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श्रमणविद्या-३
वस्तुत: आचारांग आदि बारह अंग आगमों में 'दृष्टिवाद' नामक बारहवां अंग आगम अति विस्तीर्ण था। इसके अन्तर्गत पूर्वगत अर्थात् चौदहपूर्वो में 'ज्ञानप्रवाद' नामक पांचवें पूर्व में दसवीं वस्तु के अंतर्गत ‘पाहुड' के बीस अर्थाधिकारों में तीसरे पाहुड का नाम 'पेज्जदोस पाहुड' रहा है। वह भी बहुत विशाल था, जिसे साररूप में आचार्य गुणधर ने मात्र २३३ गाथाओं में प्रस्तुत महनीय ग्रन्थ को 'गाथासूत्र' नामक प्राचीन शैली में निबद्ध किया।
कसायपाहड की टीका प्रसिद्ध जयधवला में कहा भी है कि जिनका हृदय प्रवचन वात्सल्य से भरा हुआ है, उन आचार्य गुणधर' ने सोलह हजार पद प्रमाण पेज्जदोस पाहुड के विच्छेद हो जाने के भय से एक सौ अस्सी गाथाओं द्वारा इस ग्रन्थ का उपसंहार किया। (गंथवोच्छेद भएण पवयणवच्छलपरवसीकय-हियएण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्स पमाणं होतं असीदिसद मेत्त-गाहाहि उवधारिदं) इस कथन से सिद्ध है कि आचार्य गुणधर ज्ञानप्रवाद नामक पंचमपूर्व की दसम वस्तु रूप 'पेज्जदोसपाहुड' के विशेष पारगामी एवं वाचक आचार्य थे। वहाँ यह बतलाना आवश्यक भी है कि कसायपाहुड का दूसरा नाम भी 'पेज्जदोस पाहुड' है, जिसका उल्लेख भी किया जा चुका है। अत: प्रसंगानुसार 'पेज्ज' का अर्थ 'राग' तथा दोस का अर्थ है 'द्वेष' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों की ‘राग-द्वेष' रूप परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश रूप बंध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन, विश्लेषण ही प्रस्तुत ग्रन्थ का वर्ण्य विषय होने से इस ग्रन्थ के नाम की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है।
इस आगम रूप सिद्धान्त ग्रन्थ की एक सौ अस्सी गाथाओं तथा आचार्य यतिवृषभ की ५३ चूर्णि गाथाओं सहित २३३ गाथाओं के रचयिता आचार्य गुणधर ही माने जाते हैं। इन गाहासुत्तों को अनन्त अर्थ से गर्भित कहा गया है। (एदाओ अणंतत्थगब्भियाओ) इसीलिए इनके स्पष्टीकरण हेतु महाकम्मपयडि
१. दृष्टिवाद के पांच भेद हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। २. चौदह पूर्व इस प्रकार हैं- उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद,
ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद,
कल्याणप्रवाद, प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। ३. जयधवला- भाग१-पृष्ठ८७। ४. गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि।
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि।। क. पा.२ ५. जयधवला भाग१-पृष्ठ १८३
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