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अभिधर्म का उपदेश किया गया और उनके शिष्यानुशिष्य-क्रम में यह परम्परा आगे बढ़ती रही तथा सारिपुत्त, भद्दजि, सोभित, पियजाली, पियदस्सी, कोसियपुत्त, सिग्गव, सन्देह, मोग्गलिपुत्त, सुदत्त, धम्मिय, दासक, सोणक और रेवत आदि के रूप में भारतवर्ष में विद्यमान रही। इसी आचार्य परम्परा ने बुद्ध के इसके उपदेश के समय से लेकर तृतीय सङ्गीति तक अभिधर्म को संघ तक पहुंचाया और इसके बाद महिन्द, इट्टिय आदि के द्वारा यह सिंहल द्वीप ले जायी गयी तथा इन आचार्यों के शिष्यानुशिष्यों ने इसे आगे भी पल्लवित रखा ।
___ इस पर प्रश्न यह होता है कि प्रथम सङ्गीति के अवसर पर इस आचार्यपरम्परा में से किसी को सम्मिलित करके अभिधर्म-सम्बन्धी पृच्छा उनसे क्यों नहीं की गयी और उनके द्वारा उसका उत्तर प्राप्त होने के अनन्तर ही इसका सङ्गायन क्यों नहीं हुआ एवं जिस प्रकार विनय और धम्म (सुत्त) के सन्दर्भ में उपालि तथा आनन्द का उल्लेख करते हुए उन्हें व्यवस्थित किया गया, ऐसा अभिधर्म के सम्बन्ध में क्यों नहीं किया गया।
__ अभिधर्मपिटक को बुद्धवचन न माननेवालों का यह भी तर्क है कि इसके ग्रन्थों में सूत्रपिटक तथा विनयपिटक की भाँति निदान नहीं है, अत: वह बुद्धवचन नहीं है। इसका उत्तर स्थविरवादी-परम्परा ने यह दिया है कि निदान का होना बुद्धवचन मानने के लिए सम्यक् हेतु नहीं है। धम्मपद, सुत्तनिपात तथा जातक आदि में भी तो निदान नहीं है, फिर भी इन्हें बुद्धवचन माना ही जाता है। मण्डलारामवासी तिस्स स्थविर ने महाबोधि को ही इस पिटक का निदान कहा है। गामवासी सुमनदेव थेर के अनुसार इसका निदान है- “एकं समयं भगवा देवेसु विहरति तावतिंसेसु पारिच्छत्तकमूले पाण्डुकम्बलसिलायं। तत्र खो भगवा देवानं तावतिंसानं अभिधम्मकथं कथेसि...." आदि । बुद्धघोषानुसार इसमें दो निदान हैं—अधिगम-निदान–दीपङ्कर बुद्ध से लेकर महाबोधिपर्यङ्क तक; देशना-निदान-धर्मचक्रप्रवर्तन से लेकर। इन दोनों निदानों के सम्यक ज्ञान हेतु आचार्य बुद्धघोष ने “यह अभिधर्म किससे प्रभावित है, कहाँ परिपक्व हुआ है आदि कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को उठाकर उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है- उदाहरणार्थ:-यह बोधि के प्रति अभिनीहार करनेवाली श्रद्धा से प्रभावित है तथा जातकों में यह परिपक्व हुआ है आदि ।
२. वहीं, पृ० २५-२६।
१. वहीं, पृ० १४-१५,२४,२७। ३. वहीं, पृ० २७
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