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श्रमणविद्या- ३
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शिवपुराण में शिव का आदितीर्थङ्कर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी धवला टीका में अर्हन्तों का पौराणिक शिव के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि अरहन्त परमेष्ठी वे हैं- जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी त्रिशूल को धारण करके मोहरूपी अंधकासुर के कबन्धवृन्द का हरण कर लिया है तथा जिन्होनें सम्पूर्ण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है और दुर्नय का अन्त कर दिया है।
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उक्त सन्दर्भों से यह तथ्य उद्भासित होता है कि वृषभदेव और शिव एक ही होना चाहिए। शैव परम्परा जहाँ शिव को त्रिशूलधारी मानती है, वहीं जैनपरम्परा में अर्हन्त की मूर्तियों को रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र के प्रतीकात्मक त्रिशूलांकित त्रिशूल से सम्पन्न माना जाता है। सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं पर ऐसे योगियों की मूर्तियाँ अंकित है जो दिगम्बर हैं। ऐसी मूर्तियाँ जिनके सिर पर त्रिशूल है और कायोत्सर्ग (खड्गासन ) मुद्रा में ध्यानावस्थित हैं। कुछ मूर्तियाँ वृषभ चिन्ह से युक्त हैं। मूर्तियों के ये रूप योगी वृषभदेव से सम्बन्धित हैं।
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जैनपरम्परा तथा उपनिषद् में भी भगवान वृषभदेव को आदिब्रह्मा कहा गया है। भगवान वृषभदेव तथा शिव दोनों का जटाजूट युक्त रूप चित्रण भी उनके ऐक्य का समर्थक है।
इस प्रकार आदितीर्थङ्कर वृषभदेव और शिव के मध्य ऐक्य स्थापित हो जाने से स्वतः ही यह सिद्ध है कि काशी में श्रमण जैनपरम्परा के बीज प्रारम्भ से ही विद्यमान थे ।
९. इत्थं प्रभाव ऋषभोऽवतार: शंकरस्य मे ।
सतां गतिदीनि बन्धुर्नवमः कथितवस्तव ||
ऋषभस्य चरित्रं हि परमं पावनं महत् ।
स्वर्ग्यं यशस्य मायुध्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ।। (शिवपुराण४, ४७-४८) २. धवलाटीका - १ पृष्ठ ४५-४६
३. ब्रह्मदेवानां प्रथम संबभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोढा ।
मुण्डकोपनिषद् - १, १
४. वाराणसीए पुडवी सुपइटठेहि सुपास देवो य ।
जेस्स सुक्कवार सिदिणम्मि जादो विसाहाय ।। तिलोयपण्णत्ति ४।५३२
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