________________
२०४
श्रमणविद्या-३
आ.सकलकीर्ति और पं नंदलाल जी छावड़ा तथा ऋषभदास निगोत्या के कथनों से इस बात का समर्थन भी होता है। इसीलिए आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की अपनी धवला टीका में तथा आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में मूलाचार की गाथाओं को आचारांग के नाम से ही उद्धृत किया है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि प्रथम मूल-अंग-आगम आचारांग के आधार पर इसकी रचना हुई और इसीलिए इसका नाम भी मूलाचार प्रसिद्ध हुआ और तदनुसार उस श्रमणसंघ के आचार का प्रतिपादक होने से उनके संघ का नाम 'मूलसंघ' प्रचलित हुआ जान पड़ता है।
___ मूलाचार के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि पाँचवें श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के समय जो दुर्भिक्ष पड़ा था। उसके प्रभाव से श्रमाणाचार में जो शिथिलता आई थी, उसे देखकर श्रमणों को अपने आचार-विचार एवं व्यवहार आदि की विशुद्धता का समग्र एवं व्यवस्थित ज्ञान कराने हेतु आचार्य वट्टकेर ने इस मूलाचार का निर्माण किया। जिस व्यवस्थित रूप में श्रमणधर्म के सम्पूर्ण-आचार विचार का निरूपण इसमें मिलता है, वैसा अन्य श्रमणाचारपरक प्राचीन ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता।
मूलाचार में मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान-संस्तरस्तव, संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, समाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति – ये बारह अधिकार हैं। इनमें कुल १२५२ गाथायें हैं। सभी अध्याय परस्पर सम्बद्ध होकर क्रमबद्ध रूप में मुनिधर्म का उत्तरोत्तर विवेचन करते हुए भी इसका प्रत्येक अधिकार एक स्वतंत्र ग्रन्थ का भी रूप लिये हुए है। यदि प्रत्येक अधिकार को अलग-अलग प्रकाशित करके इनका अध्ययन हो, तो भी उन प्रत्येक में सम्पूर्णता ही लगती है। ___जैसे इसके सातवें षडावश्यक अधिकार का ही उदाहरण लें। इसका प्रारम्भ ही मंगलाचरण से होता है और अन्त भी उपसंहारात्मक शैली में हुआ है। इसके प्रारम्भ में ही आचार्य वट्टकेर ने प्रतिज्ञा की है कि अब आवश्यक नियुक्ति का कथन कर रहा हूँ और फिर इस पूरे अधिकार में सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन छह आवश्यकों का क्रमश: भेद- प्रभेद सहित अच्छा विवेचन किया गया है। इस तरह अर्धमागधी भाषा में उपलब्ध ‘आवश्यकसूत्र' तथा इनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि ग्रन्थों में छह आवश्यकों का स्वरूप मूलाचार के सदृश ही है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org