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श्रमणविद्या-३
अर्थात् तीन भुवन का तिलक, तीन भुवन के इन्द्रों से पूज्य जिनेन्द्रदेव को नमन करके भव्यजनों को आनन्ददायक अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा।
ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थ का नाम सूचित करते हुए कहा है कि ये बारह अनुप्रेक्षायें जिनागम के अनुसार कहीं है, अत: जो भव्यजीव इन्हें पढ़ता सुनता और इनकी भावना करता है अत: उत्तम सुख को पाता है
बारस-अणुवेक्खाओ भणिया हु जिणागमाणुसारेण ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।।४९० ।। प्रस्तुत ग्रन्थ में अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म-इन बारह अनुप्रेक्षाओं के प्रतिपादन के प्रसंग में सात तत्त्व, जीवसमास, मार्गणा, व्रत, दाता, दान, सल्लेखना, दसधर्म, ध्यान, तप आदि जैन सिद्धान्त एवं आचार विषयक विषयों का अच्छा प्रतिपादन किया गया है।
स्वामी कार्तिकेय की भाषा, भाव, शैली अत्यन्त ही सरल और सुबोध है। विषय प्रतिपादन और रचना शैली 'भगवती. आराधना' के कर्ता शिवार्य, और पाहुड साहित्य के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द के समान है। इस ग्रंथ में इनकी शौरसेनी प्राकृत भाषा इतनी सरल है कि इस भाषा-प्रयोग के आधार पर हम प्राकृत से अपभ्रंश अथवा इससे सीधे उद्भूत वर्तमान राष्ट्रभाषा हिन्दी के उद्भव और विकास की प्रक्रिया समझ सकते हैं।
प्रश्नोत्तर-शैली में लिखी गयीं गाथायें विशेष रोचक और महत्त्वपूर्ण हैं। शैली में अर्थ-सौष्ठव, स्वच्छता, प्रेषणीयता, सूत्रात्मकता, अलंकारात्मकता समवेत हैं। प्रश्नोत्तर शैली की ये कुछ गाथायें दृष्टव्य हैं
को ण वसो इत्थि-जणे, कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इन्दिएहिं ण जिओ, को ण कसाएहिं संतत्तो ।।२८१ ।। सो ण वसो इत्थिजणे, सो ण जिओ इंदिएहिं मोहेण ।
जो ण य गिण्हदि गंथं, अन्भंतर बाहिरं सव्वं ।।२८२।। __ अर्थात् लोक में स्त्रीजन के वश में कौन नहीं? काम ने किसका मान खण्डित नहीं किया? इन्द्रियों ने किसे नहीं जीता और कषाओं से कौन संतप्त नहीं हुआ? ।।२८१।।
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