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श्रमणविद्या- ३
इतिहासज्ञों ने पार्श्वनाथ का समय ई. पू. ८७७ निश्चित किया हैं । ई. पू. ८७७ में काशी की तत्कालीन सांस्कृतिक स्थिति का आकलन पार्श्वनाथ के जीवन एवं उनसे सम्बन्धित घटनाओं से प्राप्त किया जा सकता हैं- पार्श्व जन्म से ही आत्मोन्मुखी थे। उस समय यज्ञ-यागादि, पंचाग्नितप का प्राधान्य था। पार्श्व जीवन का यह प्रसंग कि उन्होंने गंगा किनारे तापस को अग्नि में लकड़ी डालने से रोका और कहा कि जिस लकड़ी को जलाने जा रहे हो उसमें नाग युगल हैं। इसे जलाने से रोको । तपस्वी के दुराग्रह को देख पुनः कहा कि तप के मूल में धर्म और धर्म के मूल में दया है वह आग में नागयुगल के जलने से कैसे सम्भव हो सकती हैं? इस पर तपस्वी क्रोधावेश में बोला 'तुम क्या धर्म को जानोगे ? तुम्हारा कार्य तो मनोविनोद करना है। यदि तुम जानते हो तो बताओ कि इस लक्कड़ में नाग युगल कहाँ है ?' यह सुनकर कुमार पार्श्व ने अपने साथियों से लक्कड़ को सावधानी पूर्वक दिखाया तो उसमें से नाग - युगल बाहर निकला ।
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उक्त घटना की सत्यता पर प्रश्न हो सकता है, परन्तु इतना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि उस समय ऐसे तप का बाहुल्य था । पार्श्व और महावीर के काल में मात्र २५० वर्ष का अन्तराल है और महावीर ने यज्ञ-यागादि जन्य हिंसा का प्रबल विरोध किया था। यह अनुमान सहज है कि पार्श्व के समय जिस यज्ञ-यागादि को प्रधानता दी जाती थी वह महावीर के समय तक चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई होगी। इतना ही नहीं, इहलौकिक और पारलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ-यागदि को जीवन का प्रमुख अंग माना जाना स्वीकृत हो चुका था । अश्वमेध यज्ञ भी काशी में सम्पन्न हुआ था, जिसकी स्मृति शेष 'दश- अश्वमेध घाट' आज भी विद्यमान है। यज्ञ यागादि और पंचाग्नि तप के विरुद्ध पार्श्वनाथ ने श्रमणपरम्परा के अनुसार अहिंसा आदि के माध्यम से जन सामान्य को सन्मार्ग पर लगाने का प्रयास किया था।
तीर्थङ्कर पार्श्व के समय को संक्रमण काल की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि वह समय ब्राह्मण युग के अन्त और औपनिषद् या वेदान्त युग का आरम्भ का समय था । जहाँ उस समय शतपथ ब्राह्मण जैसे ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रणयन हुआ वहाँ वृहदारण्यकोपनिषद् के द्वारा उपनिषदों की रचना का सूत्रपात हुआ था। ऐसे समय में पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया। वह
१. पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास: पूर्वपीठिका पृष्ठ १०८
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