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इससे यह ज्ञात होता है कि अट्ठसालिनी के रचयिता बुद्धघोष के समय तक अभिधम्मपिटक को बुद्धवचन मानने के विषय में लोगों को सन्देह था और आज जिस रूप में कथावत्थु उपलब्ध है, वह तो बुद्धभाषित न होकर आचार्यभाषित ही है। इसका उत्तर बुद्धघोष ने उक्त ग्रन्थ में यह दिया हैं कि अभिधर्म की देशना करते हुए बुद्ध ने केवल इसकी मातृकाओं की देशना की थी और कहा था कि मेरे परिनिर्वाण के २१८ वर्ष बाद मोग्गलिपुत्त तिस्स परवाद का खण्डन करते हुए और स्थविरवाद का मण्डन प्रस्तुत करते हुए इन मातृकाओं का व्याख्यान करेंगे। इस प्रकार उनका यह व्याख्यान अपना न होकर शास्ता द्वारा प्रदर्शित नयानुसार ही है। अत: शास्ता द्वारा स्थापित मातृकाओं के आधार पर होने के कारण आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा भाषित होने पर भी कथावत्थु प्रकरण बुद्धभाषित ही है। वैज्ञानिक रीति से विचार करने पर यह तथ्य प्रदर्शित होता है कि तृतीय संगीति के अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स ने इस सङ्गीति के अवसर पर स्थविरवाद से भिन्न शेष १७ बौद्धनिकायों के मतों का खण्डन करते हुए कथावत्थु की रचना की थी और यह प्रकरण वहाँ पर बुद्धवचन के रूप में सङ्गायित कर दिया गया। इससे यही स्पष्ट होता है कि स्थविरवाद का अभिधम्मपिटक आज जिस रूप में हमें प्राप्त,है, उसके स्वरूप का निर्धारण एक प्रकार से तृतीय सङ्गीति के अवसर पर ही हुआ था और बुद्ध के परिनिर्वाण के तत्काल बाद प्रथम सङ्गीति और उसके १०० वर्ष पश्चात् द्वितीय सङ्गीति में उसका सङ्गायन होना मात्र अर्थवाद है।
अभिधर्मपिटक के बुद्धवचनत्व को सिद्ध करने में आचार्य बुद्धघोष ने धम्मसङ्गणि-प्रकरण की अट्ठकथा अट्ठसालिनी में जमीन और आसमान को एक कर दिया है। लगता है कि उस समय इसे बुद्धवचन मानने में विवाद छिड़ा हुआ था। सूत्र और विनय को बुद्धवचन मानने में इतने विवाद का अवकाश नहीं था, क्योंकि प्रारम्भ से ही यह विवरण प्राप्त होता है कि इसके प्रस्तुतकर्ता आनन्द तथा उपालि थे।
अत: अभिधर्म के उद्भव के सम्बन्ध में यह उद्भावना बुद्धघोष के द्वारा की गयी कि भगवान् बुद्ध ने बुद्धत्व-प्राप्ति के बाद अपने सप्तम वर्षावास में त्रायस्त्रिंश देवलोक में जाकर लगातार तीन मास तक वहाँ विराजमान अपनी माता को विस्तारपूर्वक अभिधर्म का उपदेश दिया। पृथ्वीलोक में उन्होंने एक निर्मित बुद्ध की व्यवस्था कर दी थी, जिसके द्वारा सर्वप्रथम अनवतप्त ह्रद के पास सारिपुत्त को १. वहीं, पृ० ४-५।
२. वहीं।
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