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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
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इनकी कृतियों की इस भाषा को जैन शौरसेनी कहा है, किन्तु यह पहले ही कहा जा चुका है कि वास्तव में यह शौरसेनी की एक प्रवृत्ति मात्र है। अत: इसे मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही माना जाना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों ने भी इनकी परम्पराओं को आगे बढ़ाते हुए इसी भाषा में साहित्य सृजन किया।
__ इस सन्दर्भ में यशस्वी विद्वान् पं. बलभद्र जैन का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है कि 'हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्त और आध्यात्म के ही मर्मज्ञ विद्वान नहीं थे, अपितु वे भाषाशास्त्र के भी अधिकारी
और प्रवर्तक विद्वान् थे। उन्होंने अपनी प्रौढ़ रचनाओं द्वारा प्राकृत को नये आयाम दिये, उन्होंने उसका संस्कार किया, उसे संवारा और नया रूप दिया। इसलिए वे जैन शौरसेनी के आद्य कवि और रचनाकार माने जाते हैं।'' श्रुतपरम्परा के संरक्षक और पाहुड साहित्य के अनुपम स्रष्टाः
यद्यपि श्रुत-विच्छेदके बाद और कुन्दकुन्द से पूर्व श्रुतरक्षा के लिए प्रयत्न तो बहुत होते रहे, किन्तु मान्यताओं के आधार पर जो मतभेद उत्पन्न हो गये थे उनका साधिकार लिखने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया। यह कार्य आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ऊपर लिया। अतः युग प्रतिष्ठापक होने का श्रेय कुन्दकुन्दको प्राप्त होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि उस समय और बाद की परम्परा ने आचार्य कुन्दकुन्दको यह स्थान और महत्त्व दिया जो अन्य को प्राप्त नहीं हुआ। क्योंकि युगप्रतिष्ठापक होने के नाते कुन्दकुन्दकी महत्ता निरन्तर बढ़ती ही गई और इसीलिए कुन्दकुन्दके मूलसंघका दूसरा नाम ही कुन्दकुन्दान्वय प्रसिद्ध हो गया। ____ आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ पाहुड कहे जाते हैं। पाहुड अर्थात् प्राभृत जिसका अर्थ हैं भेंट। टीकाकार आचार्य जयसेन ने समयसार की तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई सारभूत वस्तु ले जाकर राजा को देता है, तो उसे प्राभृत या भेंट कहते हैं उसी प्रकार परमात्मा के आराधक पुरुष के लिए निर्दोष परमात्मा रूपी राजा का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी प्राभृत (भेंट) है।
इस तरह तीर्थंकरों के उपदेश रूप द्वादशांग वाणी से सम्बद्ध ज्ञानसमूहरूप ग्रन्थों को हम पाहुड कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रायः सभी ग्रन्थों
१. समयसारः मुत्रुडि: पृ. १० सं.पं. बलभद्र जैन. कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली. २. आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसारः ले.डॉ. लालबहादुर शास्त्री.....पृ.२२. ३. समयसार तात्पर्य वृत्ति: गाथा १.
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