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जैनश्रमण परम्परा और अनेकान्त दर्शन
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अनेकान्त के दो रूप हैं नय और प्रमाण। द्रव्य के एक पर्याय को जानने वाली दृष्टि नय है और अनन्त विरोधी युगलात्मक समग्र द्रव्य को जानने वाली दृष्टि प्रमाण है। चूंकि जैनदर्शन ने वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक माना है इस कारण उसने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है। अभेद की दृष्टि से द्रव्य की प्रधानता होती है और भेद दृष्टि में पर्याय की प्रधानता होती है। द्रव्य और पर्याय का अनन्यभूत सम्बन्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है
पज्जय विजुदं दव्वं दव्यविजुत्ता य पज्जया णस्थि । दोण्हं अषाणभूदं भावं समणो परूविंति ।।
अर्थात् पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं है। दोनों अनन्यभूत हैं ऐसा श्रमण प्ररूपित करते हैं। जहाँ वेदान्त दर्शन में यह प्रतिपादित किया गया कि ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है वहाँ जैनदर्शन ने दोनों को सत्य स्वीकार किया। अभेद भी सत्य है और भेद भी सत्य है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय जब परस्पर में सापेक्ष रहते हैं तभी सम्यक् नय कहलाते हैं। यदि द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा न करके स्वतन्त्र रूप से द्रव्य को विषय करता है अथवा पर्याय का निराकरण करता है तो वह मिथ्या नय है। इसी प्रकार यदि पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा न करके स्वतन्त्र रूप से पर्याय को विषय करता है अथवा द्रव्य का निराकरण करता है तो वह मिथ्या नय है अत: नयों का परस्पर सापेक्ष होना आवश्यक है। आ. समन्तभद्र ने कहा है 'निरपेक्षा नयो मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत।
स्वयम्भूस्तोत्र में अनेकान्त भी प्रमाण और नयरूप साधनों की अपेक्षा से अनेकान्त रूप कहा गया है। वह प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त रूप है और विवक्षित नय की अपेक्षा एकान्तरूप है। अनेकान्त भी सर्वथा अनेकान्त रूप नहीं है किन्तु कथंचित् अनेकान्तरूप और कथंचित् एकान्तरूप है। जब वक्ता वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी विवक्षित नय की दृष्टि से किसी एक धर्म का प्रतिपादन करता है तब वही अनेकान्त एकान्त रूप हो जाता है किन्तु अन्य धर्म सापेक्ष
१. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं
तदेवानित्यम् इत्येकवस्तु वस्तुत्व निष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः ।
समयसार (आत्मख्याति १०।२४७)। २. पञ्चास्तिकाय गाथा,
३. आप्तमीमांसा
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