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श्रमणविद्या-३
यहाँ यह भी स्पष्टीकरण आवश्यक है कि जहाँ अर्धमागधी परम्परा के आचार्य मात्र अर्धमागधी आगमों के ही उद्धार, संग्रह और विस्तार में लगे थे, वहीं शौरसेनी परम्परा के आचार्यों ने मूल आगमों को विलुप्त हुआ स्वीकार कर परम्परा से प्राप्त आगम-ज्ञान के आधार पर मौलिक रूप में स्वतंत्रता से नवीन शैली के ग्रन्थों के निर्माण में संलग्न रहे। प्रतिभा के उन्मुक्त भाव से उपयोग के परिणाम-स्वरूप धरसेनाचार्य से परम्परागत सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त करके छक्खण्डागम के कर्ताओं ने इस ग्रंथ में अपने बुद्धिबल से खारबेल के शिलालेख में निबद्ध ‘णमो अरहंतानं, णमो सवसिधानं' रूप द्विपदी मंगल को पंचपदी णमोकार महामंत्र के रूप में प्रकट किया। यद्यपि यह पवित्र पंचनमस्कार मंत्र परम्परागत रूप से अनादि और अनिधन माना जाता है।
छक्खण्डागम के कर्ताओं एवं इसकी टीका लेखक आचार्यों ने परम्परागत सिद्धान्त की कोई बात किसी साम्प्रदायिक भेदभाव या पक्षपात के कारण छोड़ी नहीं है। इसीलिए परम्परागत उपयोगी गाथाओं को भी अपनी रचना में उन्होंने यथोचित स्थान दिया। 'भणितं' आदि शब्दों के उपयोग द्वारा उन्होंने यह भी इंगित किया है कि यह गाथा उनकी स्वनिर्मित नहीं अपितु परम्परागत है। यह सब उनकी साहित्यिक ईमानदारी का परिचायक है। ५. आचार्य यतिवृषभ
'कसायपाहुड सुत्त' के चूर्णिसूत्रकार के रूप में प्रसिद्ध द्वितीय शती के प्रसिद्ध आचार्य यतिवृषभ का अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण योगदान है। यद्यपि विभिन्न शास्त्रकारों द्वारा इनके मतों के उल्लेख, चूर्णिसूत्र तथा तिलोयपण्णत्ति नामक इनकी महत्वपूर्ण कृति के अतिरिक्त इनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। कसायपाहड के उद्गम प्रसंग में जयधवलाकार के अनुसार श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होने पर अंग-पूर्वो का ज्ञान एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर को प्राप्त हुआ। इन्होंने प्रवचनवत्सलता के कारण ग्रन्थव्युच्छेद के भय से पेज्जदोसपाहुड (कसायपाहुड) को जो कि सोलह हजार पद प्रमाण था, उसका मात्र एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया। ये ही सूत्रगाथायें आचार्य परम्परा से आर्यमंक्षु और नागहस्ति को प्राप्त हुईं। इन दोनों ही के पादमूल में बैठकर कसायपाहुड की इन सूत्रगाथाओं के अर्थ को भली-भांती सुनकर यतिवृषभ भट्टारक (जदिवसहभडारय) ने उस पर चूर्णि सूत्रों की रचना की।
१. श्वेताम्बर परम्मपरा में इनका यह नाम 'अज्जमंगु' (आर्यमंगु) मिलता है--नन्दीसूत्र-२८ २. जयधवला पुस्तक१ पृष्ठ८७-८८
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