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श्रमणविद्या-३
की ऐसी शक्ति समाहित है, जिससे आबाल-वृद्ध सभी के लिए ग्राह्य है। श्रीमद्भागवत् में संसारताप से संतप्त प्राणी के लिए कथा को संजीवनी बूटी कहा है।
प्राकृत कथा-साहित्य की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के रूप में यद्यपि संस्कृत साहित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता। क्योंकि वेदों से लेकर ब्राह्मण, उपनिषद्, महाभारत आदि के प्रंसगो, संवादों व व्याख्याओं आदि में अनेक ऐसी कथासंयोजनाएँ प्राप्त होती हैं जो भले ही आज के कथासाहित्य के स्वरूप की तुलना में स्वतन्त्र व भिन्न हो। किन्तु उन्हें कथा, कहानी, उपाख्यान, आख्यान आदि किसी न किसी रूप में परिगणित किया ही जायेगा। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार यह प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, सरमा और पणिगण जैसे लाक्षणिक संवादों ब्राह्मणों के सौपर्णीकाद्रव जैसे रूपात्मक आख्यानों, उपनिषदों के सनत्कुमार-नारद जैसे ब्रह्मर्षियों की भावमूलक आध्यामिक व्याख्याओं एवं महाभारत के गंगावतरण, शृङ्ग, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल आदि जैसे उपाख्यानों में उपलब्ध होता हैं।
प्राकृत कथासाहित्य के बीज रूप मूलस्रोत के निम्न तीन बिन्दु
मुख्य हैं
१. आगम साहित्य; २. व्याख्यान साहित्य; ३. लोक जीवन।
१. जैन आगम-साहित्य यद्यपि धार्मिक आचार, सिद्धान्त निरूपण, आध्यात्मिक तत्त्व-चिन्तन, नीति, कर्तव्य परायण जैसे विषयों को विवेचित करता है। किन्तु ये सभी विषय कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किए गए हैं। सिद्धान्तों के गूढ़तम रहस्यों तथा गम्भीर विषयों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए कथाओं का आलम्बन लेकर जन-मानव के अन्तस् तक पहुँचा जा सकता हैं। क्योंकि कथा के माध्यम से किए गए सिद्धान्त या विषय के विवेचन को पाठक, श्रोता या जनसामान्य यथाशीघ्र ग्रहण कर लेता है। यही कारण है कि हमारे तीर्थंकरों गणधरों एवं अन्यान्य आचार्यों ने कथाओं का आधार ग्रहण किया और उसे
१. तव कथामृतं तप्तजीवनं, कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमंगल श्रामदाततं भुविगृह्णन्ति ते भूरिदा जनाः ।। श्रीमद् भागवत् १०।३१।९ . २. शास्त्री नेमिचन्द- हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलान, वैशाली,
१९६५, पृ.१
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