओं के स्मरण में बृहत्कथाकोश (कृत गुणाढ्य ) को भुलाया नहीं जा सकता है। पैशाची भाषा की यह रचना प्राकृतकथाओं का कोश कही जाती है।
१. आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बर आफ गुजरात, पृ. ६, ८
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