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जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत
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इस प्रकार योगशक्ति की हीनाधिकता पर ही कर्मपरमाणुओं की हीनाधिकता अवलम्बित है।
निष्कर्षः-उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय-ये पांच कर्मबन्ध के कारण होते हैं। इन भाव कर्मों के निमित्त से ही ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का आगमन होता रहता है। जीव की प्रत्येक क्रिया में ये कर्म छिपे होते हैं, इसी कारण पूर्व-कर्म फलोन्मुख होकर जीव से पृथक् हो जाते हैं। कर्म प्रकृति-संबंधी एकत्र परिगणन तालिका : कुल प्रकृतियाँ- १४८
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ज्ञानावरणी५ _
दर्शनावरणी९ ज्ञानावरणी-५ १. मतिज्ञानावरणी २. श्रुतज्ञानावरणी ३. अवधिज्ञानावरणी ४. मन: पर्यायज्ञानावरणी ५. केवल ज्ञानावरणी
वेदनीय२ | आयु४ । गोत्र२ । मोहनीय२८
नाम९३
अन्तराय दर्शनावरणी-९
वेदनीय-२
मोहनीय-२८ १. चक्षु दर्शनावरणी १.साता २. अचक्षु दर्शनावरणी
२.असाता ३. अवधि दर्शनावरणी ४. केवल दर्शनावरणी चारित्रमोह
दर्शनमोह ५. निद्रा दर्शनावरणी ६. निद्रा निद्रा
१. मिथ्यात्व ७. प्रचला कषाय१६
नोकषाय९ २. सम्यग्मि८. प्रचला प्रचला १. क्रोध चतुष्क १. हास्य थ्यात्व ९. स्त्यानगृद्धि २. मान चतुष्क २. रति ३. सम्यक
३. माया चतुष्क ३. अरति प्रकृति ४. लोभ चतुष्क ४. शोक मिथ्यात्व
५. भय ६. जुगुप्सा ७. स्त्रीवेद ८. पुरुषवेद
९. नपुंसकवेद नाम-९२
अन्तराय-५ १. उच्च
१. दानान्तराय २. नीच
२. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय ५. वीर्यान्तराय
गोत्र-२
आयु-४ १. नरक २. तिर्यंच ३. मनुष्य ४. देव
६५
१०
१०
पिण्डप्रकृतियाँ
त्रसदशक
स्थावर दशक
प्रत्येक प्रकृतियाँ (इनका नाम निर्देशन नाम कर्म में किया गया है)
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