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श्रमणविद्या-३
लोकमानव की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रहना आवश्यक है। यही कारण है कि कथाओं में लोक-जीवन और वहाँ की संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब पड़ता है। कथाएँ लोक-चित्त से सीधे उत्पन्न होकर सर्वसाधारण को
आन्दोलित, चालित और प्रभावित करती हैं, क्योंकि कथाकार जो कहता-सुनता है, उसे लोक-जीवन की वाणी बनाकर और उसमें घुल-मिलकर ही कहतासुनता हैं। वह कथा के विषय का चुनाव भी लोक-जीवन के किसी विशेष पक्ष से करता है। अत: जनमानस के जीवन के चित्रण में ही लोक धर्म का चित्रण होता है, जो प्राकृत कथा-साहित्य का मूलस्रोत कहा जा सकता है।
प्राकृत-कथा साहित्य के बीज रूप उक्त तीनों मूलस्रोतों में यह अवश्य है कि लिखित रूप में आगम-साहित्य ही प्रथम आधार है, किन्तु लोक जीवन के प्रत्येक पक्ष, घटनाएँ, प्रसंग आदि भी श्रमणों को सहजता से कथा के आधार मिलते रहे, जिनके प्रयोगों से जनमानस भलीभांति परिचित और प्रभावित हो जाते थे।
स्वरूप एवं भेद :
कथा या कहानी कवि के चित्त से उद्भूत अपनी सुनियोजित भावनाओं की अभिव्यक्ति है। चाहे कथा हो अथवा काव्य, दोनों की उत्पत्ति उपमान, रूपक और प्रतीकों द्वारा होती है। सिद्धान्तों अथवा तत्त्वों को इन तीनों की कसौटी पर कसकर जब उद्धरण सहित प्रस्तुत किया जाता है तब वे कथा का रूप ले लेते हैं। कथा के माध्यम से जिन उद्धरणों का प्रयोग रचनाकार करता है वे उपमान, रूपक या प्रतीक की त्रयी से सम्बन्धित होते हैं। इसीलिए अमरकोशकार ने “प्रबन्धकल्पना कथा'' कहकर स्पष्ट किया है कि प्रबन्ध कल्पना को कथा कहा गया है। अर्थात् वह रचना जिसमें कवि की अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से कथा की संयोजना की गई हो। यद्यपि ऐतिहासिक या पौराणिक विषय होने पर भी कथा की चेतना में अपनी कल्पना-शक्ति का विस्तार बखूबी किया जाये तथा अभिप्रायविशेष से युक्त शब्दों के प्रयोग द्वारा कथा में रोचकता या मनोरंजकता को बढ़ाने वाली रचना कथा कही जाती है।
यह स्पष्ट है कि कथा-साहित्य में मानव के वैयक्तिक जीवन व सामाजिक . पक्ष को बाह्य एवं आभ्यन्तर क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के विवेचन के माध्यम से
प्रस्तुत किया जाता है। विवेचित समस्त क्रियाओं का सम्बन्ध जिन बिन्दुओं से
- १. अमरकोश, १।५।६
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