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भूमिका
अनन्तत्राणं करुणालयं लयं
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मलस्स बुद्धं सुसमाहितं हितं ।
नमामि धम्मं भवसंवरं वरं
गुणाकरं चेव निरङ्गणं गणं ।। कस्सपं च महाथेरं जगदीसं ति विस्सुतं । नमामि सन्तवृत्तिं तं गरुं गारवभाजनं । ।
प्रस्तुत ग्रन्थ सच्चसङ्क्षेप अभिधर्म के सिद्धान्तों को संक्षिप्त रूप में प्रकट करनेवाला एक लघु ग्रन्थ है। अट्ठकथाओं के विद्यमान रहते हुए भी अभिधर्म के सिद्धान्त अध्येताओं के लिए कालान्तर में इतने दुरूह हो गये कि उन्हें हृदयङ्गम करने में कठिनाई होने लगी । अतः इसे दूर करने के लिए अवतार, सङ्क्षेप और संग्रह के रूप में स्वतन्त्र ग्रन्थों की आचार्यों द्वारा रचना हुई और इसी क्रम में अभिधम्मावतार, सच्चसङ्क्षेप तथा अभिधम्मत्थसङ्गह आदि ग्रन्थ लिखे गये। इससे अभिधर्म-रूपी महाकान्तार में प्रवेश अथवा अभिधर्म-रूपी महोदधि को पार करने में सुगमता दृष्टिगोचर हुई तथा अभिधर्मपिटक के मूल ग्रन्थों के स्थान पर बाद में आचार्यों द्वारा रचे गये ऐसे ही ग्रन्थों का पठनपाठन प्रचलित हुआ ।
अभिधर्मपिटक का बुद्धवचनत्व
स्थविरवादी अभिधम्मपिटक
बुद्धशासन की आधारशिला बुद्धवचन अथवा परियत्ति है। अतः सद्धर्म की चिरस्थिति इसी पर आधारित है। यह भी विशेष रूप से ध्यातव्य है कि भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तत्काल बाद ही बुद्धवचनों के संग्रह का संकल्प महास्थविर महाकाश्यप द्वारा लिया गया। जब शास्ता के परिनिर्वाण से दुःखी होकर अवीत - राग भिक्षु अत्यन्त शोकमग्न होकर विलाप आदि कर रहे थे तो सुभद्र नामक एक वृद्ध प्रव्रजित ने यह कहा - ' - " आयुष्मानों, मत शोक
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