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काशी और जैनश्रमणपरम्परा
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जैन परम्परा के चौबीस तीर्थङ्करों में सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ, आठवें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ, ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ तथा तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणकों की पृष्ठभूमि होने से काशी प्राचीन काल से आज तक जैन श्रमण परम्परानुयायियों के लिए श्रद्धास्पद रही है।
इतिहासज्ञों ने तीर्थङ्कार पार्श्वनाथ एवं महावीर की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है और स्वीकार किया है कि जैनधर्म की स्थिति बौद्ध धर्म से पूर्व की है। तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ एवं चन्द्रप्रभ के सन्दर्भ में परम्परागत उल्लेख मिलते हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में इन्हें अप्रमाणिक नहीं माना जा सकता क्योंकि एक ओर श्रमण जैनपरम्परा का प्रारम्भ वृषभदेव से है तो दूसरी ओर वेदों में भी वातरशना, व्रात्य आदि के रूप में इस प्राचीन परम्परा का उल्लेख सर्वस्वीकृत है। पुरातत्त्वीय साक्ष्य भी, विशेषरूप से सिन्धुघाटी से प्राप्त अवशेष इस परम्परा के अनुयायियों के विषय में पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ
परम्परागत उल्लेखों के अनुसार तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ काशी के तत्कालीन राजा अश्वसेन के पुत्र थे। माता का नाम वामा देवी था। अश्वसेन इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय थे। जैनसाहित्य में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन या अस्ससेण मिलता है, किन्तु यह नाम न तो हिन्दू पुराणों में मिलता है और न जातकों में, गुणभद्र ने उत्तरपुराण में पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसेन दिया है। जातकों के विस्ससेण और हिन्दूपुराणों के विश्वक्सेन के साथ इसकी एकरुपता बनती है। डॉ. भण्डारकर ने पुराणों के विश्वकसेन और जातकों के विस्ससेण को एक माना है।
१. चन्दपहो चन्दपुरे जादो महसेण लाच्छे मइ आहिं ।
पुस्सस्स किण्ह एयारसिठ अयुगह णक्खते ।। ति. प. ४.५३३ २. सीहपुरे सेयंसो विण्हु व्यरिदेण वेणुदेवीस ।
एक्कार सि. फग्गुण सिद पक्खे समणभेजादो ।। ति. प. ४।५३६ ३. हयसेण वम्मिलाहिं जादो हि वाणरसीए पासजिणो ।
पूसस्स बहुल एक्कारसिस रिक्खे विसाहाए ।। ति. प. ४।५४८ ४. मुनयो वातरशना पिशाङ्गा वसते मला:- ऋग्वेद-१०।३५।२। ५. व्रात्य आसीदीयमान एव य प्रजापतिः समैरयत्-अर्थर्ववेद-१, प्रथमसूक्त ६. पं. बलभद्र जैन, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ—पृष्ठ १२४
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