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श्रमणविद्या-३
तरह जब हम 'अर्धमागधी आगम परम्परा' की बात करते हैं, तब इसका तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा को सन्दर्भित करने से होता है।
यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर–दोनों ही परम्पराओं के सहस्रों महान् जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, तमिल, कन्नड, मराठी, गुजराती आदि प्राय: सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं में धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आचार, काव्य, नाटक, पुराण, अलंकारशास्त्र, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, कला, संस्कृति एवं समाज आदि अनेक विषयों में विपुल साहित्य का प्रणयन किया है, किन्तु प्रस्तुत निबंध का विषय मात्र शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध जैन साहित्य के प्रमुख आचार्यों के योगदान का ही विवेचन अभीष्ट है।
___ दिगम्बर जैन परम्परा के प्रमुख आचार्यों द्वारा प्रणीत प्राकृत वाङ्मय को भाषायी आधार पर प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध माना जाता है। जर्मन विद्वान् रिचर्ड पिशल ने इसे 'जैन शौरसेनी' नाम से अभिहित किया। प्राकृत के कुछ भारतीय विद्वानों ने भी इसे प्राय: 'जैन शौरसेनी' कहा है, किन्तु किसी भी भाषा की मात्र कुछ प्रवृत्तियों में अन्तर से उन भाषाओं का अपना अलग अस्तित्व मान लेना मूलभाषा से उन्हें काट देना होगा। वैसे भी क्षेत्र या विधा विशेष के कारण मूल भाषाओं में थोड़ा-बहुत अन्तर पाया जाना स्वाभाविक ही है, अत: जैन शौरसेनी इस नाम की भाषा की पहचान आवश्यक नहीं है, क्योंकि यह भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत भाषा ही हैं। आचार्यों एवं उनके साहित्यिक अवदान को जानने से पूर्व उस भाषा से भी परिचित होना आवश्यक है, जिसके अवदान का मूल्यांकन किया जा रहा है, अतः प्रस्तुत हैप्राकृत भाषा की महत्ता
__प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम उन भाषाओं में से प्रमुख भाषा है, जिसे राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित अधिकांश भारतीय भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। यह वह भाषा है, जिसके विपुल वाङ्मय में जीवन की समस्त भावनायें व्यंजित हुई हैं। भारतीय शिक्षा, कला, संस्कृति, सभ्यता, समाज, लोकजीवन, धर्म, नैतिकता एवं अध्यात्म आदि तत्त्वों का यथार्थज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राकृत साहित्य का अध्ययन बहुत आवश्यक है। वस्तुत: जनभाषा के रूप में प्राकृत भाषायें इस देश में आदिकाल से ही प्रचलित रही हैं।
आठवीं शताब्दी के विद्वान् वाक्पतिराज ने 'गउडवहो' नामक अपने प्राकृत महाकाव्य में प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इस जनभाषा से ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। यथा
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