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जैनदर्शन का व्यावहारिक पक्ष
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उपर्युक्त पाँच नियमों के पालन के साथ-साथ एक बात और। हम अपने जीवन में जीव मात्र के प्रति मैत्री स्थापित करें। अपने से अधिक गुणवान् व्यक्ति को देखकर उसका आदर-सम्मान कर हर्ष का अनुभव करें। कष्ट में पड़े जीवों के प्रति कृपाभाव बनाये रखें और जो व्यक्ति हित की बात न सुनता हो तो उसके प्रति माध्यस्थभाव को धारण करें। क्योंकि उसके प्रति हमने अपना कर्तव्य निभाने का पूरा-पूरा प्रयास किया है और कोई यदि उसे स्वीकार न करे तो उसमें संकल्प-विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है।
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ! ।।
इस प्रकार यदि हम अपने जीवन में उपर्युक्त पाँच सिद्धान्तों का पालन कर सकें और अन्त में कही गई चार भावनाओं अथवा बौद्धदर्शन की शब्दावली में चार ब्रह्मविहारों अथवा योगदर्शन के अनुसार चित्त-प्रसाधन के चार कारणों पर अमल कर सकें तो हमारा व्यावहारिक जीवन सफलता के सोपानों का स्पर्श कर सकेगा और हम अपने जीवन को उन्नत बना सकेंगे।
ये गुण आप सब में भी आयें और आप भी उन ऊँचाइयों का स्पर्श कर सकें। इसी भावना के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ।
स्याद्वादो विद्यते यत्र,
पक्षपातो न विद्यते । अहिंसायाः प्रधानत्वं
जैनधर्मः स उच्यते ।।
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