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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
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अर्थात् जगत् में प्रसिद्ध चार प्रकार की आराधना के फल को प्राप्त सिद्ध और अरहंत की वन्दना करके क्रम से आराधना को कहूँगा। आगे आराधना के स्वरूप में कहा है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और सम्यक्तप के उद्योतन (शंका आदि दोषों को दूर करना) (उद्यवन) बार-बार आत्मा का सम्यक् दर्शनादि रूप परिणत होना), निर्वहन (निराकुलतापूर्वक सम्यक् दर्शनादि को धारण करना अथवा इस रूप परिणति में संलग्न होना, साधन (सम्यक् दर्शनादि रूप परिणामों का पुन: उत्पन्न करना, निस्तरण—सामर्थ्य (सम्यक् दर्शनादि को दूसरे भव में भी साथ ले जाना) को आराधना कहते हैं।
आगे यहाँ मरण के सत्रह भेद बतलाये गये हैं, जिनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण, और बालपंडितमरण को श्रेष्ठ कहा है। पंडितमरण में भी भक्तप्रतिज्ञामरण को श्रेष्ठ माना गया है।
इस तरह आराधना विषयक यह एक सांगोपांग कृति है, जिसकी समता अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें मनुष्यभव को सार्थक करने के लिए समाधिमरण की सिद्धि की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। नैतिक आचार और जीवनोत्कर्ष विषयक विविध विवेचन के साथ ही काव्यशास्त्रीय दृष्टि से इसका अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ उपमा अलंकार का संयोजन द्दष्टव्य है
घोडयलद्दिसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स ।
बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स ।।१३४१।।
अर्थात् जैसे घोड़े की लीद बाहर से चिकनी किन्तु भीतर से दुर्गन्ध के कारण महामलिन है, उसी तरह जो श्रमण बाह्य आडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुले के समान होता है।
यहाँ आचार्य ने अंतरंग शुद्धि पर बल दिया है। वैसे भी इस पूरे ग्रन्थ में शिवार्य ने तथ्य निरूपण की यथार्थ भूमि पर स्थित हो संसार, शरीर और भोगों की निस्सारता की निदर्शना, दृष्टान्त, उदाहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है।
२. उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं ।
सणणाण चरित्तं तवाणमाराहणा भणिया ।।२।। ३. भगवती आराधना गाथा २५. १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा: भाग-२ पृष्ठ १३२.
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