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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
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मूलाचार के प्रथम अधिकार में अट्ठाईस मूलगुणों का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। यहाँ कहा गया है कि श्रमणाचार रूप वृक्ष के लिए जो मूल (जड़) के समान हों, वे मूलगुण हैं। ये श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। सम्पूर्ण मुनिधर्म इन अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध होता है। इनमें न्यूनाधिकता रहने पर साधक को श्रमणधर्म से च्यत माना गया जाता है। मूलाचार का अन्तिम अधिकार है पर्याप्ति। इसमें पर्याप्ति आदि करणानुयोग के उन जैन सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है, जो आ.वट्टकेर को यह ज्ञान अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था।
___ इस तरह आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार के माध्यम से मात्र सम्पूर्ण श्रमण परम्परा को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीयता को वह आचार-संहिता प्रदान कर महनीय योगदान किया है, जिसके कारण यह भारत देश सदा ही गौरवान्वित होता रहेगा। ९. स्वामी कार्तिकेय
_ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' नाम से प्रसिद्ध 'बारस-अणुवेक्खाओ' (द्वादशानुप्रेक्षा) के कर्ता स्वामी कार्तिकेय या स्वामी कुमार दूसरी शती के आचार्य हैं। इनका जीवनवृत्त भी स्पष्ट रूप में प्राप्त नहीं होता। ये बाल ब्रम्हचारी थे और इन्होंने कुमारावस्था में ही मुनि दीक्षा धारण की थी। इसीलिए इन्होंने अपने ग्रन्थ के अन्त में वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर-इन कुमारकाल में ही दीक्षित और मुक्ति को प्राप्त होने वाले पाँच तीर्थकरों के प्रति विशेष अनुराग वश इनका स्तवन, गुणानुवाद और इनकी विशेष वंदना की है। कुछ उल्लेखों के अनुसार ये अग्नि नामक राजा के पुत्र थे। इनकी बहन का विवाह रोहेडनगर के राजा क्रौंच के साथ हुआ था। किसी बात पर क्रौंच राजा स्वामीकुमार से नाराज हो गये और उसने कार्तिकेय पर दारुण उपसर्ग किये, जिसे ये समता पूर्वक सहन करते रहे और अन्त में रत्नत्रय पूर्वक देवलोक प्राप्त किया।
- ४९१ गाथाओं में निबद्ध 'बारस अणुवेक्खा' उनकी एकमात्र कृति है। इसका प्रारम्भिक मंगलाचरण इस प्रकार है
तिहुवण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवणिंद-परिपुज्जं । वोच्छं अणुपेहाओ भविय-जणाणंद-जणणीओ ।।१।।
१. तिहुवण-पहाण सामि कुमार-कालेवि तविय तव-चरणं।
वसुपुज्ज-सुयं मल्लिं चरम-तियं संथुवे णिच्चं ।।४८९।। २. भगवती आराधना मूलाराधना दर्पण टीका गाथा१५४९. पृ.१४४३ ३. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग २ पृ. १३६से उद्धृत. ४. कुछ संस्करणों में ४८९ गाथायें भी हैं।
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