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करो, मत विलाप करो। हम लोगों को उस महाश्रमण से मुक्ति मिली। हम उसके द्वारा यह कहकर सदा पीड़ित किये जाते थे कि यह तुम्हें विहित है, यह तुम्हें विहित नहीं है। अब हम जो चाहेंगे करेंगे, जो नहीं चाहेंगे, वह नहीं करेंगे" सुभद्र के इन वचनों को सुनकर महाकाश्यप चिन्तित हुए । उन्होंने कहा कि अधर्म और अविनय प्रकट हो रहा है और धर्म तथा विनय की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि इनका सङ्गायन कर लिया जाय। इससे बौद्ध-शासन की चिरस्थिति होगी । ज्ञप्ति के द्वारा इस कार्य हेतु राजगृह को चुना गया और वहीं पर वर्षावास करते हुए धर्म तथा विनय के सङ्गायन का निश्चय किया गया। इसके लिए एक कम पाँच सौ अर्हत् पद प्राप्त भिक्षुओं का चयन हुआ । यद्यपि आनन्द स्थविर शैक्ष्य थे, किन्तु सर्वदा ही बुद्ध का अनुगमन करने के कारण उनके उपदेशों से वे सुपरिचित थे, अतः इस कार्य के लिए इन्हें भी चुन लिया गया। यह भी ज्ञप्ति द्वारा निश्चित हुआ कि इन पाँच सौ भिक्षुओं के अतिरिक्त राजगृह में कोई अन्य भिक्षु वर्षावास नहीं करेगा, जिससे सङ्गायन का कार्य निर्विघ्न रूप में सम्पन्न किया जा सके ।
यह प्रथम सङ्गीति महाकाश्यप की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुई | बुद्धशासन की आयु विनय है, अतः सर्वप्रथम विनय - सम्बन्धी उपदेशों के बारे में उपालि से पूछा गया और उपालि ने विस्तार से उन्हें सूचित किया; तथा धर्म (धम्म) अर्थात् सुत्तों के सन्दर्भ में आनन्द से पृच्छा की गयी और उन्होंने भी विस्तार से सुत्तों को प्रस्तुत किया। उपस्थित सम्पूर्ण भिक्षु समूह ने इन दोनों से सुनकर विनय तथा सुत्त का सङ्गायन किया और विनयपिटक तथा सुत्तपिटक स्थिति में आये। सुत्तपिटक का निकायों के रूप में भी इसी समय सङ्गायन हुआ। परम्परा के अनुसार इसमें अभिधम्मपिटक के सात ग्रन्थों का भी सङ्गायन हुआ; किन्तु अट्ठकथाओं में यह विवरण प्राप्त नहीं है कि अभिधम्म - सम्बन्धी पृच्छा किससे की गयी । साधारण रूप से अभिधर्म को भी धम्म के अन्तर्गत मानकर खुद्दकनिकाय में ही परम्परया अभिधर्मपिटक का भी समावेश कर लिया जाता है और निकाय के रूप में बुद्धवचनों के स्वरूप में विनयपिटक को भी स्थविरवादी परम्परा खुद्धकनिकाय में संगृहीत मानती हैं । किन्तु परम्परा में यह
१. दी०नि०२, पृ०१२५, नालन्दा संस्करण, १९५८ चुल्लवग्ग, पृ० ४०६, नालन्दा संस्करण, १९५६।
२. सुमङ्गलविसालिनी, १, पृ० ५-६, रोमन संस्करण, १८८६ ।
३. वहीं, पृ० १५ ।
४. वहीं, पृ० २३; समन्तपासादिका १, पृ० १६, नालन्दा संस्करण, १९६४ ।
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